“वहाबियत” के खिलाफ़ “दरगाह” अभियान

अख़लाक अहमद उस्मानी 

Indian Muslim Demonstration Against Wahhabism, Delhi, January 14, 2013 -- Photograph by All India Ulema and Mashaikh Board.

देश और दुनिया में वहाबी उर्फ सलफी मिशन से आजिज सुन्नी समुदाय सामाजिक आंदोलन चला रहा है। इस्लामी और अरब जगत ने तो वहाबियत से हाथ जला कर सबक सीखा है, लेकिन भारत अकेला ऐसा गैर-मुसलिम राष्ट्र है जिसने वहाबियत के विरुद्ध एक सौ पचास साल पहले से मुहिम शुरू कर दी। बीसवीं सदी में बरेली में हजरत अहमद रजा खां के आंदोलन को इस्लामी इतिहास में वहाबियत के विरुद्ध सबसे बड़े जन आंदोलन के रूप में याद किया जाता है। सामयिक सुन्नी आंदोलन भी भारत में वहाबी विचारधारा के प्रसार का भारी विरोध कर रहे हैं।

आॅल इंडिया उलेमा एंड मशाइख बोर्ड ने भारत में वहाबियत के प्रसार के विरुद्ध पहली रैली तीन जनवरी 2010 को मुरादाबाद में बुलाई जिसमें करीब ढाई लाख लोग शरीक हुए। इसी रैली में मौलाना महमूद अशरफ ने लोकप्रिय नारा दिया वहाबी की ना इमामत कुबूल है, ना कयादत कुबूल’ (वहाबी न हमारी नमाज पढ़वा सकता है और न ही हमारा नेता हो सकता है)। भारी गर्मी के बावजूद सोलह मई 2010 को भागलपुर में सुन्नी रैली में वहाबियत के विरुद्ध करीब चार लाख लोग जमा हुए। सोलह अक्तूबर 2011 को फिर मुरादाबाद में तीन लाख लोग जमा हुए, छब्बीस नवंबर 2011 की बरेली रैली में करीब ढाई लाख सुन्नी भारत में वहाबियत के मिशन के विरुद्ध जमा हुए। चौदह जनवरी को दिल्ली के जंतर मंतर पर सऊदी अरब के खिलाफ प्रदर्शन में करीब दस हजार सुन्नी पहुंचे और दस फरवरी 2013 की बीकानेर कॉन्फ्रेंस में दो लाख से ज्यादा सुन्नियों ने वहाबियत और सल्फियत के भारत में प्रसार पर रोष जताया।

पिछली तीस जून को उत्तर प्रदेश के फैजाबाद जिले के रुदौली शरीफ की खानकाह में आॅल इंडिया उलेमा ऐंड मशाइख बोर्ड की वार्षिक बैठक में सैकड़ों सुन्नी मुसलमानों के अलावा जमा डेढ़ सौ उलेमा और मशाइख (दरगाह प्रमुखों) ने भारत सरकार के नाम आठ पेज के बारह बिंदुओं वाले ज्ञापन में कहा है कि भारत में वहाबियत के प्रसार के लिए, सऊदी अरब और उसकी विचारधारा के लिए भारत में काम कर रही तंजीमें और जमातें जिम्मेवार हैं। ज्ञापन में इस बात की आशंका जताई गई है कि अहले हदीस, वहाबी और सलफी तत्त्व देश में सांप्रदायिक माहौल बना रहे हैं। बोर्ड ने कहा कि इसी योजना के तहत जेहादी, वहाबी, सलफी या तालिबानी तत्त्वों को सऊदी अरब का राजपरिवार पाल रहा है। बोर्ड का आरोप है कि मक्का के बारह इमामों में एक अब्दुल रहमान अलसुदैस का लगातार भारत दौरा करवाने और देश के अलग-अलग हिस्सों में नमाजें पढ़वाने का मकसद देश में वहाबियत को बढ़ावा देना है।

कई देशों का हवाला देते हुए बोर्ड के उलेमा ने कहा कि दुनिया में जहां-जहां वहाबियत या सल्फियत मजबूत होती गई वहां-वहां आतंकवाद चरम पर पहुंचा, चुनी गर्इं और सेक्युलर सरकारें गिर गर्इं या मुसीबत में आ गर्इं और इस्लामी और प्राचीन पुरातत्त्व को बेरहमी से ढहा दिया गया। बामियान की मूर्तियां ही नहीं बल्कि सऊदी अरब में अब तक नौ सौ पवित्र स्थलों को वहाबी सरकार ने मिट््टी में मिला दिया है। सुन्नी उलेमा और मशाइख ने मांग की है कि भारत सरकार को वहाबी और सल्फी संस्थाओं और व्यक्तियों को एफसीआरए (विदेशी अनुदान नियमन अधिनियम) के तहत मिलने वाले विदेशी धन की जांच करवानी चाहिए। बैठक में इस बात पर चिंता जताई गई कि भारत में मुसलिम मामलों को सऊदी अरब पेट्रोडॉलर के बल पर संचालित कर रहा है जिसमें सबसे बड़ा मुद््दा वक्फ संपत्तियों पर कब्जा, वक्फ से अवैध गतिविधियां चलाना और मस्जिदों को सराय की तरह इस्तेमाल करना है। मस्जिद की धार्मिक मान्यता का भी देश-विरोधी तत्त्व फायदा उठा रहे हैं।

बोर्ड की वार्षिक बैठक के प्रस्ताव में मांग की गई कि फौरन दिल्ली वक्फ बोर्ड को भंग किया जाए क्योंकि बोर्ड ने दिल्ली विकास प्राधिकरण और दिल्ली सरकार के साथ मिलकर वक्फ संपत्तियों पर कब्जा करवाया और मस्जिदें शहीद करवार्इं। आरोप है कि हाल ही में दिल्ली वक्फ बोर्ड ने गौसिया मस्जिद गिरवा दी क्योंकि यह सूफी मस्जिद थी। बोर्ड ने सलाह दी कि देश के संवेदनशील क्षेत्रों के पास की मस्जिदों के इमाम भी अगर वहाबी हैं तो देश की सुरक्षा को भारी खतरा है। सुन्नी मशाइख बोर्ड ने हज कमेटियों से भ्रष्ट लोगों को हटाने, स्त्री सशक्तीकरण, आधुनिक शिक्षा के लिए सेंट्रल मदरसा बोर्ड के गठन की जरूरत बताई। मशाइख का मानना है कि वहाबी उर्फ सलफी जमातें भारत में सेंट्रल मदरसा बोर्ड का इसलिए विरोध कर रही हैं क्योंकि वे अपने मदरसों की विदेशी मदद का आॅडिट नहीं होने देना चाहतीं और आधुनिक शिक्षा से मुसलिम बच्चों को दूर रखना चाहती हैं ताकि कट््टरता की शिक्षा जारी रहे।

भारत के सुन्नी धर्मगुरुमौलाना सैयद मुहम्मद अशरफ किछौछवी, हाशमी मियां, मेहंदी चिश्ती, मौलाना महमूद अशरफ और सैयद बाबर अशरफ के अलावा खानकाहे बरकातिया के डॉ सैयद अमीन मियां, मेहरारा शरीफ खानकाह के सैयद शाह बरकतुल्लाह, दिल्ली की महरौली शरीफ की हजरत ख्वाजा कुतबुद्दीन बख्तियार काकी की दरगाह के प्रमुख सैयद मंजूरुल हक कुतुबी, दिल्ली की हजरत निजामुद्दीन दरगाह के सैयद हसन निजामी, रुदौली जिला फैजाबाद की खानकाह हजरत शेखुल आलम के प्रधान अम्मार अहमद अहमदी उर्फ नैयर मियां, बदायूं की आला हजरत ताजुल फुहुल खानकाह के प्रमुख मौलाना उसैदुल हक, चेन्नई की खानकाह अमीरिया के प्रमुख सैयद रजाउल हक आमिरी जिलानी, हैदराबाद की कादरी खानकाहे मुसाविया के प्रोफेसर अल्लामा सैयद काजिम पाशा, कर्नाटक के बीजापुर की खानकाह हाशमी हाशिमपुर के प्रधान सैयद मुहम्मद तनवीर हाशमी, पश्चिम बंगाल के पंडवा शरीफ की दरगाह हजरत मखदूम अताउल हक पंडवी के प्रमुख सैयद जलालुद्दीन कादरी, बिहार के भागलपुर की खानकाह शाबाजिया के प्रमुख मौलाना सैयद शाह इन्तेखाब आलम, खानकाह मोनामिया कुमरिया के शाह शमीमुद्दीन अहमद मोनामी, कश्मीर के लारावी की दरगाह जियारत बाबाजी के प्रधान मियां बशीर अहमद, पंजाब की सिरहिंद में दरगाह हजरत मुजद्दिद आलम सानी के प्रधान सैयद मुहम्मद ताहिर मुजद्दिद, राजस्थान के हनुमानगढ़ के कारी अब्दुल फतह, लाडनूं नागौर के सैयद काजी अयूब अली और उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरपुर की खानकाह इस्माइलिया के प्रमुख सैयद मुहम्मद हुसैन अपने-अपने क्षेत्र में वहाबियत और सल्फियत के विरुद्ध बड़ा अभियान चला रहे हैं।

पूरे भारत में आॅल इंडिया उलेमा ऐंड मशाइख बोर्ड की ही तरह लखनऊ में आॅल इंडिया मुहम्मदी मिशन, लखनऊ में शिया-सुन्नी सहयोग संगठन वर्ल्ड वसीला फ्रंट, मुंबई की रजा एकेडमी, केरल की जामिया मर्कजी सकाफती, दिल्ली की गरीब नवाज फाउंडेशन और बरेली की सकलैन एकेडमी खुलकर वहाबियत और सल्फियत के खिलाफ अभियान चला रहे हैं, लेकिन देश के मीडिया को इसकी खबर तक नहीं है। उर्दू मीडिया इसलिए जगह नहीं देता, क्योंकि उस पर वहाबी प्रभाव है और जो थोड़ा-बहुत कवरेज मिलता है तो मुसलिम जगत के बाहर उसकी चर्चा नहीं होती। देश के दो बड़े उर्दू अखबारों ने तो सुन्नी क्रांति की खबरों का इसलिए बहिष्कार कर रखा है क्योंकि उनका कहना है कि अगरे इन्हें जगह दी गई तो बड़ा विज्ञापन नहीं मिलेगा। इन उर्दू अखबारों में प्रगतिशील लेखों और वहाबी-विरोध के छपने पर भी अघोषित प्रतिबंध है।

देश के हिंदी और अंग्रेजी मीडिया को इसकी रत्ती-भर खबरनहीं है कि खानकाहों और दरगाहों को साथ लेकर देश का सुन्नी मुसलमान सऊदी अरब पोषित वहाबी उर्फ सलफी विचारधारा और तंत्र के खिलाफ कितना उग्र है। कवरेज के इस अघोषित प्रतिबंध का शिकार शिया समुदाय भी है।
एक प्रगतिशील उर्दू पत्रकार ने नाम न छापने की शर्त पर बताया कि आप जितने बड़े वहाबी होंगे उर्दू मीडिया में आपकी उतनी ही प्रगति के अवसर हैं। कमोबेश यही हाल उर्दू या मुसलिम मामलों को कवर करने वाले टीवी चैनलों का भी है। एक उदार सुन्नी मौलवी ने बताया कि इन चैनलों पर वहाबियत और सल्फियत के झंडाबरदार शांति का भाषण देते हैं और यही लोग बंद कमरे में वहाबी आतंकवाद को जायज मानते हैं।

भारत के बाहर यह अभियान चलाने वालों में सबसे बड़ा नाम पाकिस्तान से प्रो. ताहिर उल कादरी का है। पाकिस्तान की मुख्यधारा के उर्दू और अंग्रेजी मीडिया के दूषित कवरेज से प्रो ताहिर बाहर निकल चुके हैं। मिनहाजुल कुरआन नाम से अभियान चला रहे प्रो ताहिर पूरी दुनिया में वहाबियत की खतरनाक योजना का फाश करने में लगे हैं। भारत के सूरत में मिनहाजुल कुरआन दफ्तर चलता है।

पाकिस्तान से ही ख्वाजा शम्सुद्दीन अजीमी, बांग्लादेश से डॉ सैयद इरशाद अहमद बुखारी, सऊदी अरब से अब्दुल्लाह बिन बय्याह, यमन से हबीब अली अलजाफरी, हबीब उमर बिन हफीज, मिस्र से अहमद बिन तैयब, अली गोमा, शौकी इब्राहीम अब्दुल करीम, सीरिया से मुहम्मद अलयाकूबी, वहबा जुहैली, मुहम्मद बिन याहया अलनिनौवी (अब अमेरिका में), सेनेगल से अहमद तिजानी अली सीसी, माली से शेख तिरमी सियाम, मोरक्को में श्रीमती फातिमा मरनीसी, लेबनान से जिबराइल हद्दाद, ईरान से जावेद नूरबख्श (निर्वासित), जॉर्डन से नूह हा मीम केलर, तुर्की से फतहुल्लाह गुलेन (अब अमेरिका में), चेचेन्या से वहां के राष्ट्रपति रमजान कादिरोव, बोस्निया से मुस्तफा सैरिक, साइप्रस से नाजिम अल हक्कानी, रूस से सैद आफन्दी, मलेशिया से सैयद मुहम्मद नकीस अलअत्तास, श्रीलंका से सैयद अहमद कबीर रिफाई, दक्षिण अफ्रीका से अब्दुल कदीर अससूफी, पूरे यूरोप से मौलाना कमरुज्जमा आजमी (भारतीय मूल), इंग्लैंड से अब्दुल हकीम मुराद, अहमद बाबीकर, लेलेवन वागिन ली, स्टीफन श्वॉर्ट्ज़, इरफान अल अलावी, मुहम्मद इमदाद हसन पीरजादा, हॉलैंड से अब्दुर रशीद फिरिल नबी, हादी मुहम्मद दीन अलादीन, आॅस्ट्रेलिया से सैयद असद मजहर अली, अमेरिका से अहमद तिजानी बिन उमर, हम्जा यूसुफ, हिशाम कब्बानी, हुसैन नस्र, एमए मुक्तेदार खान, मुहम्मद बिन याहया अलनिनौवी, नूरुद्दीन दुरकी और जैद शाकिर वह खास नाम हैं जो समाज के बीच जाकर वहाबियत के बरक्स सूफी इस्लाम की तालीम दे रहे हैं।

इस्लाम में शुद्धता और सुधारवाद के नाम पर आतंक का अभियान चलाने वाली वहाबी और सलफी जमातों ने कई सूफी संतों और विद्वानों को मार डाला। उदार सुन्नी मत के प्रतिष्ठित संतों में पाकिस्तान के सरफराज नईमी, दागिस्तान (रूस) के शेख आफन्दी और सीरिया के अलबाउत की सलफियों ने हत्या कर दी। कश्मीर में भी कई मस्जिदों के सूफी इमामों को आतंकवादियों ने चुन-चुन कर मारा है। दुनिया भर में सलफी हमलों में मारे गए सूफी संतों और इमामों की संख्या हजारों में है।


राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कट््टर होने के आरोप को भारत के मुसलमान, खासकर सुन्नी इसलिए बर्दाश्त नहीं करते क्योंकि कट््टरता और आतंक के पर्याय वहाबियत उर्फ सल्फियत के विरुद्ध वे खुद मुहिम चला रहे हैं। भारतीय सुन्नी संत विदशी दौरों में हिंदू-मुसलिम एकता के कसीदे पढ़ते हैं और यह भी कहते हैं कि भारत इसलिए शांतिप्रिय इस्लाम का घर बन पाया, क्योंकि सहिष्णु हिंदू ने उसे गले लगाया। मौलाना मुहम्मद अशरफ किछौछवी और हाशमी मियां विदेशी दौरों पर भगवा शॉल जरूर डाल कर जाते हैं ताकि अन्य देशों के धर्मगुरुउन्हें भारत से आए संत के तौर पर पहचान लें। मौलाना मुहम्मद अशरफ इसे अजमेर के महान संत ख्वाजा मुईनुद्दीन चिश्ती की सुन्नत (नकल करना) बताते हैं। जिसे आम हिंदू भगवा रंग कहता है उसे भारतीय सुन्नी सूफी चिश्तिया रंग कहता है। संघ और जमातें हिंदू और मुसलमान बनाने में लगे हैं, पर यह कौन बताएगा कि इसके लिए इंसानियत की सनातनी और इस्लामी मंशा क्या है?  

1 comment:

  1. बेहद जरूरी है ये सब जानना |सच्चाई से रु-ब- रु करने के लिए शुक्रिया .

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