यह विरासत की लड़ाई है जिसके लिए सपा अभिशप्त है


जावेद अनीस



मुलायम सिंह यादव अपने राजनीतिक जीवन के अंतिम दौर में हैं लेकिन अभी उनके वारिस का फैसला नहीं हो सका है. इस दौड़ में एक तरफ उनके भाई शिवपाल यादव हैं तो दूसरी तरह बेटे और उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव. हालांकि अपनी पार्टी में नेता जी के नाम से पुकारे जाने वाले मुलायम सिंह यादव ने लगभग साढ़े चार साल पहले जिस तरह से अपने बेटे को आगे बढ़ाया था और अखिलेश ने अपने राजनीतिक प्रतिभा का प्रदर्शन करते हुए उत्तर प्रदेश के पिछले विधान सभा में पार्टी को जबरदस्त सफलता दिलाते हुए खुद को मुख्यमंत्री के कुर्सी तक पहुँचाया था उसके बाद किसी को भी इसको लेकर शक नहीं था कि समाजवादी पार्टी में मुलायम के बाद अखिलेश ही उनके वारिस होंगें. लेकिन आज साढ़े चार साल बीत जाने के बाद ऐसा दावा नहीं किया जा सकता. इस दौरान कभी खुद को मुलायम सिंह यादव का वारिस मानने वाले शिवपाल यादव ने अखिलेश के झटके से उबरते हुए पार्टी संगठन व कार्यकर्ताओं के बीच  अपनी जड़ें इतनी मजबूत कर ली हैं कि अब उन्हें नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है. ऐसा नहीं है कि इस दौरान अखिलेश ने अपने आप को मजबूत ना किया हो, अब तक के अपने पूरे कार्यकाल के दौरान उन्होंने अपनी व्यक्तिगत छवि बचाये रखी है, उन्होंने अपनी टीम भी बना ली है और मोटे तौर पर यह सन्देश देने में कामयाब रहे हैं कि समाजवादी पार्टी की परम्परागत तौर-तरीकों के विपरीत उनकी सोच और काम करने का अंदाज अलग है और अगर उनके हाथ पूरी तरह से खुले हों तो वे कुछ नया करके दिखा सकते हैं. यह लड़ाई एक ऐसे राजनीतिक परिवार की है जिसका 78 वर्षीय मुखिया अपने भाई और बेटे के बीच चल रहे उत्तराधिकार की लड़ाई को देखने को मजबूर है. एक तरफ शिवपाल हैं जो पुराने और आजमाये हुए तौर तरीकों पर यकीन करते हैं और पार्टी को उसी तरह से चलाना चाहते हैं जिस तरह से वह अभी तक चलती रही है.वही दूसरी तरफ युवा अखिलेश हैं जो पार्टी की पारंपरिक छवि बदल देना चाहते हैं. नतीजतन इस खेल में पार्टी दो खेमों में बंट चुकी है और लड़ाई सड़कों पर आ गयी है. दोनों खिलाड़ी और उनके समर्थक आरपार के लडाई के मूड में दिखाई दे रहे हैं.

यह कोई पुरानी पीढ़ी और नई पीढ़ी के बीच हो रही खींचतान नहीं है, पिछले दिनों मुलायम सिंह ने कहा था कि ‘उनके जीते जी पार्टी एक बनी रहेगी’. इस बयान को अगर गौर से देखा जाए तो समाजवादी पार्टी की समस्या और मुलायम सिंह के सीमित विकल्प को समझा जा सकता है. वे पार्टी को एकजुट रखने की हर कवायद कर रहे हैं लेकिन पूरा संघर्ष इस बात को लेकर है कि पार्टी में मुलायम के बाद वर्चस्व किसका रहेगा?

सतह पर लड़ाई
इससे पहले भी इन दोनों के बीच टकराव सतह पर आते रहे हैं लेकिन यह पहली बार था जब सब कुछ इतना खुल कर हुआ. दरसल अखिलेश 2017 का चुनाव अपने तरीके से लड़ना चाहते थे जहाँ शिवपाल और अमर सिंह की कोई ख़ास भूमिका नहीं होती. इसके लिए वे अपनी खुद की टीम बना रहे थे और अगले चुनाव के एजेंडा भी तय करते जा रहे थे. उनका जोर विकास के मुद्दों और सरकार की उपलब्धियों पर था जिसमें एक्सप्रेस-वे, मेट्रो, महिला सुरक्षा और पेंशन जैसे मुद्दे शामिल थे.उनके लिए शिवपाल के पुराने राजनैतिक हथकंडे, जोड़-तोड़ और जरूरत से ज्यादा हस्तेक्षप बोझ बनते जा रहे थे. जैसे ही उन्होंने इन सबसे पीछा छुड़ाने की शुरुआत की शिवपाल आर-पार की मुद्रा में सामने आ गये. वर्चस्व की यह लड़ाई बीते 13 सितंबर को एक झटके में परदे के बाहर आ गयी जब मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने शिवपाल के करीबी मुख्य सचिव दीपक सिंघल को अचानक हटा दिया और शिवपाल से लोक निर्माण, राजस्व और सहकारिता जैसे महत्वपूर्ण विभाग छीन लिए. इसके बाद दोनों के बीच तल्खियां बहुत बढ़ गयीं. मामला शांत करने के लिए मुलायम सिंह को अखिलेश को प्रदेश अध्यक्ष के पद से हटाकर इसे शिवपाल यादव को सौपना पड़ा. लेकिन मामला थमा नहीं, प्रदेश अध्यक्ष बनाये जाने के बाद शिवपाल यादव ने अखिलेश के कई समर्थकों पर कार्रवाई करते हुए उन्हें पार्टी विरोधी गतिविधियों के आरोप में निष्कासित कर दिया जिसमें रामगोपाल यादव के भांजे अरविंद प्रताप यादव भी शामिल हैं.यही नहीं हमेशा अखिलेश के साथ साए की तरह रहने वाले राजेंद्र चौधरी को भी पार्टी प्रवक्ता से हटा दिया गया.

अनुभवी बनाम नया समाजवादी
अखिलेश यादव जब खुद को नया समाजवादी बताते हैं तो इसके कई निहितार्थ होते हैं, वे बताना चाहते हैं कि वो समाजवादी पार्टी की परम्परागत राजनीति नहीं बल्कि नई तरह की राजनीति करना चाह रहे हैं जहां विकास के मुद्दों पर उनका ध्यान रहेगा. उन्होंने अपनी छवि एक ऐसे नेता के तौर पर बनायीं है जो पढ़ा-लिखा, जागरूक, ईमानदार और सौम्य हैं. 2013 के विधानसभा चुनावों में उन्होंने पूरे प्रदेश को नाप डाला था और जनता विशेषकर मध्यवर्ग और नयी पीढ़ी को उनमें एक उम्मीद नजर आई थी. अपनी इस छवि को उन्होंने अभी भी पूरी तरह से खोया नहीं है. समाजवादी कुनबे में वे एक ऐसे नेता के तौर पर उभरे हैं जो पार्टी की इमेज को बदल देना चाहता है. वे इस काम के लिए अपने आप को एक ऐसे योद्धा के रूप में पेश करने में कामयाब रहे हैं जो अपने “बड़ो” से भी भिड़ सकता है. यह पहला मौका था जब अखिलेश ने इतना कड़ा फैसला लिया था. मुलायम सिंह के बाद वह शिवपाल यादव ही हैं जिनकी अहमियत परिवार और पार्टी में सबसे ज्यादा है. उनसे सीधे और खुले तौर पर टकरा जाना अखिलेश का एक बड़ा दावं था.

1988 में इटावा के जिला सहकारी बैंक के अध्यक्ष चुनाव से अपने राजनीतिक कैरियर की शुरुआत करने वाले शिवपाल सिंह यादव इस पूरे विवाद के दौरान लगातार कहते रहे हैं कि ‘सरकार और संगठन में उनका लम्बा अनुभव है और वह दोनों चला सकते हैं’. इसी के साथ वे यह भी जोड़ना नहीं भूलते कि ‘अखिलेश में अनुभव की कमी है और अभी उन्हें बहुत कुछ सीखने की जरूरत है’. दरअसल उनकी टीस पुरानी है, मुलायम सिंह के जीवन पर लोहिया के लेनिन नाम की किताब लिख चुके शिवपाल यादव अखिलेश के राजनीति में आने से पहले अपने आप को मुलायम सिंह का राजनीतिक वारिस मान कर चल रहे थे और मुख्यमंत्री बनने का सपना पाले हुए थे. लेकिन उन्हें अपने भतीजे का जूनियर बनना पड़ा. जिसके बाद से उनके लिए स्थितियां विपरीत होने लगीं. लेकिन कई बार अपमानजनक परिस्थितियों का सामना करने के बावजूद भी उन्होंने हार नहीं मानी और ख़ामोशी से संगठन में अपनी पैठ को मजबूत बनाने में लगे रहे. आज पार्टी पर शिवपाल की पकड़ अखिलेश के मुकाबले ज्यादा है और कई विधायक भी उनके पक्ष में खुले तौर पर नजर आ चुके हैं.

“नेता जी” की गहरी राजनीति
समाजवादी पार्टी में “नेता जी” के नाम से मशहूर मुलायम सिंह यादव का राजनीति में बहुत लम्बा अनुभव है और वे गहरी राजनीति करते हैं इसलिए वे जो कहते हैं और करते हैं उसे  समझना आसान नहीं है. इस पूरे एपीसोड में बाहरी तौर पर ऐसा लगा सकता है कि मुलायम सिंह यादव अपने बेटे की जगह भाई को तरजीह दे रहे हैं और बेटे के खिलाफ होते जा रहे हैं. लेकिन हकीकत में उनका हर कदम बेटे की स्थिति को बनाये और बचाये रखने के लिए है. उनके सामने चुनौती यह है कि बेटे अखिलेश को 2017 के चुनाव में पार्टी के भितरघात का ही सामना ना करना पड़े. उन्हें अपने भाई शिवपाल यादव की सांगठनिक ताकत का अंदाजा है. वे शिवपाल की उपयोगिता भी समझते हैं और कह भी चुके है कि अगर शिवपाल ने पार्टी छोड़ दी तो इससे सपा को बहुत बड़ा नुकसान हो सकता है. उन्हें पता है कि अगर उनके बाद पार्टी कार्यकर्ताओं पर किसी की पकड़ है तो वह शिवपाल ही हैं. उन्हें भाई और बेटे की बीच सत्ता को लेकर तल्खी और शिवपाल के बगावती तेवरों का भी अंदाजा है. मुलायम ने यह जरूर देखा होगा कि पिछले दिनों टकराव के दौरान किस तरह से पार्टी के कई विधायक शिवपाल के पक्ष में खुलकर सामने आ गये थे. इसलिए वे शिवपाल को किसी भी कीमत पर यह विश्वास दिला देना चाहते हैं कि अखिलेश के मुकाबले वे उनके साथ ज्यादा हैं. विवाद के सड़क पर आने के बाद वह इसे जताने का कोई भी मौका नहीं चूक रहे हैं. पिछले दिनों उन्होंने पार्टी के एक कार्यक्रम में शिवपाल की काफी तारीफ की और उन्हें पार्टी संगठन की रीड़ की हड्डी बताते हुए यह तक कह गए कि अगर वे शिवपाल की राय मानते हुए अखिलेश को मुख्यमंत्री नहीं बनाते तो आज देश के प्रधानमंत्री होते.

इन सब के बावजूद आज अगर अखिलेश चुनौतियों का सामना कर रहे हैं तो इसमें मुलायम सिंह की भी कम चूक नहीं है. अपने पूरे साढ़े चार साल के कार्यकाल के दौरान उन्हें स्वतंत्र रूप से काम नहीं करने दिया गया जिसकी वजह से वे समाजवादी पार्टी के मनमोहन सिंह साबित हुए हैं. यह मुहावरा भी चल निकला कि उत्तरप्रदेश में एक नहीं बल्कि साढ़े तीन मुख्यमंत्री हैं.


अमर सिंह फैक्टर
सपा से निकाले जाने के बाद अमर सिंह ने भले ही यह कह दिया हो कि सपा अब एक पहिये की हो गई है और एक पहिये की सायकिल सड़क पर नहीं बल्कि सर्कस में चलती है. लेकिन मुलायम सिंह उन्हें अपने दिल में रहने वाला ही बताते रहे. राजनीतिक जोड़ तोड़ और लाबिंग में माहिर अमर सिंह को लेकर उनकी पार्टी और परिवार में हमेशा विवाद रहा है. आज अमर सिंह के नाम पर यादव कुनबा और समाजवादी पार्टी दोनों बंटे हुए नज़र आ रहे हैं.अखिलेश यादव, रामगोपाल और आजम खान जैसे नेता अमर सिंह के सख्‍त खिलाफ हैं.

अमित शाह ने भले ही जुमले के तौर पर कहा हो कि चाचा-भतीजे की लड़ाई में अमर सिंह  नारद की भूमिका निभा रहे हैं. लेकिन कई जानकार यह मानते भी है कि शिवपाल के पीछे अमर सिंह ही हैं. इन सबके बावजूद चूंकि मुलायम सिंह अमर सिंह की “प्रतिभा” का दोहन कर चुके हैं इसलिए वे उनकी उपयोगिता समझते हैं. दबे जुबान से कहा तो यह भी जा रहा है कि मुलायम और उनके परिवार को आय से अधिक संपत्ति मामले में कोर्ट से जो राहत मिली है  उसमें भी अमर सिंह ने उनकी बड़ी “मदद” की है. मुलायम सिंह को पता है कि अगामी विधान सभा चुनाव में उनकी पार्टी अपने दम पर सत्ता में नहीं आने वाली हैं ऐसे में अगर जरूरत पड़े तो सरकार बनाने में जोड़-तोड़ या विपक्ष में बैठने पर केंद्र और सूबे की सत्ताधारी पार्टियों व सरकारों से रिश्ते बनाने जैसा काम अमर सिंह से बेहतर कोई और नहीं कर सकता हैं. शायद इसीलिए तमाम मुखालिफत के बावजूद मुलायम ने “बाहरी व्यक्ति” अमर सिंह को ना केवल पार्टी में बनाये रखा है बल्कि उन्हें राष्ट्रीय महासचिव भी बना दिया है.

लेकिन मुलायम सिंह के लिए अमर सिंह के साथ पार्टी और परिवार की एकजुटता बनाए रखना एक बड़ी चुनौती होगी. आजम खान अमर सिंह को लेकर काफी मुखर रहते हैं और दोनों एक दूसरे के खिलाफ सावर्जनिक रूप से बयानबाजी भी करते हैं. इसी तरह से रामगोपाल यादव के साथ भी अमर सिंह का मनमुटाव जगजाहिर है. ऐसे में आने वाला वक्त ही बतायेगा कि अमर सिंह समाजवादी पार्टी के लिए संकटमोचक होंगें या मुसीबतों में इजाफा करने वाला साबित होंगें.

अल्पविराम का दौर और नयी पेशबंदियां

सतह पर आ चुकी लड़ाई एक बार फिर परदे के पीछे जा चुकी और फिलहाल अल्पविराम का दौरा चल रहा. लेकिन इस दौरान नई पेशबंदियों की शुरुआत भी हो चुकी है जो अगले दौर की लड़ाई की दिशा तय करेगी. प्रदेश अध्यक्ष बनते ही शिवपाल ने अखिलेश समर्थक पार्टी नेताओं को पार्टी से बाहर निकलना शुरू कर दिया है फिलहाल इसको लेकर अखिलेश यादव मौन हैं. कहा जा रहा है कि समाजवादी पार्टी अब शिवपाल यादव के हाथों में जा रही है लेकिन यह नहीं भूलना चाहिए कि किसी क्षेत्रीय पार्टी में प्रदेश अध्यक्ष की बहुत ज्यादा अहमियत नहीं होती है. दरअसल सयाने मुलायम ने गुस्से और अपमान का घूट पी चुके शिवपाल यादव को कुछ सीमा तक छूट दे रखी है जिससे उनका गुस्सा कम किया जा सके. लेकिन उनकी कार्यवाहियों का कोई बहुत बड़ा असर भी नहीं होने वाला है. अब देखना बाकी है कि चुनाव के बाद संगठन पर शिवपाल यादव की पकड़ को कम करने के लिए कौन सा दावं खेला जायेगा.
इधर अखिलेश ने सब हो जाने के बावजूद शिवपाल को “सबसे महत्वपूर्ण” पीडब्ल्यूडी विभाग नहीं लौटाया है, और उन्हें पार्टी के संसदीय बोर्ड का अध्यक्ष भी बना दिया गया है इसका मतलब है कि टिकट बंटवारे में अखिलेश की भी चलेगी. लेकिन इस पूरे घटनाक्रम के बाद अखिलेश सिंह कि सबसे बड़ी सफलता यह है कि वह यह सन्देश देने में कामयाब रहे हैं कि अब से वे अपने पिता के अलावा किसी के प्रति भी जबावदेह नहीं होंगें. इस पूरे विवाद के बाद भले ही अगले साल होने वाले विधासभा चुनाव में समाजवादी पार्टी को नुकसान हो लेकिन अखिलेश यादव की छवि को फ़ायदा हुआ है. उन्होंने अपनी छवि एक ऐसे युवा नेता के तौर पेश की है जो विकास की बात करता है, भ्रष्टाचार और अपराध के खिलाफ खड़ा हो सकता है.

अगर समाजवादी पार्टी आगामी विधानसभा चुनाव में अच्छा प्रदर्शन नहीं करती है तो अखिलेश की स्थिति पर कोई खास फर्क नहीं पड़ने वाला है. हार का ठीकरा कहीं और फोड़ा जा सकता है  और तब अखिलेश के पास पार्टी संगठन पर अपनी पकड़ कायम करने का खासा समय भी होगा. मुलायम उन्हें पार्टी का राष्ट्रीय अध्यक्ष भी बना सकते हैं. अखिलेश का पलटवार चुनाव के बाद  ही देखने को मिलेगा.

विरासत की लड़ाई के लिए अभिशप्त पार्टी
अनुभवी मुलायम सिंह यादव इस बात को समझते हैं कि अगला विधानसभा चुनाव अखिलेश के चेहरे के सहारे ही लड़ा जा सकता है लेकिन उन्हें यह भी पता है कि अकेले यही काफी नहीं होगा. इसके लिए शिवपाल की सांगठनिक पकड़ और अमर सिंह के “नेटवर्क” की जरूरत भी पड़ेगी. इसलिये चुनाव से ठीक पहले मुलायम का पूरा जोर बैलेंस बनाने पर है. लेकिन संकट इससे कहीं बड़ा है. इसलिए यह बैलेंस अस्थायी रहने वाला है. क्योंकि लड़ाई विरासत की है.  इतना हंगामेदार और खुला राउंड होने के बावजूद मुलायम के बाद पार्टी पर वर्चस्व की लड़ाई का कोई हल नहीं निकला है. इसलिए आने वाले दिनों में यह लड़ाई तब तक आगे बढ़ती रहेगी जब तक कि मुलायम के विरासत का स्थायी फैसला ना हो जाए यही समाजवादी पार्टी की नियति है. दोनों दावेदारों की एक मयान में दो तलवार वाली स्थिति हो चुकी है. आने वाले दिनों में यह फैसला होना ही है कि मयान में कौन से तलवार रहेगी. हो सकता है निर्णायक संघर्ष में पार्टी का बंटवारा हो जाए या वह अपने आस्तित्व के संकट में ही फंस  जाए. जो भी हो समाजवादी पार्टी अपने इस संकट के लिए अभिशप्त है.


इस साल चार अक्टूबर को समाजवाद पार्टी की स्थापना के 25 वर्ष पूरे हो जायेंगें जो कि एक लम्बा समय है, इन 25 सालों के दौरान पार्टी कमोबेश एक ही ढ़र्रे पर चलती रही है और इस पर अपने संस्थापक मुलायम सिंह यादव का पूरा नियंत्रण रहा है. आने वाला दौर पार्टी के लिए यह बदलाव का दौर होगा और बदलाव के साथ संघर्ष असंभावी है. 

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