कन्हैया का उभार - संभावनायें और सीमायें
जावेद अनीस
इस समय देश में जो कुछ भी हो रहा है उसे सामान्य नहीं कहा
जा सकता है, राष्ट्रवाद बनाम देशद्रोह पर बहस छिड़ी है और संघ के राष्ट्रवाद की परिभाषा
को थोपने की कोशिश की जा रही है, एक तरह से इसके आधार पर विपरीत विचारधारा और आवाजों को देशद्रोही के तमगे से नवाजा जा
रहा है. इसकी आंच ने सियासत और मीडिया के साथ समाज
को भी अपने घेरे में ले लिया है. इतिहासकार रोमिला थापर इसे धार्मिक राष्ट्रवाद और
सेक्युलर राष्ट्रवाद के बीच की लडाई मानती हैं. इस पूरे विवाद के केंद्र में देश के
सबसे बेहतरीन विश्वविद्यालयों में से एक जेएनयू है जिसे एक अखाड़ा बना दिया गया है.
पूरे विवाद की शुरुआत बीते नौ फरवरी को हुई जब अतिवादी वाम संगठन डीएसयू के पूर्व सदस्यों द्वारा जेएनयू परिसर में अफजल गुरू की फांसी के विरोध में एक कार्यक्रम का आयोजन किया
गया और कुछ टी.वी. चैनलों द्वारा दावा किया गया कि इसमें कथित रूप से भारत-विरोधी नारे
लगाये गये हैं. बाद में जेएनयू छात्र संघ अध्यक्ष कन्हैया कुमार को देशद्रोह के
आरोप में गिरफ्तार कर लिया गया. कुछ दिनों
बाद उमर खालिद और अनिर्बान भट्टाचार्य की भी गिरफ्तारी हुई.
कन्हैया को छह महीने की सशर्त अंतरिम ज़मानत
मिल चुकी है.ज़मानत के बाद जिस तरह से कन्हैया कुमार ने अपना पक्ष रखते हुए लगातार
संघ परिवार और मोदी सरकार को वैचारिक रूप से निशाना बनाया है उससे कन्हैया के
शुभचिंतकों के साथ-साथ उनके विरोधी भी हैरान है और उनकी गिरफ्तारी को बड़ी भूल बता
रहे हैं, उनकी जोशीली और सटीक तकरीर इतनी
असरदार दी थी कि टी.वी. चैनलों द्वारा इसका प्रसारण कई बार किया गया और उनकी बातों
को देश के सभी हिस्सों में सुना-समझा गया. इधर लेफ्ट वालों को लग रहा है कि उन्हें
एक नया सितारा बन गया है तो दूसरी तरफ संघ के लोग
उन्हें चूहा भी कह रहे हैं.
इस पूरे प्रकरण में एआईएसएफ के सदस्य कन्हैया कुमार की हड़बड़ी में की गयी गिरफ्तारी,कुछ चैनलों की भूमिका और वरिष्ठ केंद्रीय मंत्रियों की इस पूरे मसले में तत्परता ने कई सवाल खड़े किये हैं, कोई इसे लाल गढ़ कहे जाने वाले जेएनयू पर भगवा नियंत्रण की कवायद बता रहा है तो कोई कह रहा है कि यह सब रोहित के मसले से ध्यान हटाने के लिए किया गया है, कुछ लोग इसे संघ परिवार की नयी परियोजना बता रहे हैं जो संघ के राष्ट्रवाद के परिभाषा के आधार पर जनमत तैयार करने की उसकी लम्बी रणनीति का एक हिस्सा है और जिसका टकराव स्वंत्रता आन्दोलन से निकले “आधुनिक भारत” की विचार से है. कुछ भी हो इन सबके बीच आज देश दो धड़ों में बंटा हुआ साफ़ नजर आ रहा है. यह एक वैचारिक लड़ाई है जो भारत को एक सेक्युलर और उग्र हिन्दू राष्ट्र के आधार पर देखने वालों के बीच है.
“देशद्रोह” एक नया अस्त्र
हमारे देश में अंग्रेज सरकार ने 1870 में एक
कानून बनाया था जिसे सैडीशन लॉ कहा जाता है. इसका भरपूर इस्तेमाल उन्होंने स्वतंत्रता
आन्दोलन में शामिल नेताओं के खिलाफ किया. आजादी के बाद भी इसे भारतीय संविधान में
शामिल कर लिया गया. इस कानून के तहत अगर किसी व्यक्ति पर राष्ट्रद्रोह का केस दर्ज
होता है तो उसे आजीवन कारावास हो सकती है. आजादी के बाद की सरकारों ने भी इस कानून
का खासा दुरुपयोग किया है. जेएनयू में
भी मोदी सरकार पर इसी तरह के आरोप लग रहे हैं, जेएनयू वाले मामले में बीजेपी सांसद
महेश गिरी और एबीवीपी की शिकायतों के बाद दिल्ली पुलिस ने विवादित कार्यक्रम के
सिलसिले में वहां के छात्रों पर देशद्रोह का मामला दर्ज किया,आरोप था कि डीएसयू के
पूर्व सदस्यों ने राष्ट्रविरोधी नारे लगाये थे. इसके सबूत में कुछ वीडियो भी दिखाए
गये जिसके बाद बाकायदा मीडिया ट्रायल शुरू हो गया, पूरे देश में ख़ास तरह का माहौल
बनाया गया और वामपंथियों, बुद्धिजीवियों व इसके खिलाफ आवाज उठाने वाले दूसरे
विचारों,आवाजों को देशद्रोही साबित करने की होड़ सी मच गयी,जेएनयू जैसे संस्थान को
देशद्रोह का अड्डा साबित करने की कोशिश की गयी, सोशल मीडिया पर “शट डाउन जेएनयू” का हैश टैग चलाया गया. हालांकि बाद में खुलासा हुआ कि जेएनयू के छात्रों पर देशद्रोह के आरोप लगाने के लिये जिन सात वीडियो का
इस्तेमाल किया गया उनमें से दो वीडियो फर्जी थे और उनके साथ छेड़छाड़ की गयी थी.
सरकार में बैठे लोगों का रिस्पोंस भी ऐसा था जैसे वह जेएनयू
नहीं कोई दुश्मन देश हो, जिस मसले को यूनिवर्सिटी के स्तर पर ही सुलझाया जा सकता
था उसे एक राष्ट्रीय संकट के तौर पर पेश किया गया. मानव संसाधन विकास मंत्री स्मृति ईरानी ने कहा कि देश कभी भी भारत मां का
अपमान सहन नहीं करेगा. गृह मंत्री राजनाथ सिंह ने बयान दिया कि ''यदि कोई भारत-विरोधी नारे लगाता है,देश की एकता एवं अखंडता पर सवालिया निशान लगाता है तो
उन्हें बख्शा नहीं जाएगा. उनके खिलाफ कड़ी कार्रवाई की जाएगी.'' राजनाथ ने तो यह दावा भी
कर डाला कि जेएनयू की घटना को हाफिज सईद का समर्थन था, बाद में इस बयान को लेकर
उनकी और उनके विभाग की खासी किरकरी भी हुई.
दरअसल जेएनयू
हमेशा से ही संघ परिवार के निशाने पर रहा है इसके कई कारण है, जेएनयू एक ऐसी जगह है जहाँ संघ लाख कोशिशों के बावजूद अपनी
विचारधारा को जमा नहीं पाया है और यहाँ हमेशा से ही वाम,प्रगतिशील,लोकतान्त्रिक
विचारों को मानने वालों का दबदबा है. वैचारिक रूप से संघ को जिस तरह की खुली
चुनौती जेएनयू से
मिलती है वह देश का कोई दूसरा संस्थान नहीं दे पाता है. जेएनयू का अपना मिजाज है,
एक खुला माहौल है, जहाँ सभी विचारों को फलने-फूलने का स्वभाविक मौका मिलता है,यहाँ के दरवाजे भेड़चाल और अंधभक्ति के लिए बंद है,किसी भी
विचारधारा को अपनी जगह बनाने के लिए बहस मुहावसे की रस्साकशी से गुजरना पड़ता है और संघ विचारधारा के लोग इसमें
मात खा जाते हैं, इसलिए जेएनयू के खिलाफ लगातार दुष्प्रचार किया जाता रहा है, पिछले साल 'पांचजन्य' में “दरार का गढ़” नाम से कवर स्टोरी आई थी जिसमें कहा गया
था कि जेएनयू नक्सली गतिविधियों का मुख्य केंद्र है और यहां देश को तोड़ने वालों का
एक तबका तैयार हो रहा है। भाजपा नेता
सुब्रमïण्यम स्वामी भी जेएनयू पर कई बार
सवाल उठाते हुए इसे देशद्रोहियों का अड्डा बता चुके हैं.
दूसरा कारण जेएनयू कैम्पस का सामाजिक और राष्ट्रीय चरित्र है,यह एक ऐसा संस्थान है जहाँ लगभग 60 फीसदी स्टूडेंट दलित,
आदिवासी, पिछड़े वर्ग,अल्पसंख्यक और
गरीब वंचित समुदायों से आते हैं, यहाँ हर राज्य का कोटा तय है और पिछड़े जिलों से आने वाले विद्यार्थियों को प्राथमिकता दी
जाती है. यह जेएनयू ही है जहाँ ये बच्चे तमाम बाधाओं
को पार करते हुए केवल अपनी प्रतिभा के बल पर इतने सस्ते में उच्च शिक्षा की सुविधाएं
पा रहे हैं. इधर जेएऩयू के बहाने
विश्वविद्यालयों को मिलने वाली सब्सिडी पर सवाल खड़े किये जा रहे हैं और इस बहाने
उच्च शिक्षा के निजीकरण की वकालत भी हो रही है. मोहनदास पाई जो कि इंफोसिस के पूर्व सीएफओ (चीफ
फाइनेंस आफिसर) और एचआर हेड रहे हैं इसी तरह का सवाल उठाकर कहते हैं कि "पुराकालीन या अतिवादी वाम को सब्सिडी देने के लिए करदाताओं
के पैसे का इस्तेमाल को किसी तरह सही नहीं ठहराया जा सकता."
मामला केवल जेएनयू का नहीं है, मोदी सरकार के आने के बाद से
शैक्षणिक संस्थानों के वैचारिक स्वायत्तता पर काबू पाने और इनका भगवाकरण करने का
जो सिलसिला शुरू हुआ था जेएनयू उसी की एक
कड़ी है, इससे पहले एफटीआईआई,आईआईएमसी और
हैदराबाद युनिवर्सिटी में ऐसे प्रयास किये जा चुके हैं. हैदराबाद यूनिवर्सिटी में
रोहित वेमुला के आत्महत्या के बाद से संघ और मोदी
सरकार कटघरे में आ गये थे, उनके हिंदुत्व की परियोजना में दलितों के इतेमाल के
कोशिशों पर पानी फिरता दिखाई पड़ने लगा था क्योंकि पूरे देश में अम्बेडकरवादी संगठनों
और विद्यार्थी संघ के खिलाफ मुखर तरीके से लामबंद होकर प्रतिरोध करने लगे थे. रोहित ने जाति के सवाल को एजेंडे पर ला दिया था जिस पर संघ किसी भी टकराहट से बचता है और हमेशा बैकफुट पर जाने को मजबूर होता है. जेएनयू प्रकरण ने उन्हें एक ऐसा मौका दे दिया जिससे वे एजेंडे पर आये जाति के सवाल को बायपास करते हुए अपने पुराने पिच पर वापस लौट सकें और यह पिच है “राष्ट्रवाद व साम्प्रदायिकता” का. इसी पिच पर जेएनयू प्रकरण के बहाने संघ ने अपने
सबसे बड़े वैचारिक प्रतिद्वंदी वामपंथ को निशाने पर लिया है और जिसका इरादा पूरे
वामपंथ को देशद्रोही के तौर पर पेश करना है.
निशाने पर वामपंथ
भारतीय राजनीति में वामपंथ हाशिये पर है,यह कई धड़ों में बंटा हुआ है और यह धड़े
एक दूसरे को कुछ खास पसंद भी नहीं करते हैं, इनका काफी समय अपने आप को एक दूसरे से
ज्यादा असली और सही साबित करने में बीतता है, मुख्य रूप से दो विभाजन है एक तरफ वो
अतिवादी समूह है जो देश के दूर-दराज के इलाकों में हथियारबंद होकर राज्य के खिलाफ
लड़ रहे हैं और एक दिन इसी तरह से पूरे देश को जीत लेने का सपना पाले हुए है, दूसरी
तरफ पूरी तरह से संसदीय राजनीति में रमा वामपंथ है, इसके अलावा बड़ी संख्या में ऐसे
छोटे समूह या व्यक्ति हैं जो अपने आप को स्वतंत्र मानते हैं इन्हें असंगठित वाम भी
कह सकते हैं.
ऑल इंडिया स्टूडेंट्स फेडरेशन (एआईएसएफ) भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी का छात्र संगठन है.सीपीआई
इस देश की सबसे पुरानी कम्युनिस्ट पार्टी है और यह किसी भी तरह से अतिवादी नहीं
है,9 फरवरी को जेएनयू में जो कार्यक्रम हुआ एआईएसएफ उसके आयोजन में शामिल नहीं थी और
ना ही जेएनयू छात्र संघ अध्यक्ष कन्हैया
कुमार ने ऐसा कोई नारा लगाया था, जिन
आजादी वाले नारों की बात की जा रही थी उसकी भी पोल खुल चुकी है यह नारे भूख, गरीबी,
बेरोजगारी, पूंजीवाद आदि से आजादी को लेकर थे और दिखाए गये वीडियो क्लिप में इनके साथ छेड़छाड़ की गई थी.ऐसे में सवाल उठाना लाजिमी है कि इस तथाकथित आयोजन में जो लोग सीधे तौर पर शामिल थे उनको छोड़ कर सबसे पहले कन्हैया कुमार को क्यों गिरफ्तार किया गया, ऐसा करने के पीछे वास्तविक मंशा क्या थी? क्या
यह मुख्यधारा के वाम को राष्ट्रद्रोही के तौर पर प्रचारित करने की साजिश नहीं थी? जिस तरह से इस मामले में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीआई) के राष्ट्रीय सचिव डी राजा को घेरने की कोशिश की गयी उससे भी इस आशंका को बल
मिलता है,सबसे पहले भाजपा सांसद महेश गिरि द्वारा ट्वीटर पर डी राजा की बेटी की एक
फोटो शेयर करते हुए दावा किया गया कि देश के खिलाफ नारेबाजी में वह शामिल थीं, इसी
कड़ी में बीजेपी के राष्ट्रीय सचिव एच राजा का
बयान आया कि अगर डी राजा देशभक्त हैं तो उन्हें कम्युनिस्टों से कहना चाहिए कि वे
जेएनयू में राष्ट्र विरोधी प्रदर्शनों में हिस्सा लेने के लिए उनकी बेटी की गोली
मारकर हत्या कर दें. इन सबके बाद पूरे वामपंथ और
उदारवादियों को देशद्रोही साबित करने की एक मुहिम सी चल पड़ी, झूठ फैलाने के इस काम
में पूरी मशिनरी को लगा दिया गया जिसमें मीडिया के एक हिस्सा
भी शामिल है. इस कवायद का एक मकसद वामपंथ और संघ विचारधारा को चुनौती देने वाली
अन्य आवाजों की छवि जनमानस में देशद्रोही के रूप में स्थापित करना था इसका कुछ असर
होता भी दिखाई पड़ रहा था.
मार्च के पहले सप्ताह में आयोजित भारतीय
जनता युवा मोर्चा के दो दिवसीय राष्ट्रीय अधिवेशन के समापन भाषण में वित्तमंत्री
अरूण जेटली ने वामपंथ पर हमला करते हुए कहा था कि जब-जब देश के सामने चुनौतियां आई
हैं राष्ट्रवादी विचारधारा का मुकाबला साम्यवादी विचारधारा से हुआ है, उन्होंने यह
भी कहा कि जेएनयू मामले में हमारी वैचारिक जीत हुई है, वहां देश तोड़ने के नारे लगे
थे ऐसे में भाजपा की जिम्मेदारी बनी कि हम अपनी राष्ट्रीय जिम्मेदारी को आगे बढ़ाएं
और उसमें हमारी विजय भी हुई है, विजय इस मायने में कि जो लोग देश के टुकड़े-टुकड़े
का नारा लगाते हुए जेल गए, वो जब जेल से बाहर आए तो उन्हें जयहिन्द
और तिरंगे के साथ भाषण देना पड़ा.
अरूण जेटली इसे भले ही अपनी वैचारिक जीत
बता रहे हों लेकिन बिना किसी पुख्ता सबूत के कन्हैया कुमार की हड़बड़ी
में की गयी गिरफ्तारी एक ऐसी गलती थी जिसके खामियाजे का उन्हें अंदाजा भी नहीं
था,फिर जो कुछ भी पटियाला हाउस कोर्ट में हुआ और वहां हमले में शामिल तथाकथित
वकीलों की स्टिंग
ऑपरेशन व भाजपा के बड़े नेताओं के साथ उनकी तस्वीरों ने किये-धरे पर पानी सा फेर
दिया. इसने पूरा पासा ही पलट दिया और जेल से वापस आने के बाद कन्हैया
कुमार ने जिस आक्रमकता और तीखे तरीके से भाजपा, मोदी सहित पूरे संघ परिवार की
विचारधारा पर हमला बोला वह दक्षिणपंथी खेमे के लिए निश्चित रूप से अप्रत्याशित रहा
होगा. उन्होंने वाम को अपने ही खिलाफ एक ऐसा
नेता दे दिया, जो वामपंथ के पारंपरिक “टर्मिनालाजी” से परहेज करता है,“लाल” और “नीले”
को जोड़ने की बात करता है और जिसकी बातें आम जनता को समझ में आ रही हैं.
कन्हैया का उभार
कोर्ट में हमले के बाद जेएनयू परिसर में कन्हैया
कुमार पर दोबारा हमले की कोशिश हुई
है, हमलावर जेएनयू का छात्र नहीं है, उसका कहना था कि वह कन्हैया को 'सबक सिखाना' चाहता था. भाजपा के बड़े नेताओं और
संघ परिवार के दूसरे संगठनों की तरफ से बौखलाहट में किये जा रहे जुबानी हमले देखते ही बन रहे हैं,उसके खिलाफ अफवाहें गढ़ने, दुष्प्रचार करने का काम भी बहुत जोर शोर से किया जा रहा है. लेकिन कन्हैया
पर सबसे दिलचस्प हमला तो राष्ट्रीय स्वयंसेवक
संघ की तरह से देखने को मिला है. एक तरफ
संघ के सरकार्यवाह सुरेश भैयाजी जोशी का बयान आया कि देश में सुर-असुर की लड़ाई चल रही है और इसमें जीत हमारी होगी तो दूसरी तरह संघ विचारक मनमोहन वैद्य ने कन्हैया को चूहा बताया.
आखिरकार एक ग्रामीण और मध्यमवर्गीय पृष्टभूमि से आये इस 28 साल के नौजवान के
अन्दर ऐसी क्या बात है कि सरकार पर काबिज होने और पूरे देश में अपने वैचारिक
वर्चस्व के बावजूद भी वे उससे डरे हुए नजर आ रहे हैं और उन्होंने एक तरह से उसे ही
अपना सबसे बड़ा 'टारगेट'
बना लिया है, दरसल
बिना ठोस सबूतों के कन्हैया की गिरफ्तारी का दावं उल्टा पड़ गया, जमानत पर छूटने के
बाद कन्हैया
ने जो निडरता और वैचारिक दृढ़ता दिखाई है और जिस तरह से उनका नायकों की तरह स्वागत किया
गया है इससे उनका कद बढ़ गया है, दक्षिणपंथियों ने एक तरह से दूसरे खेमे के एक
नौजवान को हीरो बना दिया है. जेल से आने के बाद जिस तरह से कन्हैया ने पूरे देश को
संबोधित किया है, दिल से कही
गयी उनकी बातों में गहराई, मुहावरेदार भाषा व देसीपन, संजीदगी और हास्यबोध की
मिलावट के साथ विरोधियों पर हमला करने के अंदाज ने उन्हें आकर्षण के केंद्र में ला
दिया है उस भाषण में वह बातें थीं जो
मौजूदा राजनीति के बड़े नेताओं में देखने को नहीं मिलती हैं, फिर कन्हैया ने जमानत
मिलने के तुरंत बाद प्रधानमंत्री मोदी सहित संघ को जिस तरह से आड़े हाथों लिया, उसने उन्हें मोदी और संघ विरोधियों का चहेता बना दिया और एक
झटके में ही वे हिन्दुतत्ववादी राजनीति के खिलाफ एक चहेरा बन कर उभर गये.
लेकिन
ऐसा नहीं है कि संघ परिवार के हाथ कुछ नहीं लगा है, उन्हें एक और विभाजन की रेखा
मिल गयी है और इसका नाम है “राष्ट्रवाद”. राष्ट्रवाद अब उनके लिए धुर्वीकरण का नया
हथियार है जिसका इस्तेमाल आने वाले दिनों में चुनावी और वैचारिक राजनीति दोनों में
देखने को मिलेगा. इस साल असम और पश्चिम बंगाल में जो चुनाव होने वाले हैं, वहां इस हथियार का
चुनावी परीक्षण किया जाएगा. वैचारिक राजनीति में तो यह काम कब का शुरू
हो गया है और पूरे देश में अंधराष्ट्रवाद की ऐसी हवा बना दी गयी है कि अगर आप सेना
द्वारा देश के एक हिस्से में औरतों के साथ किये गये बलात्कार पर सवाल उठाते हैं तो
आप को देशद्रोही घोषित किया जा सकता है और आप की पिटाई भी हो सकती है, अगर कोई
शायर या कवि सरकार के खिलाफ अपनी रचना के माध्यम से आवाज उठाता है तो एक राष्ट्रीय
टीवी चैनल द्वारा उसे देशद्रोही होने का फ़तवा सुना दिया जाता है.सोसायटी अगेंस्ट कनफ्लिक्ट एंड हेट(सच)
नाम की संघ की एक करीबी संस्था है, “सच” का कहना है कि वह देश के विभिन्न
विश्वविद्यालयों में मोदी सरकार के खिलाफ तैयार किए जा रहे माहौल के खिलाफ अभियान
चलाएगी, और इस काम में देश के विभिन्न विश्वविद्यालयों में राष्ट्रवादी सोच रखने
वाले छात्रों, शिक्षकों व बुद्धिजीवियों को जोड़ा जाएगा.
संभावनायें और सीमायें
इस पूरे
वैचारिक विभाजन में जो दूसरी
तरफ खड़े थे उनमें और
ज्यादा स्पष्टता आई है. इस दूसरे छोर
पर वाम, दलित,आदिवासी, अल्पसंख्यक खड़े हुए हैं और अब ये एक दूसरे के करीब भी आ रहे हैं. थके और लगातार
अपना प्रभाव खोते जा रहे भारतीय वामपंथ को पहले रोहित वेमुला और उसके बाद जेएनयू विवाद ने अपनी खोल से बहार आने का मौका
दिया है. पिछले सालों में उच्च शिक्षण संस्थानों में दलित
चेतना का जिस तरह से उभार देखने को मिला है वह नया,निडर और जुझारू है, यह सामाजिक
बदलाव की मांग कर रहा है और परम्परागत दलित आंदोलनों से अलग नज़र आ रहे है,जातिवाद–ब्राह्मणवाद के खिलाफ यह नया उभार संघ को विचलित कर रहा
है और वे नीले, लाल व अल्पसंख्यकों के गोलबंदी की किसी भी
संभावना से खौफ खाते हैं.
जाति के सवाल पर भारतीय वामपंथ की अस्पष्ट सोच और
वर्ग पर केन्द्रित रहते हुए आर्थिक मसलों पर ही सबसे ज्यादा जोर देना उसकी सबसे
बड़ी कमजोरी रही है,सामाजिक मसलों पर उनकी यह उदासीनता ही है जो उन्हें बहुजन–दलित
ताकतों के निशाने पर लाती है. इसी तरह से परम्परागत बहुजन–दलित ताकतों की आर्थिक व सांप्रदायिकता जैसे
मसलों पर ढुलमुल व अस्पष्ट सोच देखने को मिलती रही
है.
लेकिन इधर कुछ आत्मस्वीकृतियां और बदलाव भी देखने को मिल
रहे हैं, हैदराबाद विश्वविद्यालय में रोहित वेमुला व अम्बेडकर स्टूडेंटस एसोसिएशन के
साथियों द्वारा “मुजफ्फरनगर अभी बाकी है” जैसी फिल्म दिखाया जाता है और याकूब मेनन
की फासी का विरोध भी किया जाता है, इधर जेएनयू में कन्हैया 'नीला' और 'लाल' में मेल की
बात कर रहे हैं, जेल से निकलने के बाद कन्हैया जातिवाद– ब्राह्मणवाद के मुद्दे को अपने भाषणों के केंद्र में रखते हुए रोहित वेमुला का जिक्र करना नहीं भूलते
हैं, जातिवाद–ब्राह्मणवाद के खिलाफ इस स्पष्ट सोच का दूसरी तरफ से स्वागत भी किया जा रहा
है, कन्हैया ने एक तरह से लाल और नीले रंग को राजनीतिक प्रतीक में बदल दिया है. अब देखना यह है कि इस प्रतीक को धरातल
पर उतारने के लिए दोनों तरफ से क्या प्रयास किये जाते हैं. वामपंथ को भारतीय समाज को देखने–समझने के अपने पुराने वैचारिक ढांचे और रणनीति
में बदलाव करते हुए जातिवाद– ब्राह्मणवाद के खिलाफ एक स्पष्ट द्रष्टिकोण सामने लाना होगा, बहुजन-दलित संगठनों
को भी वामपंथ के प्रति अपने द्रष्टिकोण को व्यापक करने की जरूरत है. भारत में ब्राह्मणवाद
और पूँजीवाद के खिलाफ लड़ाई एक दूसरे के साथ आये बिना अधूरी है, यह एक लम्बी लड़ाई
है जिसके सांझा प्रतीक बाबा साहेब अम्बेडकर और शहीद भगत सिंह ही होंगें l
निश्चित रूप से कन्हैया और रोहित वेमुला नई उम्मीद,अपेक्षाओं और
संघर्षों के प्रतीक बन चुके हैं लेकिन क्या
भारत के वामपंथी और अंबेडकरवादी ताकतें खुद को इतना बदल पायेंगें कि वहां कन्हैया और
रोहित को एक साथ अपने में समा सकें. यकीनन इसका जवाब भविष्य के गर्भ में है लेकिन
बदलाव की एक लड़ाई तो छिड ही चुकी है और इस बार यह लडाई अन्दर और बाहर दोनों तरह
होने वाली है.
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