सांप्रदायिक एवं लक्षित हिंसा विधेयक से कुछ लोगों को डर क्यों लगता है?
एल.एस.हरदेनिया
दिनांक 23-24 नवंबर को
इलाहाबाद में आयोजित एक विशाल सम्मेलन में यह तय किया गया कि इस बात के सघन प्रयास
किए जायें कि शीघ्र प्रारंभ होने वाले संसद के अधिवेशन में साम्प्रदायिक और लक्षित
हिंसा (न्याय और पुनर्वास तक पहुँच) विधेयक राज्यसभा में पेश हो जाएं। इस उद्देश्य
से तुरंत एक राष्ट्रव्यापी अभियान प्रारंभ किया जाएगा। इस अभियान के दौरान सांसदों
से मुलाकात की जाएगी, विभिन्न पार्टियों के मुखियाओं से भी
संपर्क किया जाएगा। इसी तरह से यह प्रयास किया जाएगा कि मीडिया में इस बात का
प्रचार हो कि यह विधेयक क्यों आवश्यक है?
विधेयक को राज्यसभा में पेश किए जाने के सुझाव के पीछे एक प्रमुख
कारण है। नियम के अनुसार लोकसभा में जो भी विधेयक विचारार्थ लंबित रहते हैं वे
लोकसभा के भंग होने की स्थिति में मृतप्राय हो जाते हैं। चूँकि राज्यसभा एक स्थाई
सदन है इसलिए राज्यसभा में जो भी मामला लंबित रहता है उस पर सदन को आवश्यक रूप से
विचार करना होता है। इसलिए राज्यसभा में पेश किए जाने पर जोर दिया जा रहा है। यह
भी सुझाव आया कि यदि सरकार इस विधेयक को राज्यसभा में प्रस्तुत करने के लिये राजी
नहीं होती है तो उसे प्राईवेट मेंबर विधेयक के रूप में पेश करवाया जाए।
विधेयक की कुछ खास बातें निम्न प्रकार
हैं :
यह विधेयक किसी भी राज्य में धार्मिक और भाषाई
अल्पसंख्यकों तथा दलित और आदिवासियों की संगठित और लक्षित साम्प्रदायिक हिंसा से
रक्षा का वादा करता है।
अल्पसंख्यक या कमजोर समुदाय के खिलाफ नफरत भरे भाषण, बयानबाजी या लेखन की शुरूआत साम्प्रदायिक हिंसा के
बहुत पहले हो जाती है। यही प्रचार असली हिंसा के लिये ईंधान मुहैया कराता है।
हालाँकि आई.पी.सी. की धारा 153ए के तहत इस तरह के भडकाऊ भाषण
या लेखन के खिलाफ सजा तजवीज की गई है लेकिन यह विधेयक नफरत भरे प्रचार को फिर से
परिभाषित करता है। इसी तरह यह अन्य कई अपराधों की फिर से परिभाषा करता है
जैसे-यन्त्रणा, लैंगिक हिंसा, संगठित
एवं लक्षित साम्प्रदायिक हिंसा, कर्तव्य न निभाना और अपने से
नीचे के अधिकारियों को आदेश देने में देर या कोताही करना। इस विधेयक में
साम्प्रदायिक हिंसा के दौरान महिलाओं पर होने वाले जुल्म पर विशेष धयान दिया गया
है।
आज से 15 साल पहले एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी ने कहा था
कि 'कोई भी दंगा 24 घंटे से
ज्यादा नहीं चल सकता अगर राज्य उसे न चलाना चाहे।' राज्य के
पक्षपातपूर्ण होने और हिंसा में हिस्सा लेने के बारे में यह एक भीतरी आदमी का
ईमानदार बयान था। इस बयान के बाद की कई जाँच कमेटियों और अधिकारियों के बयान से इस
बात की पुष्टि होती है। दंगों के वक्त पुलिस-प्रशासन की अनदेखी या पक्षपात से न
केवल दंगा बढ़ता चला जाता है बल्कि पुनर्वास भी असंभव हो जाता है। नतीजा होता है
भारतीय लोकतंत्र और न्याय व्यवस्था से लोगों का भरोसा उठ जाना। भारतीय कानून के
इतिहास में पहली बार ऊँचे पदों पर बैठे नौकरशाहों को भी 'आदेश
देने में कोताही' के लिये दायरे में लिया गया है। अगर कहीं
साम्प्रदायिक हिंसा की वारदात होती है तो उन नौकरशाहों पर भी मुकदमा चलाया जा सकता
है जिनके नीचे आने वाले अधिकारियों-कर्मचारियों ने अपना कर्तव्य पालन नहीं किया और
हिंसा को भड़कने दिया। दूसरे शब्दों में बड़े अधिकारियों को भी हिंसा के भड़कने और
फैलने के मामलों में जिम्मेदार बनाया गया है।
साम्प्रदायिक हिंसा के दौरान होने वाले नुकसान की भरपाई के लिये यह विधेयक मुआवजे और पुनर्वास
के ठोस नियम बनाता है। ताकि यह किसी सरकार के रहमोकरम पर निर्भर न रहे। यह नियम
सभी के लिये है चाहे वह अल्पसंख्यक समुदाय का हो या बहुसंख्यक समुदाय का। विधेयक
सरकार को वैधानिक रूप से मजबूर करता है कि वह किसी भी हालत में एक महीने के भीतर
मुआवजे का भुगतान करे। मुआवजे के लिये न्यूनतम मानक भी तय किये गये हैं जैसे
मृत्यु के लिये 15 लाख, बलात्कार के लिये 5 लाख, गंभीर
रूप से घायल के लिए 2 लाख, मानसिक
प्रताड़ना और अवसाद के लिये 3 लाख। सम्पत्ति नष्ट होने,
घर या व्यापार की हानि होने पर दिया जाने वाला मुआवजा महँगाई की दर
के साथ बदला जायेगा। जबरन बेदखली, घर या व्यापार पर जबरन
कब्जा हो जाने और अवसरों के खत्म होने पर भी मुआवजे की व्यवस्था है।
नये कानून को लागू करने में सहायता के लिए राष्ट्रीय
प्राधिकरण की स्थापना की जाएगी। इसका नाम होगा 'साम्प्रदायिक सद्भाव, न्याय और पुर्नवास के लिए
राष्ट्रीय प्राधिकरण।' ऐसे ही प्राधिकरण राज्यों में भी
बनाये जाएंगे। भारतीय राज्य के संघात्मक ढांचे के मद्देनजर राष्ट्रीय प्राधिकरण
राज्यों को बाधय तो नहीं कर सकता लेकिन वह न्यायालय से राज्यों के लिए निर्देश
प्राप्त कर सकता है। राष्ट्रीय प्राधिकरण में सात सदस्य होंगे जिसमें से 4 अल्पसंख्यक, महिला, दलित और
आदिवासी तबके के होंगे।
यह एक चौंकाने वाली बात है कि जब भी
इस विधेयक के पेश होने की संभावना बनती है संघ परिवार की ओर से शोर मचाना शुरू कर
दिया जाता है। संघ परिवार की ओर से प्रचारित किया जाने लगता है कि बुनियादी रूप से
यह विधेयक हिन्दू विरोधी है। यह दावा किया जाता है कि दंगा कोई भी करे सजा हिन्दू
को ही होगी।
विधेयक से कौन डरता है?
अभी विधेयक संसद के सामने पहुँचा भी नहीं कि इसके
खिलाफ दुष्प्रचार शुरू हो गया। यह भी आरोप लगाया जाना लगा कि यह भारतीय समाज को
बहुसंख्यक और अल्पसंख्यक दो भागों में बांट देगा। यह अल्पसंख्यक समुदाय द्वारा
किये गये साम्प्रदायिक अपराधों की अनदेखी करता है। यह दुष्प्रचार उन्हीं के द्वारा
किया जा रहा है जो आमतौर पर नफरत की राजनीति ही करते हैं। जिन्होंने संख्याबल या
सामाजिक ताकत के मार्फत लोकतंत्र को अगवा करने की हमेशा कोशिश की है।
इसे समझने के लिए हमें प्रातिनिधिक
लोकतंत्र की बारीकियों को समझना होगा। यह लोकतंत्र तभी अपने को सही लोकतंत्र के
रूप में स्थापित कर सकता है जब यह अल्पसंख्यक या सामाजिक रूप से कमजोर तबकों की
रक्षा एवं बराबरी का दावा कर सके। लेकिन इतिहास गवाह है कि चाहे वह कश्मीर के
पंडित हों, गुजरात के मुसलमान हों, उड़ीसा के ईसाई हों, दिल्ली के सिख हों या खैरलाजी के
दलित, हमेशा बहुसंख्या की ताकत से दबाये गये हैं। वे न केवल
साम्प्रदायिक हिंसा के शिकार हुए हैं बल्कि उन्हें आज तक इंसाफ नहीं मिला है।
हालात और बिगड़े हुए महसूस होते हैं जब हम देखते हैं कि इन घटनाओं में राज्य के
जिम्मेदार पदाधिकारी न केवल हिंसा को रोकने में नाकाम रहे बल्कि उन्होंने हिंसक
गुटों का साथ भी दिया। उन्होंने पीड़ितों तक इंसाफ पहुंचने के रास्ते में भी बाधाएँ
खड़ी की। हद तो तब हो गई जब चुनावों का इस्तेमाल साम्प्रदायिक धा्रुवीकरण बढ़ाने के
लिए किया गया। साम्प्रदायिक हिंसा को जायज ठहराने के लिए बहुमत के तर्क का
इस्तेमाल किया गया। ऐसे माहौल में क्या जरूरी नहीं हो जाता कि लोकतंत्र के बहुमत
वाले तर्क को कानून और संविधान के बराबरी वाले तर्क से ठीक किया जाये। अगर भीड़
किसी इंसान को घेर कर मार देती है तो हम यह तर्क नहीं दे सकते कि भीड़ इसलिए
हत्यारी नहीं है चूंकि वह बहुमत में है। विधेयक हमारे लोकतंत्र को एक जरूरी संतुलन
देता है। वह समाज को अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक में बांटता नहीं बल्कि पहले से ही
बंटे हुए समाज में संवैधानिक बराबरी और कानून के शासन का पुल बाँधाता है।
यह विधेयक बहुसंख्यकों के विरूध्द नहीं है बल्कि यह राज्य की
मशीनरों को अल्पसंख्यकों और सामाजिक रूप से कमजोर तबकों के लिए संवेदनशील और
जवाबदेह बनाने की पहल है। यह अल्पसंख्यकों और सामाजिक रूप से कमजोर तबके के लिये
विशेष चिंता दिखाता है। क्योंकि इन तबकों की सामाजिक पहचान की वजह से ही उन्हें
सामूहिक हिंसा का शिकार बनाया जाता है। यह इस बात की ताईद करता है कि वही लोकतंत्र
सफल हो सकता है जिसमें इंसाफ और बराबरी सामाजिक ताकत के हिसाब से नहीं बल्कि
नागरिक होने के नाते मिलते हैं। इस विधेयक के खिलाफ झूठा प्रचार करने वाले वही हैं
जिन्हें हमारी तहजीब, लोकतंत्र और संविधान
में विश्वास नहीं।
हम क्या करें?
यह विधेयक बनने के बाद ठंडे बस्ते में डाल दिया गया है। इस पर बहस
हो और यह कानून बन सके इसके लिए विभिन्न दलों में राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी है।
एक राष्ट्रीय अभियान शुरू किया गया है ताकि विधेयक को संसद में रखा जाये और इस पर
पूरे देश में चर्चा हो सके।
हमारा संविधान कहता है कि राज्य किसी भी व्यक्ति से धर्म, जाति, लिंग या जन्मस्थान के
आधार पर भेदभाव नहीं कर सकता। साथ ही संविधान हर व्यक्ति की कानून के सामने समानता
का भी वादा करता है। लेकिन हालात इतने जटिल हैं। खासकर साम्प्रदायिक हिंसा के
मामलों में राज्य व उसके अमले न केवल भेदभाव करते पाये जा रहे हैं बल्कि खुलकर
अत्याचारियों का साथ दे रहे हैं। ऐसे में संविधान, लोकतंत्र
और साझा संस्कृति के उसूलों में यकीन करने वाले सभी व्यक्तियों, संगठनों और समूहों की यह जिम्मेदारी बनती है कि साम्प्रदायिक एवं सामाजिक
भेदभाव की बीमारी को निकाल फेकें और एक स्वस्थ लोकतंत्र के निर्माण के लिए आगे
बढ़ें। साम्प्रदायिक और लक्षित हिंसा (न्याय और पुर्नवास तक पहुँच) विधेयक 2011
को कानून बनाने की मुहिम में शामिल हों। शायद संघ परिवार एवं अन्य
समूह को यह लगता होगा कि यदि इस विधेयक के कानून बनने से दंगे रूक जाते हैं तो
उनके हाथ से एक ऐसा मुद्दा छिन जायेगा जो धर्म और आस्था के नाम पर समाज को
धा्रुवीगत करता है और फिर उससे राजनैतिक लाभ उठाता है।
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