पश्चिम के मित्र हैं ये जेहादी आतंकवादी
शम्सुल
इस्लाम
पिछले दिनों दुनिया के दो अलग और
दूरदराज के हिस्सों, नैरोबी (अफ्रीका) और पेशावर
(पाकिस्तान) में निर्दोष लोगों का भयानक रक्तपात हुआ। दोनों ही जनसंहारों में
अपराधियों का संबंध अल-कायदा और तालिबान से बताया जा रहा है, जो हत्यारों ने
स्वीकारा भी है। वे ‘सच्चे इस्लाम’ का प्रतिनिधित्व
करने और पश्चिम व उसके सहयोगियों द्वारा मुसलमानों पर ढाए गए जुल्मों का ‘बदला’ लेने के लिए
जिहाद करने का दावा करते हैं।
पाकिस्तान का पेशावर एक ऐतिहासिक
शहर है, जहां भारतीय
उपमहाद्वीप के सभी चर्चों में से एक निहायत खूबसूरत और प्राचीनतम चर्च स्थित है।
पेशावर के कोहाटी गेट की चारदीवारी के अंदर १८८३ में निर्मित यह ‘ऑल सेंट्स
एंग्लिकन चर्च’, चर्च ऑफ पाकिस्तान का अंग है। मीनारों और गुंबदों के साए में बना
यह चर्च ईसाइयों का एक अनोखा उपासनाघर है, जहां मुगल व ब्रिटिश वास्तुकला का
संगम साफ तौर पर दिखता है। २२ सितंबर को जब सैकड़ों भक्त प्रार्थना करने के बाद
चर्च से बाहर आ रहे थे, तब दो आत्मघाती हमलावरों ने अपने
शरीर पर बंधे बमों का विस्फोट कर दिया। इस विस्फोट में ७ बच्चों व ३७ महिलाओं समेत
लगभग ८० से ज्यादा धार्मिकजन दर्शक घटनास्थल पर ही मारे गए, जबकि १५० से
ज्यादा गंभीर रूप से घायल हो गए। मरने वालों की संख्या १०० से ज्यादा तक हो सकती
है।
एक बार पाकिस्तानी सेना द्वारा
वित्तीय सहायता प्राप्त व तालिबान से संबद्ध एक आतंकी संगठन जनदुल्लाह (अल्लाह के
सैनिक) ने इस आत्मघाती हमले की जिम्मेदारी ली है। जनदुल्लाह के प्रवक्ता अहमद
मरवात ने कहा कि उनके संगठन ने पेशावर चर्च पर आत्मघाती हमले किए और विदेशियों व
गैर-मुस्लिमों पर तब तक अपने हमले जारी रखे जाए तो जब तक कि ड्रोन हमले नहीं रुक
जाते।
याद रहे ड्रोन ऐसे चालक रहित विमान
हैं, जिनका प्रयोग
अमेरिका द्वारा पाकिस्तानी क्षेत्र में कई तालिबानी कमांडरों को मारने के लिए किया
गया है लेकिन इन हमलों में बड़ी तादाद में औरतों, बच्चों और पुरुषों की भी जानें गई
हैं।
मीडिया में छपी खबरों के मुताबिक इस
हमले के तुरंत बाद बड़ी संख्या में हताहतों के रिश्तेदार व मित्र चर्च के बाहर एकत्रित
हो गए और उन्होंने देश में आतंकी हमलों को न रोक पाने के लिए पाक सरकार की कटु
आलोचना की। पाकिस्तान के लगभग सभी बड़े शहरों में ईसाइयों के साथ-साथ अन्य नागरिकों
द्वारा विरोध प्रदर्शन आयोजित किए गए, जिनमें हजारों लोगों ने हिस्सा
लिया।
अफ्रीका के प्रमुख देश, कीनिया की
राजधानी और देश के सबसे बड़े शहर नैरोबी में अल-कायदा से संबद्ध सोमालिया के एक
जिहादी संगठन ‘अल-शबाब’ ने हमला किया। शनिवार, २१ सितंबर, २०१३ को दोपहर
बाद हथियारों से लैस हमलावरों का एक समूह, यहां के एक प्रमुख शॉपिंग मॉल में
दाखिल हुआ और उसने ग्रेनेड्स से हमले किए व स्वचालित हथियारों से फायरिंग की।
इस जनसंहार में ९० से अधिक इंसान
मारे गए और लगभग २०० लोग गंभीर रूप से घायल हो गए। एक दुखद पहलू यह है कि जिस समय
मॉल पर यह हमला हुआ वहां बच्चों पर आधारित एक कार्यक्रम आयोजित किया जा रहा था और
अंदेशा है कि बच्चों के हताहत होने की संख्या में बढ़ोतरी हो सकती है। हमले में
मारे गए केवल कीनियाई नागरिक नहीं थे। भारतीय, फ्रेंच, डच, दक्षिणी अफ्रीकी, ऑस्ट्रेलियन, ब्रिटिश और
कनाडियाई नागरिकों ने भी अपनी जिंदगियां खोईं। निरपराध बच्चों, पुरुषों व
महिलाओं के रक्त बहाने का खूनी खेल पिछले मंगलवार तक जारी था।
सुप्रसिद्ध घानाई कवि कोफी अवूनर भी, जो एक साहित्यिक
आयोजन में नैरोबी आए हुए थे और उस समय मॉल में मौजूद थे, इस आतंकी हमले का
शिकार हुए। वह नस्लवाद के खिलाफ एक मजबूत और प्रभावशाली आवाज थे। मीडिया में छपी
रिपोर्टों के मुताबिक ‘अल शबाब’ ने अपने इस भीषण
जनसंहार का यह कहकर बचाव किया कि यह सोमालिया में मुसलमानों के खिलाफ कीनियाई सेना
की कार्रवाइयों के विरोध में किया गया है।
ब्रिटिश प्रधानमंत्री डेविड कैमरून
और अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने अपनी संवेदना प्रकट करते हुए हमलावर अपराधियों
पर केन्या के प्रयासों के लिए अमेरिका के समर्थन का वादा किया। इन बयानों का
स्वागत है लेकिन इन दोनों नेताओं से यह पूछा जाना चाहिए कि क्या यह सत्य नहीं है
कि पश्चिम के शासकों ने ही तालिबान और अल कायदा जैसे संगठनों को पैदा किया और
पाला-पोसा। १९८० के दशक में इस्लामी दुनिया में पश्चिमी शोषण और वर्चस्व के खिलाफ
बढ़ती धर्मनिरपेक्ष चुनौतियों को विफल करने के लिए इन संगठनों को खाड़ा और
विकसित किया गया, ताकि इस्लाम का नारा बुलंद करके
वहां चल रहे धर्मनिरपेक्ष आंदोलनों को विफल किया जाए। पश्चिमी खुफिया एजेंसियों ने
अपने सामरिक हितों के लिए ही ‘इस्लामिक संसार’ में समाजवादी और
राष्ट्रवादी आंदोलनों का मुकाबला करने के लिए जिहादी इस्लाम को पैदा किया और उसे
पाला-पोसा। यदि डेविड कैमरून और बराक ओबामा के पूर्ववर्तियों ने इनको न पैदा किया
होता तो आज दुनिया बहुत बेहतर जगह होती। ऐसा नहीं है कि पश्चिमी शासकों का यह
कुत्सित खेल अब खत्म हो गया हो।
पश्चिमी देशों की जंगबाज नीतियों के
एक बड़े विश्लेषक वल्र्ड अलेक्स लांतेयर ने लिखा है कि अमेरिका और फ्रांस के
नेतृत्व में आज भी सीरियाई सरकार के खिलाफ अलकायदा से जुड़े विद्रोहियों को बड़े
पैमाने पर फौजी सहायता उपलब्ध कराई जा रही है। इससे साफ पता चलता है कि पश्चिमी
देश एक शर्मनाक खेल खेल रहे हैं। अफगानिस्तान व अफ्रीका में वे अलकायदा को आतंकवाद
का सबसे बड़ा सरगना बताते हैं, जबकि पश्चिमी एशिया में इससे जुड़े
संगठनों को हमलावर होने में हर तरह की सहायता पहुंचा रहे हैं।
हालांकि इस अमानवीय और संदिग्ध ‘पितृत्व’ के बावजूद ‘जनदुल्लाह’ और ‘अल शबाब’ के अपराधियों को
मानवता के खिलाफ उनके अपराधों के दोष से बरी नहीं किया जा सकता। अपराधियों के ये
गैंग यह कहकर अपने कार्यों का बचाव करते हैं कि वे ईसाई-गैर-मुस्लिम शत्रुओं से ‘इस्लाम और
मुसलमानों को बचाने के लिए’ ऐसा कर रहे हैं। उनकी शिकायत यह है
कि आतंकवाद से लड़ाई के नाम पर पश्चिम सभी मुसलमानों को निशाना बना रहा है और देखिए
कि इस्लाम के ये स्वयंभू अभिभावक क्या कर रहे हैं? वे उन निर्दोष लोगों को जो किसी भी
धर्म या रंग के शासकों से कोई वास्ता नहीं रखते, मार रहे हैं और उन्हें विकलांग बना
रहे हैं। इस प्रकार पश्चिमी आतताइयों और इन अपराधियों दोनों के बीच कोई अंतर नहीं
है।
वे सिर्फ गैर-मुस्लिमों का सफाया
करना चाहते हैं। यह विश्वास करना कितना मूर्खतापूर्ण है कि बम और गोलियां शिकार
करने से पहले पीड़ित से उसके धर्म की जांच करती होंगी। ये अपराधी इस सच्चाई को भूल
जाते हैं कि इस धरती पर लगभग सभी जगह विभिन्न धर्मों के लोग साथ रहते और काम करते
हैं। पेशावर और नैरोबी दोनों जगह उन्होंने कई मुसलमानों को भी मौत के घाट उतारा
है।
और यह अपराधी नैरोबी में प्रसिद्ध
नास्तिक कवि कोफी अवनूर की हत्या को कैसे न्यायोचित ठहरा सकते हैं? वे तो किसी ईसाई
खुदा या अन्य ईश्वर में विश्वास नहीं रखते थे। सत्य यह है कि उन्होंने हत्या करने
के लिए आसान लक्ष्य अर्थात आम इंसानों को चुना। धर्म के ये ठेकेदार पश्चिमी देशों
के शासकों का तो कुछ नहीं बिगाड़ सकते लेकिन बेसहारा और साधारण मासूम लोगों को मौत
के घाट उतार सकते हैं। अपनी ऐसी कार्रवाइयों से यह आतंकवादी, पश्चिम की
दादागीरी को कमजोर नहीं करते हैं, बल्कि पश्चिम को और क्रूर बनने में
ही मदद करते हैं, जिसकी बड़ी कीमत इन देशों के आम
नागरिकों को चुकानी पड़ती है।
इन आतंकवादियों का मानना है कि लड़ाई
मुसलमानों और अन्य लोगों के बीच है। अमेरिका के प्रसिद्ध दार्शनिक और यहूदी परिवार
में जन्मे नोम चोमस्की और उनके जैसे लाखों अन्य लोग (जो मुसलमान नहीं हैं) के बारे
में क्या-क्या माना जाएगा, जिन्होंने पश्चिम की आपराधिक
नीतियों और जंगबाजी का विरोध करने में जीवन बिताया है? और सऊदी अरब, जॉर्डन, तुर्की इत्यादि
के मुस्लिम शासकों के विषय में क्या राय है, जिन्होंने पीढ़ी-दर-पीढ़ी को पश्चिम
के प्यादों के तौर पर काम किया है। पश्चिमी साम्राज्यवाद के खिलाफ लड़ाई के लिए सभी
पीड़ित लोगों की एकता की आवश्यकता है। नासमझ धार्मिक हिंसा में लिप्त ये जेहादी
आतंकवादी केवल लोगों को बांट रहे हैं। वे पश्चिम के सर्वोत्तम मित्र हैं। जेहादी
आतंकवादियों के लिए यह समझना मुश्किल है कि मानव सभ्यता की शुरुआत इस्लाम के आगमन
के साथ नहीं हुई। यह लाखों सालों के विकास का परिणाम है। संघर्ष हुए लेकिन संगम भी
बने और इस्लाम भी बहुत से धर्मों व संस्कृतियों के मिलन से अस्तित्व में आया। इसके
अलावा कोई भी धर्म यह दावा नहीं कर सकता कि उसके अनुयायी एक ही तरह से दिखते-सोचते
और व्यवहार करते हैं। इस्लाम बनाम अन्य सब अथवा इसी तरह का किसी भी अन्य धर्म का
आह्वान फासिस्टों के द्वारा प्रचारित एक नारा ही हो सकता है, जो धोखे के अलावा
कुछ भी नहीं है। मानव समाज की जटिलता को समझने के लिए इस तरह की सोच रखने वाले
तत्वों को उनके भगवान कुछ सामान्य समझ भी प्रदान कर सकें तो कितना अच्छा होगा!
आम लोगों के खिलाफ धार्मिक हिंसा की
इस मौजूदा बाढ़ ने एक बार फिर पाकिस्तान में फैसलाबाद झांग के बिशप डॉ. जॉन जोसेफ
की भविष्यवाणी की याद दिला दी है, जिन्होंने पाकिस्तान में ईसाइयों पर
बढ़ते अत्याचारों के खिलाफ विरोध करते हुए अपनी जान दी थी। पाकिस्तान के साहीवाल
(मांटगुमरी) शहर में ईश-निंदा कानून के खिलाफ एक विरोध मार्च का नेतृत्व करते हुए
उन्होंने, 6 मई, १९९८ को खुद को
गोली मार कर मौत को गले लगाया था। इस्लाम के नाम पर कट्टरता के नंगे नाच के खिलाफ
अपने जीवन के बलिदान से छह दिन पहले बिशप जॉन जोसेफ ने अपने दुनिया भर के दोस्तों
को एक खुला पत्र लिखा था कि धार्मिक कट्टरता शासकों द्वारा पैदा की जाती है और
पाली-पोसी जाती है लेकिन जब एक बार स्थापित हो जाती है तो यह किसी के नियंत्रण में
नहीं रहती लेकिन इसकी भारी कीमत आम लोगों को चुकानी पड़ती है।
उन्होंने चेतावनी दी थी कि हमें यह
भरोसा नहीं करना चाहिए कि रक्त की प्यासी धार्मिक हिंसा का स्वत: अंत हो जाएगा या
वे शासक जिन्होंने इसे पैदा किया और हवा दी, वे इसका अंत कर सकते हैं। उन्होंने
आह्वान किया था कि हम में से हर एक को इसमें (धार्मिक कट्टरता को समाप्त करने के
अभियान में) शामिल होना होगा और अपनी भूमिका सक्रिय अदा करनी होगी। बदकिस्मती से
हमने डॉ. जॉन जोसेफ जैसे लोगों की कुर्बानी से कोई सबक नहीं सीखा है।
http://shukrawar.net/ से साभार
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