चम्पारण सत्याग्रह के सौ साल
एल.एस. हरदेनिया
इस समय सारा देश चम्पारण
सत्याग्रह की 100वीं वर्षगांठ मना
रहा है। आज से सौ वर्ष पूर्व महात्मा गांधी बिहार के चम्पारण नामक स्थान पर पहुंचे
थे। उनका उद्देश्य था उस क्षेत्र के किसानों को ब्रिटिश साम्राज्य और स्थानीय सामंतों
के अत्याचारों से मुक्ति दिलाना। इस सत्याग्रह ने ही मोहन दास को महात्मा बना दिया
था। यदि गुजरात का पोरबंदर उनकी जन्मभूमि थी तो बिहार का चम्पारण वास्तव में उनकी प्रथम
कर्मभूमि थी।
वर्ष 1917 के 15 अप्रैल के दिन मोतीहरी
रेलवे स्टेशन पर हजारों लोग एकत्रित थे। वे इंतजार कर रहे थे एक दुबले-पतले व्यक्ति
का जो वहां उन्हें जुलमों से मुक्ति दिलाने के लिए आने वाला था। 15 अप्रैल के ठीक तीन
बजे गांधी जी की ट्रेन आई और जय-जयकारों के बीच वे प्लेटफार्म पर उतरे। शायद गांधी
जी को मालूम नहीं था कि चम्पारण में जो कुछ होने वाला है वह उनकी जिंदगी के इतिहास
का प्रथम गौरवशाली पृष्ठ होगा। बिहार की सरकार ने इसी वर्ष 2016 के 15 अप्रैल से लेकर 1917 के 15 अप्रैल तक शताब्दी
समारोह मनाने की घोषणा की है। इसके लिए पूरे बिहार में तैयारियां हो चुकी हैं।
बात 1916 की है जब लखनऊ में
कांग्रेस का अधिवेशन चल रहा था। अधिवेशन के दौरान उनसे एक व्यक्ति ने मुलाकात की, जिसका नाम राजकुमार
शुक्ला था। राजकुमार ने गांधी जी से अनुरोध किया कि वे चम्पारण आएं और किसानों की दुःखभरी
गाथा सुनें। इस मुलाकात के बारे में गांधी जी ने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि मैंने
न तो चम्पारण का नाम सुना था और ना ही मुझे उसकी भौगोलिक स्थिति का ज्ञान था। मुझे
वहां के लोगों की स्थिति के बारे में भी कोई खास जानकारी नहीं थी। ब्रिटिश शासकों ने
वहां के किसानों पर तिनकथिया नाम की व्यवस्था लाद दी थी। इस व्यवस्था के अंतर्गत किसानों
के लिए यह अनिवार्य कर दिया गया था कि वे अपनी ज़मीन के एक निश्चित हिस्से में नील की
खेती करें। नील एक रंजक है। यह सूती कपड़ों में पीलेपन से निजात पाने के लिए उपयोग किया
जाता था। यह चूर्ण (पाउडर) तथा तरल दोनों रूपें में प्रयुक्त होता था। ब्रिटिश शासन
का यह आदेश वहां के किसानों की तकलीफों का मुख्य कारण था। यह बात डा. राजेन्द्र प्रसाद
ने अपनी किताब ‘‘चम्पारण का सत्याग्रह” में लिखी है। जैसा कि ज्ञात है कि राजेन्द्र प्रसाद बाद में
आज़ाद हिंदुस्तान के प्रथम राष्ट्रपति बने थे। यद्यपि किसानों के लिए नील की खेती अनिवार्य
कर दी गई थी परंतु उसके एवज में क्षतिपूर्ति के रूप में उन्हें जो दिया जाता था वह
बहुत ही कम था इसके अतिरिक्त इस बात का भी प्रावधान किया गया था कि यदि वे नील की खेती
नहीं करेंगे तो उन्हें आर्थिक रूप से दंडित किया जाएगा। यह प्रावधान भी वहां के किसानों
की मुसीबतों का एक प्रमुख कारण था।
नील की खेती अनिवार्य
करने से अनाज के उत्पादन में भारी कमी आ गई थी। इस कमी के कारण उस क्षेत्र में अकाल
जैसी स्थितियां निर्मित हो जाती थीं। पूरा दिन मोतीहारी में बिताने के बाद गांधी जी
जासूलीपट्टी नामक गांव के लिए हाथी पर बैठकर रवाना हुए। गांधी जी को पता लगा था कि
सिर्फ एक दिन पहले वहां के एक किसान को बुरी तरह से पीटा गया था और उसकी सारी संपत्ति
को स्वाहा कर दिया गया था। वे थोड़ी आगे बढ़े ही थे कि उन्हें एक नोटिस थमा दिया गया।
इस नोटिस में उन्हें आदेश दिया गया था कि वे अगली ट्रेन से इस क्षेत्र को छोड़कर चले
जाएं। परंतु गांधी जी ने इस आदेश को मानने से इंकार कर दिया। नतीजे में उन्हें गिरफ्तार
किया गया और 18 अप्रैल को एक अदालत
में पेश किया गया।
उन्हें जिस बड़े पैमाने
पर लोकप्रिय समर्थन मिला उससे ब्रिटिश सरकार घबरा गई और उन्हें रिहा कर दिया गया। दो
दिन के बाद मुकदमा भी वापिस ले लिया गया। सरकार की ओर से यह आश्वासन दिया गया कि किसानों
की तकलीफों पर विचार किया जाएगा। कुछ समय के बाद किसानों की स्थिति का अध्ययन करने
के लिए एक समिति बनाई गई और इस समिति में गांधी जी को भी शामिल किया गया। इस समिति
ने वहां के किसानों से संपर्क कर उनकी तकलीफों को लिपिबद्ध किया और गांधी जी के आने
के एक साल बाद समिति की सिफारिशें स्वीकार की गईं और तिनकथिया व्यवस्था वापिस ले ली
गई।
चम्पारण एक ऐतिहासिक
स्थल है। इसे राजा जनक का क्षेत्र भी माना जाता है। यहां पर कुछ ऐसे स्तूप भी हैं जो
इस बात के प्रतीक हैं कि यहां एक समय बुद्ध धर्म का प्रभाव रहा होगा। अशोक महान द्वारा
यहां पर चार पिलर भी स्थापित किए गए हैं। यहां पर गांधी जी की याद में एक म्युजियम
की भी स्थापना की गई है और भी अनेक चीजें हैं जो यहां पर गांधी जी के आने की याद दिलाती
हैं। परंतु इन सब यादगारों की स्थिति अच्छी नहीं है।
चम्पारण सत्याग्रह
के बाद भी गांधी जी वहां आते रहे। वे अनेक स्थानों पर जाते थे जिनमें हजारीमल धर्मशाला
भी शामिल है। यहां पर वे एक वकील के घर पर ठहरा करते थे। जिस मकान में वह ठहरते थे
वह लगभग खंडहर हो गया है। अविनाश झुनझुनवाला बताते हैं कि गांधी जी उनके परदादा के
घर में रूके थे। उस समय किसी में यह साहस नहीं था कि वे गांधी जी को अपने घर में मेहमान
बनाएं, परंतु अविनाश के परदादा
हजारीमल ने यह साहस दिखाया था जिसका उन्हें खामियाजा लंबे समय तक भुगतना पड़ा। गांधी
जी ने यहां पर एक आश्रम की स्थापना भी की थी। वर्तमान में प्रयास जारी है कि उस आश्रम
को फिर से ठीक किया जाए। वर्ष 1939 में गांधी जी ने यहां एक और आश्रम की स्थापना की। गांधी जी
ने यहां एक गौशाला की भी स्थापना की थी परंतु इस गौशाला की स्थिति भी अब खस्ता है।
गांधी जी ने यहां शिक्षा के क्षेत्र में भी अनेक पहल की थीं। 1917 में ही उन्होंने
तीन पाठशालाओं की नींव रखी थी। इन स्कूलों में बुनियादी शिक्षा के सिद्धांत के अनुसार
पढ़ाई होती थी।
चम्पारण सत्याग्रह
के पहले और बाद में भी देश में अनेक सत्याग्रह हुए पर उन सत्याग्रहों और गांधी के चम्पारण
सत्याग्रहों में कुछ बुनियादी अंतर हैं। इस सत्याग्रह के माध्यम से गांधी जी ने किसानों
को आबादी के दूसरे वर्गों से जोड़ा। गांधी जी के प्रयासों के कारण बुद्धिजीवियों को
भी किसानों की स्थिति समझने का अवसर मिला था।
राजेन्द्र बाबू अपनी
किताब में लिखते हैं कि चम्पारण के पहले भी अनेक आंदोलन हुए परंतु उन आंदोलनों का निश्चित
इतिहास ज्ञात नहीं है। वर्ष 1907 में भी शेख गुलाब और सीतलराय ने नील की खेती के विरूद्ध आवाज़
उठाई थी। इस तरह चम्पारण आंदोलन के पूर्व जो
भी आंदोलन हुए उन्हें इतिहास में शामिल नहीं किया जा सका।
गांधी जी ने किसानों
के शोषण को आज़ादी के आंदोलन का एक हिस्सा बनाया और किसानों में विद्रोह करने की क्षमता
का विकास किया।अभी हाल में एक प्रमुख
अंग्रेजी अखबार के संवाददाता इस क्षेत्र में गए। परंतु उन्होंने पाया कि सौ साल के
बाद भी यहां किसानों की स्थिति ज्यों कि त्यों है। यद्यपि वर्तमान में सामंती जुल्म
उतना नहीं है परंतु यह कहना गलत होगा कि पूरी तरह से जुल्म खत्म हो गया है। वहां के
लोगों ने बताया कि हम अभी भी कृषक मजदूर ही हैं। हम में से बहुसंख्यक अभी भी उसी स्थिति
में हैं जो आज से सौ साल पहले थी।
गांधी जी के सत्याग्रह
के कारण नील की खेती बंद हो गई और यहां पर गन्ना और धान उगाया जाने लगा। यद्यपि किसान
गन्ना और धान उगाने लगे परंतु खेती की मिल्कियत उन्हीं के हाथों में रही जो आज की सत्ता
के नज़दीक हैं। जो ज़मीन अंग्रेजों के पास थी वह अब भारतीय सामंतों के पास है। इस तरह
अभी भी सामंती ताकतों का दबदबा है। पहले नील की खेती करने वालों का दबदबा यहां चलता
था, अब फैक्ट्रियों के
मालिकों का दबदबा यहां पर है।
अभी एक हफ्ते पहले
चम्पारण शताब्दी समारोह विधिवत प्रारंभ किया गया। इस दरम्यान पर्यावरणविद राजेन्द्र
सिंह ने लोगों का आह्वान किया है कि वे अब जल सत्याग्रह करें और पानी बचाने की कोशिश
करें। इस क्षेत्र के लोग अब अंग्रेजों से तो परेशान नहीं हैं परंतु वहां पर सूखे की
स्थिति है। अंग्रेजों ने जो नहर बनाई थी वह अब सूख गई है। एक किसान ने बताया ‘‘एक समय था जब हम एक
साल में दो से ज्यादा फसल निकालते थे परंतु अब एक से ज्यादा फसल पैदा नहीं कर पाते।’’
चम्पारण सत्याग्रह
के दौरान गांधी जी बार-बार कहते थे कि जब तक हम गांव की स्थिति नहीं बदलेंगे भारत एक
संपन्न और सुखी देश नहीं बन पाएगा। यहां पर इस समय लोग गांधी जी का नाम तो ले रहे हैं
परंतु गांधी जी के संदेश पर अमल नहीं कर रहे हैं। गांधी जी का नाम सिर्फ व्यक्तिगत
लाभ के लिए लिया जा रहा है।
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