आस्था की तिजारत
राम पुनियानी
यह दिलचस्प है कि इन बाबाओं का उदय, धर्म की राजनीति के परवान चढ़ने के साथ ही हुआ है। ये बाबा
किसी न किसी रूप में उस विमर्श से जुड़े हुए हैं, जिसमें धर्म को राष्ट्रवाद से जोड़ा जाता है। वे इस विमर्श
का प्रचार करते हैं और उसे सही बताते हैं। इनमें से कई दबी-छुपी भाषा में
मनुस्मृति के मूल्यों और जातिगत व लैंगिक पदानुक्रम का बचाव भी करते हैं। ये बाबा
लोग सामाजिक रिश्तों में यथास्थितिवाद के हामी हैं जैसे श्री श्री रविशंकर जातिगत
समरसता की बात करते हैं। वे अम्बेडकर की तरह जाति के उन्मूलन के हामी नहीं हैं।
पिछले लगभग तीन दशकों में, हमारे समाज ने धर्म के नाम पर बहुत कुछ
देखा-भोगा है। एक ओर धार्मिक पहचान से जुड़े मुद्दे राष्ट्रीय परिदृश्य के केन्द्र
में आ गए हैं वहीं हजारों ऐसे स्वघोषित भगवान, बाबा
और आचार्य ऊग आए हैं, जो स्वयं
को दैवीय शक्तियों से लैस बताते हैं। वे यह चाहते हैं कि राज्य और समाज उन्हें
विशेष दर्जा दे और कब-जब, अनौपचारिक
तौर पर ही सही, राज्य
उन्हें कुछ विशेषाधिकार देता भी है। समाज उन्हें सम्मान की दृष्टि से देखता है।
यह प्रवृत्ति एक बार फिर हाल में तब सामने आई
जब आसाराम बापू पर एक अवयस्क लड़की ने बलात्कार का आरोप लगाया। इस तरह के मामलों
में आरोपी की तुरंत गिरफ्तारी की जानी चाहिए। परन्तु आसाराम बापू को गिरफ्तार करने
में पुलिस ने कई दिन लगा दिए और उन्हें बड़ी कठिनाई से और काफी नाटक-नौटंकी के बाद
गिरफ्तार किया जा सका। बापू ने अपनी गिरफ्तारी टालने के लिए कई बहाने बनाए - मेरे
पूर्व निर्धारित कार्यक्रम हैं,
मैं
बीमार हूँ, मेरे
रिश्तेदार की मौत हो गई है, आदि।
परन्तु अंततः, दबाव के
चलते, बापू को
उनके इंदौर स्थित आश्रम से 31 अगस्त 2013 को
गिरफ्तार कर लिया गया।
जहां तक धन-दौलत, आश्रमों की संख्या और अनुयायियों की भीड़ का
सवाल है, आसाराम
बापू, निःसंदेह, देश के शीर्षस्थ बाबाओं में से एक हैं। उनके
अनुयायियों में अनेक प्रभावशाली व धनी लोग तो हैं ही, ऐसे राजनीतिज्ञों की भी कोई कमी नहीं है जो
उनका बचाव करते हैं। ऐसे ही कुछ
राजनीतिज्ञों ने ‘चुनावी
समीकरणों’ के चलते, उन्हें जेल जाने से बचाने की पूरी कोशिश की।
यह पहली बार नहीं है कि बापू पर आपराधिक मामलों में शामिल होने के आरोप लगे हों।
उन पर सरकारी जमीनों पर कब्जा करने के आरोप अनेक बार लगे परन्तु सरकारी मशीनरी ने
उनके खिलाफ कोई कार्यवाही नहीं की। उनके अहमदाबाद और छिन्दवाड़ा के आश्रमों में
दो-दो बच्चों की रहस्यपूर्ण परिस्थितियों में मृत्यु हो गई परन्तु इन घटनाओं को भी
दबा दिया गया।
देश में इस तरह के खेल खेलने वाले आसाराम
बापू अकेले नहीं हैं। दर्जनों ऐसे बाबा हैं, जिन्होंने
अरबों रूपयों की संपत्ति अर्जित कर ली है। उनके आश्रमों में हुई हत्याओं में उनकी
संलिप्तता के सुबूत मिले हैं (शंकराचार्य जयेन्द्र सरस्वती व स्वर्गीय भगवान
सत्यसांई)। सेक्स स्केण्डलों में फंसे बाबाओं की सूची बहुत लंबी है और इस संदर्भ
में स्वामी नित्यानन्द महाराज सबसे आगे हैं, जो
यह दावा करते हैं कि वे भगवान कृष्ण के अवतार हैं। मायामोह से ऊपर उठने की बात
करते हुए ये बाबा अत्यंत ऐश्वर्यपूर्ण जीवन बिताते हैं।
इन बाबाओं के लिए ‘संत’ शब्द
का प्रयोग विडंबनापूर्ण है। क्या इनकी तुलना कबीर, तुकाराम, नामदेव, पलटू व रेदास जैसे मध्यकालीन संतों से की जा
सकती है, जो नीची
जातियों के थे, श्रम करके
अपना पेट भरते थे और गरीबों व वंचितों के बीच जीते थे? उन्होंने सामाजिक कुरीतियों का विरोध किया और
सामाजिक असमानता पर प्रश्न उठाए। उन्होंने वंचित वर्गों की व्यथा को स्वर दिया। इस
अन्यायपूर्ण दुनिया की चर्चा करते हुए महाराष्ट्र के एक संत चोखमेला लिखते हैं, ‘‘इस दुनिया
में जो अनाज उगाता है वह भूखा है,
जो
कपड़े बुनता है, वह
वस्त्रहीन है और जो मकान बनाता है, वह
खुले आसमान के नीचे सोने पर मजबूर है’’।
ये संत सत्ता से हमेशा दूर रहे और उन्हें कई बार सत्ताधारियों का कोपभाजन भी बनना
पड़ा। सूफी संत निजामुद्दीन औलिया ने बादशाह को अपनी कुटिया में आने से मना कर दिया
था। कबीर ने जातिप्रथा का विरोध किया, धर्म
के आधार पर समाज को बांटने की खिलाफत की और सामाजिक पदानुक्रम की आलोचना की। इन
संतों के अधिकांश अनुयायी गरीब और कमजोर वर्गों के लोग थे।
आज के इन तथाकथित संतों के चेले मुख्यतः धनिक
वर्ग से आते हैं और सत्ताधारियों और धनपशुओं से उन्हें भारी मात्रा में दान मिलता
है। इन संतों ने अपने विशाल साम्राज्य खड़े कर लिये हैं, जो वैभवपूर्ण व अत्यंत शक्तिशाली हैं। यह
दिलचस्प है कि भारत में धर्म से जुड़े लोगों द्वारा समाज में महत्वपूर्ण भूमिका
निभाने की लंबी परम्परा रही है। शंकराचार्य की परंपरा तो है ही, देश भर में ऐसे अनेक मठ, आश्रम और धार्मिक केन्द्र हैं, जहां धर्मशास्त्र और धर्म के दार्शनिक पक्ष
पर गंभीर और बौद्धिक चर्चायें होती हैं। आज के बाबाओं को न तो धर्मशास्त्र से मतलब
है और ना ही धर्म के दार्शनिक पक्ष से। इसके विपरीत, मध्यकालीन संतों की जड़ें समाज में थीं, वे सामाजिक मुद्दों पर बात करते थे और
सामाजिक बुराईयों के खिलाफ संघर्ष करते थे। जैसे कबीर ने चक्की की तुलना भगवान की
मूर्ति से की और मुल्ला को उसकी तेज बांग (अजान) के लिए फटकारा।
आज के बाबाओं का सामाजिक मुद्दों से कोई
लेनादेना नहीं है। हमारे देश में अलग-अलग प्रकार के इतने ढेर सारे बाबा हैं कि
जनता को अपनी ओर आकर्षित करने के उनके तरीकों में एकरूपता ढूंढना आसान नहीं हैं।
परन्तु कुछ मोटी-मोटी बातें स्पष्ट हैं। इन सभी को दर्शनशास्त्र, धर्म या सामाजिक मुद्दों का गहरा ज्ञान नहीं
है। उन्होंने कुछ फार्मूले ईजाद कर लिये हैं जिन्हें वे गीत संगीत के साथ प्रस्तुत
करते हैं। इनमें से कुछ प्रवचन देते हैं, जिससे
शायद समाज के उस वर्ग, जो स्वयं
को असुरक्षित महसूस करता है और कई तरह की दुविधाओं से ग्रस्त है, के मन को शान्ति मिलती है। कुछ तो शुद्ध कपटी
हैं जैसे निर्मल बाबा, जो चटनी का
रंग बदलकर लोगों की समस्याएं सुलझाते हैं। इनमें से अधिकांश, प्रवचनों के अलावा, ध्यान और योग का इस्तेमाल भी करते हैं।
मुरारी बापू जैसे कुछ बाबा अपने अनुयायियों के साथ लक्जरी क्रूज में विश्व भ्रमण
करते हुए गीता पर प्रवचन देते हैं।
स्पष्टतः, इन
दोनों श्रेणियों के संतों का जीवन और कर्म एकदम विरोधाभासी है। कबीर-निजामुद्दीन
औलिया व आसाराम बापू-निर्मल बाबा की श्रेणियों में कोई समानता नहीं है। कार्ल मार्क्स
का एक प्रसिद्ध उद्धरण है,
‘‘धर्म, दमित व्यक्ति की आह है, हृदयहीन
दुनिया का हृदय है, संगदिल जगत
की आत्मा है। वह लोगों की अफीम है।’’ यह वाक्य ढेर सारी विविधताओं से युक्त संतों का विभेदीकरण
करने में हमारी मदद कर सकता है। एक ओर है पुरोहित वर्ग, जो धर्म की संस्था और धार्मिक रीति-रिवाजों
का आधिकारिक-अनाधिकारिक रक्षक है। इनमें शामिल हैं पंडित, मौलाना, ग्रन्थी
और पादरी। दूसरी और हैं मध्यकालीन संत, जो
अलग-अलग धर्मों के थे, जिनमें
शामिल थे भक्ति और सूफी संत,
जो
धर्म की भाषा में बात तो करते थे परन्तु उनका न तो कर्मकाण्डों से कोई लेनादेना था
और ना ही सत्ता से। और तीसरी श्रेणी आज के बाबाओं की लंबी-चैड़ी सेना है जिनमें
आसाराम बापू, बाबा
रामदेव व श्री श्री रविशंकर जैसे राष्ट्रीय स्तर के बाबाओं से लेकर क्षेत्रीय,
प्रादेशिक
व शहरी स्तर के बाबा शामिल हैं।
पुरोहित वर्ग, सत्ता के ढांचे का हिस्सा था। वह जमींदारों
और राजाओं का हितैषी था। महाराष्ट्र में शेठजी-भाटजी (जमींदार-ब्राह्मण) शब्द
प्रचलित है। इसी तरह राजा-राजगुरू और नवाब-शाही इमाम की भी जोड़ियां थीं। इस श्रेणी
का सबसे उत्तम उदाहरण है अंग्रेजी शब्दसमूह ‘किंग
एण्ड पोप’ (राजा और
पोप)। राजा-राजगुरू, नवाब-शाही
इमाम, किंग एण्ड
पोप, ये सभी
समाज में यथास्थितिवाद के हामी थे और उस सामाजिक व्यवस्था को बनाए रखना चाहता थे
जो गरीब किसानांे का खून चूसती थी। वे आमजनों को धर्म के नशे में गाफिल रखते थे
ताकि वे दिनरात कड़ी मेहनत करते रहें और व्यवस्था के विरूद्ध विद्रोह का विचार उनके
मन में आए ही ना। हम कह सकते हैं कि मध्यकालीन संत, इस हृदयहीन, शोषणकारी विश्व में दमितों की आह थे।
जहां तक आसाराम बापू-निर्मल बाबा जैसे कथित
संतों की श्रेणी का सवाल है,
वे
भी समाज को अफीम परोस रहे हैं। वे कभी व्यवस्था पर प्रश्न नहीं उठाते, वे कभी अन्याय का विरोध नहीं करते और धर्म के
नाम पर हो रहे सामाजिक अत्याचारों पर चुप्पी साधे रहते हैं। इसके साथ ही, वे राजनीतिज्ञों का संरक्षण हासिल करते हैं, धन कमाते हैं और समाज में अत्यंत प्रभावशाली
व्यक्तित्व बन जाते हैं। इस समय भले ही भाजपा हिन्दू धर्म के नाम पर बाबाओं के
पक्ष में आवाज उठा रही हो परन्तु सच यह है कि किसी राजनीतिक दल में यह साहस नहीं
है कि वह इन बाबाओं की खुलकर आलोचना कर सके। ये बाबा, लोगों को धर्म की अफीम चटाकर, उन्हें तनाव से मुक्ति दिला रहे हैं और धर्म का
लबादा ओढ़कर अपनी चमकदार और भव्य छवि बना रहे हैं। उन पर हाथ डालना आसान नहीं होता
और इसलिए जब वे कोई अपराध करते हैं तब भी वे कानून के शिकंजे से बचे रहते हैं। जब
तक उन पर लगे आरोप बहुत गंभीर और स्पष्ट न हों-जैसा कि आसाराम के मामले में है-तब
तक उन्हें राजनीतिज्ञों और उनके अंधानुयायियों का संरक्षण मिलता रहता है। यहां
स्मरणीय है कि आसाराम बापू और अटलबिहारी वाजपेयी ने शंकररमन हत्याकांड में
शंकराचार्य जयेन्द्र सरस्वती की गिरफ्तारी के विरोध में दिल्ली में धरना दिया था।
इसी तरह, आसाराम
बापू के आश्रमों में बच्चों की हत्या के मामलों को दबा दिया गया। बाबाओं की रक्षा
करने के लिए राजनीतिज्ञों का आगे आना तो आम बात है।
यह दिलचस्प है कि इन बाबाओं का उदय, धर्म की राजनीति के परवान चढ़ने के साथ ही हुआ
है। ये बाबा किसी न किसी रूप में उस विमर्श से जुड़े हुए हैं, जिसमें धर्म को राष्ट्रवाद से जोड़ा जाता है।
वे इस विमर्श का प्रचार करते हैं और उसे सही बताते हैं। इनमें से कई दबी-छुपी भाषा
में मनुस्मृति के मूल्यों और जातिगत व लैंगिक पदानुक्रम का बचाव भी करते हैं। ये
बाबा लोग सामाजिक रिश्तों में यथास्थितिवाद के हामी हैं जैसे श्री श्री रविशंकर
जातिगत समरसता की बात करते हैं। वे अम्बेडकर की तरह जाति के उन्मूलन के हामी नहीं
हैं।
हम जानते हैं कि लोगों का एक तबका उन्हें
भगवान की तरह पूजता है और उसे मानसिक दबावों
से मुक्ति पाने के लिए उनकी जरूरत है।
यह भी स्पष्ट है कि आर्थिक और राजनैतिक कारकों से जनित सामाजिक असुरक्षा के भाव ने
इन बाबाओं के अनुयायियों की संख्या में आशातीत वृद्धि की है। ये सब धर्म और आस्था
का लबादा ओढ़े रहते हैं इसलिए उन पर प्रश्न उठाना कठिन हो जाता है। यह चोला उन्हें
कुछ विशेषाधिकार दे देता है और वे देश के कानून से कुछ हद तक ऊपर उठ जाते हैं।
आमजनों की आस्था का सम्मान करने की आवश्यकता से कोई इंकार नहीं कर सकता परन्तु
इसकी कोई सीमा होनी चाहिए। किसी भी व्यक्ति को यह इजाजत नहीं दी सकती कि वह समाज
में अतार्किकता या अंधविश्वास फैलाए या कानून का मखौल बनाए।
http://mysay.in से साभार |
(मूल
अंग्रेजी से हिन्दी रूपांतरण अमरीश हरदेनिया) (लेखक आई.आई.टी. मुंबई में पढ़ाते थे
और सन् 2007 के नेशनल
कम्यूनल हार्मोनी एवार्ड से सम्मानित हैं।)
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