देश को बांटने वाली निराशा से भरपूर रहे हैं मोदी के दो वर्ष
-एल.एस. हरदेनिया
श्री नरेन्द्र
मोदी को इस माह (मई) प्रधानमंत्री का पद संभाले दो वर्ष हो जाएंगे। चुनाव प्रचार
के दौरान उन्होंने देश की जनता से अनेक महत्वपूर्ण आकर्षक वायदे किए थे। उनके
भाषणों से मतदाताओं को ऐसा लगता था कि चुनाव के बाद उन्हें वो सब कुछ मिल जाएगा जो
स्वर्ग में मिलता है। परंतु पिछले दो सालों में देश के लोग ग़ालिब की इन पंक्तियों
को गुनगुनाने पर मजबूर हो गए हैं, ‘‘हमको मालूम है जन्नत की हकीकत क्या है, दिल के बहलाने को
ग़ालिब यह ख्याल अच्छा है’’। चुनाव के दौरान
मोदी से लेकर भारतीय जनता पार्टी का अदना से अदना कार्यकर्ता यह आशा दिला रहा था
कि ‘‘अच्छे दिन आने
वाले हैं’’। परंतु दो साल
हो गए अच्छे दिन आना तो दूर कई मामलों में बुरे दिन आ गए हैं।
मोदी समेत भारतीय
जनता पार्टी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े सभी कार्यकर्ताओं ने मुख्य रूप से
तीन बड़े वायदे किए थे। वे थे (1) मंहगाई कम करेंगे, (2) बेकारी दूर करेंगे और (3) विदेशों से काला
धन लाएंगे। विदेशी धन इतनी तादाद में आएगा कि प्रत्येक नागरिक के खाते में कम से
कम 15 लाख जमा हो जाएंगे।
अभी तक किसी भी
स्त्रोत से यह पता नहीं लगा कि पिछले दो सालों में कितने लोगों को काम मिला। इसके
विपरीत ऐसी सूचनाएं मिल रही हैं कि पिछले दो वर्षों में दो करोड़ बेकार युवकों की
फौज तैयार हो गई है।
जहां तक कीमतों
का सवाल है पिछले दो वर्षों में जिस प्रतिशत से कीमतें बढ़ी हैं, आज़ादी के बाद कभी
नहीं बढ़ी। पुरानी कहावत है ‘‘दाल रोटी खाओ, प्रभु के गुण गाओ’’। इस कहावत का अर्थ यह है कि गरीब से गरीब इंसान को खाने के
लिए दाल उपलब्ध हो ही जाती है। अब दाल, गरीबों का तो सवाल ही नहीं उठता, उच्च मध्यम वर्ग
की पहुंच के बाहर हो गई है। इसके अतिरिक्त ऐसी कोई भी उपयोगी वस्तु नहीं है जिसकी
कीमतें न बढ़ी हों। बढ़ी हुई कीमतों के कारण आम आदमी का जिंदा रहना भी मुश्किल हो
गया है। पेट्रोल और डीजल की कीमत कभी भी यकायक बढ़ जाती है। वैसे पूंजीवादी समाज
में कीमतों की बढ़ोतरी एक स्वाभाविक प्रक्रिया है परंतु पूंजीवादी व्यवस्था में भी
कीमतों पर नियंत्रण पाने के प्रयास तो किए जाते हैं। परंतु केंद्रीय सरकार के स्तर
पर कीमतों पर नियंत्रण पाने की दिशा में एक भी कदम नहीं उठाया गया है।
नरेन्द्र मोदी ने
यह भी वायदा किया था कि ‘‘न तो मैं खाउंगा
न किसी को खाने दूंगा’’। वे अपने इस
नारे पर कितना अमल कर रहे हैं यह किसी से नहीं छिपा है। मध्यप्रदेश की भाजपा सरकार
ने कितना खाया है यह भी ज्ञात है। यह प्रदेश व देश का बच्चा-बच्चा जानता है। इसके
बावजूद मध्यप्रदेश की सरकार और विशेषकर मुख्यमंत्री के विरूद्ध किसी भी प्रकार का
कदम नहीं उठाया गया है।
नरेन्द्र मोदी और
भाजपा ने लोकपाल नियुक्ति को लेकर चले आंदोलन को पूरा समर्थन दिया था। अन्ना हजारे
की सभाओं और उनके द्वारा किए गए आंदोलन को भाजपा ने तन, मन, धन से समर्थन
दिया था। अब न तो प्रधानमंत्री और ना ही भाजपा, लोकपाल का नाम अपनी जबान पर भी नहीं ला रहे हैं। इस से बड़ी
वायदाखिलाफी और क्या हो सकती है। क्या बिना लोकपाल की संस्था के भ्रष्टाचार पर
प्रभावशाली नियंत्रण करने का प्रयास किया जा सकता है?
नरेन्द्र मोदी ने
ऐसा कोई भी प्रयास नहीं किया है जिससे देश को राहत मिली हो। इसके विपरीत उन्होंने
स्वयं ऐसे कदम उठाए हैं जिनसे वर्षों पुरानी संस्थाएं और परंपराएं टूटी हैं। यह
पहली बार नहीं है कि केंद्र में गैर-कांग्रेसी सरकार सत्ता में आई हो। परंतु इनमें
से एक भी सरकार ने उन संस्थाओं को न तो तोड़ा और ना ही कमज़ोर किया। जैसे योजना आयोग
की स्थापना देश के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने की थी। योजना आयोग
के माध्यम से विकास के विभिन्न कार्यक्रमों में समन्वय स्थापित किया जाता था।
योजना आयोग देश के विकास की न सिर्फ योजना बनाता था वरन उनके क्रियान्वयन पर भी
नज़र रखता था। आयोग की एक विशेषता यह भी थी कि उसके सभी सदस्य गैर-राजनीतिक तो होते
थे अपने विषय के विशेषज्ञ भी होते थे।
नरेन्द्र मोदी उस
संस्था को पसंद नहीं करते हैं जो नेहरू जी ने बनाई थी। वास्तव में नरेन्द्र मोदी
की सबसे बड़ी महत्वाकांक्षा नेहरू बनने की है। इसलिए उन सब चीजों को नष्ट करना
आवश्यक है जो नेहरू ने बनाई थीं। यदि मोदी का बस चले तो वे देश की लोकतंत्रात्मक
व्यवस्था को ही खत्म कर दें।
नेहरू जी जानते
थे कि देश का औद्योगिक एवं कृषि का विकास उस समय ही संभव होगा जब देश में तकनीकी
एवं वैज्ञानिक प्रतिभा उपलब्ध होगी। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए नेहरू जी ने
इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नालॉजी की स्थापना की। इन संस्थाओं से जो प्रतिभा निकली
उनसे देश के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है। न सिर्फ इन संस्थाओं की
स्थापना की गई वरन उनके संचालन में पूरी स्वायŸाता दी गई। इस स्वायŸाता को अब समाप्त किया जा रहा है। यह हमारा सौभाग्य रहा है
कि पूर्व में केंद्रीय शिक्षा मंत्री के पद पर ज्ञानी राजनीतिज्ञों को नियुक्त
किया जाता था। हमारे देश के प्रथम शिक्षामंत्री मौलाना आज़ाद रहे। इसके बाद
नरसिंहराव भी इस पद पर रहे। प्रोफेसर हुमायूं कबीर भी शिक्षा मंत्री रहे। राजस्थान
के श्रीमाली, मध्यप्रदेश के
अर्जुन सिंह शिक्षामंत्री रहे। वाजपेयी के प्रधानमंत्री मंत्रित्व के दौरान डॉ.
मुरली मनोहर जोशी शिक्षा मंत्री रहे जो स्वयं प्रोफेसर थे। ये सब क्षमतावान
राजनेता थे। परंतु नरेन्द्र मोदी ने एक ऐसे व्यक्ति को शिक्षा मंत्री बनाया है
जिसमें इस महत्वपूर्ण मंत्रालय के उत्तरदायित्व को निभाने की क्षमता नहीं है।
सभी उच्च शिक्षा
संस्थानों के मुखियाओं को यह शिकायत है कि उन्हें अनावश्यक राजनीतिक हस्तक्षेप का
सामना करना पड़ रहा है। संभवतः स्मृति ईरानी के रवैये के कारण देश के अनेक
विश्वविद्यालयों में तनाव की स्थिति निर्मित हो गई है। ईरानी के रवैये के कारण देश
के दो सर्वश्रेष्ठ विश्वविद्यालयों में अराजकता की स्थिति निर्मित हो गई है। ये दो
विश्वविद्यालय हैं दिल्ली का जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय एवं हैदराबाद का केंद्रीय
विश्वविद्यालय। हैदराबाद विश्वविद्यालय के एक होनहार दलित छात्र को ईरानी के रवैये
के कारण आत्महत्या करनी पड़ी। इसी तरह जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के कन्हैया
समेत अनेक प्रतिभाशाली छात्रों पर देशद्रोह का बेबुनियादी आरोप लगा कर उनके कैरियर
को बर्बाद किया जा रहा है।
राजनीतिक स्तर पर
मोदी अनेक राज्यों की सरकारों को अस्थिर कर रहे हैं। राज्यों के दैनिक आंतरिक
मामलों में हस्तक्षेप करके वे हमारे संविधान के संघीय ढांचे को कमज़ोर कर रहे हैं।
अरूणाचल प्रदेश हमारे देश की सीमा पर स्थित है। सीमा पर स्थित राज्यों में स्थिरता
आवश्यक है। इसके बावजूद वहां की चुनी हुई सरकार को बर्खास्त किया गया है। इसी तरह
का रवैया देश की सीमा पर स्थित उत्तराखंड के बारे में अपनाया गया। केंद्र सरकार
उत्तराखंड के मामले में अपनाए गए रवैये की उत्तराखंड की हाईकोर्ट ने अत्यधिक कड़े
शब्दों में आलोचना की है। केंद्र सरकार की इतने सख्त शब्दों में शायद ही पहले कभी
आलोचना की गई हो।
इसी तरह देश के
इतिहास में भी शायद ही कभी इतनी बड़ी संख्या में बुद्धिजीवियों ने एक स्वर से
केंद्र सरकार के रवैये की आलोचना की हो। इन बुद्धिजीवियों की शिकायत है कि देश में
जानबूझकर असहिष्णुता का वातावरण बनाया गया है। इस वातावरण में देश के बुद्धिजीवी
घुटन महसूस कर रहे हैं।
इसी तरह इन दो
वर्षों में पत्र स्वातंत्र्य का गला घोटने का प्रयास किया गया है। इसी श्रंखला में
उर्दू लेखकों और पत्रकारों को चेतावनी दी गई है कि वे सरकार की नीतियों के विरूद्ध
नहीं लिखें। अभी उर्दू के लेखकों को ऐसी चेतावनी दी गई है, कल दूसरी भाषा के
लेखकों और पत्रकारों को भी ऐसी चेतावनी दी जा सकती है। इस तरह की चेतावनी से यह
संकेत मिलता है कि वह दिन दूर नहीं जब पूरी तरह से वाणी की स्वतंत्रता पर प्रतिबंध
लगा दिया जाएगा।
हमने
मंत्रिमंडलीय प्रणाली को अपनाया है। मंत्रिमंडलीय प्रणाली में प्रधानमंत्री को First among equals अर्थात बराबर की
हैसियत वालों के बीच में प्रथम। इस सिद्धांत को हमारे देश के लगभग सभी
प्रधानमंत्रियों ने अपनाया था। परंतु मोदी इस सिद्धांत पर नहीं चल रहे हैं। वे
अपने का गैर-बराबरों के बीच में प्रथम मानते हैं। मोदी के राज में गृहमंत्री
राजनाथ सिंह को भी इस बात का अधिकार नहीं है कि वे अपनी पसंद के सचिव की नियुक्ति
कर सकें। जहां तक जानकारी है अब कैबिनेट की बैठकें भी कम ही होती हैं। देश में
सांप्रदायिक सौहार्द बना रहे इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए राष्ट्रीय एकता परिषद
का गठन किया जाता रहा है। परंतु मोदी जी ने परिषद का गठन अभी तक नहीं किया है।
चूंकि नेहरू जी ने इस परिषद का गठन किया था इसलिए शायद मोदी उसके भी विरूद्ध हैं।
इस सबके अतिरिक्त
पिछले दो वर्षों में कुछ ऐसी बातें और घटनाएं हुई हैं जिनसे देश में तनाव का
वातावरण निर्मित हुआ है। इस तरह के वातावरण के निर्माण के लिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक
संघ से जुड़े लोगों द्वारा दिए गए बयान और की गई घटनाए हैं। बयान तो ऐसे लोगों ने
दिए हैं जो मोदी की मंत्रिपरिषद के सदस्य हैं। जब किसी ने ऐसी बात कही जो सत्ता
में बैठे लोगों को अच्छी नहीं लगती तो वे कह देते हैं जो ऐसी बातें करते हैं वे
पाकिस्तान चले जाएं। जो हमें वोट देता है वह रामज़ादा है और जो नहीं देता वह
हरामज़ादा है। भाजपा अध्यक्ष ने बिहार में चुनाव प्रचार के दौरान कहा था कि बिहार
में यदि भाजपा हारती है तो पाकिस्तान में पटाखे फूटेंगे।
भाजपा की एक
सासंद कहती है कि संसद में कुछ सदस्य आतंकवादी हैं। दादरी के अख़लाक की इस संदेह
में हत्या कर दी जाती है कि उसके घर में गौमांस रखा है। बाद में मांस का परीक्षण
करने पर पाया जाता है कि वह गौमांस था ही नहीं। झारखंड में दो मुसलमानों की हत्या
इस संदेह पर कर दी जाती है कि वे गायों को बूचड़खाने बेचने जा रहे थे।
प्रश्न यह नहीं
है कि ऐसी बातें हो रही हैं परंतु चिंता की बात यह है कि प्रधानमंत्री समेत
सत्ताधारी पार्टी का केंद्रीय नेतृत्व ऐसे लोगों को रोकता नहीं है, ना ही उन्हें
फटकारता है। कुल मिलाकर पिछले दिनों देश में धु्रवीकरण हुआ है। देश की एकता कमज़ोर
हुई है। सबसे ज्यादा सुखद बात यह है कि मोदी के दो वर्ष का जो मूल्यांकन हम कर रहे
हैं उससे भी ज्यादा तीखे शब्दों में भाजपा के ही एक बड़े नेता अरूण शौरी ने किया
है। शौरी अटल बिहारी वाजपेयी की मंत्रिपरिषद के सदस्य थे। ‘‘इंडिया टुडे’’ द्वारा प्रसारित
एक इंटरव्यू में अरूण शौरी ने यह आरोप लगाया है कि मोदी की सरकार एक आदमी की
राष्ट्रपति प्रणाली वाली सरकार है। मोदी के नेतृत्व में जिस ढंग से सरकार संचालित
हो रही है वह देशहित में नहीं है। ऐसा लगता है कि वे सभी से झगड़ते हैं। सबसे बड़ी
समस्या यह है कि वे कम ही लोगां से जानकारियां लेते हैं। ऐसा लगता है कि एक सोची
समझी नीति के चलते घर वापसी, लवजिहाद, गौमांस पर प्रतिबंध, सम्मान और पुरस्कार की वापसी, राष्ट्र विरोध के विरूद्ध अभियान। ऐसा लगता है
कि ये सब मुद्दे जानबूझकर उठाए जा रहे हैं जिससे अनावश्यक तनाव और धु्रवीकरण हो।
ऐसा लगता है कि मोदी फूट डालो और बांटों की नीति पर चलकर देश को बांट रहे हैं।
भ्रष्टाचार के विरूद्ध भी कोई कारगार कदम नहीं उठाया गया है।
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