बांग्लादेश: साम्प्रदायिकता का पुनरूत्थान


 -राम पुनियानी



हमारा पड़ोसी मुल्क बांग्लादेश, इस्लामवादी जमायते इस्लामी द्वारा की जा रही हिंसा से हलकान है। इस हिंसा में अब तक 50 से अधिक लोग मारे जा चुके हैं। कई घायल हुए हैं और हिन्दू पूजास्थलों को नुकसान पहुंचाया गया है। हिंसा बांग्लादेश की सीमा को पार कर कोलकाता तक आ पहुंची है। पिछले और इस माह, मुस्लिम साम्प्रदायिक तत्वों और मायनारिटी यूथ आर्गनाईजेशन जैसे कई संगठनों के सदस्यों की भीड़ ने कोलकाता में जम कर उत्पात मचाया। यह हिंसा जमायते इस्लामी के उपाध्यक्ष दिलावर हुसैन सैय्यदी को मौत की सजा सुनाए जाने के विरोध स्वरूप हो रही है। उन्हें तत्कालीन पूर्वी व पश्चिमी पाकिस्तान के बीच, 9 माह तक चले युद्ध में सामूहिक हत्याओं, बलात्कारों व अन्य अत्याचारों के लिए दोषी ठहराया गया है।

वे जमायते इस्लामी के तीसरे ऐसे पदाधिकारी हैं जिन्हें तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान में पाकिस्तान की सेना के जुल्मों के खिलाफ सन् 1971 में लड़े गए ‘‘मुक्ति युद्ध‘‘ के दौरान अपराध करने का दोषी पाया गया है। शेख हसीना सरकार ने सन् 1971 के युद्ध अपराधों के दोषियों को सजा देने के लिए लगभग तीन वर्ष पहले ‘‘युद्ध अपराध अधिकरण‘‘ का गठन किया था और इस अधिकरण ने अब अपने निर्णय सुनाने शुरू किए हैं। बांग्लादेश में इन दिनों प्रजातंत्र में विश्वास करने वाले युवा बड़ी संख्या में, उन लोगों के खिलाफ कड़ी कार्यवाही की मांग कर रहे हैं जिनकी पाकिस्तान की सेना के साथ मिलीभगत थी। दूसरी ओर, जमात के कार्यकर्ता भी सड़कों पर उतर आए हैं और सन् 1971 के युद्ध अपराधियों को सजा दिए जाने का विरोध कर रहे हैं। भारत में भी जमायते इस्लामी ने शाहबाग आंदोलन का विरोध किया था और वह भी सन् 1971 के युद्ध अपराधियों को सजा दिए जाने के खिलाफ है। जमायते इस्लामी ने सन् 1971 में बांग्लादेश की मुक्ति वाहिनी, जिसका नेतृत्व शेख मुजीब-उर-रहमान कर रहे थे, का विरोध किया था। मुक्ति वाहिनी द्वारा शुरू किए गए स्वाधीनता संघर्ष को बांग्लादेश के अधिकांश निवासियों का समर्थन प्राप्त था। उस समय पाकिस्तानी सेना द्वारा किए गए हमलों में लगभग 30 लाख लोग मारे गए थे और बांग्लादेश की 2 लाख से अधिक महिलाओं के साथ बलात्कार हुए थे। बड़ी संख्या में पूर्वी पाकिस्तान के बुद्धिजीवियों और राजनैतिक कार्यकर्ताओं को मौत के घाट उतार दिया गया था।

भारत के विभाजन की कथा बहुत त्रासद है और आज 66 साल बाद भी, इसके घाव भरे नहीं हैं। भारत का विभाजन एक अजीब से तर्क के आधार पर किया गया था। इस्लाम के नाम पर पाकिस्तान बना दिया गया जबकि भारत को धर्मनिरपेक्ष प्रजातंत्र घोषित किया गया। इस विभाजन का घोषित उद्धेश्य था साम्प्रदायिकता की समस्या को सुलझाना। अंग्रेजों ने पूरे भारतीय उपमहाद्वीप में धर्म की राजनीति और धर्म के नाम पर हिंसा की जो विरासत छोड़ी है, वह अब भी उपमहाद्वीप के तीनों राष्ट्रों के लिए सिरदर्द बनी हुई है। 'फूट डालो और राज करो' की ब्रिटिश नीति के दो प्रमुख हिस्से थे। पहला, बढ़ते औद्योगिकरण के बाद भी सामंती तत्वों का दबदबा बरकरार रखना और दूसरा, 1906 में मुस्लिम लीग के गठन के बाद से ही लीग को भारतीय मुसलमानों के एकमात्र प्रतिनिधि के रूप में मान्यता देना। मुस्लिम लीग का गठन मुसलमानों के तत्समय अस्त हो रहे वर्ग ने किया था। इनमें शामिल थे नवाब और जमींदार। बाद में मुस्लिम शिक्षित वर्ग और श्रेष्ठि वर्ग ने भी इसकी सदस्यता ग्रहण करनी शुरू कर दी। मुस्लिम लीग किसी भी तरह से भारतीय मुसलमानों की प्रतिनिधि नहीं थी। उसी तरह, मुस्लिम लीग के समानांतर गठित हिन्दू महासभा भी हिन्दू राजाओं और जमींदारों का संगठन थी जिसमें बाद में शिक्षित वर्ग का एक हिस्सा और उच्च जातियों के कुछ लोग शामिल हो गए। इन दोनो ही संगठनों ने एजेन्डे में स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व के मूल्यों के लिए कोई स्थान नहीं था। ये मूल्य भारत के स्वाधीनता संग्राम के आधार थे।


इन दोनों (हिन्दू व मुस्लिम) साम्प्रदायिक धाराओं के बीच गहरे आपसी संबंध थे। विभाजन के ठीक पहले तक, सिंध और बंगाल में हिन्दू महासभा और मुस्लिम लीग की गठबंधन सरकारें थीं। ये दोनों ही संगठन आजादी के आंदोलन से दूर रहे और दोनों ही सामाजिक एवं लैंगिक ऊँचनीच के हामी थे। यद्यपि ये दोनों संगठन समाजसुधार को औपचरिक समर्थन देते थे तथापि असल में उनकी इच्छा यही थी कि सामाजिक रिश्तों में यथास्थिति बनी रहे।

विभाजन के बाद, पूरे पाकिस्तान पर पश्चिमी पाकिस्तान का वर्चस्व स्थापित हो गया। सेना, नौकरशाही, अर्थजगत और राजनीति में सभी महत्वपूर्ण पदों पर पश्चिमी पाकिस्तान के लोग काबिज हो गए। सन् 1970 में शेख मुजीब-उर-रहमान की अध्यक्षता वाली अवामी लीग ने चुनाव में शानदार सफलता हासिल की परंतु जुल्फिकार अली भुट्टो, जिन्हें सेना का समर्थन प्राप्त था, ने अवामी लीग की सरकार नहीं बनने दी। यहां हम राजनीति और धर्म के बीच का टकराव स्पष्ट देख सकते हैं। जहां इस्लाम यह कहता है कि सभी मनुष्य भाई-भाई हैं वहीं इस्लाम के नाम पर की जा रही राजनीति, अन्य धर्मावलम्बियों के साथ तो भेदभाव करती ही है, वह मुसलमानों में भी भेदभाव करती है। पूर्वी पाकिस्तान के मुसलमानों पर पश्चिमी पाकिस्तान के मुसलमान हावी थे और उनका क्रूर दमन कर रहे थे।

अवामी लीग को सरकार नहीं बनाने दी गई। पाकिस्तान में विरोध व्यक्त करने के प्रजातांत्रिक चैनलों का अभाव था। नतीजतन, पूर्वी पाकिस्तान में अलगाव का भाव पनपने लगा और मुजीब-उर- रहमान ने सविनय अवज्ञा आंदोलन शुरू करने की घोषणा की। पूर्वी पाकिस्तान की जनता उठ खड़ी हुई और चारों ओर से विद्रोह के स्वर सुनाई देने लगे। इसके बाद पाकिस्तान की सेना अपने ही नागरिकों पर टूट पड़ी। पूर्वी पाकिस्तान में सेना ने कहर बरपाना शुरू कर दिया। बड़ी संख्या में हत्याएं और बलात्कार हुए। हिन्दू इस अत्याचार के मुख्य शिकार थे परंतु मुसलमानों को भी बख्शा नहीं गया। पूर्वी पाकिस्तान के नागरिकों के साथ शत्रुओं से भी बदतर व्यवहार किया गया। सामूहिक बलात्कारों और हत्याओं का सिलसिला तब तक जारी रहा जब तक कि मुक्तिवाहिनी ने भारतीय सेना की मदद से पूर्वी पाकिस्तान को स्वतंत्र देश घोषित नहीं कर दिया। इस प्रकार बांग्लादेश गणराज्य अस्तित्व में आया।

बांग्लादेश के गठन से इस सिद्धांत के परखच्चे उड़ गए कि राष्ट्र, धर्म पर आधारित होते हैं और हर धर्म एक अलग राष्ट्र होता है। बांग्लादेश के निर्माण ने द्विराष्ट्र सिद्धांत को हमेशा-हमेशा के लिए दफन कर दिया। परंतु हिन्दू और मुसलमान अलग-अलग राष्ट्र हैं, इस सिद्धांत के निर्णायक खंडन ने भी भारतीय उपमहाद्वीप से साम्प्रदायिक तत्वों का सफाया नहीं किया। वे समय-समय पर अपना सिर उठाते रहे। बाबरी मस्जिद के ढहाए जाने के बाद बांग्लादेश के मुस्लिम साम्प्रदायिक तत्वों ने भारत पर चढ़ाई करने की घोषणा की थी।

बांग्लादेश में अल्पसंख्यकों की हालत अत्यंत दयनीय है। कई मुस्लिम और हिन्दू शरणार्थी बांग्लादेश छोड़कर भारत आ गए हैं। इनके कारण हिन्दू साम्प्रदायिक तत्वों को बांग्लादेशी घुसपैठिए का हौव्वा खड़ा करने का मौका मिल गया है। भारतीय उपमहाद्वीप के तीनों देशों की राजनीति का काफी हद तक साम्प्रदायिकीकरण हो चुका है।

भारत में साम्प्रदायिक राजनीति के बीज जमींदारों के अस्त होते हुए वर्ग ने बोए थे और उन्हें संरक्षण दिया था अंग्र्रेज साम्राज्यवादियों ने। दरअसल, यही साम्प्रदायिक तत्व अंग्रेजों की फूट डालो और राज करो की नीति की सफलता और भारत के विभाजन के लिए जिम्मेदार थे। इसमें कोई संदेह नहीं कि भारतीय उपमहाद्वीप के तीनों देशों में साम्प्रदायिकता के जहर की तीव्रता अलग-अलग है। पाकिस्तान को औपनिवेशिक-साम्राज्यवादी ताकतों के हाथों सबसे ज्यादा नुकसान भुगतना पड़ा और वहां हिन्दुओं और ईसाईयों की हालत सबसे खराब है। पाकिस्तान में सेना, साम्प्रदायिक ताकतों की साथी है और वह आमजनों की प्रजातांत्रिक महत्वाकांक्षाओं को कुचलने में सबसे आगे है। बांग्लादेश में प्रजातांत्रिक प्रक्रिया से निर्वाचित सरकारों को साम्प्रदायिक तत्वों का जबरदस्त दबाव झेलना पड़ रहा है। भारत में हिन्दू साम्प्रदायिक तत्वों ने राम मंदिर जैसे पहचान से जुड़े मुद्दों को केन्द्र में लाकर देश को कमजोर करने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। हमारे औपनिवेशिक शासकों की नीतियों के कारण जिन समस्याओं का सामना हमें करना पड़ रहा है उन्हें ये ताकतें साम्प्रदायिक रंग दे रही हैं। बांग्लादेश को घुसपैठियों का स्त्रोत बताया जा रहा है जबकि सच यह है कि सन् 1971 में जो गरीब हिन्दू और मुसलमान वहां से भागे थे, वे पाकिस्तान की सेना के क्रूर अत्याचारों से बचने के लिए अपना घर-बार छोड़ने पर मजबूर हुए थे। कश्मीर की समस्या भी अंग्रेज शासकों की भारतीय उपमहाद्वीप को भेंट है। इस समस्या को भी दोनों देशों के साम्प्रदायिक तत्व, हिन्दू और मुस्लिम चश्मे से देख रहे हैं।

इस तरह, भारतीय उपमहाद्वीप के तीनों देश साम्प्रदायिकता के दैत्य का मुकाबला कर रहे हैं। दोनों धर्मों के साम्प्रदायिक तत्वों की एक बड़ी सफलता यह है कि उन्होंने धर्म और राजनीति के बीच की विभाजक रेखा को मिटा दिया है। इन साम्प्रदायिक ताकतों की आलोचना को संबंधित धर्म की आलोचना का पर्यायवाची मान लिया गया है। तीनों देशों के प्रजातंत्र में विश्वास रखने वाले वर्ग को एक-दूसरे से हाथ मिलाकर साम्प्रदायिकता के दैत्य और धर्म की राजनीति का खात्मा करना चाहिए। परंतु क्या साम्प्रदायिक ताकतें, जो भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश तीनों में ही काफी शक्तिशाली हैं, ऐसा होने देंगी? साम्प्रदायिक ताकतें जुनून का ज्वार पैदा करने की कला में सिद्धहस्त होती हैं। वे धर्मनिरपेक्ष, प्रजातांत्रिक शक्तियों को अपने-अपने धर्म के लिए खतरा बताकर जोर-जोर से छातियां पीटना जानती हैं। भारतीय उपमहाद्वीप में प्रजातंत्र को बचाना और उसे मजबूती देना एक अत्यंत दुष्कर कार्य है। क्या भारतीय उपमहाद्वीप के वे निवासी जो प्रजातंत्र में विश्वास रखते हैं इस एजेन्डे पर एक हो सकेंगे


(मूल अंग्रेजी से हिन्दी रूपांतरण अमरीश हरदेनिया)  (लेखक आई.आई.टी. मुंबई में पढ़ाते थे और सन् 2007  के नेशनल कम्यूनल हार्मोनी एवार्ड से सम्मानित हैं।)

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