ठहर जाना एक जुम्बिश का
अंधश्रध्दा
के खिलाफ संघर्षरत एक संग्रामी की मौत
सुभाष गाताड़े
पुणे के निवासियों के एक बड़े हिस्से के लिए मुला मुठा नदी के किनारे बना
ओंकारेश्वर मंदिर वह जगह हुआ करती रही है जहां लोग अपने अन्तिम संस्कार के लिए ले
लाए जाते रहे हैं। इसे विचित्र संयोग कहा जाएगा कि उसी मन्दिर के ऊपर बने पूल से
अल सुबह गुजरते हुए डा नरेन्द्र दाभोलकर ने अपनी झंझावाती जिन्दगी की चन्द आखरी
सांसें लीं। एक जुम्बिश ठहर गयी, एक जुस्तजू अधबीच थम गयी।
मोटरसाइकिल पर सवार हत्यारे नौजवानों द्वारा दागी गयी चार गोलियों में से दो
उनके सिर के पिछले हिस्से में लगी थी और वह वहीं खून से लथपथ गिर गए थे।
मोटरसाइकिल थोड़ी दूर खड़ी कर दोनों हत्यारे वहां से भाग निकले थे। उन्हें शहर के
मशहूर ससून अस्पताल ले जाया गया, जहां डॉक्टरों ने उन्हें मृत घोषित किया।
एक बहुआयामी
व्यक्ति - प्रशिक्षण से डाक्टरी चिकित्सक, अपनी रूचि के हिसाब से देखें तो लेखक-सम्पादक
एवं वक्ता और एक आवश्यकता की वजह से एक आन्दोलनकारी,यह कहना
अनुचित नहीं होगा कि पूरे मुल्क के तर्कशील आन्दोलन के लिए वह एक अद्भुत मिसाल थे
और अपने संगठन एवं उसकी 200से अधिक शाखाओं के जरिए सूबा
महाराष्ट्र,कर्नाटक एवं गोवा में जनजागृति के काम में लगे
थे। बहुत कम लोग जानते थे कि अपने स्कूल-कालेज के दिनों में वह जानेमाने कब्बडी के
खिलाड़ी थे,जिन्होंने भारतीय टीम के लिए मेडल भी जीते थे।
हालांकि उन्होंने अपने सामाजिक जीवन की शुरूआत डाक्टरी प्रैक्टिस से की थी,मगर जल्द ही वह डा बाबा आढाव द्वारा संचालित 'एक
गांव, एक जलाशय (पाणवठा)' नामक मुहिम
से जुड़ गए थे। विगत दो दशक से अधिक समय से वह अंधाश्रध्दा के खिलाफ मुहिम में
मुब्तिला थे।
डा दाभोलकर की
प्रचण्ड लोकप्रियता का अन्दाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि उनके मौत की ख़बर
सुनते ही महाराष्ट्र के तमाम हिस्सों में स्वत:स्फूर्त प्रदर्शन हुए,और
उनके गृहनगर सातारा में तो जुलूस में शामिल हजारों की तादाद ने जिन्दगी के
सत्तरवें बसन्त की तरफ बढ़ रहे अपने नगर के इस प्रिय एवं सम्मानित व्यक्ति को अपनी
आदरांजलि दे दी। 21 अगस्त को पुणे शहर में सभी पार्टियों के
संयुक्त आवाहन पर बन्द का आयोजन किया गया।
अभी एक दिन पहले शाम के वक्त मराठी भाषा के सहयाद्री टीवी चैनल पर उपस्थित
होकर वह जातिपंचायतों की भूमिका पर अपनी राय प्रगट कर रहे थे। उस वक्त किसे यह
गुमान हो सकता था कि उन्हें 'सजीव' अर्थात लाइव
सुनने का यह आखरी अवसर होनेवाला है। यह पैनल चर्चा नासिक जिले की एक विचलित
करनेवाली घटना की पृष्ठभूमि में आयोजित की गयी थी, जहां किसी
कुम्हारकर नामक व्यक्ति द्वारा अपनी जाति पंचायत के आदेश पर अपनी बेटी का गला
घोंटने की घटना सामने आयी थी। वजह थी उसका अपनी जाति से बाहर जाकर किसी युवक से
प्रेमविवाह। चर्चा में हिस्सेदारी करते हुए डा दाभोलकर बता रहे थे कि किस तरह
उन्होंने हाल के दिनों में अन्तरजातीय विवाह को बढ़ावा देने के लिए सम्मेलन का
आयोजन किया था और इसी मसले पर घोषणापत्र भी तैयार किया था।
अपने एक आलेख ' रैशनेलिटी मिशन फार सक्सेस इन लाइफ'
में जिसमें 'उनका मकसद आवश्यक बदलाव के लिए
लोगों को प्रेरित करना है' उन्होंने लिखा था : "परम्पराओं, रस्मोरिवाज और मन को विस्मित कर देनेवाली प्रक्रियाओं से बनी
युगों पुरानी अंधश्रध्दाओं की पूर्ति के लिए पैसा, श्रम और
व्यक्ति एवं समाज का समय भी लगता है। आधुनिक समाज ऐसे मूल्यवान संसाधनों को बरबाद
नहीं कर सकता। दरअसल अंधश्रध्दाएं इस बात को सुनिश्चित करती हैं कि गरीब एवं वंचित
लोग अपने हालात में यथावत बने रहें और उन्हें अपने विपन्न करनेवाले हालात से बाहर
आने का मौका तक न मिले। आइए हम प्रतिज्ञा लें कि हम ऐसी किसी अंधाश्रध्दा को स्थान
नहीं देगें और अपने बहुमूल्य संसाधनों को बरबाद नहीं करेंगे। उत्सवों पर करदाताओं
का पैसा बरबाद करनेवाली,कुंभमेला से लेकर
मंदिरों/मस्जिदों/गिरजाघरों के रखरखाव के लिए पैसा व्यय करनेवाली सरकारों का हम
विरोधा करेंगे और यह मांग करेंगे कि पानी,उर्जा,कम्युनिकेशन,यातायात, स्वास्थ्यसेवा,प्रायमरी शिक्षा और अन्य कल्याणकारी एवं विकाससम्बन्धी गतिविधियों के लिए
वह इस फण्ड का आवण्टन करें"।
राजनेताओं से
लेकर सामाजिक कार्यकर्ताओं तक सभी ने डॉक्टर दाभोलकर को अपनी श्रध्दांजलि अर्पित
की है। नि:स्सन्देह वह एक सुनियोजित हत्या थी और जिसके पीछे एक सुचिंतित साजिश की
बू आती है। असली हत्यारों को पकड़ने के लिए पुलिस ने आठ टीमों का गठन किया है और
उम्मीद की जानी चाहिए कि उन्हें इस मसले में सफलता मिलेगी। पुलिस ने कहा कि वह इन
आरोपों की भी पड़ताल करेगी कि इसके पीछे सनातन संस्था और हिन्दू जनजागृति समिति
जैसी अतिवादी संस्थाओं का हाथ तो नहीं है। उनके परिवार के सदस्यों के मुताबिक
उन्हें अक्सर धमकियां मिलती थीं,लेकिन उन्होंने पुलिस सुरक्षा लेने से हमेशा
इन्कार किया। उनके बेटे हामिद ने कहा कि ''वे कहते थे कि
उनका संघर्ष अज्ञान की समाप्ति के लिए है और उससे लड़ने के लिए उन्हें हथियारों की
जरूरत नहीं है।'' उनके भाई ने अश्रुपूरित नयनों से बताया कि
जब हम लोग उनसे पुलिस सुरक्षा लेने का आग्रह करते थे,तो वह
कहते थे कि 'अगर मैंने सुरक्षा ली तो वे लोग मेरे साथियों पर
हमला करेंगे। और यह मैं कभी बरदाश्त नहीं कर सकता। जो होना है मेरे साथ हो।''
आखिर किसने ऐसे शख्स की हत्या की होगी जिसने महाराष्ट्र की समाजसुधारकों की -
ज्योतिबा फुले, महादेव गोविन्द रानडे या गोपाल हरि आगरकर - विस्मृत हो चली
परम्परा को नवजीवन देने की कोशिश की थी ?
कई सारी सम्भावनाएं हैं। यह सही है कि उनके कोई निजी दुश्मन नहीं थे मगर
अंधाश्रध्दा के खिलाफ उनके अनवरत संघर्ष ने ऐसे तमाम लोगों को उनके खिलाफ खड़ा किया
था, जिनको उन्होंने बेपर्द किया था। तयशुदा बात है कि ऐसे लोग कारस्तानियों
में लगे होंगे। राजनीति में सक्रिय यथास्थितिवादी शक्तियों के लिए भी उनके काम से
परेशानी थी। उन्हें किस हद तक विरोध का सामना करना पड़ता था इस बात का अन्दाज़ा इस
तरह लगाया जा सकता है कि विगत अठारह साल से महाराष्ट्र विधानसभा के सामने एक बिल
लम्बित पड़ा रहा है जिसका फोकस जादूटोना करनेवाले या काला जादू करनेवाली ताकतों पर
रोक लगाना है। 'महाराष्ट्र प्रीवेन्शन एण्ड इरेडिकेशन आफ
हयूमन सैक्रिफाइस एण्ड अदर इनहयूमन इविल प्रैक्टिसेस एण्ड ब्लैक मैजिक'शीर्षक इस बिल का हिन्दु अतिवादी संगठनों ने लगातार विरोध किया है,पिछले दो साल से वारकरी समुदाय के लोगों ने भी विरोध के सुर में सुर
मिलाया है। और इन्हीं का हवाला देते हुए इस अन्तराल में सूबे में सत्तासीन सरकारों
ने इस बिल को पारित नहीं होने दिया है। आप इसे डा दाभोलकर की हत्या से उपजे
जनाक्रोश का नतीजा कह सकते हैं या सरकार द्वारा अपनी झेंप मिटाने के लिए की गयी
कार्रवाई कह सकते हैं कि कि इस दुखद घटना के महज एक दिन बाद महाराष्ट्र सरकार के
कैबिनेट में इस बिल को लेकर एक अध्यादेश लाने का निर्णय लिया गया है।
रूढिवादी हिस्से के विरोध को देखते हुए इस बिल में आस्था क्या है या अंधआस्था
किसे कहेंगे इसको परिभाषित करने से बचा गया था और सूबे में व्यापक पैमाने पर
व्यवहार में रहनेवाली अंधश्रध्दाओं को निशाने पर रखा गया था, फिर वह अलौकिक शक्ति के नाम पर चमत्कार दिखाने, भभूत,
ताबीज प्रगट कराने ; भूत भगाने के नाम पर तरह
तरह की यातनादायी हरकतों को पीड़ितों पर अंजाम देने, काला
जादू करके समाज में भय के वातावरण का निर्माण करने जैसी तमाम बातें शामिल थीं। ऐसी
गतिविधियां संज्ञेय एवं गैरजमानती अपराधा के तौर पर दर्ज हों, ऐसे अपराधों की जांच के लिए या उन पर निगरानी रखने के लिए जांच अधिकारी
नियुक्त करने की बात भी इसमें की गयी थी।
उनके जीवन की एक
अन्य कम उल्लेखित उपलब्धिा रही है, विगत अठारह साल से उन्होंने किया 'साधना' नामक साप्ताहिक का सम्पादन, जिसने अपनी स्थापना के 65 साल हाल ही में पूरे किए।
जानकार बताते हैं कि जब उन्होंने सम्पादक का जिम्म सम्भाला तो सानेगुरूजी जैसे
स्वतंत्रता सेनानी एवं समाजसुधारक द्वारा स्थापित यह पत्रिका काफी कठिन दौर से
गुजर रही थी, मगर उनके सम्पादन ने इस परिदृश्य को बदल दिया
और आज भी यह पत्रिाका तमाम परिवर्तनकामी ताकतों के विचारों के लिए मंच प्रदान करती
है।
ठीक ही कहा गया है कि डा दाभोलकर की असामयिक मौत देश के तर्कवादी आन्दोलन के
लिए गहरा झटका है। देश में दक्षिणपंथी ताकतों के उभार के चलते पहले से ही तमाम
चुनौतियों का सामना कर रहे इस आन्दोलन ने अपने एक सेनानी को खोया है। मगर अतिवादी
ताकतों के हाथ उनकी मौत दरअसल उन सभी के लिए एक झटका कही जा सकती है जो देश में एक
प्रगतिशील बदलाव लाने की उम्मीद रखते हैं। अब यह देखना होगा कि उनकी मृत्यु से
उपजे प्रचण्ड दुख एवं गुस्से को ऐसी तमाम ताकतें मिल कर किस तरह एक नयी
संकल्पशक्ति में तब्दील कर पाती हैं ताकि अज्ञान, अतार्किकता एवं
प्रतिक्रिया की जिन ताकतों के खिलाफ लड़ने में डा दाभोलकर ने मृत्यु का वरण्ा किया,
वह मशाल आगे भी जलती रहे।
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