मुजफ्फरनगर हिंसा : एक अलग तरह का ध्रुवीकरण

-राम पुनियानी

एक ओर मुजफ्फरनगर क्षेत्र में यह प्रचार किया गया कि 'हमारी बेटियां और बहुएं सुरक्षित नहीं हैं, वहीं दूसरी ओर एक भाजपा विधायक ने इन्टरनेट पर एक वीडियो क्लिप डाल दी, जिसमें मुसलमानों जैसे दिखने वाले लोगों को दो युवाओं को अत्यंत क्रूरतापूर्वक मौत के घाट उतारते दिखाया गया था। यह वीडियो, दरअसल, कुछ साल पहले पाकिस्तान में हुयी एक घटना का था, जिसमें हिंसक भीड़ ने दो युवकों को उनके डकैत होने के शक में घेरकर मार डाला था। सोशल मीडिया, जिसकी पहुंच अब गांवों तक भी हो गयी है, में यह वीडियो क्लिप जंगल की आग की तरह छा गयी और इससे मुसलमानों के विरूद्ध शत्रुतापूर्ण माहौल बन गया।

Courtesy- http://mysay.in/
साम्प्रदायिक हिंसा, भारतीय समाज का अभिशाप बनी हुयी है, विशेषकर पिछले तीन दशकों से। भारत में साम्प्रदायिक हिंसा की शुरूआत सन 1893 में हुयी और तब से समय-समय पर इसमें बढ़ोत्तरी और कमी होती रही। सन 1937 के बाद से इसमें तेजी से वृद्धि हुयी और इसका चरम थे सन 1946 में भड़के दंगे, जिनकी आग देश के विभाजन के बाद भी शांत नहीं हुयी और जिनने लाखों परिवारों को उजाड़ दिया। स्वतंत्रता के बाद एक दशक से भी कुछ लंबे समय तक देश साम्प्रदायिक हिंसा से मुक्त रहा। दंगों के दानव ने स्वतंत्रता के बाद, पहली बार सिर उठाया सन 1961 में, जब जबलपुर में साम्प्रदायिक दंगा भड़क उठा। सन 1984 की सिक्ख-विरोधी हिंसा को दंगा नहीं कहा जा सकता। वह तो कत्लेआम था।

सन 1961 से लेकर अब तक देशभर में सैकड़ों छोटे-बड़े दंगे हुए, जिनमें सबसे भयावह थे मेरठ, मलियाना, भागलपुर, मुंबई व गोधरा के बाद गुजरात में हुए दंगे। स्वतंत्रता के पहले साम्प्रदायिक हिंसा का कुत्सित खेल मुस्लिम लीग व हिंदू महासभा खेलती थीं। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की भी इसमें महत्वपूर्ण भूमिका थी। इस हिंसा के कारण समाज का धार्मिक आधार पर धुव्रीकरण हुआ और इस धुव्रीकरण से हिंसा को और बढ़ावा मिला। इस तरह, यह दुष्चक्र चलता रहा। 'दूसरे समुदाय के बारे में गलत धारणाएं और मिथक इस हिंसा के लिए काफी हद तक जिम्मेदार थे। परन्तु हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच की खाई को और चौड़ा व गहरा किया 1992 के बाद से हुई साम्प्रदायिक हिंसा ने। शहरों में अल्पसंख्यक अपने मोहल्लो में सिमटने लगे और उनके बारे में कई तरह के झूठ और गलत धारणाएं सामूहिक सामाजिक सोच का हिस्सा बन गईं। इस दौर की साम्प्रदायिक हिंसा का एक महत्वपूर्ण लक्षण यह था कि यह धर्म के नाम पर की जाने वाली राजनीति की उपज थी और यह मुख्यत: शहरों तक सीमित थी। कई समाजविज्ञानियों ने साम्प्रदायिक दंगों के शहरों तक सीमित रहने के तथ्य को महत्वपूर्ण मानते हुए, साम्प्रदायिक हिंसा का दोष अनियंत्रित शहरीकरण के सिर मढ़ दिया।

हालिया मुजफ्फरनगर हिंसा ने यह साबित किया है कि साम्प्रदायिक हिंसा का शहरों और कस्बों तक सीमित रहने का दौर समाप्ति पर है। शहरी आबादी को पूरी तरह ध्रुवीकृत कर देने के बाद, साम्प्रदायिक संगठनों ने अपना ध्यान ग्रामीण क्षेत्रों पर केन्द्रित कर लिया है। कहने की आवश्यकता नहीं कि साम्प्रदायिक हिंसा के ग्रामीण भारत में फैलने से हमारे देश के लिए बहुत भयावह परिणाम होंगे। मुजफ्फरनगर हिंसा के कई ऐसे पहलू हैं जिन पर ध्यान दिया जाना आवश्यक है।

अब तक देश के विभिन्न भागों में होने वाली साम्प्रदायिक हिंसा का मुख्य लाभार्थी संघ परिवार होता था और इसका प्रमाण यह था कि इन क्षेत्रों में संघ से जुड़े संगठनों की उपस्थिति और शक्ति बढ़ जाती थी और  भाजपा को चुनावों में लाभ होता था। इस परिघटना का जीता-जागता उदाहरण गुजरात है, जहां गोधरा के पश्चात हुए दंगों ने भाजपा की जड़ों को जबरदस्त मजबूती दी और वहां की सड़कों और चौराहों पर आज भी संघ परिवार से जुड़े असामाजिक तत्वों का राज चल रहा है।

शतरंज के खेल में हमेशा एक खिलाड़ी की हार होती है और दूसरे की जीत। परन्तु राजनीति की शतरंज में मुजफ्फरनगर हिंसा की चाल चलने वाले दोनों खिलाडि़यों को इस खेल में जीत की उम्मीद है। इस खेल में एक ओर थी दंगों से हमेशा लाभान्वित होने वाली भाजपा, जो 84 कोसी परिक्रमा की चाल के असफल हो जाने के बाद, साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण करने के किसी रास्ते की तलाश में थी। दूसरी ओर थी समाजवादी पार्टी, जिसने भाजपा की ही तर्ज पर यह सोचा कि अगर भाजपा हिन्दुओं का ध्रुवीकरण कर राजनैतिक लाभ उठा सकती है तो उसे भी मुसलमानों का ध्रुवीकरण कर यही क्यों नहीं करना चाहिए? इन दोनों खिलाडि़यों के सामूहिक प्रयासों से मुजफ्फरनगर में दंगे भड़के। यहां यह याद रखना मौंजू होगा कि लगभग डेढ़ साल पहले समाजवादी पार्टी ने उत्तरप्रदेश में सत्ता सम्हाली है और तब से राज्य में साम्प्रदायिक हिंसा में वृद्धि हुयी है।

मुजफ्फरनगर हिंसा की शुरूआत हुयी एक लड़की को सड़क पर छेड़े जाने के विवाद में तीन लड़कों की हत्या से। इस घटनाक्रम के दो अलग-अलग विवरण उपलब्ध हैं। इस घटना से साम्प्रदायिक हिंसा भड़क सकती है, इसका अंदाजा सरकार और प्रशासन को था और उसे रोकने के लिए सरकारी तंत्र के पास पर्याप्त समय भी था। परन्तु ऐसा लगता है कि जानते-बूझते हिंसा को भड़कने से रोकने की कोई कोशिश नहीं की गयी। क्षेत्र में धारा 144 लागू होने के बाद भी, अधिकारियों ने कानून का उल्लंघन करते हुए, एक लाख से अधिक लोगों की महापंचायत का आयोजन होने दिया। सभी जातिवादी-साम्प्रदायिक संगठन मूलत: पितृसत्तात्मक मूल्यों में विश्वास रखते हैं। अत: आश्चर्य नहीं कि ''बहू-बेटी बचाओ के नारे से भड़के हजारों जाट हथियारबंद होकर महापंचायत में इकटठा हो गए। साम्प्रदायिक दुष्प्रचार ने गति पकड़ी और देश में पहली बार, ग्रामीण क्षेत्रो में साम्प्रदायिक हिंसा भड़क उठी। भाजपा की जाटों में पैठ नहीं है परन्तु उसने अत्यंत कुटिलतापूर्वक इस घटना का उपयोग अपनी विभाजनकारी राजनीति को मजबूती देने के लिए किया। मोदी को हिन्दुओं के उद्धारक के रूप में प्रस्तुत किया गया और जाटों को अपनी जातिगत पहचान त्याग कर, हिन्दू पहचान पर जोर देने के लिए प्रेरित किया गया। इसमें कोई संदेह नहीं कि मुसिलम गुटों ने भी हिंसा में भाग लिया। परन्तु पूर्वाग्रहग्रस्त पुलिसतंत्र ने एकतरफा कार्यवाही की। नतीजा यह हुआ कि हिंसा के शिकार मुख्यत: अल्पसंख्यक बने। उनमें से कई को अपने घरबार छोड़कर भागना पड़ा और उनमें असुरक्षा के भाव में वृद्धि हुयी।

समाजवादी पार्टी द्वारा खेला गया यह दांव, उसे लाभ पहुंचायेगा या नहीं, यह तो केवल समय ही बताएगा। परन्तु इसमें कोई संदेह नहीं कि समाजवादी पार्टी के शासनकाल में साम्प्रदायिक हिंसा का जिन्न बोतल से बाहर निकल आया है। अखिलेश सरकार के राज में औसतन हर महीने साम्प्रदायिक हिंसा की दो घटनाएं हुयी हैं। यहां प्रश्न यह उठता है कि इसके पूर्व की बसपा सरकार ने साम्प्रदायिक हिंसा के दानव पर नियंत्रण कैसे बनाए रखा। अधिकारी वही थे, जो आज हैं और प्रदेश के रहवासी भी वही थे, जो आज हैं परन्तु बसपा के राज में प्रदेश में साम्प्रदायिक शांति बनी रही। साफ है कि यह सरकार पर निर्भर करता है कि वह हिंसा होने दे या नहीं। साम्प्रदायिक ताकतें, भाजपा व उसके साथी तो हमेशा दंगे भड़काने की ताक में रहते हैं।

उत्तरप्रदेश में एक अतिरिक्त कारक है अमित शाह की उपस्थिति। अमित शाह जमानत पर रिहा हैं और उन्हें गुजरात में कत्लेआम करवाने का अनुभव प्राप्त है। संघ परिवार को भी दंगे भड़काने की कला में महारत हासिल है। एक ओर मुजफ्फरनगर क्षेत्र में यह प्रचार किया गया कि 'हमारी बेटियां और बहुएं सुरक्षित नहीं हैं, वहीं दूसरी ओर एक भाजपा विधायक ने इन्टरनेट पर एक वीडियो क्लिप डाल दी, जिसमें मुसलमानों जैसे दिखने वाले लोगों को दो युवाओं को अत्यंत क्रूरतापूर्वक मौत के घाट उतारते दिखाया गया था। यह वीडियो, दरअसल, कुछ साल पहले पाकिस्तान में हुयी एक घटना का था, जिसमें हिंसक भीड़ ने दो युवकों को उनके डकैत होने के शक में घेरकर मार डाला था। सोशल मीडिया, जिसकी पहुंच अब गांवों तक भी हो गयी है, में यह वीडियो क्लिप जंगल की आग की तरह छा गयी और इससे मुसलमानों के विरूद्ध शत्रुतापूर्ण माहौल बन गया।

जाटों और मुसलमानों में लंबे समय से मधुर संबंध थे। पिछले चंद सालों में घटी कुछ घटनाओं ने इन दोनों समुदायों के आपसी संबंधों में खटास घोल दी थी। और हालिया हिंसा ने इन्हें एक दूसरे के खून का प्यासा बना दिया है। पश्चिमी उत्तरप्रदेश के गांव-गांव में जाट और मुसलमान रहते हैं और अगर यह हिंसा गांवों में बड़े पैमाने पर फैल गयी तो सरकार के लिए भी इसे रोकना मुश्किल हो जाएगा।
इस क्षेत्र में यह प्रचार भी किया जा रहा है कि मोदी एक 'शक्तिशाली नेता हैं जो हिन्दुओं की रक्षा कर सकते हैं। क्या मजाक है! क्या छोटा-सा अल्पसंख्यक समुदाय, कभी बहुसंख्यकों के अस्तित्व के लिए खतरा बन सकता है? मोदी को एक ऐसे नेता के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है जो बहुसंख्यक समुदाय की रक्षा करने में सक्षम है। यह सफेद झूठ है परन्तु अनवरत प्रचार के कारण लोग इसे सच मान बैठे हैं और इसका खंडन प्रभावी ढंग से नहीं किया जा रहा है।

जहां तक पुलिस और प्रशासन की भूमिका का प्रश्न है, उसके बारे में जितना कम कहा जाए उतना बेहतर। इसमें किसी को कोई संदेह नहीं हो सकता कि प्रशासन और सरकार के पास इतनी ताकत होती है कि वह यह सुनिश्चित कर सके कि हिंसा शुरू ही न हो और अगर हो भी जाए तो 24 घंटे के अंदर उस पर नियंत्रण स्थापित कर लिया जाए। परन्तु समस्या यह है कि प्रशासन और पुलिस में नीचे से लेकर ऊपर तक, पूर्वाग्रहग्रस्त अधिकारी-कर्मचारी भरे हुए हैं। और अगर सरकार को यह लगने लगे कि हिंसा से उसे चुनावी लाभ प्राप्त होगा तो जाहिर है हिंसा भड़केगी ही और उसे तब तक चलने दिया जाएगा जब तक कि संबंधित पक्षों को यह न लगने लगे कि उन्हें जो लाभ मिलना था, वह मिल चुका है।

यूपीए सरकार ने साम्प्रदायिक हिंसा निरोधक कानून बनाने का वायदा किया था। राष्ट्रीय सलाहकार परिषद (एनएसी) की एक उपसमिति ने काफी लगन और परिश्रम से इस कानून का मसौदा तैयार कर सरकार को सौंपा था। नि:संदेह मसौदे पर आम राय नहीं बन सकी है परन्तु उसके बारे में विभिन्न मंचों पर विचार विमर्श कर यह सुनिश्चित किया जा सकता है कि यह कानून जल्दी से जल्दी बने ताकि वे सत्ताधारी, जो हिंसा रोकने और समाज में शांति और व्यवस्था बनाए रखने की अपनी संवैधानिक जिम्मेदारी को पूरा नहीं करते, उन्हें दंडित किया जा सके। यह आवश्यक है कि इस कानून में उन अधिकारियों के लिए सजा का प्रावधान हो जो अपने कर्तव्यपालन में लापरवाही बरतते हैं या जानबूझ कर वह नहीं करते, जो उन्हें करना चाहिए या वह करते हैं, जो उन्हें नहीं करना चाहिए। इस सिलसिले में अगर राजनैतिक नेतृत्व भी नाजुक मौकों पर सही व त्वरित निर्णय लेने में देरी करता है तो उसे भी कटघरे में खड़ा किया जाना चाहिए। साम्प्रदायिक ताकतों से वैचारिक, सामाजिक व राजनैतिक स्तर  पर मुकाबला किए जाने की जरूरत है। तभी समाज में साम्प्रदायिक सदभाव और शांति बनी रह सकेगी।



(मूल अंग्रेजी से हिन्दी रूपांतरण अमरीश हरदेनिया) (लेखक आई.आई.टी. मुंबई में पढ़ाते थे और सन 2007 के नेशनल कम्यूनल हार्मोनी एवार्ड से सम्मानित हैं।) 

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