कानून ही नहीं, समाज भी जिम्मेदार



-मैत्रेयी पुष्पा

बदायूं में दो कम उम्र बहनों के साथ हुए बलात्कार और फिर हत्या की घटनाओं के बाद भारत के लगभग सभी हिस्सों से बच्चियों और औरतों के यौन उत्पीड़न की खबरें मिल रही हैं। यहां तक कि संयुक्त राष्ट्र महासचिव बान की मून और अमेरिका ने भी इन घटनाओं का संज्ञान लिया है और इनकी तीखी निंदा की है। आखिर यह समस्या गहराती क्यों जा रही है? इसकी जड़ें कहां हैं? मेरी मान्यता में सबसे पहले यही विचार आता है कि बलात्कार पूरी तरह से सामाजिक अपराध है और समाज की ही भयावह समस्या है। सामाजिक संरचना में परिवारों का समूह शामिल रहता है और बलात्कार के लिए उतावले लोग परिवारों में ही परवरिश पाते हैं। कोई भी परिवार अपने पुरुष सदस्य को बलात्कारी बनने के लिए नहीं पालता-पोषता। बेशक यह बात मानी जा सकती है, लेकिन इस परवरिश के दौरान हम घर के लड़के को लमहे भर के लिए भी नहीं भूलने देना चाहते कि वह मर्द जात है और मर्दानगी को धारण करना उसका परम कर्तव्य है। मर्दानगी उसके बल, बुद्धि का आधार है, जो पराक्रम के कारनामे सिद्ध करती है। इस पराक्रम के आधीन ही सृष्टि होती है, जिससे वह निरपराध भाव से अपनी सुविधा के लिए दूसरे जेंडर को इच्छानुसार इस्तेमाल करता है। 

यौन-उत्पीड़न में स्त्री उस त्रस को, पीड़ा और वेदना को भुगतती है, जिसकी कोई पुरुष कल्पना तक नहीं कर सकता। साथ में, वह इस जलालत से भी गुजरती है कि शरीर उसका है, पर फैसला कोई वहशी या संरक्षक के रूप में पुरुष ले रहा है। ये वही मर्द हैं, जो औरत के लिए चारदीवारियां उठाते हैं, ड्रेस कोड तय करते हैं, उसकी आंख, नाक, कान और बुद्धि जैसी ज्ञानेंद्रियों को कीलना अपना फर्ज समझते हैं।


इनके सामने कौन-सी मशाल जलाई जाए? यहां तो शिकारी ही मशाल लेकर चल रहे हैं। मशाल जो रोशनी की नहीं, धुएं की है, अंधेरे की है। कहा जा रहा है कि गांव में शौचालय होता, तो बलात्कार नहीं हो सकता था। ऐसे लोगों से पूछा जाए कि क्या लड़की या स्त्री शौच के लिए ही बाहर जाती है? क्या घर में शौचालय बनवाकर आप उसे घर के बाहर निकलने ही नहीं देंगे? यह कैसा तर्क है और ये लोग कैसे-कैसे समाधान हमारे सामने पेश कर रहे हैं! माना जा रहा है कि पुलिस और प्रशासन सुस्त है। हम भी कहते हैं कि हां सुस्त है। उसमें जातिवादी भी हैं। भ्रष्टाचारी भी हैं। लेकिन ये सारी तोहमतें तो बलात्कार घटित हो जाने के बाद की हैं। बदायूं जिले में बलात्कार के बाद हत्या और फांसी के फंदों से लटकाई गई लाल और हरे सूट वाली लड़कियां क्या अब पुलिस और प्रशासन की चुस्ती से अपने पुराने रूप में आ सकती हैं? क्या हमने कभी सोचा है कि हमारे परिवारों में नैतिक शिक्षा कैसी है? लोकतंत्र सरकार से पहले घरों में लागू होना चाहिए। वही असर करेगा। और हम हैं कि हर अपराध पर सरकार के आगे दांत भींचकर खड़े हो जाते हैं। नहीं सोचते कि जो पुलिस कोताही कर रही है, वह इसी समाज से थानों और चौकियों में गई है।

जाति-गोत्र पूछ रही है पुलिस, वह अपने घरों से ही प्रभावित है। पैसे मांग रही है पुलिस, वह भी परिवार को शानो-शौकत से रखने के लिए। मैं मानती हूं कि ज्यादातर स्त्रियां भ्रष्टाचार, जातिवादी समीकरण, नाइंसाफी के लिए घर के पुरुषों से नहीं कहतीं, मगर इन अन्यायों का विरोध भी वे अपने घर के स्तर पर नहीं करतीं। इसी का परिणाम तो हम नहीं भुगत रहे? और भुगतते रहेंगे, जब तक कि घर-परिवार के स्तर पर इन अत्याचारों का विरोध नहीं करेंगे। स्त्री के लिए स्त्री को ही आगे आना होगा, अपने बेटे के पालन-पोषण से लेकर बेटी को बचाने और सुरक्षित बनाने तक। एक सवाल खूब उछल रहा है कि क्या कर रही है सरकार? देश और प्रदेश की सरकारों ने अभी तक कितने बलात्कार रोके हैं? ऐसी घटनाएं, तो सियासी पार्टियों के लिए नायाब मौके की तरह हैं, जब वे आगामी चुनाव के लिए अपनी जमीन तैयार करने लगती हैं। तमाम पार्टियां कूद पड़ी हैं इस बलात्कार अभियान में, जैसे वोट लूटने का खजाना हाथ आ गया हो। देश भर से प्रदेशों के अजेय बने भूप बदायूं चले आ रहे हैं, राजसी सवारियां उतर रही हैं। कच्ची मिट्टी, रेतीले रास्ते पर हैलीपैड बनाए गए। इन लड़कियों के साथ बलात्कार और हत्याकांड क्या घटा, गांव के बाहर खड़ा घना पेड़ लड़कियों के शव साधे हुए आने वाले कद्रदानों की जुहार में झुक गया। लाशें झूलती रहीं, मानो यह नुमाइश बहुत जरूरी हो।

जरूरी इसलिए कि इन्हीं को देखने तो नेतालोग इस गांव में अवतरित हो रहे हैं। वे रुपये-पैसे बरसाएंगे, हमदर्दी की नदियां बहा देंगे, वे इनकी पक्षधरता में रत्ती भर भी कोताही नहीं बरतेंगे। वे अपराधियों को सूली पर चढ़ा देंगे..। लेकिन हमारा मन शंकालु है। वे आएंगे, तो क्या हो जाएगा? जाइए, देख लिया है हमने कि इस देश की कानून-व्यवस्था कितनी ढीली और धीमी है। वर्मा कमेटी की रिपोर्ट के बाद भी ऐसी सजा नहीं मिली कि कोई बलात्कारी सबक ले। अगर सबक लेता, तो यहां बलात्कृत लड़कियों के शवों की नुमाइश होती? जगह-जगह लड़कियों की देह को क्षत-विक्षत करके सूली पर चढ़ा दिया गया। तमाशबीन तमाशा देख रहे हैं। एक पीड़ादायी आनंद भी तो होता है। मुझे बार-बार आदि विद्रोही  उपन्यास में वर्णित रोम का निजाम याद आ रहा है, जहां गुलामों को इसी तरह सलीबों पर टांग दिया जाता था। अमीर तबका इस प्रदर्शनी को देखकर परपीड़न का आनंद उठाते हुए किलकारी मारकर हंसता था।


मेरे देश की लड़कियो, बलात्कार नहीं रुके, नहीं रुक पाएंगे। हमारे देश के नेता लोगों की याददाश्त इस मायने में बड़ी ही क्षणजीवी है, ये पीठ फिरते ही तुम्हें भूल जाएंगे। यही तो कारण है कि बदायूं के इस गांव की कौन कहे, शहर-शहर और महानगरों में बलात्कार और हत्याओं का सिलसिला धड़ल्ले से चल रहा है। मध्य प्रदेश और राजस्थान की घटनाएं सुनीं, तो बरेली ने थर्रा दिया। रोंगटे खड़े हो जाते हैं। मीडिया में भी बलात्कार पर ऐसी राजनीतिक मुठभेड़ें हो रही हैं कि दंगल भी शरमा जाए। जो सत्ता में नहीं है, उसके लिए यही मौका है कि सत्ताशीन का इस्तीफा मांगे। पूछने का मन होता है कि अगर आपकी सरकार बनी, तो क्या एक भी बलात्कार घटित नहीं होगा? क्या आपकी पार्टी में कोई गुंडा, दागी या बाहुबली नहीं है? हमाम में सब नंगे हैं, यह कहावत इसलिए फिट होती है, क्योंकि गुंडे हमारे घरों में ही पैदा होते हैं। बेटों को बाहुबली, वृषभकंध हम ही बनाना चाहते हैं, भले वे पूत घर में संबंधों को कूट-पीस डालें। इसलिए इस समस्या का हल कानून से कुछ हटकर घर में भी तलाशें और समाज में भी। 

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