कब तक समुदाय पर संशय भरी निगाहें ?

 सुभाष गाताडे



अहमदाबाद के पांच लाख से अधिक अल्पसंख्यकों की आबादी वाला इलाका जुहापुरा इस वंचना का प्रातिनि धिक उदाहरण हो सकता है। गुजरात के 'अल्पसंख्यकों के इस सबसे बड़े घेट्टो में' विगत लगभग दो दशकों से कोई सरकारी बैंक नहीं था। लाजिम था अन्तत: जब एक सरकारी बैंक कुछ समय पहले खुल गया तो लोगों के लिए वह मौका जश्न से कम नहीं मालूम पड़ा।



केरल के हवाले से आयी यह ख़बर चिन्तित करने वाली है। सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों में खाता खुलवाने में अब अल्पसंख्यक समुदाय - विशेषकर मुस्लिम समुदाय को - परेशानी का सामना करना पड़ सकता है। दरअसल भारतीय रिजर्व बैंक ने ऐसे कई नामों की सूची जारी की है और कहा है कि ऐसे नामों से मिलते जुलते नाम के लोग अगर खाता खुलवाने आएं तो इस बात की तसदीक कर लें कि कहीं वह आतंकवादी तो नहीं है।

गौरतलब है कि रिजर्व बैंक की तरफ से एक सॉफ्टवेयर तैयार किया गया है, जिसे नए खाता धारकों के पंजीयन के वक्त इस्तेमाल करने के निर्देश दिए गए हैं। इसके पीछे यह सोच काम करती है कि अगर खाता धारकों की व्यक्तिगत जानकारियां दर्ज की जाएं तो संदिग्ध लोगों के खाता खोलने की सम्भावना लगभग खत्म हो जाएगी। इसके अलावा देश या विदेश में वांछित दहशतगर्दों की एक सूची भी सभी बैंकों को जारी की गयी है ताकि नया खाता खोलते वक्त वह जांच लें कि जिसका खाता खोला जा रहा है, उसी नाम से मिलता जुलता शख्स तो यह नहीं है।

 एक अग्रणी साप्ताहिक (शुक्रवार, 21 नवम्बर 2013) को दिए अपने साक्षात्कार में बैंकिग क्षेत्र में कार्यरत व्यक्ति ने नाम न छापने की शर्त पर बताया कि 'रिजर्व बैंक द्वारा ऐसे दिशानिर्देश जारी करना कोई नई बात नहीं है। ऐसे निर्देश निजी बैंकों को भी दिए जाते हैं। इतना ही नहीं आतंकवाद के हिसाब से संदिग्ध नामों की सूची भी बैंक द्वारा अक्सर जारी की जाती है।

बैंक कर्मचारी संघों, वामपंथी दलों या अन्य सामुदायिक संगठनों को बेचैन किए इन दिशानिर्देशों ने बरबस सच्चर आयोग की अहम सिफारिशों के मद्देनज़र सरकारों द्वारा किए गए अमल की असलियत उजागर की है। याद रहे कि संप्रग गठबन्धन सरकार ने अपने पहले संस्करण में देश के सबसे बड़े अल्पसंख्यक समुदाय - मुसलमानों की सामाजिक, आर्थिक और शैक्षिक हालात की पड़ताल करने के लिए  राजेन्द्र सच्चर के नेतृत्व ने एक कमेटी बनायी थी। कमेटी ने सामाजिक-आर्थिक तथा अन्य सूचकांकों पर देश की मुसलमान आबादी की बेहद खराब हालत के मद्देनजर शिक्षा, रोजगार और सामाजिक अलगाव के इस मौजूदा सूरतेहाल में तब्दीली लाने के लिए अहम सुझाव भी पेश किये थे। 'फॉर्मल सेक्टर' में उपलब्ध नौकरियों में 'समानतापूर्ण' वितरण की बात रेखांकित करते हुए उसने अल्पसंख्यकों के लिए बैंक के कर्जे का वितरण अधिक पारदर्शी बनाने की बात कही थी। स्पष्ट है कि बैंकों में खाता खोलने को लेकर अगर व्यक्ति को बाधाओं का सामना करना पड़े तो फिर बैंक के कर्जे के वितरण में  कितनी दिक्कतें पेश आती होंगी इसका अन्दाजा ही लगाया जा सकता है।

वैसे कुछ समय पहले स्वयं राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग ने भी इस तथ्य को नोट किया था (मेल टुडे, 21 जुलाई 2010, मुस्लिमस् फेस बैंक 'प्रोफाइलिंग' बैरिअर') कि शेडयूल्ड कमर्शियल बैंकों द्वारा खाता खोलने या कर्जे को मंजूरी देने को लेकर अल्पसंख्यक समुदाय के साथ देश के पैमाने पर कितनी आनाकानी की जाती है। 2007-2009 के बीच महज दो साल के अन्दर इस सिलसिले में आयोग में पहुंचनेवाली शिकायतों की संख्या लगभग दुगुनी हुई हैं। अगर वर्ष 2007-2008 के बीच आयोग के पास 1508 शिकायतें पहुंची थीं तो जुलाई 2009 से 31 मार्च 2010 के बीच -महज नौ महिने के अन्तराल में उसके पास 2,268 शिकायतें पहुंची थी।

गौरतलब है कि बैंक अधिकारियों द्वारा अल्पसंख्यकों के खाते खोलने में की जा रही ढिलाई की सबसे अधिक मार छात्रों पर पड़ी है। इस सम्बन्धा में सबसे विचलित करनेवाली ख़बर आंध्रप्रदेश से थी जिसमें बताया गया था कि वर्ष 2009 में अल्पसंख्यक समुदाय से आनेवाले नब्बे हजार छात्रों की स्कॉलरशिप की राशि जमा करने के लिए खाता खोलने के लिए कोई भी सरकारी बैंक तैयार नहीं हुआ था। वैसे प्रस्तुत रिपोर्ट ने इस बात पर रौशनी नहीं डाली थी कि आखिर उन नब्बे हजार छात्रों को अपने वजीफे की राशि पाने के लिए क्या जुगाड़ करना पड़ा होगा ? मुमकिन है इस आपा धापी में कुछ छात्रों को पढ़ाई से ही रूखसत होना पड़ा हो।

कुछ सीमित कालावधि को छोड़ कर केन्द्र में सेक्युलर ताकतों के सत्तासीन होने के बावजूद अल्पसंख्यक बहुल इलाके में सरकारी बैंक खोलने में हुई अक्षम्य देरी या देश के पैमाने पर बैंक में उनके खाते खोलने में या उन्हें कर्जा उपलब्ध कराने में की जा रही आनाकानी को आखिर किस तरह समझा जा सकता है। स्थूल रूप में कहें तो धर्मनिरपेक्ष/सेक्युलर होने के हमारे कथन और अमल में गहरा अन्तराल है, जिसे कबूल करने के लिए आज भी हम तैयार नहीं हैं।

साफ है कि आए दिन ऐसी छोटी छोटी ख़बरें आती रहती हैं, जो इस कड़वी सच्चाई से हमारा साक्षात्कार कराती हैं, मगर या तो वे हमारे मस्तिष्क में दर्ज नहीं होती या उन्हें अपवाद कह कर हम खारिज करते हैं। अगर बैंक में खाता खोलने या बेहतर शिक्षा पाने के अवसरों को एक तरह से कुन्द किया जाता है, वहीं यह बात भी सही है कि अल्पसंख्यक समुदाय से सम्बध्द होने के चलते आतंकवाद के नाम पर तमाम निरपराधों को गिरतार कर जेल में डाल दिया जाता है और तरह तरह की दमनकारी  धाराएं उनके खिलाफ लगा दी जाती हैं।

अभी नवम्बर माह में 'जामिया टीचर्स सालिडारिटी एसोसिएशन' की तरफ से प्रकाशित हुई रिपोर्ट 'गिल्ट बाय एसोसिएशन' में मध्यप्रदेश में अनलॉफुल एक्टिविटीज प्रीवेन्शन एक्ट ' जो बेहद दमनकारी कानून है, उसके अन्तर्गत अल्पसंख्यक समुदाय की तमाम मनमानी गिरतारियों पर रौशनी डालती है। गौरतलब है कि आतंकवाद पर नियंत्रण के नाम पर हुई इन तमाम गिरफ्तारियां उस सूबे से सामने आयी हैं जहां आतंकी घटनाएं न के बराबर दिखती हैं। इसके अन्तर्गत 'सिमी' के पूर्व सदस्यों, उनके मित्रों एवं जानपहचान के लोगों - यहां तक कि कभी ऐसे लोग जिनका सिमी से कभी कोई ताल्लुक नहीं रहा है, ऐसे लोगों पर मुकदमे कायम किए गए हैं। रिपोर्ट में जिन केस स्टडीज को पेश किया गया है, उसमें प्रथम सूचना रिपोर्ट 537/00 और प्रथम सूचना रिपोर्ट 663 /00 एक प्रतिनिधिक रिपोर्ट है। इसमें सोराब अहमद, मौलाना अरसद इलियास एहतेशाम, अब्दुल रज्जाक, मोहम्मद अलीम और मुनीर उज जमा देशमुख, खालिद नईम पर भडकाउ पोस्टर लगाने के आरोप में मुकदमा कायम किया गया और इसके बाद कई अन्य प्रथम सूचना रिपोर्टों में दो थानों में उनके नाम आते रहे। (22 अक्तूबर 2000)

समुदाय विशेष को किस तरह भाजपा की हुकूमत में ही नहीं बल्कि कांग्रेस की अगुआई में भी निशाना बनाया जाता रहा है, उसके बारे में 'आउटलुक' न्यूज मैगजिन ने एक स्टोरी की थी। स्टोरी के मुताबिक इन दिनों बंगाल के गवर्नर का जिम्मा सम्भाल रहे  एम के नारायणन् जिन दिनों राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार हुआ करते थे तब उनके विशेष आग्रह पर लखनऊ एवम हैद्राबाद के मुस्लिम बहुल इलाकों को फोन टैपिंग का निशाना बनाया गया था। कांग्रेस की अगुआई वाली संप्रग सरकार के पहले कालखण्ड में उठाए गए इस कदम से संविधान द्वारा गारण्टी शुदा निजता के अधिकार का उल्लंघन हुआ था (फोन टैपिंग : व्हाई टार्गेट अस, आस्क मुस्लिमस, अप्रैल 25, 2010, 19.45, आईएसटी, डब्लू डब्लू डब्लू डॉट रिडिफ डॉट काम)

स्पष्ट है साठ साल पहले संविधान बनाते वक्त भले ही किसी के साथ धर्म, जाति, सम्प्रदाय, नस्ल, लिंग, एथनिसिटी के आधार पर भेदभाव न करने का हमने ऐलान किया हो, मगर हकीकत इससे मेल नहीं खाती है। शिक्षा जगत पर निगाह डालें, तो वहां भी यह विभेद साफ झलकता है। नेशनल सेम्पल सर्वे आर्गनायजेशन जो केन्द्र सरकार का अपना निकाय है, उसकी रिपोर्ट इस बात को प्रमाणित करती दिखती है। उसका सर्वेक्षण बताता है कि जहां तक शिक्षा जगत का सवाल है तो आज मुसलमान सबसे पिछड़े समुदायों में शुमार हो गया है। उसके मुताबिक उच्च शिक्षा में मुसलमानों का अनुपात आदिवासियों से भी कम दिखता है जो सबसे पिछड़ा समुदाय समझे जाते हैं। केन्द्र सरकार के सांख्यिकी और कार्यक्रम क्रियान्वयन मंत्रालय से सम्बध्द नेशनल सेम्पल सर्वे आर्गनायजेशन की अपनी रिपोर्ट 'एजुकेशन इन इण्डिया : पार्टिसिपेशन एण्ड एक्स्पेण्डिचर' बताती है कि शिक्षा प्रणाली में भरती 100 मुस्लिम में सिर्फ 10 हाईस्कूल में और ऊपरी कक्षाओं में हैं। अगर आदिवासियों से तुलना करें तो यह आंकड़ा 11 तक पहुंचता है, अनुसूचित जातियों में यह आंकड़ा 12 तक और अन्य पिछड़ी जातियों में 14 तक पहुंचता है।

अन्त में,सार्वजनिक बैंकों के बढ़ते जाल और लोगों को खाता धारक बनाने के लिए किए जा रहे उनके प्रयासों के मद्देनजर यह बात अधिकतर के लिए अकल्पनीय लग सकती है कि समुदायों के सशक्तिकरण को सुगम कर सकने वाले ऐसे संस्थान कुछ खास इलाकों में अधिक क्यों नहीं दिखाई देते और खाता खोलना भी कितना जद्दोजहद का काम बन सकता है।

अहमदाबाद के पांच लाख से अधिक अल्पसंख्यकों की आबादी वाला इलाका जुहापुरा इस वंचना का प्रातिनि धिक उदाहरण हो सकता है। गुजरात के 'अल्पसंख्यकों के इस सबसे बड़े घेट्टो में' विगत लगभग दो दशकों से कोई सरकारी बैंक नहीं था। लाजिम था अन्तत: जब एक सरकारी बैंक कुछ समय पहले खुल गया तो लोगों के लिए वह मौका जश्न से कम नहीं मालूम पड़ा।


मुझे याद है अहमदाबाद की एक सभा में गुजरात के अग्रणी सामाजिक कार्यकर्ता प्रोफेसर जे.एस. बन्दुकवाला ने नम आंखों से बताया था कि एक अदद सरकारी बैंक वहां कायम हो इसके लिए वह कितने लोगों से मिले हैं। इसे विडम्बना ही कहा जाएगा कि जुहापुरा में सरकारी बैंक की दो दशक तक गैरमौजूदगी कहीं सूर्खियां नहीं बन सकी।

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