गरीबी और प्रधानमंत्री मोदी
विकास नारायण राय
भाजपा संसदीय दल का
नेता चुने जाने की औपचारिकता के बाद मोदी ने संसद के केंद्रीय हाल से संबोधन में अपनी सरकार को गरीबों, युवाओं और स्त्रियों को
समर्पित करार दिया। कॉरपोरेट जगत और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के चहेते ‘चायवाले’ के लिए इस दिखावे को
अधिक दिनों तक निभाना टेढ़ी खीर ही होगी। गरीबों को लेकर मोदी का नवउदारवादी ट्रैक
रिकार्ड सर्वाधिक संदेहास्पद रहा है। हालांकि युवाओं में आज उनकी छवि आशा और
विश्वास देने वाले एक राष्ट्रवादी नेता की जरूर है, पर इस समीकरण की सेहत
के लिए रोजगार के अवसरों और लोकतांत्रिक गतिशीलता का वांछित ब्लूप्रिंट उनके
आर्थिक-सामाजिक क्षितिज से नदारद है। जबकि स्त्रियों के लैंगिक उत्पीड़न में बदलाव
को लेकर मोदी घिसे-पिटे मर्दवादी जीवन-मूल्यों और विफल सामंती पहलों से यथास्थिति
के ही पक्षधर नजर आते हैं।
गुजरात विकास मॉडल के मिथक
के जनक नरेंद्रभाई को अपने राज्य में गरीबी दिखनी अरसे से बंद हो चुकी है। चुनाव 2014
की चार सौ जनसभाओं में
उन्होंने गुजरात मॉडल का तमाम पहलुओं से जिक्र किया होगा, पर भूले से भी गरीबी की
वजहों की चर्चा नहीं की। लोकसभा की जंग जीतने के बाद जब वे अपनी विजय-यात्रा के
समापन पर काशी के लोगों का धन्यवाद करने गए, तो वहां भी उन्हें
गंदगी तो नजर आई, पर गरीबी नहीं। बनारस की गलियों में साफ-सफाई के
एजेंडे को लेकर वे नाम महात्मा गांधी का लेते रहे, पर लहजा उनका संजय
गांधी वाला रहा- शासकों की आंखों में गंदगी में लिथड़े गरीब तो गढ़ते हैं, पर गरीबी की जड़ें नहीं।
गंगा के इस स्वघोषित बेटे को भी विदेशी पर्यटकों के सौंदर्य-बोध की चिंता रही और
सफाई में सिंगापुर का स्तर छूने की ललक दिखी। पर प्रदूषण के लिए बजाय कॉरपोरेट
लालच को जवाबदेह ठहराने के उसने बनारसी जीवनशैली पर ही तंज कसा।
लगे हाथों गंगा आरती के
मंच से मोदी ने अपना ‘ऐतिहासिक’ एजेंडा भी रेखांकित
किया- देश के लिए मर नहीं सके तो क्या, जीकर देश-सेवा करेंगे।
बताया कि गुजरात का मुख्यमंत्री बनने पर वे शहीद श्यामजी वर्मा की अस्थियां विलायत
से स्वदेश लाए थे, अब भारत का प्रधानमंत्री बन गंगा का उद्धार करेंगे-
दावा किया कि नियति को इन पुनीत कार्यों के लिए उनकी ही प्रतीक्षा थी। मोदी ने
वाराणसी में नए उद्योगों के माध्यम से रोजगार लाने का जिक्र किया, पर वहां के लाखों
मुसलिम बुनकरों के बिचौलियों और व्यवसाइयों द्वारा रोज होने वाले शोषण पर चुप रहे।
उन्होंने शहर के इस चेहरे से भी अनभिज्ञ रहना ठीक समझा कि बनारस पारंपरिक रूप से
भिखारियों और वेश्याओं का भी ठिकाना रहा है। दशाश्वमेध घाट पर भी, जहां से मोदी बोल रहे
थे,
सुबह-शाम भिखारियों की
लंबी कतारें लगती हैं और शहर की दालमंडी के वेश्यालयों की विरासत चंद किलोमीटर पर
शिवदासपुर में गुलजार है।
गुजरात के वडोदरा (मोदी
का दूसरा चुनाव क्षेत्र) और सूरत जैसे औद्योगिक-व्यावसायिक शहरों का कारोबार, पूर्वी उत्तर प्रदेश और
बिहार,
जिनकी पचास लोकसभा
सीटों के मद्देनजर मोदी ने वाराणसी से चुनाव लड़ा, के लाखों विस्थापित
मजदूरों-कारीगरों के दम पर चल रहा है। काशी के विजय उद्घोष में वे इलाके की गरीबी
का यह पहलू भी गोल कर गए। यानी सबसे सनातन सामाजिक बीमारी-गरीबी- और उसके सर्वाधिक
उपेक्षित लक्षणों- भिखारी, वेश्या और विस्थापित- का प्रधानमंत्री मोदी के लिए
जैसे कोई अस्तित्व ही न हो!
मोदी ने एक सौ पचीस
करोड़ भारतीयों को लेकर एक गरीबपरवर सपने की बात जरूर की। सबका अपना एक
शौचालय-युक्त घर हो, जिसमें चौबीस घंटे पानी और बिजली की सुविधा हो!
निश्चित ही इस व्यक्ति के अंदर अपने गरीबी के दिनों की टीस बची है। क्या इतना काफी
है?
ध्यान रहे कि मोदी ने
चुनाव प्रचार में सौ नए आधुनिक शहर बनाने की बात बार-बार दोहराई है। यह रीयल स्टेट
के मगरमच्छों की खातिर सरकारी खजाने खोलने की भूमिका है।
हरेक को घर देने की
जुगत को अंतत: राष्ट्रीय बैंकों की मार्फत किसी ऐसी योजना से नत्थी किया जाएगा, जो हरेक को कर्ज से लाद
देगी। कौन नहीं जानता कि जिस तरह रीयल स्टेट का व्यवसाय देश में चलाया जा रहा है
उसने अर्थव्यवस्था में कालेधन की बाढ़ ला दी है, और एक अदद घर का सपना
आम आदमी की आमदनी की पहुंच से बाहर कर दिया है। बेहद कम खर्चीला और आसान विकल्प
होगा कि गांवों में ही जीवन की आधुनिक सहूलियतें और रोजगार के भरपूर अवसर पहुंचाए
जाएं,
जिससे शहरों में
अमानवीय पलायन रुके। पर यह, मोदी भी मानेंगे, कॉरपोरेट मुनाफाखोरों
को मंजूर नहीं।
दरअसल, मोदी के जिस
हिंदुत्ववादी भूत की आशंका पर उनके विरोधियों ने चुनाव प्रचार में इतना ध्यान
केंद्रित किया, वह उनके कॉरपोरेट वर्तमान और फासीवादी भविष्य के
खतरों के सामने फीका ही कहा जाएगा। यह स्पष्ट है कि बिना इस वर्तमान और भविष्य की
आकर्षक पैकेजिंग के, अकेले हिंदुत्व के दम पर, उन्हें लोकसभा चुनाव
में भारी सफलता नहीं मिल सकती थी।
सत्ता का यही गठबंधन मोदी
के सुशासन और विकास का आधार है। शासन की अपनी सिंगल विंडो कृपा-प्रणाली को मोदी एक
नारे के रूप में दोहराते आए हैं- मिनिमम गवर्नमेंट, मैक्सिमम गवर्नेंस।
मिनिमम गवर्नमेंट, कॉरपोरेट को जन-संसाधनों के दोहन की छूट के लिए; और मैक्सिमम गवर्नेंस, जनता को इस प्रणाली से
नत्थी रखने के लिए।
यह भी स्पष्ट है कि
मोदी के प्रधानमंत्री बनने से किनके अच्छे दिन आने वाले हैं। देश के शेयर बाजार
रिकार्ड-तोड़ ऊंचाई की ओर अग्रसर हैं, और भारतीय रुपया
अंतरराष्ट्रीय मुद्रा विनिमय बाजार में मजबूत होता जा रहा है। ‘विकास’ के ये दोनों सूचक
समृद्ध तबकों के सरोकार हैं, न कि आम आदमी के। देर-सबेर, फिलहाल सुस्त पड़े, ‘विकास’ के तीसरे सूचक, रीयल स्टेट को भी इस
माहौल में गर्म होना ही है- यानी आम आदमी का घर और महंगा होगा। कॉरपोरेट मीडिया भी
आक्रामकअंदाज में इस
तर्क की जमीन तैयार करने में लग गया है कि मुद्रास्फीति पर काबू पाने के लिए
ग्रामीण रोजगार के मनरेगा जैसे खर्चों और कृषि उत्पादों के न्यूनतम समर्थन मूल्यों
का तरीका बंद किया जाए। जाहिर है, मुद्रास्फीति के
संदर्भ में,
बेलगाम कालाधन, उद्योगपतियों को बेहिसाब सबसिडी और
सरकार की बेतरह फिजूलखर्ची पर रोक की कवायद कांग्रेसी सरकार की तरह भाजपा सरकार
में भी दिखावटी उपायों के हवाले ही रहेगी। मोदी के केंद्रीय सत्ता में आने से
टैक्स-हैवन भी,
देशी और विदेशी दोनों, पूर्णत: आश्वस्त दिखते हैं; उनके हित पहले से अधिक सुरक्षित
हाथों में जो हैं।
मोदी ने खुद को विकास का जादूगर
कहा है। आखिर उनकी सत्ता से क्रोनी-कैपिटल भी आश्वस्त है और राष्ट्रीय स्वयंसेवक
संघ भी! दोनों के आश्वस्त होने के ठोस आधार भी हैं। मोदी के ट्रैक रिकार्ड से ही
आंकड़ा देखिए- विकास के गुजरात मॉडल के अंतर्गत मोदी ने सत्रह लाख वर्ग मीटर से
अधिक सरकारी और अधिग्रहीत जमीन कौड़ियों के मोल चहेते कॉरपोरेट समूहों में बांटी है; चाहे इस याराने को निभाने में राज्य की जनता को
हजारों करोड़ रुपए का चूना लगा हो। संघ भी अपने पूर्व प्रचार मंत्री की हिंदुत्व
निष्ठा का फलदाई विस्फोट गुजरात में देख ही चुका है। संघ के पास यह विश्वास करने
के भी भरपूर कारण होंगे कि नियति ने उन्हें सिर्फ गंगा की सफाई के लिए नहीं, बल्कि राम मंदिर निर्माण, समान सिविल कोड,
धारा 370
और ‘पिंक रिवोल्यूशन’
की समाप्ति और मुसलिम ‘घुसपैठियों’
को देश से बाहर खदेड़ने जैसे पुनीत कार्यों के लिए भी
चुना है।
गरीबी पर मोदी का गुजरात का ट्रैक
रिकार्ड क्या है? राज्य के अपने आंकड़ों के अनुसार इन बारह वर्षों में
गांवों में गरीब परिवारों की संख्या उनतालीस प्रतिशत बढ़ी है। करीब चालीस लाख गरीबी
रेखा के नीचे के परिवारों में से नौ लाख शहरों में हैं। सूची में गांव और शहर में
क्रमश: ग्यारह और सत्रह रुपया प्रतिदिन से कम कमाने वाले ही शामिल हैं, जबकि योजना आयोग के नए मानक में यह गणना क्रमश:
बत्तीस और अड़तीस रुपए पर होनी चाहिए थी। गरीब पर व्यापकतम मार महंगाई और
भ्रष्टाचार की होती है।
गुजरात में मोदी के लंबे शासनकाल
में महंगाई बाकी देश की तरह ही बढ़ती रही। अंबानी की गैस के दाम को सोनिया-मनमोहन
के तेल मंत्री मोइली ने चार गुना किया तो मोदी की गुजरात सरकार ने लगभग आठ गुना
करने की अनुशंसा की। यहां तक कि दूध,
खाद्य तेल,
बिजली जैसी आम जरूरी चीजों की कीमतें खुद राज्य
सरकार ने बार-बार बढ़ार्इं।
मोदी शासन के दौर में गुजरात का
एक भी बड़ा नेता, वरिष्ठ अधिकारी या प्रमुख पूंजीशाह नहीं मिलेगा, जिस पर राज्य की भ्रष्टाचार निरोधक मशीनरी ने स्वत:
शिकंजा कसा हो। मानो मोदी के मुख्यमंत्री बनते ही चामत्कारिक ढंग से वे सभी
ईमानदारी के पुतले बन गए। असली नीयत का इससे पता चलता है कि बारह वर्ष के मोदी के
शासन काल में राज्य में लोकपाल का पद खाली रखा गया, जबकि भ्रष्टाचार के आरोप में सजा
पाया व्यक्ति कैबिनेट मंत्री बना रहा। एक अन्य मंत्री, जिसके चार सौ करोड़ के मछली घोटाले पर गुजरात उच्च
न्यायालय ने रोक लगाई, भी पद पर चलता रहा और खुद मोदी ने उस पर मुकदमा
चलाने की अनुमति देने से मना कर दिया। पारदर्शिता और तकनीकी, जिसका गाना मोदी गाते नहीं थकते, गुजरात के गिने-चुने दफ्तरों में चहेते उद्यमियों को
लालफीताशाही से बचाने के लिए है,
गरीब को भ्रष्टाचार की मार से दूर रखने के लिए नहीं।
अंगरेजी उपनिवेश के कर्मचारियों
के पास जनता से रिश्वत उगाही के चार रास्ते खुले थे- नजराना (पदानुसार भेंट), शुक्राना (जायज काम पर), हर्जाना (नाजायज पर) और जबराना (जबरी वसूली)।
नौकरशाही का यही खेल कमोबेश आजाद भारत की तमाम सरकारों के प्रश्रय में भी चलता रहा
है और गुजरात इसका अपवाद नहीं है। बस,
मोदी के ‘सुशासन’
ने इसे एक व्यवस्थित रूप दे दिया, जबकि राज्य का विजिलेंस विभाग शिकायत के थके आंकड़ों
की ‘विंडो-ड्रेसिंग’
में व्यस्त रखा गया। कौन नहीं जानता कि राज्य में
शराबबंदी के बावजूद शराब घर बैठे मिल जाती है- हजारों करोड़ की यह काली कमाई, मोदी के भी मुख्यमंत्रित्व काल में, राजनीतिकों,
आबकारी विभाग,
पुलिस और तस्करों में बेरोकटोक बंटती आई है।
दुनिया में शायद ही कहीं नवउदार
पूंजीवाद और धार्मिक राष्ट्रवाद के गठबंधन से आर्थिक विकास का सफल लोकतांत्रिक
मॉडल बना हो; पाकिस्तान जैसे सैन्यवादी मॉडल बेशक हैं। पूंजीशाहों
को खुल कर मुनाफाखोरी करने के लिए एक विरोध रहित सामाजिक वातावरण चाहिए। जापान और
दक्षिण कोरिया में समाज के पारंपरिक अनुशासन और चीन में कम्युनिस्ट पार्टी के
अनुशासित ढांचे ने यह जरूरत पूरी की है। भारत में मनमोहन सिंह बेशक नवउदार
पूंजीवाद के जनक माने जाते हों,
पर उनके ढुलमुल नेतृत्व में निहायत भ्रष्ट कांग्रेसी
शासन एक अस्त-व्यस्त परिदृश्य ही रहा। अब,
इस हित-साधन का गुरुतर भार संघ के हिंदुत्ववादी
अनुशासन में पले-बढ़े रणनीतिकारों के जिम्मे आ गया है। गरीबों के लिए तो
प्रधानमंत्री मोदी कभी सचमुच की आशा हो ही नहीं सकते; युवाओं और स्त्रियों के लिए भी उनका शासन
मृग-मारीचिका ही सिद्ध होगा।
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