कविता - जब वो सत्रह बरस का हुआ

विनीत तिवारी 

जब मैं सत्रह बरस का हुआ
तब तक चार बार प्रेम कर चुका था
और हर बार घरवालों के हाथों पकड़ा जाकर पिट चुका था।

जब मैं सत्रह बरस का हुआ
तब तक 12 जमातें पास कर चुका था
और पूत के पाँव
जो पालने में हर माँ-बाप को शानदार ही नज़र आते हैं
अपनी असल शक्ल दिखाने लगे थे।

जब मैं सत्रह बरस का हुआ
तब तक घर वालों से किताबें ख़रीदने के लिए
ली गयी उनकी मेहनत की कमाई को धुएँ में उड़ा चुका था।

जब मैं सत्रह बरस का हुआ तब तक मैने हंस, पहल, वसुधा, इत्यादि का नाम भी नहीं सुना था
और तब तक 22 के हो चुके भाई का
खुफिया जगहों पर छिपाया हुआ अष्लील साहित्य पढ़ चुका था।

जब मैं सत्रह बरस का हुआ तो ऐसा नहीं था कि मैं पूरी तरह बर्बाद हो चुका था
क्योंकि आज मैं ठीक-ठाक ही
एक जि़म्मेदार  इंसान की हैसियत से इस दुनिया में मौजूद हूँ।

तो ज़ाहिर है कि मैंने बरास्ते 27
17 से 37 के होते-होते
और कुछ भी किया हो, नफ़रतें नहीं सीखीं थीं
और शायद मेरे आसपास के ज़्यादातर लोगों ने भी और जो भी बदमाषियाँ वगैरह की हों
नफ़रतें उन्होंने भी नहीं सीखी थीं।

जब इमरान सत्रह बरस का हुआ
उसके पहले से ही इष्क जैसी चीज़ पर भूख भारी पड़ चुकी थी।

जब इमरान सत्रह बरस का हुआ
तब तक उसके घरवालों को कई मुहल्ले बदलकर
आखि़रकार  एक ऐसे मुहल्ले में अपना नया घर लेना पड़ा था
जहाँ बाक़ी लड़कों के नाम भी ज़ीषान, सुलेमान, सुल्तान जैसे होते थे।

जब इमरान सत्रह बरस का हुआ
तो वो पढ़ने की विलासिता छोड़कर
बिल्डिंगों में सरिये बाँधना सीख चुका था
और छोटे भाई छोटू को काम सिखा रहा था
अपने अब्बू के एक्सीडेंट की वजह से बेपटरी हुए घर को पटरी पर ला रहा था।

जब इमरान सत्रह बरस का हुआ
तो उसी बरस के किसी एक दिन
कफ्र्यू लगने की ख़बर पाकर वो काम से घर जा रहा था
जब पुलिस के ही किन्हीं नफ़रतज़दा हाथों ने
उसके मजहब की तहक़ीकात कर
बंदूक की नाल उसके मुँह में घुसाकर घोड़ा दबा दिया।

इस तरह इमरान जो बरास्ता 27
17 से 37 के होते-होते
मुझसे बेहतर और जि़म्मेदार इंसान बन सकता था
उसे हमने, हमारी सारी दुनिया ने खो दिया।

और अब मैं हूँ,
जो कमतर हूँ उससे
लेकिन चूँकि मेरा नाम इमरान, रिज़वान या शफ़ीक
या थॉमस या जॉर्ज जैसा कुछ नहीं है
इसलिए इस हिन्दुस्तान में मेरे रहने की उम्मीदें कुछ ज़्यादा हैं
हालाँकि वो भी तब तक
जब तक मैं अपनी ये इमरान-इमरान वाली कविता ज़्यादा सुनाऊँ।

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