राष्ट्रीय महिला नीति 2016 का मसविदा
अंजलि सिन्हा
केन्द्रीय महिला एवं
बाल विकास मंत्रालय ने राष्ट्रीय महिला नीति 2016
का मसविदा जारी कर दिया
है। इसके पहले 2001 में महिला नीति बनी थी। महिलाओं की स्थिति में बदलाव
तथा आज के समय के हिसाब से नीति में कुछ संशोधन की जरूरत बतायी गयी है। साइबर
क्राइम से बचाव, सरोगेसी, परिवार नियोजन की
नीतियां आदि के बारे में मसविदे में चर्चा है। स्वास्थ्य, पोषण, सुरक्षा आदि की भी
बातें हुई हैं। ठीक ही है कि समय समय पर जरूरतों के हिसाब से नई नीति बननी ही
चाहिए और इस बात की भी समीक्षा की जानी चाहिए कि हालात में अपेक्षित सुधार नहीं होने
की वजहें क्या रही हैं ।
ऐसा भी नहीं है कि
महिलायें दो तीन दशक पहले जहां थीं वहीं हैं। उन्होंने आगे बढ़ने का सफर भी तय किया
है चाहे वह शिक्षा के क्षेत्रा मे हो, रोजगार या सामाजिक रूप
से सशक्त होने के रूप में हो। लेकिन वे आज भी समानता पाने के लक्ष्य से अभी तो
कोसों दूर हैं ही इतनाही नहीं बर्बर किस्म की हिंसा के साथ रोज ब रोज की असुरक्षा
और परत दर परत बैठी स्त्राद्रोही मानसिकता की भी शिकार हैं। इन्हीं स्थितियों के
मददेनजर हमें मसविदा का आकलन करना चाहिए।
मसविदे में एक
महत्वपूर्ण मुददा एकल महिलाओं का उठाया गया है जिसमें अविवाहित, विधवा या तलाकशुदा आदि
श्रेणियां शामिल हैं। निश्चित ही इस बदले दौर में अकेले अपने भरोसे जीवनयापन करने
वाली महिलाओं की संख्या बढ़ी है और साथ ही इस पुरूषप्रधान मानसिकता वाले समाज में
उनके साथ उत्पीड़न तथा गैरबराबरी एवं उपेक्षा की संभावना भी अधिक बनी हुई है, इसलिए ऐसी महिलाओं के
बारे में योजना बनाना जरूरी है, लेकिन नीति बनाने से पहले इस पर विचार करना
तथा विमर्श को व्यापक बनाना जरूरी है। एकल महिला की सामुदायिक पहचान बनाना उन्हें
किसी निर्मित की गयी पहचान की सीमा में बांधने की अपेक्षा ज्यादा जरूरी है व्यक्ति
के रूप में उन्हें मान्यता दिलाना। महिला चाहे वह शादीशुदा हो, गैरशादीशुदा हो, तलाकशुदा हो, या विधवा भी हो सबसे
पहले वह व्यक्ति और नागरिक है। महिलाओं के मुददे को सम्बोधित करने में हमेशा से
रिश्तों को प्रधानता दी गयी है। परिवार के अन्दर या अकेले रहनेवाली महिला की
स्थिति में निश्चित फरक बहुत बड़ा है, लेकिन पित्रसत्ता की
शिकार सभी महिलाएं हैं। एकल महिलाओं को अलग से चिन्हित कर ‘‘एकल’’ होने की पहचान स्वयं
में पित्रसत्तात्मक है। यदि हम बराबरीपूर्ण समाज की कल्पना करते हैं तो सभी स्त्रा
या पुरूष की वैयक्तिक पहचान उस व्यक्ति की स्वीकार्यता है। वह किसी उपेक्षा से
निर्मित पहचान नहीं है। किसी भी पीड़ित समुदाय की अपनी एकता और पहचान हो सकती है, लेकिन वह पहचान अपने
उत्पीड़न शोषण से मुक्ति का, खुद को संगठित करने का एक रणनीतिक मसला होगा, वह सरकारी नीति का
मुददा नहीं है। एकल होना या साथ होना किसी सशक्त हो चले समूह के लिए अपने चुनाव का
मसला भी हो सकता है। शादी करना या नहीं करना आज लड़कियां स्वयं भी तय करने लगी हैं
भले ही उनकी संख्या अभी बहुत थोड़ी है। जिस भी व्यक्ति को चाहे वह किसी रिश्ते में
हो या नहीं यदि सरकारी सहायता की जरूरत हो तो उसे मिलनी चाहिए।
मसविदे के अन्य विवरण
पर अलग से विस्तार से लिखा जा सकता है, लेकिन यहां एक एप्रोच
को लेकर बात अवश्य की जानी चाहिए अक्सर महिलाओं के विकास की चर्चा करते हुए नीति
निर्माता अपने आप को एक अलग द्वंद में देखते हैं कि महिलाओं की सामाजिक स्थिति के
बारे में प्राचीन परम्परा तथा उस दौर में उसे कथित तौर पर मिलनेवाले सम्मान की बात
की जानी चाहिए या आधुनिक भारत में स्वाधीनता के बाद उसे संविधान के तहत तथा
सामाजिक आन्दोलनों के दबाव में मिले न्याय, बराबरी और समानता की
बात पर जोर दिया जाना चाहिए करें।
इस उलझन का प्रतिबिम्बन
इसमें दिखता है कि कई बार सरकार के स्तर पर यह तय करना मुश्किल जान पड़ता है कि उसे
क्या बात सार्वजनिक मंचों पर ले जानी है। इस अस्पष्टता के चलते वह अपने आप को
हास्यास्पद स्थिति में भी डालती दिखती है। संयुक्त राष्ट्रसंघ के जिनेवा सम्मेलन
में भारत के प्रतिनिधिमंडल द्वारा प्रस्तुत रिपोर्ट को लेकर चली चर्चा को याद
करें। भाजपा के केन्द्र में सत्तासीन होने के कुछ माह बाद यह बैठक हुई थी। इसमें
महिला एवं बाल विकास मंत्रालय के मुख्य सचिव ने ‘कमेटी आफ एलिमिनेशन आफ
डिस्क्रिमिनेशन अगेन्स्ट वूमेन’ (सीडॉ) के समक्ष भारत की
स्थिति रिपोर्ट पेश करते हुए यह बात जोर देकर कही कि भारत में प्राचीन काल से ही
महिलाओं का सम्मान किया जाता रहा है। वैसे उनकी प्रस्तुति के बाद जब सवाल जवाब का
सत्रा चला तो उन्होंने गोलमोल तथा भ्रमित करनेवाली बातें रखीं। ‘सीडॉ’ के प्रतिनिधि की तरफ से
जब कन्या भ्रूण के गर्भपात की स्थिति पर सवाल पूछा गया तो प्रतिनिधि ने बिना संकोच
यह कह दिया कि गर्भजल परीक्षण के उपायों को नियंत्रित करना काफी मुश्किल एवं जटिल
काम है। उन्होंने अपने इस जवाब और अपनी प्रस्तुति के बीच के प्रगट अन्तर्विरोध पर
भी गौर नहीं किया कि जहां वह कह रहे थे कि यहां महिलाओं को प्राचीन काल से इतना
सम्मान मिला हुआ है, वह आधुनिक समय में पैदा करना क्यों नहीं चाहता और
भ्रूणावस्था में ही क्यों समाप्त कर देता है ?
ऐसा भी नहीं है कि
बेटियों के मारे जाने की परिघटना हालिया है। परिवार के अन्दर बेटों को महत्व पहले
से ही मिलता रहा है। तभी तो पहले गर्भ में मार डालने के उपाय नहीं थे, लेकिन पैदा होने के बाद
यदि नवजात शिशु कन्या है तो उसे मार डालने के तमाम उपाय कथा कहानियों में मिलते
हैं। संयुक्त राष्ट्रसंघ की तरफ से जारी प्रेस विज्ञप्ति में भारत सरकार की तरफ से
की गयी अन्तर्विरोधी बातों को उजागर किया गया था। उसी बैठक में भारत के
प्रतिनिधिमंडल ने एक दूसरे मसले पर भी अपने आप को विचित्रा स्थिति में डाला था।
ध्यान रहे कि निर्भया
काण्ड के बाद गठित वर्मा कमेटी ने यह स्पष्ट सुझाव दिया था कि बलात्कार सम्बन्धी
कानून में शादी की संस्था के भीतर भी बलात्कार को अपराध की श्रेणी में रखने का
सुझाव दिया था, जिसे सरकार ने नहीं माना था, जबकि तमाम विकसित देशों
में ‘मेरिटल रेप अर्थात
विवाह अन्तर्गत बलात्कार’ को लेकर कानून बना है। इसके बारे में जब सवाल जवाब
के सत्रा में प्रतिनिधिमंडल से पूछा गया तो उसने कहा कि 2005
के घरेलू हिंसा विरोधी
कानून के तहत महिलाओं को हर प्रकार की हिंसा – जिसमें यौनिक हिंसा भी
शामिल है – से बचाव का प्रावधान किया गया है। लेकिन ध्यान देना
चाहिए कि इसमें सज़ा का मामला लचर है।
वास्तव में औरत के
सन्दर्भ में चाहे वह निजी दायरा हो या सार्वजनिक दायरा सभी जगह एक ही नियम के तहत
एक व्यक्ति तथा एक नागरिक के रूप में न्याय, पूर्ण बराबरी तथा पूरी
स्वतंत्राता आज के आधुनिक युग में निश्चित करना बुनियादी आधार बनना चाहिए। फिर
पुराने जमाने में उसकी क्या स्थिति थी या नहीं इसका आकलन लोग अपने तईं करते रहें।
घर के अन्दर उसे बहुत सम्मान से सेज पर बिठा भी दिया और अगर उसे बराबर की पढ़ाई
लिखाई,
कैरियर बनाने, नौकरी करने का अवसर
नहीं मिला या बाहर का समाज ऐसा बना है जिसमें उसे अवसरों को इस्तेमाल करने का मौका
ही न मिले अथवा वह तमाम तरह की असुरक्षा का सामना करे तो फिर वास्तविक जीवन में वह
कैसा सम्मान हासिल करेगी ?
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