पुष्पा की कहानी


पुष्पा, ओझा गौंड आदिवासी समाज से हैं। इसके पिताजी लगभग 35 वर्ष पहले काम-घंधे की तलाष में भोपाल आए थे। भोपाल में रहने की जगह और भीषण वंचित स्थिति के चलते चेतक ब्रिज के समीप एक प्लाॅट में झोपड़ी (6 गुणा 8 फीट) बनाकर रहने लगे। आज इस 55 गुणा 55 की जगह में इनके परिवार के साथ 33 अन्य परिवार जिनमें 210 लोग हैं रहते हैं। बिजली नहीं है, पीने के लिये पानी कुल जमा 1 नल है जिससें 2 घंटे प्रतिदिन पानी मिलता है और 34 घरों के लोग इस पर निर्भर हैं। पुष्पा समेत उसके परिवार के अन्य लोग कचरा चुनना, सामान ढोना और मांगकर खाकर अपनी जिंदगी बिताते हैं।

                                                                      फैज़


‘‘ले खाले भिया ’’, कां से लाई ये समोसा ? मंग के - मंदीर से। इसको भी तो दे। ये नी खाएगा ! दे तो, खा लेगा। ये भैया है, अब ये भी आएगा यहां ...
                                                                                                                        6 अक्टूबर 2003  

भिया, कब आया ? भोत दिन हो गए। तेरी ओरत कां है तेरा बच्चा ? कैसी है तू ? कहां रह रही है ? ये कौन है ? छोरी भिया के पेर पड़। भिया ये मेरी छोरी है। इसको भी मांगना गया ? ये डेढ़ दो साल की है, या बड़ी है ?  ................
                                                                                                                        सितेम्बर 2012

पुष्पा 13-14 साल की होगी जब मैं पहली बार गौतम नगर बस्ती गया। गहरा काला रंग, बिखरे हुए बाल, थोड़ी बहती सी नाक और मिट्टी किचड़ से सने हुए कपड़े पहन कर सौरभ को पहली बार समोसा आफॅर किया। यह सब मेरे लिये विस्मयकारी था और अटपटा भी, क्योंकि मैं तो पहली बार किसी भीषण वंचित बस्ती में किसी तथाकथित गंदे बच्चे से इतनी पास से मिला था। इस दिन से लगातार 5 साल याने मई 2008 तक इस बस्ती में मैने बच्चों के साथ प्रतिदिन औसतन 5 घंटे कार्यालयीन समय बिताया। इस समय में बच्चों (2.5 साल से 18 साल) के साथ सीखना सिखाना (शिक्षण ), इनके पालकों और बस्ती के दूसरे लोगों के साथ स्वास्थ्य, बचत तथा जीविकोपार्जन जैसे पहलुओं पर चर्चा और काम किया। जब एक लम्बे समयान्तराल के बाद याने लगभग 4 साल बाद में फिर बस्ती पहुंचा और पुष्पा की बेटी और पुष्पा से मेरी मुलाकात हुई तब अधिक आष्चर्य और अफसोस हुआ। वही पुष्पा जो स्कूल जाने लगी थी, बचत करने लगी थी, दुनिया को देखने के नज़रिये को विकसित कर रही थी, लगभग 10 साल बाद भी वहीं है जहां से मैने या मेरे साथियों ने शुरू किया था।

एक बच्चे के अनुभव का सामान्यीकरण, सैद्धांतिक रूप से स्वीकार्य नहीं होगा, इसे मानते हुए भी मुझे लगता है कि कमोबेष स्थिती लगभग इसके आस पास ही होगी जिसे सामान्यीकृत सिद्धांत के रूप में बदला जा सकेगा। एक सिद्धांत यह बताता है कि किसी व्यक्ति के जीवन को वह स्वयं उतना प्रभावित नहीं करता जितना कि उसका परिवेष और परिस्थितियां प्रभावित करते हैं। पुष्पा का अनुभव भी यही बताता है क्योंकि पुष्पा के साथ काम करने वाला मैं स्वयं ही नहीं  अपितु संस्था के अन्य व्यक्ति, शासन-प्रषासन, समुदाय, समाज इत्यादि प्रत्यक्ष/अप्रत्यक्ष रूप से इसे प्रभावित कर रहे थे।

मेरा प्रष्न है कि इतने प्रयासों और समय के बीत जाने के बाद भी स्थितियां जस की तस क्यों है ? प्रचलित कुतर्कों के अनुसार पुष्पा ही इन परिस्थितियों की जिम्मेदार है ? क्या पुष्पा या उसके जैसे अन्य बच्चे भी इसी दुष्चक्र में पीढि़यों तक फसे रहेंगे ? इसके अतिरिक्त भी किन्हीं अन्य प्रयासों की ज़रूरत थी जो संस्था, सरकार, समाज, समुदाय या परिवार नहीं कर पाया ?


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