सर सैय्यद डेः जुबानी जमाखर्च से काम नहीं चलेगा


-डाॅ. असगर अली इंजीनियर



सर सैय्यद अहमद खान 17 अक्टूबर को जन्मे थे और हर साल इस दिन अलीगढ़ मुस्लिम विष्वविद्यालय के पूर्व छात्र उनकी जयंती काफी धूमधाम से मनाते हैं। इस अवसर पर भोज का आयोजन भी किया जाता है। इस साल भी अलीगढ़ मुस्लिम विष्वविद्यालय पूर्व छात्र संगठन की महाराष्ट्र इकाई ने 17 अक्टूबर को मुंबई में सर सैय्यद डे का आयोजन किया। इस कार्यक्रम के मुख्य अतिथि थे वरिष्ठ पत्रकार श्री कुलदीप नैय्यर। इन पक्तियों का लेखक, तीस्ता सीतलवाड और महाराष्ट्र विधानसभा के सदस्य अमीन पटेल को इस कार्यक्रम में  विषिष्ट अतिथि के तौर पर आमंत्रित किया गया था।

कार्यक्रम में किसने क्या कहा, इसकी चर्चा करने की बजाए, मैं सर सैय्यद अहमद के जीवन, उनके कार्यों और भारतीय उपमहाद्वीप के मुसलमानों पर उनके प्रभाव की चर्चा करना चाहूंगा। मैं उन लोगों की भावनाएं समझ सकता हूं जिन्होंने एएमयू में शिक्षा  ग्रहण की और वहां अर्जित ज्ञान के बल पर आज सफल जीवन बिता रहे हैं। यह महत्वपूर्ण  नहीं है कि वे हर वर्ष सर सैय्यद अहमद डे मनाते हैं, एक-दूसरे से मुलाकात करते हैं, साथ खाना खाते हैं और अपनी-अपनी जिन्दगियों में लौट जाते हैं।

महत्वपूर्ण यह है कि आज भारतीय उपमहादीप  में मुसलमानों की स्थिति क्या है और आज का मुस्लिम समाज सर सैय्यद के प्रति किस तरह ऋणी है। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि सर सैय्यद डे के कुछ दिन पूर्व ही, तहरीक-ए-तालिबान-पाकिस्तान, जिसके नेता मौलाना फजलुल्ला हैं, के कार्यकर्ताओं ने उत्तर-पष्चिम सीमांत प्रांत में 14 वर्षीय मलाला पर मात्र इसलिए कातिलाना हमला किया क्योंकि वह लड़कियों की शिक्षा की हिमायत कर रही थी। 

इससे ही स्पष्ट होता है कि सर सैय्यद के जन्म के 150 साल बाद भी ऐसे मुसलमान हैं जो आधुनिक, धर्मनिरपेक्ष षिक्षा से उतनी ही घृणा करते हैं जितनी कि 19वीं सदी में की जाती थी। आधुनिक  शिक्षा के खिलाफ तालिबान ही नहीं है। कई अशिक्षित , पिछड़े और गरीब मुसलमान भी आधुनिक, धर्मनिरपेक्ष  शिक्षा े विरोधी हैं। आज भी हमारे उलेमा अरब देषों से करोड़ों रूपये की इमदाद पाते हैं और उसका इस्तेमाल एक से एक भव्य मदरसे बनाने में करते हैं। परंतु आधुनिक षिक्षा को प्रोत्साहित करने में उनकी कोई रूचि नहीं है। 

जब सर सैय्यद ने अलीगढ़ में आधुनिक शिक्षा देने के लिए कालेज की स्थापना की थी तब भी उलेमा ने उनका जीजान से विरोध किया था। उन्होंने मक्का से इस आषय का फतवा भी हासिल कर लिया था कि सर सैय्यद काफिर, ईसाई या यहूदी हैं। परंतु सर सैय्यद ने हार नहीं मानी क्योंकि वे मुसलमानों के लिए आधुनिक  शिक्षा  की  उपयोगिता के संबंध में पूरी तरह आष्वस्त थे। वे अपने लड़के के साथ आक्सफोर्ड भी गए ताकि वहां की शिक्षण पद्धति  का अध्ययन कर उसे अपने संस्थान में लागू कर सकें। केवल सर सैय्यद डे मनाने से काम नहीं चलने वाला है। हमें सर सैय्यद का जज्बा, उनकी प्रतिबद्धता और उनकी मिषनरी भावना को भी अपनाना होगा। 

आज हमारे उलेमा खुलकर न तो सर सैय्यद का विरोध करते हैं और न ही आधुनिक  शिक्षा ा। परंतु वे मुसलमानों में आधुनिक शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए भी कुछ नहीं करते और पेट्रो डालरों से मदरसों का विस्तार करने में अपनी पूरी ऊर्जा खर्च करते हैं। अगर इसी धन का इस्तेमाल आधुनिक शिक्षण संस्थाएं स्थापित करने के लिए किया गया होता तो आज भारतीय उपमहादीप में मुसलमानों की स्थिति कुछ और ही होती। इस मामले में हमें ईसाई मिशनरियों से प्रेरणा लेनी चाहिए। उनके शिक्षण  संस्थान पाकिस्तान में भी सर्वश्रेष्ठ समझे जाते हैं और लोग अपने बच्चों को उनमें पढ़ाने के लिए लालयित रहते हैं। दूसरी ओर हैं हमारे उलेमा जो कि मदरसों के आधुनिकीकरण का भी विरोध करते हैं क्योंकि उन्हें डर है कि इससे मुस्लिम समाज उनके चंगुल से निकल जाएगा। वे इस काम के लिए सरकार से भी धन लेने को तैयार नहीं हैं। 

जिस तरह अलीगढ़ ने मुसलमानों में  शिक्षा ा प्रसार करने में अहम भूमिका निभाई, उसी तरह की भूमिका उस संस्थान के पूर्व  विद्यार्थी भी निभा सकते हैं परंतु वे ऐसा नहीं करते। सर सैय्यद डे मनाना मात्र एक औपचारिकता रह गई है। इस संस्थान के वे पूर्व छात्र, जो आज अपने जीवन में सफल हैं और पर्याप्त धनोपार्जन कर रहे हैं, सर सैय्यद अहमद की तरह, मुसलमानों में आधुनिक  शिक्षा फैलाने को अपने जीवन का मिशन बना सकते हैं। उन्हें ऐसा इसलिए भी करना चाहिए क्योंकि अगर वे अपने जीवन में  सफल हैं तो उसका कारण वह आधुनिक शिक्षा है जो उन्हें अलीगढ़ मुस्लिम विष्वविद्यालय में प्राप्त हुई है। 

सर सैय्यद डे को मात्र एक औपचारिक आयोजन नहीं बनाया जाना चाहिए, जैसा कि वर्तमान में हो रहा है। सर सैय्यद डे एक ऐसा दिन होना चाहिए जो प्रेरणा का स्त्रोत हो और जिस दिन लोग साम्प्रदायिक सद्भाव, आधुनिक  शिक्षा र मुस्लिम समुदाय के उन्नयन के प्रति स्वयं को पुनःसमर्पित करें, जैसा कि सर सैय्यद ने किया था। यह महत्वपूर्ण है कि सर सैय्यद ने हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच सद्भाव कायम करने के लिए भी बहुत कुछ किया। यह भी उनके मिशन का हिस्सा था। उन्होंने कहा था कि हिन्दू और मुसलमान एक सुंदर दुल्हन की दो आंखों की तरह हैं और यह भी कि भौगोलिक दृष्टि से मुसलमान भी हिन्दू हैं। हिन्दुओं और मुसलमानों की एक सभा को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा था, ‘‘क्या आप सब इसी धरती पर नहीं जन्में हैं? क्या आप सबका अंतिम संस्कार यहीं नहीं होगा? हम सब इसी धरती के पुत्र हैं‘‘।

यह विडंबनापूर्ण है कि कुछ अध्येता सर सैय्यद को अलगाववादी सिद्ध करने पर आमादा हैं। वे उन्हें अलग पाकिस्तान के निर्माण के विचार का प्रणेता बताते हैं। ये अज्ञानी यह नहीं जानते कि जिन्ना के दिमाग तक में सन् 1930 के दशक के अंत तक, पािकस्तान के निर्माण का विचार नहीं आया था और इस दषक के मध्य में, मुस्लिम लीग के एक अधिवेषन में उन्होंने रहमत अली के समर्थकों को इस बात के लिए मजबूर किया था कि वे पाकिस्तान के निर्माण की मांग करने वाले अपने प्रस्ताव को वापिस लें। जिन्ना तो 1946 तक पाकिस्तान के निर्माण की मांग का इस्तेमाल केवल दबाव बनाने के हथियार बतौर करते रहे। पाकिस्तान यदि बना तो इसका कारण केवल यह नहीं था कि जिन्ना ने इसकी मांग की थी बल्कि इसके लिए कई कांग्रेस नेताओं की गल्तियां भी जिम्मेदार थीं, जैसा कि मौलाना अबुल कलाम आजाद ने अपनी आत्मकथा ‘इंडिया विन्स फ्रीडम‘ में  लिखा है। 

परंतु यहां इस मुद्दे पर चर्चा हमारा उद्धेष्य नहीं है। मुझे यह स्वीकार करने में कोई हिचकिचाहट नहीं है कि सर सैय्यद की भी कुछ सीमाएं थीं। यह बात मैंने कार्यक्रम में अपने भाषण में भी कही थी। सर सैय्यद, ‘अशरफ‘ थे और उनकी सोच पर उनकी सामाजिक पृष्ठभूमि हावी थी। उन्होंने मुस्लिम शासक वर्ग को बर्बाद होते देखा था और वे चाहते थे कि यह वर्ग अतीत में जीने और छाती पीटने की बजाए नए युग के अनुरूप स्वयं को ढ़ाले। उनका मानना था कि इस वर्ग को आधुनिक  शिक्षा ग्रहण करनी चाहिए ताकि उसके सदस्य सरकार में महत्वपूर्ण पदों पर पहुंच सकें। आधुनिक, धर्मनिरपेक्ष  शिक्षा के बगैर, ब्रिटिष षासन व्यवस्था में स्थान पाना संभव नहीं था और इसलिए उन्होंने एंग्लो मोहम्डन ओरिएंटल कालेज की स्थापना की, जिसे सन् 1920 में ब्रिटिष संसद ने एक अधिनियम पारित कर, अलीगढ़ मुस्लिम विष्वविद्यालय का दर्जा दिया। 

परंतु जहां सर सैय्यद अश रफों के लिए आधुनिक  शिक्षा े महत्व पर जोर देते थे वहीं वे मुसलमानों के अन्य वर्गों के बारे में उतने चिंतित नहीं थे। जब मुरादाबाद के कुछ जुलाहे (अंसारी) उनसे मिलने पहुंचे और उनसे अपने बच्चों के लिए स्थापित एक स्कूल का उद्घाटन करने का अनुरोध किया तो सर सैय्यद ने उन्हें सलाह दी कि वे अपने बच्चों को स्कूल भेजकर उनका समय बर्बाद न करें वरन् उन्हें कपड़े बुनने का प्रषिक्षण दें ताकि वे पैसा कमाकर अपनी पारिवारिक आमदनी बढ़ा सकें और बेहतर जुलाहे बन सकें। 

एक तरह से देखा जाए तो सर सैय्यद की यह सलाह एकदम गलत भी नहीं थी। आज भी कई मुस्लिम बच्चे इसी तरह के कारणों से स्कूल नहीं जाते। वे पैसा कमाकर अपनी पारिवारिक आमदनी बढ़ाते हैं और अच्छे कारीगर बनते हैं। परंतु अब समय बदल गया है और आज आधुनिक  शिक्षा की आवष्यकता समाज के सभी वर्गों को है। सर सैय्यद अहमद के युग में मुसलमानों को उनकी जरूरत थी परंतु आज के मुसलमानों को एक डाक्टर अम्बेडकर की आवष्यकता है जो कि गरीब और नीची जातियों के मुसलमानों की उन्नति और उनमें  शिक्षा के प्रसार के लिए काम करे। भारत के अधिकांश  मुसलमान इन्हीं वर्गों से आते हैं। सच्चर समिति के अनुसार करीब 45 प्रतिषत मुसलमान ओबीसी हैं। परंतु यह आंकलन भी मुझे गलत लगता है। मेरा ख्याल है कि मुसलमानों में पिछड़े वर्गों का प्रतिषत 80 से 85 होगा। सन् 1947 में उत्तर भारत के अधिकांश  अश रफ पाकिस्तान चले गए और भारत में रह गए पिछड़े वर्गों के मुस्लिम। इनकी उन्नति के लिए उसी तरह के अभियान की आवष्यकता है जैसा कि डाॅक्टर अम्बेडकर ने दलितों के लिए चलाया था। उलेमा यह काम कभी नहीं  करेंगे और इसलिए अलीगढ़ के पूर्व छात्रों को आगे आना चाहिए और सर सैय्यद के मिषन को पूरा करना चाहिए। 

सर सैय्यद के मिशन का एक और हिस्सा आज भी अधूरा है। सर सैय्यद आधुनिकता और परिवर्तन के जबरदस्त हामी थे। उन्होंने कुछ अन्य लोगों के साथ मिलकर ‘साईंटिफिक सोसायटी आॅफ इंडिया‘ का गठन भी किया था और विज्ञान की कई पुस्तकों का उर्दू में अनुवाद करवाया था। उन्होंने ‘तफ़्सीर‘ (कुरान पर आधुनिक टीका) लिखना भी शुरू  किया था परंतु उन्हें यह काम अधबीच में छोड़ना पड़ा क्योंकि धर्मषास्त्रियों ने उनका जमकर विरोध किया और उन्हें तफ़्सीर का लेखन बंद करने पर मजबूर कर दिया। यह पुस्तक लंबे समय तक जनता की निगाहों में नहीं आ सकी क्योंकि कोई इसे प्रकाषित करने को ही तैयार नहीं था। अंततः पटना के खुदाबख्ष पुस्तकालय ने इस अधूरी टीका को दो खण्डों में प्रकाषित किया। 

आज भी कोई मुसलमान आधुनिक ज्ञान और इसके कारण लोगों के नजरिए में आए बदलाव के प्रकाश  में कुरान की पुनव्र्याख्या करने की आवष्यकता की बात भी नहीं करता। पुरानी टीकाएं तत्कालीन समाज और ज्ञान के तत्कालीन स्तर की पृष्ठभूमि में लिखी गईं थीं। किसी को यह साहस दिखाना चाहिए कि वह सर सैय्यद की अधूरी पुस्तक को पूरा करे और इस बीच हुए परिवर्तनों के प्रकाश  में, सर सैय्यद द्वारा लिखे गए हिस्सों में  भी उपयुक्त संषोधन करे। 

सर सैय्यद ने अपनी टीका में महिला अधिकारों की भी वकालत की थी परंतु वे जिस पुरजोर तरीके से ऐसा करना चाहते थे, कई मजबूरियों के चलते न कर सके। यहां तक कि उन्हें  महिला अधिकारों के जबरदस्त समर्थक मौलवी मुमताज अली खान से यह अनुरोध करना पड़ा कि वे उनकी पुस्तक ‘हुकूके निस्वानी‘ (औरतों के हक) का प्रकाषन न करें क्योंकि सर सैय्यद को डर था कि ऐसा होने पर उनकी मुसीबतों में इजाफा ही होगा। ऐसा नहीं था कि सर सैय्यद मुस्लिम औरतों को उनके हुकूक दिलवाना नहीं चाहते थे परंतु उन्हें यह आशंका  थी कि दकियानूसी उलेमा उनका जीना हराम कर देंगे। सर सैय्यद अहमद का मानना था कि जैसे-जैसे मुसलमानों में  शिक्षा का प्रसार बढ़ेगा, उनकी सोच भी बदलेगी और विभिन्न मुद्दों पर उनकी राय में परिवर्तन आएगा।

दुर्भाग्यवश  ऐसा नहीं हुआ और आज भी मुस्लिम महिलाओं के हुकूक के लिए लम्बी लड़ाई लड़े जाने की जरूरत है। हमें सर सैय्यद के अलावा मौलाना मुमताज अली खान भी चाहिए ताकि महिलाओं को बराबरी का दर्जा मिल सके। आज भी भारतीय मुस्लिम समाज के लिए आधुनिक  शिक्षा और लैगिंक समानता का वही महत्व है जो कि सर सैय्यद के जमाने में था। एएमयू के पूर्व छात्रों को इस चुनौती को स्वीकार करना चाहिए और पूरे जोशोखरोश  से इन दोनों क्षेत्रों में काम मैं  जुट जाना चाहिए। अगर वे ऐसा करेंगे तो वे न केवल अपने समुदाय की सेवा करेंगे वरन् सर सैय्यद अहमद को सच्ची श्रद्धांजलि भी अर्पित करेंगे। केवल जुबान हिलाने से कुछ नहीं होगा। समय है कमर कसकर मैदान में कूदने का। तभी सर सैय्यद का सपना हकीकत में तब्दील हो सकेगा। 

 (लेखक मुंबई स्थित सेंटर फॉर स्टडी ऑफ़ सोसायटी एंड सेक्युलरिज्म के संयोजक हैं, जाने-माने इस्लामिक विद्वान हैं और कई दशकों से साम्प्रदायिकता व संकीर्णता के खिलाफ संघर्ष करते रहे हैं। मूल अंग्रेजी से अमरीष हरदेनिया द्वारा अनुदित) 


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