अभी भी याद आती है वह गोरखपुरिया होली

स्वदेश कुमार सिन्हा




फाल्गुन आ गया है परन्तु मौसम का कोई ठिकाना नही है कभी गर्म तथा कभी सर्द कभी बरसात जलवायु परिवर्तन का असर साफ दिख रहा है। ज्यादातर लोग अभी भी गर्म कपड़ो में नजर आ रहे है। तीन से पांच वर्ष के बच्च स्वेटर टाई पहन कर वैन और रिक्शो में ठूंसकर स्कूल भेजे जा रहे हैं परीक्षा देने के लिए जिस उम्र में हम लोगो ने स्कूल का नाम नही सुना था उस उम्र में प्लेवे के नाम पर छोटे-छोटे बच्चो पर स्कूल का भूत लाद दिया गया , अब होली कौन खेले ?

गावं में जहाँ एक माह पूर्व से फगुआ गीत और होली की चहल पहल शुरू हो जाती थी वहां भी सत्ता पूँजी  की घृणित गठजोड ने जहर घोल दिया है। अभी -अभी  पंचायती चुनाव गुजरा है लोग आज भी नये नये बने गठजोड़ो और पार्टी बन्दी में व्यस्त और मस्त है। अब इस मस्ती के आगे फगुआ और होली की मस्ती फीकी है। ठण्ड का यह मौसम कुछ दिन में समाप्त हो जायेगा। बसन्त के साथ गर्म मौसम भी आ जायेगा परन्तु जो ठण्डक लोगो के दिलो में बैठ गयी है वह कैसे दूर हो ?

कूछ वर्षो पूर्व होली के समय हुए दुर्भाग्यपूर्ण  साम्प्रदायिक दंगो के फलस्वरूप लंबे समय तक कफ्र्यू का दंश झेलने के बाद नगरवासियों के मन में एक अन्जाना सा भय बैठ गया हैं। त्यौहारो के आने पर आम जन तथा प्रशासन इसके सकुशल गुजर जाने की कामना करने लगता है। बाजार ने अन्य त्योहारों के तरह होली को भी अपने आगोश में ले लिया है। चीन में बनी पिचकारियों सहित तरह -तरह के होली के परिधानो और रंगो से बाजार पटे पड़े हैं  जो बढ़ती मॅहगाई के बावजूद लोगो को बाजार पहुचने पर विवश करते हैं । होली पर इस तरह का अलगाव अजनबीपन तथा भय पहले नही था। मुझे स्मरण है कि 80-90 के दशक में  जब मै कालेज में पढ़ता था गोरखपुर की होली अनोखी थी विभिन्न संगठन होली खेलने का प्रबन्ध करते थे। अभी शहर इतना विशाल नही हुआ था नयी -नयी कालोनीयों  भी नही बनी थी अलीनगर ,जाफरा बाजार ,अॅधियारीबाग ,उर्दू बाजार ,बसंतपुर घण्टाघर ,रेतीचैक ,गोरखनाथ तक के ही इलाके आबाद थे। जहाँ  पर हिन्दू -मुसलमानो की मिश्रित आबादी थी इसी में होली का त्यौहार मनाया जाता था, रेतीचैक ,अलीनगर तथा गोरख्नाथ में बड़े-बड़े ड्रम में  रंग घोल कर रखा जाता था उसी में लोगो को डुबो-डुबो  कर निकाला जाता था, एक रंग में रंगी भीड़ को देखकर अदभुत रोमांच होता था होली का हुड़दग जरूर था पर अश्लीलता ,फिकरेबाजी तथा गालीगलौज का नामो निशान नही था। जो लोग कभी घरो से नही निकलते थे वे भी होली की भीड़ में दिख जाते थे।
        
इन सबमें महत्वपूर्ण था होली पर अपसंस्कृति विरोधी सांस्कृतिक जुलूस शुरू हुआ यह गोरखपुर विश्वविद्यालय के प्रो0. नाटककार और सास्कृतिक कर्मी लाल बाहादुर वर्मा जी के पहल पर रमदत्तपुर मुहल्ले से निकलकर जाफरा बाजार चैराहे तक जाता था तथा अपसंस्कृति के पुतले का दहन होता था। बाद में यह टाउनहाल तक जाने लगा। हिन्दी ,उर्दू के अनेक साहित्यकार ,कवि ,शायर तथा रंग कर्मी जिसमें बादशाह हुसैन रिजवी ,आरिफ अजीज ,राजा राम चैधरी , दिगम्बर उपाध्याय जैसे सांस्कृतिककर्मियों  की महत्वपूर्ण भूमिका होती थी। बहुत से लोग जैसे डा0 परमानन्द श्रीवास्तव ,सुरेन्द्र काले ,मीरा भट्टाचार्या , मदन मोहन जैसे ढेरो लोग जो जुलूस में तो शामिल नही होते थे लेकिन हम लोगो का उत्साह बढ़ाने के लिए पहुँच  जाते थे। बाद में सारे लोग मिलकर होली खेलते थे तथा रातभर होली के गीतो की धूम मची रहती थी। यह आयोजन करीब दस वर्षो तक चलता रहा। बाद में प्रो0 लाल बहादुर वर्मा के मणिपुर चले जाने पर यह धीरे-धीरे समाप्त हो गया। होली आज भी मनायी जाती है परन्तु इसमें निहित सामूहिकता गायब है। सड़के सुनसान पड़ी रहती हैं । लोग घरो में बैठकर फिल्मे या होली पर प्रायोजित कार्यक्रम देखते रहते हैं । सड़को पर या तो छोटे बच्चे होते हैं या कुछ मदमस्त नौजवानो के हुजुम। होली का परम्परागत जुलूस आज भी निकलता है परन्तु उसमें आम जन से ज्यादा पुलिस के जवान दिखलाई पड़ते हैं । आप पूरा शहर घूम आये अगर आप नही चाहेंगे तो ना आप पर कोई रंग फेंकेगा न आपको कोई रंग पोतेगा। एक अजीब दहशत अकेलापन और अजनबीपन लोगो के दिलो में बैठ गया।
  
 मुझे स्मरण है कि सांस्कृतिक जुलूस का एक नारा था’’सर्दिया तुम्हारी थी बसन्त हमारा होगा’’ गोरखपुरिया समाज को एक बार फिर उस बसंत का इन्तजार है। 
                                               


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