विश्वविद्यालयों की स्वायक्तता खत्म करने वाला एक खतरनाक कदम

एल. एस. हरदेनिया
    
मध्यप्रदेश सरकार ने विधानसभा में एक ऐसा विधेयक प्रस्तुत किया है, यदि वह कानून का रूप ले लेता है तो उससे मध्यप्रदेश  के विश्वविद्यालयों की स्वायत्ता पूरी तरह से समाप्त हो जाएगी। इस विधेयक के माध्यम से सरकार ने वे सारी शक्तियां जिनके कारण विश्वविद्यालय स्वायक्त होते हैं स्वयं में निहित कर ली हैं।

इसी तरह एक सरकारी आदेश जारी करके उच्च शिक्षा विभाग ने सरकारी कालेजों में पढ़ाई की व्यवस्था को पूरी तरह छिन्न-भिन्न कर दिया है। सरकार के इस निर्णय का छात्र-छात्राएं विरोध कर रहे हैं और उनके विरूद्ध लगातार धरना प्रदर्शन जारी है।

मध्यप्रदेश विश्वविद्यालय (संषोधन विधेयक) 2014 के द्वारा सरकार ने विश्व विद्यालयों में शिक्षकों की नियुक्ति का अधिकार राज्य लोकसेवा आयोग को दे दिया है। अभी तक यह अधिकार विश्वविद्यालयों के पास था। विधेयक में कहा गया है कि राज्य सरकार लोकसेवा आयोग को विश्वविद्यालय के षिक्षकों को नियुक्त करने का निर्देष दे सकेंगे। इसी तरह विश्वविद्यालयों में कार्यरत कर्मचारियों की नियुक्ति का अधिकार विश्वविद्यालय से लेकर व्यवसायिक परीक्षा मंडल को दे दिया गया है। यह परीक्षा मंडल वह है जो इस समय गंभीर भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरा हुआ है। 

जिस बड़े पैमाने पर व्यवसायिक परीक्षा मंडल में घपले हुए हैं उनसे प्रदेश की मेडिकल शिक्षा, पुलिस में भर्ती, आयुर्वेद कालेजों की परीक्षाएं, पशु चिकित्सा के डाक्टरों का चयन यहां तक कि मेडिकल कालेज के पोस्ट ग्रेजुएट कोर्सों में प्रवेश की प्रक्रिया पूरी तरह छिन्न-भिन्न हो गई है। मंडल में हुए घपलों को लेकर एक मंत्री सहित 300 से ज्यादा अधिकारी, कर्मचारी जेल की सलाखों के पीछे हैं। अब इसी भ्रष्ट व्यवसायिक मंडल को विश्वविद्यालय के कर्मचारियों के चयन का अधिकार दिया जा रहा है। 

इसके अतिरिक्त यह भी प्रावधान किया गया है कि विश्वविद्यालय के शिक्षकों और कर्मचारियों का स्थानांतरण भी सरकार कर सकेगी। विधेयक में स्पष्ट प्रावधान किया गया है कि यदि राज्य सरकार का यह समाधान हो जाता है कि विश्वविद्यालय में ऐसी परिस्थिति हो गई है जिससे कि नियुक्तियों के कारण या राज्य सरकार को सूचित किए गए किसी अन्य कारण से विश्वविद्यालय में दिन-प्रतिदिन का कार्य सम्पन्न नहीं हो पा रहा है तो राज्य सरकार को विश्वविद्यालय के समुचित कार्यकरण के लिए षिक्षकों या अन्य कर्मचारियों को एक विश्वविद्यालय से दूसरे विश्वविद्यालय में स्थानांतरित करने या शिक्षकों या कर्मचारियों को विश्वविद्यालयों में प्रतिनियुक्ति पर भेजने की शक्ति होगी।
      
इसी तरह विश्वविद्यालय की कार्यपरिषद की गठन की प्रक्रिया में भी बहुत ही बुनियादी परंतु खतरनाक परिवर्तन कर दिए गए हैं। कार्यपरिषद में अनेक पदेन सदस्य शामिल किए गए हैं। जैसा कि विधेयक के प्रावधान से लगता है कि कार्यपरिषद के गठन का अधिकार भी अप्रत्यक्ष रूप से शासन के हाथ में आ जायेगा। अभी तक कार्यपरिषद के गठन का अधिकार कुलाधिपति अर्थात राज्यपाल को होता था।

पुराने विधेयक में कुलाधिपति को सदस्यों के नाम निर्देषित करने के अधिकार थे जैसे वर्तमान कानून के अनुसार संबद्ध महाविद्यालयों के चार प्राचार्य जिनमें से कम से कम दो प्राचार्य ऐसे महाविद्यालयों में से होंगे जो राज्य सरकार के हों। ये चार प्राचार्य कुलाधिपति द्वारा ज्येष्ठता के अनुसार बारी-बारी से नाम निर्देषित किए जाते हैं। परंतु प्रस्तावित विधेयक में अब यह अधिकार कुलाधिपति से छीन कर सरकार ने अपने हाथ में ले लिये हैं। विधेयक में सबसे ज्यादा दो और खतरनाक प्रावधान किए गए हैं। इनमें से एक प्रावधान के अंतर्गत उस संभाग का जहां विश्वविद्यालय स्थित है, संभागीय आयुक्त या उसका नाम निर्देषिति कर सकेंगे जो कलेक्टर के पद से निम्न पद का न हो। 

इसी तरह शायद पहली बार जो देष के किसी भी विश्व विद्यालय में न हो एक और ऐसा प्रावधान किया गया है, जिसके अनुसार उस जोन का पुलिस महानिरीक्षक जिसमें विश्वविद्यालय स्थित है भी कार्यकारिणी का सदस्य रहेगा। पुलिस महानिरीक्षक को किसी अतिरिक्त पुलिस अधीक्षक के नाम को निर्देषिति करने का अधिकार भी होगा। इस तरह संभागीय आयुक्त और पुलिस महानिरीक्षक को कार्यपरिषद का सदस्य बनाकर राज्य सरकार ने विश्वविद्यालयों पर अपनी पकड़ पूरी कर ली है। ऐसा करके राज्य सरकार विश्वविद्यालयों को अपनी उंगली पर नचा सकेगा। स्थानांतरण एक ऐसा प्रावधान है जिससे प्रत्येक सरकारी अधिकारी-कर्मचारी डरता है। स्थानांतरण एक ऐसी तलवार है जिससे बड़े से बड़े सरकारी अधिकारी को डराया धमकाया जाता है। अभी तक विश्वविद्यालयों के शिक्षकों और कर्मचारियों पर ऐसा दबाव बनाने की गुंजाईश नहीं थी।

मध्यप्रदेश  में जैसा कि स्पष्ट है भारतीय जनता पार्टी का शासन है और भारतीय जनता पार्टी पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का नियंत्रण है। संघ परिवार शिक्षा पर अपना नियंत्रण रखने के कार्य को प्राथमिकता देता है। उनके इसी चिंतन के अनुसार यह विधेयक तैयार किया गया है।


विधेयक के उद्देष्यों और कारणों में बताया गया है कि मध्यप्रदेश विश्वविद्यालय अधिनियम 1973 राज्य में विष्वविद्यालयों के संगठन और प्रशासन के लिए पिछले 40 वर्षों से लागू है। आगे कहा गया है कि सरकार की जानकारी में आया है कि विश्व विद्यालय शिक्षकों एवं कर्मचारियों की नियुक्ति के संबंध में संतोषप्रद रूप से कृत्यों का पालन नहीं कर रहा है। विश्वविद्यालय के सुचारू संचालन तथा समुचित कार्यकरण के लिए यह प्रस्तावित है कि राज्य सरकार को समुचित निर्देषिति देने के लिए सशक्त किया जाए। इसी उद्देष्य से यह संशोधन प्रस्तावित है। 

उद्देष्यों और कारणों के अनुसार यह स्पष्ट है कि सरकार विश्वविद्यालयों पर पूरी तरह नियंत्रण करना चाहती है। सारी दुनिया में विश्वविद्यालयों की गौरवशाली परंपरा का एक इतिहास है। समाज में बौद्धिक चेतना उत्पन्न करने और नई वैचारिक दिशा  देने में दुनियाभर के विश्वविद्यालयों की भूमिका सभी को ज्ञात है। इसमें कोई संदेह नहीं की पिछले वर्षों में विश्वविद्यालयों की स्वायक्तता में कमी आई है। इस कमी के कई कारण हैं। उनमें सबसे प्रमुख है कुलपति की निुयक्ति। 

कुलपति के पद का पूरी तरह से राजनीतिकरण हो चुका है। अब तो यह आरोपित होता है कि पैसे के लेनदेन से कुलपतियों की नियुक्ति होती है। इसके अतिरिक्त यह भी साफ है कि विश्वविद्यालयों में पढ़ाई के स्तर में कमी आई है और शिक्षकों की प्रतिबद्धता में भी कमी आई है। इन कमियों को दूर करने के लिए आवष्यक कदम उठाने के स्थान पर शासन ने विश्वविद्यालयों की स्वायक्तता को समाप्त करना ज्यादा उचित समझा, जो हमारी राय में एक खतरनाक कदम है। जिस देश के विश्वविद्यालय उनमुक्त नहीं रहेंगे उस देश में विचारों की स्वतंत्रता के लिए अनुकूल वातावरण नहीं बनाया जा सकता।

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