युवाओं में अवसाद की समस्या
एल.एस. हरदेनिया
आत्महत्या भारतीय
युवकों की अकाल मौत का सबसे बड़ा कारण है। यह नतीजा उस सर्वेक्षण का है जो एक अन्तर्राष्ट्रीय
संस्था द्वारा किया गया था। इस संस्था द्वारा प्रसारित की गई जानकारी के अनुसार वर्ष
2013 में हमारे देश के
10 से 24 आयु समूह के 62,960 किशोरों एवं युवकों
ने आत्महत्या कर अपने जीवन का अंत किया। किशोर एवं युवकों के स्वास्थ्य एवं कल्याण
की स्थिति की जांच करने वाले लेनसेट आयोग की रिपोर्ट अभी हाल में लंदन में सार्वजनिक
की गई जिसमें आत्महत्या के बाद सड़क दुर्घटना और तपेदिक युवकों की अकाल मृत्यु के दूसरे
दो बड़े कारण हैं।
आंकड़ों के अनुसार
वर्ष 2013 में सड़क दुर्घटना
में 41,168 एवं तपेदिक से 32,171 युवकों और किशोरों
की मौतें हुईं हैं। विश्व स्तर पर भी इन्हीं कारणों से युवकों की मौतें हुई हैं परंतु
भारत का प्रतिशत अपेक्षाकृत ज्यादा है।
आयोग ने 10-14, 15-19, और 20-24 की आयु के युवकों
के स्वास्थ्य का अध्ययन किया था। अध्ययन के अनुसार 15-19 एवं 20-24 आयु के युवकों की अकाल मृत्यु का आत्महत्या सबसे प्रमुख कारण
है। इस आयु के युवकों ने आत्महत्या कर अपनी जीवनलीला समाप्त की है। परंतु आत्महत्या
10-14 आयु के बच्चों की
अकाल मृत्यु का सातवां प्रमुख कारण है। आंकड़ों के अनुसार वर्ष 2013 में 10 से 14 आयु समूह वाले 3,594 बच्चों ने आत्महत्या
की। वहीं 15 से 19 आयु के 23,748 युवकों ने आत्महत्या
की। वहीं 20-24 आयु के समूह के 35,618 युवकों ने वर्ष 2013 में आत्महत्या कर
अपना जीवन समाप्त किया। वर्ष 2011 की भारत की जनगणना के अनुसार 10-24 आयु समूह के किशोर
व युवकों की संख्या 40 करोड़ थी। अर्थात
पूरी जनसंख्या में उनका प्रतिशत 30.11 था। 10-14 आयु के किशोरों की मृत्यु का एक बड़ा कारण डायरिया, तपेदिक और मलेरिया
था। 15-24 आयु समूह की युवकों
की अकाल मृत्यु का कारण आत्महत्या ही था।
इससे यह कहा जा सकता
है कि इस आयु समूह के लोगों में मानसिक रोग की प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है। मानसिक रोग
लगभग संक्रामक के रूप में बढ़ रहा है। सड़क दुर्घटना अकाल मृत्यु का दूसरा बड़ा कारण है।
2013 में सड़क दुर्घटना
में मरने वालों की संख्या 23,658 थी। सड़क दुर्घटना
में मरने वालों में सबसे बड़ा प्रतिशत 20-24 आयु समूह के युवकों का है। दुर्घटना और तपेदिक की तुलना में
आत्महत्या सबसे प्रमुख कारण है। मानसिक रोग भारत समेत विश्व के सभी देशों के नवयुवकों
में बड़ी दु्रतगति से बढ़ रहा है। हमारे देश के 29 लाख से ज्यादा युवक विभिन्न कारणों से तनाव की गिरफ्त में रहते
हैं। आयोग की रिपोर्ट के अनुसार रोजगार के अवसरों का अभाव युवकों में बढ़ते तनाव का
मुख्य कारण है। इसी तरह की राय लंदन के हाइजिन संस्थान के प्रोफेसर डाॅ. विक्रम पटेल
ने भारतीय युवकों की स्थिति के बारे में प्रगट की है।
लेनसेट आयोग से जुड़े
आस्ट्रेलिया के मेलबोर्न विश्वविद्यालय के प्रोफेसर जार्ज पेटर्न का कहना है कि युवकों
की स्थिति की उपेक्षा नहीं करना चाहिए। विश्व में युवकों की संख्या एक अरब से ज्यादा
है परंतु उनकी मानसिक समस्याओं के प्रति जितना ध्यान दिया जाना चाहिए उतना नहीं दिया
जा रहा है। इस उपेक्षा के गंभीर परिणाम हो सकते हैं। भारत में तो स्थिति और भी चिंताजनक
है। 10-24 आयु समूह के एक अरब
युवकों का 89 प्रतिशत विकसित देशों
में रह रहा है। वर्ष 2032 तक इन युवकों की
संख्या दो अरब हो जाएगी। अभी आम राय यह है कि इस आयु समूह के किशोर व युवक सबसे अधिक
स्वस्थ्य होते हैं इसलिए उनके प्रति अपेक्षित ध्यान नहीं दिया जाता।
आवश्यकता इस बात की
है कि इस आयु समूह के लोगों की समस्याओं का गहराई से अध्ययन किया जाए और उनका निदान
ढूंढा जाए। पश्चिमी देशों में अपेक्षाकृत ज्यादा ध्यान दिया जा रहा है परंतु भारत में
ऐसी स्थिति नहीं है।
हमारे देश में प्रजातंत्र
का जिस ढंग से संचालन हो रहा है, राजनीतिक नेता एक दूसरे पर भ्रष्टाचार का आरोप लगाते हैं, चुनाव प्रचार के दौरान
सभी राजनीतिज्ञ युवकों को लुभावने आश्वासन देते हैं परंतु उन्हें पूरा नहीं करते हैं, इससे इस आयु समूह
के किशोरों और युवकों को भारी निराशा होती है। जैसे चुनाव प्रचार के दौरान नरेन्द्र
मोदी ने आश्वासन दिया था कि एक साल में एक करोड़ युवकों को काम के अवसर मिलेंगे। परंतु
यह आंकड़ा लाख की संख्या को भी नहीं छू पा रहा है।
आवश्यकता इस बात की
है कि मानसिक समस्याओं से जूझने के लिए मानसिक चिकित्सकों की संख्या बढ़ाई जाए। स्कूलों
और कालेजों में सक्षम काउंसलर नियुक्त किए जाएं। बच्चों के पालकों को भी प्रशिक्षित
किया जाए।
जैसा कि इस बार भी
हुआ, परीक्षा परिणाम के
समय अपेक्षित परिणाम न आने से अनेक बच्चों ने आत्महत्या की। परीक्षा परिणामों की घोषणा
के बाद अभिभावकों को अपने बच्चों की विशेष केयर करना चाहिए। उन्हें एक क्षण के लिए
भी अकेला नहीं छोड़ना चाहिए। उन्हें अलग कमरे में अकेला नहीं सुलाना चाहिए, अभिभावकों को उन्हें
अपने साथ सुलाना चाहिए। यदि अभिभावकों को बाहर जाना पड़ रहा हो तो साथ ले जाएं। यदि
माता-पिता दोनों नौकरीपेशा हैं तो दोनों में से एक, विशेषकर मां, को छुट्टी लेकर घर में रहना चाहिए। परिवार के साथ
समाज और सरकार को युवकों की समस्याओं के प्रति विशेष ध्यान देना चाहिए।
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