असगर अली इंजीनियर-शांति और सद्भाव का योद्धा
बहुवादी मूल्यों के
संरक्षण का असगर अली इंजीनियर का संघर्ष
-राम पुनियानी
10 March 1939 To 14 May 2013
(१४ मई, २०१३ को
हमने असगर अली इंजीनियर को खो दिया. उनका चला जाना, मानवाधिकारों व धर्मनिरपेक्ष
मूल्यों के संरक्षण के आन्दोलन व साम्प्रदायिकता के खिलाफ लड़ाई के लिए अपूर्णीय
क्षति है. मेरे अजीज दोस्त और मेरे सम्मान के पात्र डाक्टर इंजीनियर को मेरी
विनम्र श्रद्धांजलि)
पिछले तीन दशकों ने
यह साबित किया है कि देश को विभाजित करने के साम्प्रदायिक ताकतों के प्रयास, समाज
में शांति के स्थापना और देश के विकास में बाधक हैं. यद्यपि भारत में सांप्रदायिक
हिंसा की शुरुआत सन १९६१ (जबलपुर) से ही हो गयी थी तथापि सन १९८० के दशक के बाद से
सांप्रदायिक ताकतों को विभिन्न समुदायों के बीच बैरभाव बढ़ाने में अप्रत्याशित व
अभूतपूर्व सफलता मिली है. यह खेदजनक है कि बहुत कम सामाजिक कार्यकर्ताओं और
विद्वानों ने इस समस्या को गंभीरता से लिया. डाक्टर असगर अली इंजीनियर उनमें से एक
थे. उन्होंने उस विचारधारा और उन साजिशों के विरुद्ध जीवनपर्यंत संघर्ष किया जो कि
सांप्रदायिक हिंसा का कारण बनती हैं. उन्होंने अल्पसंख्यकों के उत्पीड़न के खिलाफ भी
अनवरत आवाज़ बुलंद की.
जबलपुर दंगों के
वक्त इंजीनियर, पढ़ाई कर रहे थे. इन दंगों ने उनके दिमाग पर गहरा असर डाला. इस
त्रासदी ने उन्हें इस हद तक प्रभावित किया कि उन्होंने अपना पूरा जीवन सांप्रदायिक
हिंसा और सांप्रदायिक राजनीति के विरुद्ध संघर्ष के लिए होम कर दिया. उनके भाषणों
और उनके लेखन में जबलपुर दंगों के राष्ट्र और प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरु
पर पड़े प्रभाव की विस्तृत चर्चा रहती थी. सांप्रदायिक हिंसा, सांप्रदायिक
विचारधारा और समाज के साम्प्रदायिकीकरण पर डाक्टर इंजीनियर ने भरपूर लिखा है –
इतना कि कई मोटे-मोटे ग्रन्थ में भी न समा पाए.
उनके लेखन से यह
स्पष्ट है कि उन्होंने सांप्रदायिक हिंसा कि प्रकृति को समझने के गंभीर प्रयास
किये. उन्होंने सांप्रदायिक दंगों, उनके बाद के घटनाक्रम और समाज व राजनीति पर
उनके प्रभाव के अध्ययन में काफी परिश्रम किया. इस क्षेत्र में काम करने वाले शायद
वे एकमात्र जानेमाने अध्येता व कार्यकर्ता थे. उन्होंने भारत में सांप्रदायिक
हिंसा के अध्ययन और विश्लेषण करने में बहुत ऊर्जा और समय खर्च किया. इस अर्थ में
भी वे अद्वितीय थे कि उन्होंने ना केवल साम्प्रदायिकता से जुड़े मुद्दों पर सारगर्भित
टिप्पणियाँ कीं वरन, ढेर सरे खतरों का सामना करते हुए भी इन मुद्दों पर अपने
विचारों को खुलकर सामने रखा. धर्म के नाम पर की जा रही हिंसा और राजनीति का विरोध
करने के कारण उन्हें दोनों समुदायों के सांप्रदायिक तत्वों का कोपभाजन बनना पड़ा.
इस लेख में साम्प्रायिक
हिंसा की जांच-पड़ताल और धर्मनिरपेक्ष मूल्यों को बढ़ावा देने वाले आंदोलनों में
उनके योगदान का संक्षिप्त विवरण दिया जा रहा है. एक मित्र व सहयोगी के रूप में
उनके कार्यकलापों को निकट से देखने-समझने का अवसर मुझे मिला है. उनके व्यापक
योगदान को मैंने नजदीक से देखा है. मैं उनसे प्रभावित हूँ और उनका प्रशंसक हूँ. कई
मसलों पर मैं उनसे इत्तेफाक नहीं भी रखता हूँ परन्तु यह निर्विवाद है कि मेरे अपने
कार्य को दिशा देने में, मुझे उनसे जो प्रेरणा और ज्ञान मिला, वह अमूल्य है.
सांप्रदायिक हिंसा
जबलपुर में सन १९६१
में हुई हिंसा ने इंजीनियर को अंदर तक हिला दिया था. बचपन से ही इस्लामिक आध्यात्म
में ओतप्रोत, इंजीनियर के लिए यह कल्पना करना भी मुश्किल था कि धर्म के नाम पर
हिंसा की जा सकती है. उन्हें तो यह सिखाया गया था कि न तो इस्लाम और ना ही कोई और
धर्म, हिंसा की शिक्षा देता है. तो फिर धर्म के नाम पर यह हिंसा कैसी? यही वह समय
था जब उन्होंने तय किया कि वे साम्प्रदायिक सद्भाव के प्रोत्साहन के लिए अपना जीवन
समर्पित कर देंगे. इस घटना ने उनके जीवन और कार्य की दिशा तय कर दी. वे केवल दंगों
के दौरान हिंसा की आग को बुझाने की कोशिश तक स्वयं को सीमित नहीं रखते थे. अपने
जीवन के शुरूआती वर्षों में, एक सामाजिक कार्यकर्ता की हैसियत से, उन्होंने दंगों
की गहराई से जांच का काम हाथ में लिया. बिहार शरीफ दंगों से लेकर हालिया गुजरात
कत्लेआम तक, उन्होंने अत्यंत परिश्रम से और काफी समय लगा कर, मुख्यतः मैदानी
अध्ययनों के ज़रिये, हिंसा की जांच की. इन घटनाओं पर उनकी रपटें, सांप्रदायिक हिंसा
के मूल चरित्र और उसके पीछे के कारणों को समझने के प्रयास में मील का पत्थर हैं. बिहार
शरीफ में, बीडी मजदूरों में उसकी गहरी पैठ के कारण, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी का
बोलबाला था. डाक्टर इंजीनियर ने इस तथ्य का पर्दाफाश किया कि इलाके में अपनी पकड़
बनाने के लिए, आरएसएस ने, यादवों और मुसलमानों के बीच कब्रिस्तान के विवाद का
इस्तेमाल हिंसा भड़काने के लिया किया (१९८१).
सन १९८०-८१ में,
गोधरा में कई दौर में दंगे हुए. डाक्टर इंजीनियर ने एक दल के सदस्य बतौर इन दंगों
की जांच की. यहाँ विवाद मुख्यतः सिंधियों और घांची मुसलमानों के बीच था. जहाँ अन्य
हिंदू इन सिंधी शरणार्थियों को नीची निगाहों से देखते थे, वहीँ मुसलमानों के खिलाफ
हिंसा में हिंदू संगठन उनका साथ देते थे. घांची मुसलमानों की गरीबी और सिंधियों की
सुविधाओं की बढ़ती मांग के कारण विवाद भड़का, जिसने जल्दी ही धार्मिक रंग अख्तियार
कर लिया. रपट में कहा गया कि अफवाहों की दंगा भड़काने में महत्वपूर्ण भूमिका थी.
डाक्टर इंजीनियर ने
सन १९८२ के अहमदाबाद दंगों का भी अध्ययन किया था. इसके लिए घटनास्थलों पर जाकर
जाँच-पड़ताल की गयी थी. अहमदाबाद में कालूपुर और दरयागंज के गरीब मुसलमानों को
निशाना बनाया गया था. पतंग उड़ाने को लेकर शुरू हुई मामूली तकरार जल्दी ही
पत्थरबाजी और हिंसा में तब्दील हो गयी. तब विहिप ने इन इलाकों में काम शुरू किया
था और हिंसा की पृष्टभूमि तैयार की थी. विहिप ने दलितों के इस्लाम कुबूल करने को
मुद्दा बनाया. सांप्रदायिक ताकतों ने इस मुद्दे पर जम कर दुष्प्रचार किया. बड़ी
संख्या में पर्चे बांटे गए. इन पर्चों में इतिहास को जम कर तोड़ा-मरोड़ा गया था.
इनमें मुस्लिम राजाओं का दानवीकरण किया गया था, वंदे मातरम गाने पर जोर दिया गया
था और गायों को मारने वालों के साथ सख्ती से निपटने की वकालत की गयी थी. कुछ लोगों
ने इन पर्चों की ओर गुजरात सरकार का ध्यान आकर्षित किया था परन्तु उसपर कोई ध्यान
नहीं दिया गया.
सन १९८१-८२ में पुणे और शोलापुर हिंसा की
गिरफ्त में आ गए. ये दंगे, अहमदाबाद हिंसा की प्रतिक्रिया में हुए थे और हमेशा की
तरह, साम्प्रदायिकता का जहर फैलाने में विहिप की महत्वपूर्ण भूमिका थी. तत्समय,
विहिप ने पूरे भारत में जनजागरण अभियान चलाया हुआ था. यह अभियान मुसलमानों के
दानवीकारण पर आधारित था, जिसमें मुसलमानों को विदेशी व गौमाँस भक्षक बताया जाता
था. ये दंगे सन १९८१ में मीनाक्षीपुरम में दलितों के सामूहिक रूप से इस्लाम को
अंगीकार करने के बाद हुए थे. दलितों पर हो रहे जुल्मों को साम्प्रदायिक हिंसा का
मूल कारण बताते हुए डाक्टर इंजीनियर लिखते हैं, “मीनाक्षीपुरम में हरिजनों
के धर्मपरिवर्तन पर विहिप इसलिए इतना हो-हल्ला मचा रही है ताकि भेदभाव की आग में
जल रहे दलितों की चीखों को दबाया जा सके” (कम्यूनल रायट्स इन पोस्ट-इंडीपेंडेंट
इंडिया पृष्ट २६५).
विहिप के आक्रामक अभियान ने मुसलमानों को
आतंकित कर दिया. विहिप ने एक बड़ा जुलूस निकाला, जिसमें गाँधी और अम्बेडकर के
अलावा, गोलवलकर और मनुस्मृति के चित्र भी थे. जुलूस में शामिल लोगों ने वे सभी
बोर्ड व होर्डिंग आदि तोड़ डाले जिनमें कोई भी मुस्लिम नाम लिखा था. इनमें मौलाना
अबुल कलम आज़ाद के नाम वाला एक बोर्ड भी शामिल था. भीड़ मुस्लिम-विरोधी नारे लगा रही
थी. जुलूस अपने निर्धारित रास्ते को छोड़ कर मुस्लिम इलाके में घुस गया. मुसलमानों
की होटलों और दुकानों पर पत्थरबाज़ी हुई और उनमें तोड़फोड़ की गयी.
शोलापुर में भी हालात कुछ ऐसे ही थे. वहां
लोगों को भड़काने के लिए, मुसलमानों की बढ़ती आबादी के मिथक का इस्तेमाल किया गया.
यहाँ भी १३ दिसंबर, १९८२ को विहिप द्वारा निकाले गए जुलूस के बाद हिंसा शुरू हुई.
जुलूस ने पंजाब तालीम मस्जिद के पास, भड़काऊ मुस्लिम-विरोधी नारे लगाये. पहले
मुसलमानों की दुकानों पर हमले हुए और फिर उनपर
मेरठ के दंगे भी हमारी राजनीति पर पर एक
बदनुमा दाग हैं. अपनी साँझा संस्कृति के लिए जाने जाने वाले मेरठ में जम कर हिंसा
हुई. यहाँ हिंदू सांप्रदायिक संगठनों का मुख्य लक्ष्य दलितों को अपने साथ मिलाकर,
उनका इस्तेमाल मुसलमानों पर हमलों में करना था. यहाँ की हिंसा के पीछे, आर्थिक
कारण कम थे राजनैतिक ज्यादा. शुरुआत एक प्याऊ को लेकर विवाद से हुई, जिसमें एक
मुसलमान वकील और एक अन्य ट्रस्ट शामिल था. तनाव बढ़ा और अप्रैल १९८२ में भड़काऊ
दुष्प्रचार अपने चरम पर पहुँच गया. पुलिस के पूर्वाग्रहपूर्ण व्यवहार और अखबारों
में सांप्रदायिक लेखन ने आग में घी का काम किया.
डाक्टर इंजीनियर ने बडोदा, हैदराबाद और
असम के दंगों का भी इसी तरह का विशद अध्ययन किया.
उनका एक मुख्य निष्कर्ष यह है कि अक्सर,
सांप्रदायिक ताकतें, किसी भी छोटी-सी घटना का इस्तेमाल अफवाहें फैलाने के लिए करती
हैं; सांप्रदायिक मानसिकता से ग्रस्त राज्यतंत्र, विशेषकर पुलिस, एक तरफ़ा भूमिका
निभाता है और नतीजे में अल्पसंख्यकों को बेवजह हिंसा का शिकार बनना पड़ता है.
इनके अतिरिक्त, उन्होंने मुंबई के १९९२-९२ के दंगों (एकता समिति की रपट, १९९३) और
गुजरात कत्लेआम (सोइंग हेट एंड रीपिंग वोयलेंस, सीएसएसएस, २००३) का भी अध्ययन
किया. अनेक अध्येताओं ने डाक्टर इंजीनियर द्वारा किये गए अध्ययनों का उपयोग सांप्रदायिक
हिंसा की प्रकृति के विश्लेषण और उसके सम्बन्ध में निष्कर्षों पर पहुँचने के लिए
किया. वे हर दंगे का विश्लेषण करते थे और उनके अध्ययनों व रपटों में दंगों में हुई
हिंसा की विस्तृत जानकारी होती थी. उनके अध्ययनों व रपटों से यह साफ़ है कि
सांप्रदायिक दंगों की भयावहता में वृद्धि हो रही है और गुजरात दंगों में यह अपने
चरम पर थी. उन्होंने सांप्रदायिक दंगों के दौरान पुलिस की हिंसा पर काबू पाने में
असफलता और दंगाईयों से उसकी मिलीभगत का सटीक विवरण प्रस्तुत किया है. ऐसा लगता है कि
पिछले तीन दशकों से साम्प्रदायिकीकरण की प्रक्रिया सतत चलती रही है और अब एक अन्य
अल्पसंख्यक समूह – ईसाई – भी सांप्रदायिक ताकतों के निशाने पर आ चुके हैं.
वे इस तथ्य की ओर भी ध्यान आकर्षित करते
हैं कि ये दंगे छिटपुट होने वाली स्वस्फूर्त हिंसा के प्रतीक नहीं हैं. उनके पीछे
निश्चित उद्देश्य रहता है और उन्हें योजनाबद्ध तरीके से अंजाम दिया जाता है. उनके
अध्ययन व रपटें बताते हैं कि अल्पसंख्यकों के बारे में आम धारणाएं, हिंसा का आधार
बनती हैं. मुसलमानों और ईसाईयों के विरुद्ध फैलाये गए मिथक, सांप्रदायिक ताकतों का
काम आसान कर देते हैं. इसमें कोई संदेह नहीं कि सांप्रदायिक शक्तियां हर मौके का
इस्तेमाल अपनी ताकत बढाने के लिए करती हैं. वे पहले हिंसा भड़काती हैं, फिर उसे
लंबा खींचती हैं और अंततः उसके जरिये अपनी राजनैतिक ताकत को बढ़ातीं हैं.
उनकी स्वयं की रपटों व किताबों के
अतिरिक्त, उन्होंने कई पुस्तकों का संपादन भी किया है. इनमें शामिल हैं, ”स्वतंत्र भारत में
सांप्रदायिक हिंसा”, “स्वतंत्रता के पश्चात सांप्रदायिक हिंसा”, “साम्प्रदायिकता व
सांप्रदायिक हिंसा” आदि. उन्होंने सांप्रदायिक दंगों का लेखाजोखा रखने का काम दशकों तक
लगातार किया. हर वर्ष “सेक्यूलर पर्सपेक्टिव” के जनवरी के अंक में वे पिछले वर्ष हुए
दंगों का विवरण व विश्लेषण प्रस्तुत करते थे.
साम्प्रदायिकता-धर्मनिरपेक्षता
भारत के सामाजिक कार्यकर्ताओं व
बुद्धिजीवियों – दोनों के समक्ष साम्प्रायिक हिंसा को समझना, उसे परिभाषित करना और
दंगों के दौरान व उनके बाद, सार्थक हस्तक्षेप करना, एक बहुत बड़ी चुनौती रही है.
भारतीय समाज में साम्प्रदायिकता के परिघटना को हम कैसे देखें-समझें? यह समस्या
भारत का पीछा क्यों नहीं छोड़ रही है? जब डाक्टर इंजीनियर ने भारतीय इतिहास और
समकालीन मुद्दों का अध्ययन-विश्लेषण शुरू किया होगा, तब ये सभी प्रश्न उनके दिमाग
को मथ रहे होंगे.
भारतीय इतिहास की सांप्रदायिक व्याख्या,
सामाजिक सोच के साम्प्रदायिकीकरण के लिए काफी हद तक जिम्मेदार है. देश के इतिहास
को समझने के प्रयास के दौरान डाक्टर इंजीनियर ने इतिहास की सांप्रदायिक व्याख्या
को सिरे से ख़ारिज कर दिया. वे इतिहास को राजाओं के बीच सत्ता और वैभव पाने की लड़ाई
के रूप में देखते थे. आम लोगों की जिंदगी को वे ऐसी अनवरत यात्रा मानते थे, जिसमें
आपसी मेलजोल था, कुछ विवाद थे, साँझा सोच थी व इन सब से उभरी साँझा परंपराएं थीं.
उनकी एक प्रमुख पुस्तक “कम्युनलिज्म इन इंडिया” (विकास, १९९५), इस विषय पर उनकी सोच को
प्रतिबिंबित करती है. उन्होंने समाज के विभिन्न वर्गों की कार्यशालाओं के ज़रिये
अपनी सोच आमजनों तक पहुंचाईं. उन्होंने इस विषय पर अनेक लेख और पुस्तकें भी लिखीं,
उनके लेखन में मध्यकालीन इतिहास को हिंदू
राजाओं और मुस्लिम बादशाहों के बीच संघर्ष के रूप में प्रस्तुत न करते हुए, सत्ता
और धन के लिए शासकों के बीच संघर्ष बतौर प्रस्तुत किया गया है. उन्होंने मूल
स्त्रोतों और राष्ट्रीय इतिहासकारों की पुस्तकों से तथ्यान्वेषण किया है. मंदिरों
के ध्वंस, ज़जिया, मुस्लिम शासकों की नीतियों, इस्लाम के फैलाव आदि के बारे में
उनका लेखन और विचार, तत्समय का यथार्थवादी विवरण तो प्रस्तुत करते ही हैं, वे
हमारे समाज में इन मुद्दों को लेकर व्याप्त मिथकों और भ्रमों के निवारण में भी
महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं. डाक्टर इंजीनियर ने भक्ति व सूफी संतों की प्रेम और
सद्भाव की परंपरा को प्रभावी ढंग से रेखांकित किया है. हमारे समाज की मिलीजुली
संस्कृति इस तथ्य की द्योतक है कि हमारे देश में हिंदू व मुसलमान अच्छे दोस्त थे
और धर्म कभी उनके बीच कलह या अनबन का कारण नहीं बना. हाँ, सामाजिक-आर्थिक-राजनैतिक
कारणों से समाज में विवाद अवश्य हुए और कब-जब ये मुद्दे, धर्म का लबादा ओढ़ कर
सामने आते रहे हैं. परन्तु, साम्प्रदायिकता का राजनीतिक हथियार के तौर पर
इस्तेमाल, अंग्रेजों के भारत में आगमन के बाद शुरू हुआ.
डाक्टर इंजीनियर, भारतीय स्वतंत्रता
संग्राम में मुस्लिम नेतृत्व और सांप्रदायिक ताकतों की भूमिका के उलझे हुए मुद्दे
पर भी विस्तृत प्रकाश डालते हैं. हिंदू और मुस्लिम – दोनों समुदायों की
सांप्रदायिक ताकतों ने, स्वतंत्रता-पूर्व के भारत में सांप्रदायिक हिंसा भड़काने
में कोई कसर नहीं छोड़ी. वे भारत के विभाजन के मुद्दे पर अत्यंत सारगर्भित व
संतुलित विचार प्रस्तुत करते हैं. उनका स्पष्ट मत है कि विभाजन के लिए मुख्यतः अंग्रेज
जिम्मेदार थे परन्तु तत्कालीन कांग्रेस नेतृत्व व जिन्ना के जिद्दी स्वाभाव की भी
इसमें भूमिका थी. वे मौलाना अबुल कलाम आजाद की इस मान्यता से सहमत है कि अगर
क्रिप्स मिशन की सिफारिशों को स्वीकार करने की मौलाना की सलाह को मान लिया गया
होता तो विभाजन को टाला जा सकता था.
मुस्लिम अल्पसंख्यकों के संबंध में मिथकों
के निवारण के लिए उन्होंने ‘‘स्वाधीनता
संग्राम में मुसलमानों की भूमिका’’ पर
काफी कुछ लिखा. डाक्टर इंजीनियर, विभिन्न
समुदायों के बीच एकता स्थापित करने और अहिंसा व शांति के प्रति उनकी प्रतिबद्धता
के कारण महात्मा गांधी से अत्यंत प्रभावित थे। उन्होंने ‘‘गांधी व साम्प्रदायिक संद्भाव’’ पर
एक ग्रंथ लिखा है. उनकी यह मान्यता थी कि सम्प्रदायिकता से जुड़ी समस्याओं को
गांधीवादी रास्ते पर चलकर सुलझाया जा सकता है और यह मान्यता उनके लेखन में स्पष्ट
झलकती है. वे लैंगिक न्याय के जबरदस्त पैरोकार थे और उन्होंने यह साबित किया है कि
इस्लाम, महिलाओं को बराबरी
का दर्जा देता है. उनका यह भी कहना था कि साम्प्रदायिक हिंसा से महिलाएं सबसे अधिक
प्रभावित होती हैं. उनके द्वारा लिखित ग्रन्थों की सूची से ही यह साफ हो जाता है
कि उनका साम्प्रदायिकता व उससे जुड़े मुद्दों की व्याख्या और अध्ययन में कितना महत्वपूर्ण
योगदान है। उनके पाक्षिक प्रकाशन ‘‘सेक्युलर
पर्सपेक्टिव’’ की खासी प्रसार
संख्या है और पूरी दुनिया में कई वेबसाईटों और अखबारों में इसका पुनर्प्रकाशन होता
है.
धर्मनिरपेक्ष
हस्तक्षेप
यह तय करना मुश्किल है कि इंजीनियर के काम
का कौनसा पक्ष, दूसरे पक्षों से
अधिक महत्वपूर्ण है. उनके काम के विभिन्न पक्षों में गहरा अंतरसंबंध है.
सामाजिक मसलों में उनके हस्तक्षेप की
शुरूआत, साम्प्रदायिक
सद्भाव के प्रति उनकी प्रतिबद्धता के चलते हुई. जबलपुर हिंसा के बाद से उन्होंने
साम्प्रदायिक हिंसा की प्रकृति को समझना और उसका अध्ययन करना शुरू किया. बाद में
उन्होंने साम्प्रदायिक सद्भाव को बढ़ावा देने के लिये कई अभियान और जनजाग्रति
कार्यक्रम चलाये। उन्होंने साम्प्रदायिक दंगों के दौरान सार्थक हस्तक्षेप करना भी
शुरू किया. मुंबई में सन् 1960 के दषक में, समान विचार वाले अपने कुछ मित्रों के साथ मिलकर उन्होंने ‘‘आवाज-ए-बिरादरान’’ नामक संस्था की स्थापना की. यह संस्था साम्प्रदायिकता से जुड़ी समस्याओं
को उठाती थी और स्कूलों और कालेजों के जरिए साम्प्रदायिक सद्भाव की जोत जलाती थी.
चूंकि इंजीनियर की उर्दू साहित्य में भी गहरी दिलचस्पी थी इसलिए वे कई जानेमाने
उर्दू लेखकों के संपर्क में आये और उन्होंने भी साम्प्रदायिक सद्भाव के क्षेत्र
में डाक्टर इंजीनियर के काम में हाथ बंटाना शुरू किया. सन् 1970 में भिवंडी में
दंगे भड़कने के बाद वे अपने कई मित्रों, जिनमें
जानेमाने फिल्म कलाकार बलराज साहनी और विनोद मुबई शामिल थे, के साथ दो हफ्तों तक भिवंडी में रहे. इस
दौरान वे गांवों में जाते,
लोगों से उनका दर्द
बांटते और उनकी मदद करते. उनके संगठन ने कई प्रतिष्ठित लेखकों को इस बात के लिए
राजी किया कि वे आल इंडिया रेडियो से शांति की एक संयुक्त अपील जारी करें.
मुंबई में उन्होंने भारत-पाक मैत्री
आंदोलन में भी हिस्सेदारी की. वे ‘‘साम्प्रदायिकता
विरोधी कमेटी’’ के संपर्क में भी
आये जिससे सुभद्रा जोशी और डी.आर. गोयल जैसे निष्ठावान व्यक्तित्व जुड़े हुये थे।
इंजीनियर ने उनके काम में भी हाथ बंटाना शुरू किया.
रामजन्मभूमि मुद्दे पर मुस्लिम नेतृत्व की
प्रतिक्रिया ने उन्हें बहुत धक्का पहुंचाया. उनकी यह मान्यता थी कि इस मसले में
मुस्लिम नेतृत्व को पृष्ठभूमि में रहना चाहिए और समस्या के निवारण का काम
धर्मनिरपेक्ष कार्यकर्ताओं और विद्वानों पर छोड़ दिया जाना चाहिए. उन्होंने मुस्लिम
नेतृत्व से जोर देकर कहा कि राम जन्मभूमि मुद्दे की बजाय उन्हें मुसलमानों में
गरीबी और पिछड़ेपन जैसे मुद्दों पर आंदोलन करना चाहिये. उन्होंने कहा कि गोपाल सिंह
समिति की रपट, जो कि ठंडे बस्ते
में पड़ी है, को लागू किया जाना
चाहिए. उन्होंने स्वयं कई धर्मनिरपेक्ष कार्यकर्ताओं के साथ मिलकर शांति की अपीलें
जारी कीं.
उन्होंने 1987 के मेरठ दंगों के बाद ‘‘एकता समिति’’ की स्थापना की पहल भी की. यह समिति जल्दी ही ट्रेड यूनियनों व मुंबई के
प्रगतिशील तबके का संयुक्त मंच बन गयी जहां से वे शांति की स्थापना व
साम्प्रदायिकता के विरोध में अभियान का संचालन करने लगे.
मुझे सन् मुख्यतः1992-93 के बाद ही उनसे
सीधे संपर्क में आने का मौका मिला. मुंबई दंगों के दौरान उन्होंने हिंसाग्रस्त
इलाकों में शांति मार्च निकाले. मेरे दिमाग में उनकी छवि एक निष्ठावान, ईमानदार और प्रतिबद्ध अध्येता व
कार्यकर्ता की है. मुंबई हिंसा के दौरान उनका कार्यालय धर्मनिरपेक्ष कार्यकर्ताओं
का मिलनस्थल बन गया. वहां होने वाली बैठकों में कभी-कभी तो सौ से भी अधिक
कार्यकर्ता पहुँच जाते थे. उनके छोटे से ऑफिस का हर कोना भर जाता था. यहां तक कि
बालकनी तक में पैर रखने की भी जगह नहीं बचती थी. इस भीड़ के बीच,
वे फर्श पर बैठ
जाते, बैठक का संचालन
करते और आगे के काम की योजना बनाते. अधिकांशतः, शांति मार्चों और पीड़ित समुदाय के बीच काम करने की योजनाएं बनायीं जाती
थीं। बांद्रा के निकट बहरामपाडा नामक इलाके पर विशेष ध्यान दिया गया। वहां के
अलावा शहर के अन्य हिस्सों में भी शांति मार्च निकाले गये.
इन शांति मार्चों का समाज की सामूहिक सोच
पर अच्छा असर पड़ा और दंगे के शिकार लोगों के मन में आशा जागी. सन् 1993 के गणतंत्र
दिवस पर, जब साम्प्रदायिक
हिंसा अपने चरम पर थी,
उन्होंने मुंबई के
मुख्य इलाकों में शांति मार्च निकाला. इसके अतिरिक्त, उन्होंने मुंबई दंगों की गहराई से जांच की और इस जांच पर आधारित एकता
कमेटी की रपट अत्यंत विश्लेषणात्मक व गहन बन पड़ी है. इस जांच से उनके सामने यह
तथ्य और स्पष्टता के साथ उभरा कि हिंसा को रोकने के लिए जिम्मेदार पुलिस का ही घोर
साम्प्रदायिकीकरण हो गया है. इसके बाद उन्होंने पुलिस के शीर्ष अधिकारियों से
मिलकर पुलिसकर्मियों के बीच साम्प्रदायिक सद्भाव की स्थापना के लिए कार्यशालाएं
आयोजित करने का कार्यक्रम तैयार किया. इस तरह की आगणित कार्यशालाएं मुंबई, महाराष्ट्र और देश के अन्य हिस्सों में
आयोजित की गयीं. जहां भी ये कार्यशालाएं आयोजित होतीं, उन्हें मुसलमानों के खिलाफ पूर्वाग्रहों से उपजे उत्तेजक प्रश्नों का
सामना करना पड़ता। उनसे मुसलमानों के खानपान के बारे में पूछा जाता, मुस्लिम राजाओं के द्वारा मंदिरों को नष्ट
करने की चर्चा होती व यह कहा जाता कि मुसलमान एक से अधिक बीवियां रखते हैं और ढेर
सारे बच्चे पैदा करते हैं. इन सभी मुद्दों से संबंधित प्रश्नों का वे बिना अपना
आपा खोये, अत्यंत विनम्रता से
उत्तर देते थे.
सेंटर फार स्टडी आफ
सोसायटी एण्ड सेक्युलरिज्म
इस बीच उन्होंने यह निर्णय किया कि अपने
जनजागृति अभियानों और अन्य कार्यक्रमों को ठीक ढंग से चलाने के लिए उन्हें एक
औपचारिक संगठन खड़ा करना होगा. इसी दृष्टि से ‘‘सेंटर फार स्टडी आफ सोसायटी एण्ड सेक्युलरिज्म’’ की स्थापना की गयी. सी.एस.एस.एस. ने राष्ट्रीय एकीकरण से जुड़े समकालीन
मुद्दों पर अनुसंधान का काम भी हाथ में लिया. सीएसएसएस ने समाज के विभिन्न वर्गों
में जागृति लाने के कार्यक्रमों के कई अलग-अलग मोड्यूल तैयार किये. सेंटर
द्वारा आयोजित कार्यशालाएं आधे दिन से लेकर सात दिन तक की होती हैं. इनमें इतिहास, समकालीन मुद्दों, आतंकवाद, इस्लाम और शांति, स्वाधीनता संग्राम के मूल्य आदि विषयों पर
चर्चा होती है. मेरा अंदाजा है कि इन कार्यशालाओं से अब तक हजारों कार्यकर्ता व
अन्य लोग लाभ उठा चुके होंगे. सीएसएसएस ने ‘‘इंस्टीट्यूट ऑफ पीस स्टडीस एण्ड कंफ्लिक्ट रेजील्यूजेशन’’ की स्थापना भी की ताकि कायकर्ताओं को धर्मनिरपेक्ष
मूल्यों में दीक्षित करने का काम बेहतर ढंग से किया जा सके. कार्यकर्ताओं, अध्यापकों और छात्रों के लिए लंबी अवधि के
प्रषिक्षण कार्यक्रम चलाने की योजना भी बनाई गई.
डाक्टर इंजीनियर को देश-विदेश से
कार्यक्रमों में भाग लेने और व्याख्यान देने के अनगिनत निमंत्रण प्राप्त होते रहते
थे और वे लगभग लगातार यात्रा पर रहते थे. यहां यह महत्वपूर्ण कि उन्हें यूपीए
सरकार (2004-2009) ने राष्ट्रीय एकता समिति का सदस्य नियुक्त किया. उन्होंने
आतंकवाद के खात्मे के नाम पर निर्दोष मुस्लिम युवकों को जबरन परेशान किये जाने का
मुद्दा जोरदार ढंग से उठाया. उनके हस्तक्षेप, अन्य महत्वपूर्ण लोगों द्वारा इस मुद्दे को उठाने और इस विषय पर बने
न्यायाधिकरण के प्रयासों से सरकार की नीति में कुछ बदलाव आये. इससे देश के किसी भी
हिस्से में बम धमाकों के बाद पुलिस द्वारा बड़ी संख्या में मुस्लिम युवकों को
गिरफ्तार करने की प्रवृत्ति में खासी कमी आयी.
उन्होंने पूरे देश के धर्मनिरपेक्ष
कार्यकर्ताओं को एक मंच पर लाने का प्रयास भी किया. देश के विभिन्न हिस्सों में
काम कर रहे धर्मनिरपेक्ष संगठन पिछले कुछ सालों से ‘‘आल इंडिया सेक्युलर फोरम’’ के
संयुक्त मंच से जुड़े हैं.
मर्मस्पर्शी क्षण
जब हम किसी अत्यंत महत्वपूर्ण व उच्च
दर्जे के व्यक्ति के सामाजिक योगदान की चर्चा करते हैं तो उनसे संबंधित व्यक्तिगत
प्रसंगों का स्मरण हो आना स्वाभाविक है. हमारे काम के दौरान मैंने उनके साथ अनेक
कार्यक्रमों में भाग लिया है और कई यात्राएं की हैं. इन कार्यक्रमों और यात्राओं
के दौरान मुझे उनसे बहुत कुछ सीखने को मिला. उन्होंने विभिन्न मुद्दों पर अपने
विचार मुझसे बांटे.
मैं यहां एक प्रसंग की चर्चा करना चाहूंगा
जिसने मुझ पर गहरी छाप छोड़ी. एक दिन सुबह हम लोग मुंबई विष्वविद्यालय के परिसर में
स्थित एक मीटिंग हाल के सामने खड़े थे. सेमिनार शुरू होने में दस-पंद्रह मिनट का
वक्त था. तभी सेमिनार के एक अन्य वक्ता टैक्सी से वहां पहुंचे. हमने उनका स्वागत
किया. हम लोग बातें ही कर रहे थे कि टैक्सी का ड्रायवर गाड़ी से उतरकर आया और डाक्टर
इंजीनियर को अत्यंत सम्मानपूर्वक नमस्ते कर बोला ‘‘सर, अपना काम जारी
रखिए. आपके काम से देश में अमन की वापसी होगी’’. मैं बिना किसी संदेह के कह सकता हूं कि डाक्टर इंजीनियर के इस तरह के प्रशंसक
पूरी दुनिया में होंगे.
(हिन्दी रूपांतरण अमरीश हरदेनिया) (लेखक आई.आई.टी. मुंबई में पढ़ाते थे
और सन् 2007
के
नेशनल कम्यूनल हार्मोनी एवार्ड से सम्मानित हैं।)
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