अक्टूबर क्रांति :- दुनिया में शांति स्थापित करने महत्वपूर्ण कदम
एल.एस. हरदेनिया
अगले वर्ष रूस में हुई क्रांति के 100 वर्ष पूरे हो जाएंगे।
वह एक ऐसी क्रांति थी जिससे दुनिया की तस्वीर पूरी तरह से बदलने की संभावना उभरी थी।
इसे सोवियत क्रांति के नाम से जाना जाता है। इस क्रांति की प्रेरणा में कार्ल मार्क्स
की विचारधारा थी, जिसने एक ऐसी दुनिया की कल्पना की थी जिसमें व्यक्तिगत पूंजी पूरी तरह से
समाप्त हो जाएगी और जिसमें इंसान द्वारा इंसान का शोषण सदा के लिए समाप्त हो जाएगा।
इस क्रांति के बारे में एक अमरीकी पत्रकार jजॉन रीड ने एक किताब लिखी थी जिसका शीर्षक
था ‘वे दस दिन जिसने दुनिया
को हिला दिया था (Ten days that shook the world)।
चूंकि इस क्रांति ने एक नए राजनैतिक, आर्थिक समाज की नींव
डाली थी इसलिए दुनिया के सभी निहित स्वार्थों ने एक होकर इस क्रांति को ध्वस्त करने
का षड़यंत्र रचा। परंतु उनके इरादे सफल नहीं हुए और सोवियत क्रांति का लाल परचम लहराता
रहा।
इस क्रांति की देन क्या है? सर्वप्रथम एक ऐसे समाज की स्थापना जिसमें किसी भी व्यक्ति के विरूद्ध धर्म, जाति, लिंग एवं अन्य किसी
मनुष्य द्वारा बनाए गए भेदभाव की दीवारें पूरी तरह ढहा दी गई थीं। स्कूलों और कॉलेजों
के दरवाजे सभी के लिए खोल दिए गए थे। मुझे अनेक बार सोवियत संघ की यात्रा का अवसर मिला।
मैंने वहां के अनेक स्कूलों को देखा। मुझे बताया गया था कि स्कूलों में बच्चों को इतना
अच्छा वातावरण मिलता था कि वे छुट्टी होने के बाद भी अपने घर बड़ी मुश्किल से जाते थे।
बरसों पहले एक अमरीकी पत्रकार सोवियत संघ की यात्रा पर गए थे। यात्रा के बाद उन्होंने
एक लेख लिखा जिसमें यह कहा कि कौन कहता है कि सोवियत संघ में संपन्न सुविधाओं से प्राप्त
एक विशेष वर्ग नहीं है। ऐसा वर्ग है और वह वर्ग है बच्चों का। यदि स्वर्ग की कल्पना
वास्तविक है तो सोवियत संघ की शिक्षा संस्थाएं और खासकर छोटे बच्चों की शिक्षण संस्थाएं
उनके लिए स्वर्ग के समान हैं।
आम तौर पर मनुष्य को स्वास्थ्य सुविधाओं पर अपने बजट का बहुत बड़ा हिस्सा खर्च
करन पड़ता है। हमारे देश में तो इस समय अस्पतालों में इलाज कराने का अर्थ स्वयं को दिवालिया
बनाना है। सरकारी अस्पतालों में इलाज ठीक से नहीं होता है और प्रायवेट अस्पताल अनापशनाप
फीस लेकर लोगों को लगभग नंगा कर देते हैं। परंतु सोवियत संघ में सभी को समान रूप से
स्वास्थ्य की सुविधाएं प्राप्त थीं। न सिर्फ स्वास्थ्य की सुविधाएं वरन वहां पर काम
करने वाले डोक्टरों को भी अद्भुत सुविधाएं दी जाती थीं। सोवियत संघ में बीमार पड़ने
का अर्थ मौत को निमंत्रण देना नहीं होता था। इस समय दुनिया में शायद ही कोई देश ऐसा
होगा जिसमें महिलाओं को 100 प्रतिशत सुरक्षा प्राप्त हो परंतु सोवियत संघ ऐसा देश
था। बलात्कार की घटनाएं लगभग शून्य थीं। दो बजे रात को भी एक महिला सार्वजनिक सवारी
से यात्रा कर सकती थी। इसके अतिरिक्त सोवियत संघ में वहां की महिलाओं को वह अधिकार
दिया गया जो उस समय तक दुनिया के किसी भी देश की महिलाओं को नहीं था वह अधिकार था वोट
देने का अधिकार। उस समय तक अमरीका में भी महिलाओं को वोट देने का अधिकार नहीं था। दुनिया
का सबसे बड़ा प्राचीन प्रजातांत्रिक देश ब्रिटेन में भी महिलाओं को मत देने का अधिकार
नहीं था। इन दोनों देशों में महिलाओं को वोट करने का अधिकार 1920 में मिला। जबकि सोवियत
संघ की महिलाओं को क्रांति होते ही वोट का अधिकार दे दिया गया। यह अपने आप में एक क्रांतिकारी
कदम था। द्वितीय महायुद्ध के दौरान सोवियत संघ के दो करोड़ लोग मारे गए। युद्ध के बाद
जिन महिलाओं ने संतान पैदा की थी उन्हें राष्ट्र की संतान माना गया और पूरे देश में
उन्हें यह महसूस नहीं होने दिया कि उनके पिता अब इस दुनिया में नहीं हैं। मनुष्य को
सुख और सम्पन्न जीवन बिताने के लिए मनोरंजन की भी आवश्यकता होती है। सोवियत संघ में
मनोरंजन भी सबकी पहुंच के भीतर था। किताबों की कीमत इतनी कम रखी जाती थीं कि जिन्हें
वहां का प्रत्येक नागरिक खरीद कर पढ़ सकता था। सोवियत संघ के निर्माण के तुरंत बाद वहां
के सर्वोच्च नेता लेनिन ने यह घोषणा की थी कि हम कभी किसी के ऊपर युद्ध नहीं लादेंगे।
वर्ष 1917 में जब सोवियत क्रांति
हुई थी उस समय तक दुनिया युद्ध की विभीषिका से जल रहा था। लेनिन ने अपने को युद्ध से
अलग कर लिया और दुनिया में शांति स्थापित करने के लिए बहुत महत्वपूर्ण कदम उठाए।
शांति को स्थायी बनाने के लिए जर्मनी के शहर बर्लिन में एक सम्मेलन हो रहा था।
उस सम्मेलन में सोवियत संघ का प्रतिनिधित्व वहां के विदेश मंत्री कर रहे थे। सम्मेलन
के दौरान एक रात्रि भोज रखा गया था। इस भोज के निमंत्रण पत्र में यह लिखा हुआ था कि
डिनर सूट में आइए। यह बात सोवियत संघ के विदेश मंत्री को पसंद नहीं आई और उन्होंने
इस मामले में लेनिन से परामर्श किया। इस पर लेनिन ने जवाब दिया कि यदि शांति हासिल
होती है तो पेटिकोट पहनकर भी जाना पड़े तो जाओ। सोवियत संघ के हर नागरिक को शांति के
प्रयासों से जोड़ा गया था। वहां के प्रत्येक नागरिक से शांति स्थापित करने के प्रयासों
के लिए आर्थिक योगदान लिया जाता था।
मुझे वहां दो बार विश्व शांति सम्मेलन में भाग लेने का अवसर मिला। वहां की जनता
जिस गर्मजोशी से शांति सम्मेलन में आए लोगों का स्वागत करती थी उससे यह महसूस होता
था कि वहां के लोगों को शांति में कितनी दिलचस्पी थी। दुनिया के अनेक देशों ने बरसों
तक सोवियत संघ को कूटनीतिक मान्यता नहीं दी थी। जैसे लगभग 60 बरसों तक अमरीका ने
क्यूबा को कूटनीतिक मान्यता नहीं दी थी, उसी तरह अमरीका ने सोवियत संघ को बरसों बाद राजनीतिक
मान्यता दी थी। तमाम देशों ने सोवियत संघ का आर्थिक बहिष्कार भी कर रखा था। इस सबके
बावजूद सोवियत संघ जिंदा रहा।
अभी सोवियत संघ में पूरी तरह से समाजवादी समाज की स्थापना नहीं हो पाई थी कि
उसे द्वितीय महायुद्ध की चुनौती का सामना करना पड़ा। इस महायुद्ध में जिस रणनीति से
सोवियत संघ ने विजय पाई थी वह अद्भुत थी। हिटलर ने लगभग पूरे यूरोप पर कब्ज़ा कर लिया
था और ऐसा महसूस होने लगा था कि सारे यूरोप पर हिटलर का आधिपत्य कायम हो जाएगा परंतु
उसके इस सपने को चूरचूर करने में सोवियत संघ और उसके नेता मार्शल स्टालिन का बहुत महत्वपूर्ण
योगदान रहा। एक बार सोवियत संघ के प्रवास के दौरान मुझे लेनिनग्राड की एक होटल में
ले जाया गया। उस होटल की एक बड़ी टेबल पर एक निमंत्रण पत्र रखा हुआ था। इस निमंत्रण
पत्र पर हिटलर के दस्तखत थे। हिटलर ने अपनी संभावित विजय के जश्न को मनाने के लिए उस
होटल में एक तारीख तय कर दी थी। इससे स्पष्ट संकेत मिले कि हिटलर अपनी विजय के प्रति
पूरी तरह आश्वस्त था। परंतु स्टालिन और रूस के बहादुर नागरिकों ने हिटलर के इस सपने
को पूरा नहीं होने दिया। युद्ध में विजय के लिए सोवियत संघ ने बहुत बड़ा बलिदान दिया।
लेनिनग्राड और मास्को की अनेक फैक्ट्रियों में अनेक स्थानों पर यह लिखा हुआ था कि यहां
पर इस फैक्ट्री के एक श्रमिक ने लंबे समय तक बिना भोजन किए अपना काम किया था। यह वहां
के नागरिकों की असाधारण इच्छाशक्ति का प्रतीक था। लेनिनग्राड के पास एक विशाल कब्रिस्तान
है जिसमें दो करोड़ लोगों की कब्र बनी हुई है अर्थात वहां पर उन दो करोड़ लोगों को दफन
किया गया है जिन्होंने हिटलर के विरूद्ध लड़ते हुए अपनी जान दी थी।
सोवियत संघ का दुनिया के इतिहास में एक और महान योगदान था। वह था दुनिया के
सभी देशों के आज़ादी के आंदोलन को नैतिक समर्थन। भारत वर्ष के आज़ादी के आंदोलन को भी
सोवियत संघ ने पूरी तरह से समर्थन दिया। द्वितीय महायुद्ध के बाद दुनिया के अनेक देश
जो साम्राज्यवादी देशों के गुलाम थे आज़ाद हुए। इन सभी देशों को आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर
बनाने में सोवियत संघ ने हर संभव सहायता की। जब हमारे देश को अमरीका, ब्रिटेन आदि ने तकनीकी
और पूंजी का योगदान नहीं दिया तब सोवियत संघ आगे आया और हमारे यहां अनेक विशाल कारखानों
के बनाने में मदद की। इनमें उस समय के मध्यप्रदेश और आज के छत्तीसगढ़ में स्थित भिलाई
स्टील प्लांट शामिल है। ऐसे अनेक कारखाने सोवियत संघ की मदद से बने हैं, जिनने हमें आत्मनिर्भर
बनने में मदद की है।
इसके अतिरिक्त अनेक नाजुक अवसरों पर भी सोवियत संघ ने हमारी मदद की। जैसे उस
समय जब हम बांग्लादेश के आजादी के आंदोलन को समर्थन दे रहे थे तो अमरीका ने धमकी दी
थी कि अपना सातवां बेड़ा (जो अणु बमों से लैस था) भारत की ओर रवाना कर रहे हैं। इस पर
सोवियत नेताओं ने अमरीका को चेतावनी देते हुए कहा था कि हम किसी हालत में तुम्हारे
सातवें बेडे़ को भारतवर्ष के समुद्रों के किनारों पहुंचने नहीं देंगे। इस महत्वपूर्ण
चेतावनी ने बांग्लादेश को पाकिस्तान के आतताई शासन से मुक्ति दिलाने में निर्णायात्मक
मदद की थी। यह सोवियत संघ का गौरवपूर्ण इतिहास है।
यह दुःख की बात है कि अनेक आंतरिक एवं बाहरी कारणों से सोवियत संघ के समाजवादी
समाज को ध्वस्त कर दिया गया है। यह इतिहास का एक काला पृष्ठ है। यह कैसे हुआ इस पर
भी चर्चा आवश्यक है। मेरा प्रयास होगा कि अगले किसी लेख में इस गुत्थी को सुलझाने का
प्रयास किया जाए।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)
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