हिंदी और पाक अवाम के स्वाभाविक रिश्तों को बयान करती : फिल्मिस्‍तान

जावेद अनीस
“फिल्मिस्‍तान” के कलाईमेक्स में चरमपंथियों द्वारा गलती से अगवा कर लिए गये एक भारतीय को उसका पाकिस्तानी हमदर्द अपने जान को दावं पर लगाकर बॉर्डर पार करने की जद्दोजहद करता दिखाया है, ताकि उसका हिन्दुस्तानी दोस्त अपने वतन वापस जा सके, इस दौरान दोनों आर्मी नहीं बल्कि उस पार के धार्मिक चरमपंथियों के गोली का शिकार हो जाते हैं, बैकग्राउंड में जिन्ना और नेहरु का दो मुल्कों में आजादी के समय दिए गये तकरीरें सुनाई पड़ती हैं

हाल ही में रिलीज हुई “फिल्मिस्‍तान” अरसे बाद आई ऐसी पहली फिल्म है जो हिंदुस्तान और पाकिस्तान की रिश्ते को डील करते हुए चरम राष्ट्रवाद के बोझ से अपने आप को मुक्ति किये हुए हैं, नितिन कक्कड़ की यह फिल्म अनोखे अंदाज में दोनों पड़ोसी देशों के अवाम की स्वभाविक समानता को करीब से तलाशने की कोशिश करती है। दरअसल यह फिल्म दोनों मुल्कों के कई मामलों में एकरूपता और समानता को बिना किसी ख़ास कोशिश के सामने लाती है। हमारी भाषा, खाने-पीने की आदतें, पसंद–नापसंद तो तकरीबन  एक जैसी हैं। फिल्म के एक दृश्य में किडनैप होकर पाकिस्तान लाये जाने के बाद फिल्म का नायक सनी अरोड़ा हैरानी से पूछता है- ‘क्या मैं पाकिस्तान में हूं? जवाब मिलता है- ‘तुम्हें अब पता चला? नायक जवाब देता है- ‘पता कैसे चलेगा! सबकी शक्लें एक-सी है, खाना- पीना भी एक-सा है।‘

यह एक ख़ास फिल्म है जो बहुत ही स्वभाविकता से हिंदियों और पाकियों के आपसी रिश्तों को बयान करती हैं जिनकी राष्ट्रयिता 1947 से एक ही थी इसे 1963 में एम.एस.सथ्यू द्वारा निर्देशित क्लासिक फिल्म गर्म हवा की अगली कड़ी कहा जा सकता है जहाँ गर्म हवा बंटवारे के दर्द को समेटे हुए थी वहीँ फिल्मिस्‍तान बंटवारे के आधी सदी बाद दोनों मुल्कों के अवाम के रिश्तों की पड़ताल करती है मूल रूप से यह फिल्म बताती है कि हम बंट भले ही गये हों लेकिन हमारी विरासत तो एक ही है। अगर हमारी राजनीति हमें दूर करती है तो हमारे फिल्म, संगीत और क्रिकेट ही हम को करीब लाते हैं यही सब बातें तो दोनों तरफ के दक्षिणपंथी ताकतों को पसंद नहीं आती है और वे दोनों मुल्कों के अवाम के बीच दूरी फर्क बढ़ाने के काम  में लगे रहते हैं।

मुख़्तसर में फिल्म की कहानी यह है कि सुखविंदर अरोड़ा उर्फ सन्नी (शारिब हाशमी) एक्टर बनना चाहता है। फिल्में तो जैसे उसकी रग-रग में बसी हैं। लेकिन जैसा की आम तौर पर होता है वह स्ट्रगल करते–करते असिस्टेंट डायरेक्टर बन जाता है। वह कुछ अमरीकियों के साथ डॉक्यूमेंटरी बनाने के लिए राजस्थान जाता है। अपनी मांगें मनवाने के लिए अमेरिकी नागरिकों का अपहरण करने आए कुछ पाकिस्तानी आतंकवादी गलतफहमी में सन्नी का अपहरण कर लेते हैं। वे उसे सीमा के पास बसे पाकिस्तानी गांव में आफताब (इनामुल हक) के घर पर आतंकवादी महमूद (कुमुद मिश्रा) के निगरानी में रखा जाता है। आफताब बॉलीवुड फिल्मों की पाइरेटेड डीवीडी/सीडी का धंधा करता है। इन तीनों और गावं वालों के मेल के बाद शुरू होती है असली कहानी ।


फिल्मिस्‍तान उस भारतीय फिल्म उद्योग के लिए भी एक आईना है जिसे 100 करोड़ क्लब की बिन सर पैर की फिल्मों से ही फुर्सत नहीं है फिल्म “फिल्मिस्तान” 2012 से बनकर तैयार है औए इसे राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिल चूका है। लेकिन अब जाके इसे सिनेमा घरों का मुंह देखना नसीब हुआ है

शारिब हाशमी (सनी अरोड़ा) इनामुल हक (आफताब) और कुमुद मिश्रा (आतंकवादी सरगना महमूद ) इसके मुख्य किरदार हैं, बड़े परदे के लिए तीनों ही नए कलाकार हैं, लेकिन यह लोग  अपने –अपने किरदारों में शिद्दत के साथ डूबे नजर आते हैं ।


'फिल्मिस्तान' को ईमानदारी से पैसे लगाकर देखी जानी चाहिए, केवल इसलिए नहीं कि यह मानवीय भावनाओं की सरल फिल्म है और यह इंसानियत पर भरोसे की तस्दीक करती है। बल्कि इसलिए भी ताकि ऐसी फिल्मों का रास्ता आसन होगा।

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