इतिहास का मोदीकाल

सुभाष गाताडे

जापान ने अमेरिका पर नाभिकीय बम गिराए , महात्मा गांधी की हत्या 30 अक्तूबर 1948 में हुई, मुल्क के बंटवारे के बाद एक नया देश अस्तित्व में आया जिसे इसलामिक इसलामाबाद कहते हैं, दक्षिण के लोगों को मदरासी कहते हैं, पूर्वी भारत के अधिकांश लोग बम्बू एवं लकड़ी के बने घरों में रहते हैं। किसी स्कूली बच्चे की नोटबुक में लिखे प्रतीत होने वाले उपरोक्त उद्हरण उन पाठयपुस्तकों से हैं, जिन्हें कई सालों से गुजरात के स्कूलों में पढ़ाया जा रहा है। गौरतलब है कि गुजरात काउंसिल ऑफ एजुकेशनल रिसर्च एंड ट्रेनिंग और गुजरात स्टेट बोर्ड फॉर स्कूल टेक्स्ट बुक्स के विषेशज्ञों की तरफ से इन पाठ्य पुस्तकों को तैयार किया गया है। इन पुस्तकों का एकांगीपन इस मामले में भी उजागर होता है कि सातवीं की किताब में जहां मध्ययुग पर एक अध्याय शामिल किया गया है, जिसमें महज एक अनुच्छेद मुगल शासन पर है, वहीं बाकी अध्याय इस बात का वर्णन करते है कि किस तरह महमूद गजनी ने गुजरात एवं सौराष्ट्र को लूटा था। यह खबर भी आई है कि गुजरात के स्कूलों में संघ की किताबों को शामिल किया गया है। रिपोर्ट के मुताबिक, यह पाठ्य पुस्तकें कहीं भी इस बात को छिपाती नहीं कि वह संघ विचारधारा के अनुरूप हिंदू राष्ट्रवाद को बढ़ावा देती हैं।

नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री पद पर आसीन होने के बाद पाठ्य पुस्तकों की अन्तर्वस्तु का सवाल और स्वयं गुजरात के अंदर-जहां मोदी ने 13 साल से मुख्यमंत्री पद संभाला था-शिक्षा की दुर्दशा का सवाल जिस तरह सूर्खियां बना है, उसकी यह चंद मिसालें हैं। अभी वैसे ताजा समाचार यह भी आया है कि प्राइमरी के स्तर पर शिक्षा को सुगम बनाने के मामले में गुजरात 35 राज्यों की सूची में 33वें नंबर पर है। पिछले साल वह 34वें नंबर पर था तो उसके पिछले साल 33वें नंबर पर था। ध्यान रहे कि मानव संसाधन विकास मंत्रालय द्वारा तैयार प्रस्तुत रिपोर्ट को खुद भाजपा की नेत्री और फिलवक्त मानव संसाधन विकास मंत्री स्मति ईरानी ने जारी किया है। 

यह सही है कि इससे अधिक सूर्खियां “शिक्षा बचाओ आंदोलन” के दीनानाथ बात्रा की मुहिम द्वारा बटोरी जा रही हैं, जिसके अंतर्गत देश के अग्रणी प्रकाशकों द्वारा अपनी चर्चित किताबें “लुगदी” बनाने या उनकी समीक्षा करने के मसले सामने आ रहे हैं। वेंडी डोनिगर जैसी जानी-मानी विदुषी द्वारा लिखित “हिंदुइज्म: एन अल्टरनेट हिस्ट्री” को लेकर पेंग्विन प्रकाशन द्वारा जिस तरह बात्रा की अगुआई में संचालित इस संस्था द्वारा अदालत में दायर मुकदमे का फैसला आने के पहले ही “लुगदी” बनाने का निर्णय लिया गया उसके बाद गोया ऐसे प्रसंगों की बाढ़-सी आई है। इसी किस्म की नौबत ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में अध्यापनरत मेघा कुमार द्वारा लिखित एक किताब “कम्युनलिज्म एंड सेक्सुअल वायलेंस : अहमदाबाद सिन्स 1969 पर आई है। इस किताब का ओरिएन्ट ब्लैकस्वान की तरफ से अप्रैल माह से प्रचार भी किया जाने लगा, मगर जब किताब में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के “खराब चित्रण” को लेकर “शिक्षा बचाओ आंदोलन” की तरफ से आक्षेप उठाए गए, तब उसी प्रकाशन ने अचानक अपनी भाषा बदली है। इतना ही नहीं, उसकी तरफ से अपने अन्य प्रकाशनों की भी इस रोशनी में “समीक्षा” करने की बात मान ली है।

अदालती कार्रवाइयों का डर और हिंदुत्व के अतिवादी तत्वों द्वारा उठाए जा सकने वाले हुडदंग से आतंकित प्रकाशकों की यह स्थिति और राज्य का ऐसी घटनाओं को लेकर मौन की चर्चा करते हुए 17 जून 2014 को प्रकाशित आलेख “द आनसेट आफ फीयर” में चर्चित मार्क्‍सवादी विचारक प्रभात पटनाइक लिखते हैं,
“जहां ब्रिटिश बुर्जुआ राज्य ने सलमान रश्दी को मिल रही धमकियों को लेकर खुद अपने पैसे से उन्हें सुरक्षा प्रदान की थी, जबकि इसके पहले स्वयं रश्दी ब्रिटिश सरकार के “मजबूत वामपंथी आलोचकों” में शुमार किए जाते थे, जबकि यहां भारत में हम इस बात की भी गारंटी नहीं कर सकते कि राज्य किसी चर्चित प्रकाशक को सत्ता में बैठे लोगों के सर्मथक हुड़दंगियों की दहशत से बचाएगा”। उनका यह भी कहना है कि हम भले ही आधुनिक राष्ट्र के तौर पर अपने उद्भव के बारे में अपनी पीठ थपथपा लें, मगर हकीकत में यह खयाली पुलाव प्रतीत होगा, अगर राज्य हुड़दंगियों से अपने लोगों को बचाने में असफल हो जाता है तो।

दीनानाथ बात्रा की अगुआई में इतिहास पुनर्लेखन की चल रही यह कोशिशें बरबस भाजपा की अगुआई वाली पहली राजग सरकार के दिनों की याद ताजा करती है, जब उसी तरह तत्कालीन मानव संसाधन मंत्री मुरली मनोहर जोशी की अगुआई में ऐसी ही कोशिशें चली थीं। हम याद कर सकते हैं कि किस तरह आक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस ने फरवरी 11, 2000 को सुमित सरकार एवं केएन पन्नीकर की अगुआई में संपादित “टूवर्डस फ्रीडम” शीर्षक खंड को वापस लिया था। प्रस्तुत खंड में आजादी के आंदोलन में हिंदुत्ववादी संगठनों की नकारात्मक भूमिका पर रोशनी डाली गई थी। उसमें यह सप्रमाण साफ किया गया था कि किस तरह इन संगठनों ने आजादी के आंदोलन से दूरी बनाए रखी थी। चूंकि यह बातें संघ परिवारजनों के लिए बेचैनी का सबब बनी थीं, तो उन्हें किताब को वापस करवाने का फरमान सुनाया था। वैसे यह कोशिशें किस तरह संघ परिवार के व्यापक एजेंडा का हिस्सा हैं, यह संकेत हमें वजीरे आजम नरेंद्र मोदी द्वारा संसद के पटल पर राष्ट्रपति के अभिभाषण को लेकर धन्यवाद ज्ञापन के नाम पर जो वक्तव्य दिया गया, उससे भी मिलता है, जिसमें उन्होंने “बारह सौ साल की गुलाम मानसिकता” की बात कही। उनका कहना था “बारह सौ साल की गुलामी की मानसिकता हमें परेशान कर रही है। बहुत बार हमसे थोड़ा ऊंचा व्यक्ति मिले, तो सर ऊंचा करने की हमारी ताकत नहीं होती है।“


आम भारतीय बचपन से यही सुनता आया है कि भारत दो सौ साल की गुलामी में जिया है, जिससे दो सौ साल की ब्रिटिश हुकूमत का काल संदर्भित होता है। अब उस कालखंड को 1200 साल तक फैला कर जनाब मोदी इतिहास को देखने के अपने समूचे नजरिये को प्रभावित करते दिखते हैं। यह तथ्य है कि इस दौरान आए आक्रमणकारी राजाओं में तमाम मुसलिम शासक थे। 200 साल के बजाय गुलामी को 1200 साल तक विस्तारित करता मोदी का यह वक्तव्य इस हकीकत को पूरी तरह नजरअंदाज करता है कि जहां ब्रिटिशों ने भारत को अपना घर नहीं बनाया, जबकि इसके पहले बाहर से आए तमाम आक्रांताओं ने इसे अपना मुल्क बनाया। देश की संस्कति के विकास में अपना योगदान दिया, गंगा जमनी तहजीब को जन्म दिया।

जनवाणी से साभार 

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