एनकाउंटर के बाद अब जांच पर सवाल
एल.एस. हरदेनिया
कथित एनकाउंटर की सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में न्यायिक जांच की मांग को लेकर भोपाल में आयोजित आम सभा व कैंडल मार्च |
ठीक दीवाली की जगमगाती रात में भोपाल में जो कुछ हुआ उसने न सिर्फ
मध्यप्रदेश वरन सारे देश को झकझोर है। आरोपित है कि दिनांक 30 अक्टूबर, 2016 को सिमी से
संबंधित आठ कैदी जेल की 28 फीट ऊँची दीवार कूदकर भाग गए। बताया गया है कि उनने चादरों से एक लंबी
रस्सी बनाई और उसके सहारे दीवार पर चढ़ गए। भागने के पहले उन्होंने एक गार्ड की
हत्या की।
प्रदेश के गृहमंत्री ने यह दावा किया है कि इन कैदियों ने लकड़ी से बनी चाबी
से अपने सेल का दरवाजा खोला। जहां मंत्री जी लकड़ी की चाबी की बात कहते हैं वहीं
अधिकारी कहते हैं कि टूथ ब्रश से चाबी बनाई गई। सेल का ताला खोलना, एक सुरक्षा गार्ड
की हत्या करना और दीवार से कूदना इस सबके दौरान जेल के किसी भी अधिकारी को इस
घटनाक्रम का पता नहीं लगा, यह सब अविश्वसनीय है।
इस बारे में दो संभावनाएं प्रतीत होती हैं। पहली यह कि वे जेल के
अधिकारियों की मिलीभगत से भागे थे या उन्हें यह कहकर बाहर निकाला गया था कि
तुम्हें दूसरे जेल में शिफ्ट कर रहे हैं। उन्हें बाहर निकालकर उस स्थान के आसपास
छोड़ दिया गया जहां उन्हें तथाकथित एनकाउंटर में मारा गया।
सभी आठ सिमी कार्यकर्ताओं के मारे जाने बाद तुरंत मुख्यमंत्री शिवराज सिंह
चैहान ने उसका राजनीतिक लाभ लेना प्रारंभ कर दिया। दिनांक 1 नवंबर को भोपाल
में मध्यप्रदेश का स्थापना दिवस मनाया जा रहा था उसी दौरान मुख्यमंत्री ने
जनसमुदाय से पूछा कि ‘‘क्या हमारी पुलिस ने इन आतंकवादियों को मारकर ठीक किया’’। उसके बाद वहीं उन
ग्रामीणों का स्वागत कर दिया गया जिनने सिमी के लोगों की जानकारी दी थी। इसके साथ
ही उन पुलिसवालों का भी सम्मान कर डाला जिन्होंने तथाकथित मुठभेड़ में सिमी के
सदस्यों को मारा था। बात यहां तक सीमित नहीं रही। मुख्यमंत्री ने गांव वालों और मुठभेड़
में शामिल पुलिसकर्मियों के लिए नगद इनाम भी घोषित कर दिया। ये सब घोषणाएं नियमों
के विपरीत की गई थीं। अतः उन्हें तुरंत वापिस लेना पड़ा। मुख्यमंत्री यह भूल गए कि
इस तरह की घोषणा करने के पहले एक प्रक्रिया से गुजरना पड़ता है जिसका उन्होंने पालन
नहीं किया।
इसके बाद राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उससे जुड़े संगठन हरकत में आ गए और
मुठभेड़ में मारे जाने की घटना को अद्भुत सफलता बताने लगे और मुख्यमंत्री को एक
हीरो के रूप में पेश करने लगे।
अभी तक जो भी सबूत मिले हैं उनसे स्पष्ट है कि सिमी कार्यकर्ताओं की हत्या
की गई है ना कि उन्हें मुठभेड़ में मारना पड़ा। इस दरम्यान कंट्रोल रूम से तथाकथित
मुठभेड़ में शामिल पुलिसकर्मियों को आदेश दिए जा रहे थे कि ‘‘सबको मारो एक भी न
बचे। साहब चाहते हैं कि सभी को मारो’’। इस ऑडियो का प्रसारण अनेक समाचार चैनलों ने किया
है।
मुठभेड़ के कई वीडियो भी सामने आए हैं एवं सोशल मीडिया में वायरल भी हो गये
हैं। इनमें से एक के बारे में दावा किया जा रहा है कि वह पुलिस के ही एक जवान ने
अपने मोबाइल से बनाया है। इसी वीडियो में दिख रहा है कि पुलिस एक निहत्थे और जमीन
पर पडे हुये आदमी को गोली मार रही है। यदि यह सच है तो यह एक गंभीर अपराध जो पुलिस
के द्वारा किया गया और जो पुलिस मैन्युअल के भी विरूद्ध है।
मुख्यमंत्री ने सबसे पहले तो किसी भी तरह की जांच की जरूरत से ही इंकार कर
दिया पर बाद में एन.आई.ए. से जांच की घोषणा की। फिर संशोधन हुआ कि एन.आई.ए. सिर्फ
जेल से भागने की घटना की ही जांच करेगा जबकि मुठभेड़ की जांच सी.आई.डी. करेगी। इस
बीच खबर आई कि प्रदेश के पूर्व पुलिस महानिदेशक नंदन दुबे भी मामले की जांच
करेंगे। फिर अखबारों में मुठभेड़ की सत्यता को लेकर बहुत सवाल उठने पर उच्च
न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश को जांच सौंपने का निर्णय हुआ। सवाल यह है कि ये
जांचे बार-बार बदलती क्यों रहीं? वह सच क्या है जिसको छुपाने का प्रयास किया जा रहा था? क्यों नहीं सबसे
पहले न्यायिक जांच के आदेश दिये गये?
इस तरह कई सारी बाते ऐसी हैं जिनका विधिवत खुलासा होना चाहिए और आज की
तारीख में यह माननीय उच्चतम न्यायालय की निगरानी में होने वाली जांच से ही संभव
है। परंतु प्रदेश में स्वयं मुख्यमंत्री और उनकी पार्टी के सिपहसालार इस मुठभेड़ पर
सवाल उठाने वालों को आतंकवादियों का समर्थक बता रहे हैं। जबकि अब यह बात बहुत
स्पष्ट हो गई है कि यह मुठभेड़ सुप्रीम कोर्ट के दिशानिर्देशों को ताक पर रखकर की
गई है और इसमें जेल प्रशासन, पुलिस,
एसआईटी तथा राज्य
सरकार तक सबकी भूमिकाएं सवालों के दायरे में हैं।
सवाल पूछना लोकतंत्र की खासियत है। अगर पुलिस, प्रशासन और
अधिकारियों की भूमिकाओं पर सवाल उठाने की आजादी नहीं होगी तो यह हमारे लोकतंत्र के
सामने एक गंभीर सवाल होगा।
इस संबंध में एक जरूरी जानकारी यह भी है कि विगत दिनो इंदौर में विभिन्न
जनसंगठनों एवं वामपंथी दलों द्वारा प्रदेश के पूर्व महाधिवक्ता एवं कानून के बडे़
जानकार श्री आनंदमोहन माथुर के नेतृत्व में भोपाल की मुठभेड़ की जांच कराने की मांग
को लेकर विरोध प्रदर्शन को न केवल प्रशासन ने पुलिस की मदद लेकर होने नहीं दिया
बल्कि कार्यकर्ताओं को घरों, पार्टी कार्यालय और प्रदर्शन स्थल से हिरासत में ले लिया और कई घंटे बाद
छोड़ा गया। यह एक दुर्भाग्यपूर्ण घटना है जिसकी निंदा करना चाहिए।
असल बात यह है कि राज्य और केंद्र दोनों ही जगह भाजपा की सरकारें नाकामी
के बडे़ उदाहरण बन गईं हैं और मंहगाई, भ्रष्टाचार, काला धन, बेरोज़गारी आदि पर
रोक लगाने में बुरी तरह असफल साबित हुईं हैं, जोकि उनकी आर्थिक
नीतियों के चलते होना ही था। म.प्र. के कई उपचुनावों और बिहार के चुनाव में मिली
हारों ने भाजपा को तिलमिला दिया है और अब वह उत्तरप्रदेश का चुनाव जीतने के लिये
कोई भी हथकंडा अपनाने के लिये तैयार है। पिछले दिनों पाकिस्तान सीमा पर हुये
सर्जिकल स्ट्राइक को चुनावी मुद्दा बनाकर उसका लाभ लेने की भरसक कोशिश भाजपा
द्वारा की गई है परंतु सच यह है कि सीमा पर अब भी रोज हमारे जवान मारे जा रहे हैं।
इसी तरह प्रदेश में भी गुजरात की तर्ज पर सांप्रदायिक प्रयोगशाला बनाने के प्रयास
निरंतर चल रहे हैं और हर सप्ताह कहीं न कहीं कोई दंगा भड़काया जाता है।
इस संदर्भ में भोपाल के संगठनों ने भोपाल मुठभेड़ की सुप्रीम कोर्ट की
निगरानी में जांच करने की मांग की है। यह मांग किसी आरोपी के समर्थन में नहीं
बल्कि हमारे लोकतंत्र व संविधान के समर्थन व रक्षा में है। इस मांग को बुलंद करने
के लिये दिनांक 15 नवंबर को प्रातः 11 बजे से भोपाल के इकबाल मैदान में धरना आयोजित किया गया गया है।
इस घटना से संबंधित कुछ प्रश्न और भी हैं।
मारे गए आठों व्यक्ति भारत के नागरिक थे, भागने की कहानी के
भेद खोलने के बाद, अगर मान भी लें कि वो फरार हुए थे, तो भी उन्हें मार
डालने की बिल्कुल आवश्यकता नहीं थी। मणिपुर के कथित फर्जी मुठभेड़ों के सम्बंधित
जांच में सुप्रीम कोर्ट का कहना है - इससे फर्क नहीं पड़ता कि पीड़ित आम आदमी है या
आतंकवादी या मिलिटेंट, ना ही इस बात का कोई मायना है कि अपराधी एक आम इंसान था। राज्य कानून सभी
पर समान रूप से लागू होता है। यह एक लोकतंत्र की आवश्यकता है। इन आठों पर लगाए गए
मामलों का वर्णन भी मिलना चाहिए। यह हिन्दू फासीवादी ताकतों का साम्प्रदायिकता और
एक हिन्दू राष्ट्रवाद को बढ़ावा देने का एक और प्रयास है। मध्य प्रदेश के लोग
साम्प्रदायिकता के खिलाफ और इस बनाये जा रहे नकली देश प्रेम की हवा में नहीं
बहेंगे और संविधान के मूल्यों पर अमल करेंगे।
जब सरकार सब को क्लीनचिट दे चुकी है, तो दबाव में, बेमन से घोषित किये
गए जांच पर हमें विश्वास नहीं है और यह लीपापोती ही होगी यह लगभग निश्चित है।
इसलिए सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में ही जांच होना चाहिए। जांच होने तक सभी
सम्बन्धित जेल और पुलिसकर्मियों को उनके पदों से हटा देना चाहिए ताकि वे जांच को
प्रभावित न कर सकें। भागने वाली बात में प्रशासनिक मिलीभगत की शंका संभावित नज़र
आती है। क्या पुलिस को डर था कि वे निर्दोश
साबित हो सकते हैं? पहले भी कई मामलों में (अक्षरधाम) न्यायप्रणाली ने पुलिस को झूठे और
द्वेषपूर्ण केस बनाने की निंदा करते हुए आरोपियों को रिहा किया है। पुलिस
कार्यवाही में कितनी कमियां होती हैं यह हम सभी जानते हैं। क्या कोई भी नागरिक
पुलिस को ही जज बनने की छूट देना चाहेगा? क्या ऐसी व्यवस्था में कोई भी नागरिक अपने आप को
सुरक्षित महसूस कर पाएगा? देश का संविधान खतरे में है। जब सरकार ही संविधान को ठेंगा दिखा रही है।
क्या यह घटना सरकार की नाकामियों पर से ध्यान हटाने के लिए तो नहीं गई थी?
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व धर्मनिरपेक्षता के प्रति प्रतिबद्ध कार्यकर्ता
हैं)
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