बीसीसीआई के गले में सुप्रीम कोर्ट की घंटी


जावेद अनीस



भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड ने लोढ़ा समिति की सिफारिशों को सही ठहराने के कोर्ट के फैसले को लेकर जो पुनर्विचार याचिका दायर की थी उसे सुप्रीम कोर्ट द्वारा ठुकरा दिया गया है. अदालत ने सिफारिशों को लागू करने में टाल-मटोल को लेकर भी बीसीसीआई को फटकार लगाई है. कोर्ट का यह रुख बीसीसीआई के लिए बड़ा झटका है और इसी के साथ क्रिकेट में सफाई की संभावनायें बनी हुई हैं. ध्यान हो कि सुप्रीम कोर्ट ने बीते 18 जुलाई को दिए गये अपने फैसले में कहा था कि बोर्ड को जस्टिस लोढ़ा कमेटी की सभी सिफ़ारिशों को पूरी तरह से लागू करना होगा. जिसके बाद 16 अगस्त को बीसीसीआई द्वारा इस पर पुनर्विचार याचिका दायर की गयी थी. पुनर्विचार याचिका खारिज होने के बाद अब बोर्ड को लोढ़ा समिति की सभी सिफ़ारिशों को जनवरी 2017 के मध्य तक  लागू करना होगा .

लोढ़ा कमेटी की सिफारिशों को लेकर बीसीसीआई शरू से ही गंभीर नहीं रही है और इसे सरकारी दखल के समान बताते हुए अंडरटेकिंग देने से इनकार करती रही है. इस पर सुप्रीम कोर्ट को फटकार लगाते हुए कहना पड़ा था कि कि “बोर्ड को कानून मानना होगा या फिर हम उससे कानून मनवाएंगे”. लोढ़ा कमेटी द्वारा भी बीसीसीआई का खाता रखने वाले बैंकों को किसी भी राशि का भुगतान न करने जैसा  निर्देश दिया जा चूका है.
  
बीसीसीआई की तरफ से सुप्रीम कोर्ट में पुनर्विचार के लिए जो याचिका दायर की गई थी वह गौर करने लायक है. याचिका में (कु) तर्क दिया गया था कि चूंकि "जस्टिस लोढ़ा कमेटी न तो खेल के विशेषज्ञ हैं और न ही उनकी सिफारिशें सही हैं" इसलिए समिति की सिफारिशों को सही ठहराने का सुप्रीम कोर्ट का फैसला सही नहीं है. याचिका में मांग की गयी थी कि सुप्रीम कोर्ट को पांच जजों की एक बेंच बनाकर अदालत अपने फैसले पर फिर से विचार करे, इस बेंच में चीफ जस्टिस टीएस ठाकुर शामिल ना हों और याचिका की सुनवाई खुली अदालत में हो.

बीसीसीआई की उपरोक्त तर्क और मांगें उसके दुस्साहस और भारत के इस सबसे लोकप्रिय खेल को भ्रष्टाचारमुक्त बनाने को लेकर उसकी उदासीनता को दिखाती हैं. स्पष्ट है कि बीसीसीआई लोढ़ा पैनल की सिफारिशों को मानने को तैयार नहीं है और सुधार की राह जान-बूझ कर में रोड़ा अटका रहा है. बोर्ड द्वारा अपनी पुनर्विचार याचिका में जो तर्क दिए गये थे वे हास्यास्पद ही नहीं आपतिजनक भी हैं

हमेशा विवादों में रहने वाला बीसीसीआई साल 2013 में हुए आईपीएल विवाद के दौरान अदालत के निशाने पर आया. इस दौरान कई आईपीएल टीमों और खिलाड़ियों के स्पॉट फिक्सिंग में शामिल होने के मामले सामने आये थे. यहाँ तक कि तत्कालीन बीसीसीआई अध्यक्ष एन. श्रीनिवासन की टीम चेन्नई सुपर किंग्स भी इसमें शामिल नजर आई थी जिसके चले श्रीनिवासन दामाद की गिरफ्तारी भी हुई थी. इतना सब होने के बावजूद बीसीसीआई इस मामले को लेकर लीपा-पोती करती हुई ही नजर आयी. बोर्ड के इन्हीं कारनामों की वजह से न्यायालय को सामने आना पड़ा जिसके बाद सुप्रीम कोर्ट ने मामले की जांच के लिए जस्टिस मुकुल मुद्गल के नेतृत्व में मुद्गल कमेटी बना दी गई.

जस्टिस मुद्गल ने 2014 में आयी अपनी रिपोर्ट में बीसीसीआई में सुधार की जरूरत बताई गयी थी जिसके बाद सुप्रीम कोर्ट द्वारा बीसीसीआई में सुधार के लिए जनवरी 2015 में जस्टिस आर.एम. लोढ़ा की अगुआई में एक कमेटी बनाई थी. लोढ़ा कमेटी ने बीसीसीआई की कार्यप्रणाली पर कई गंभीर सवाल उठाये हैं और बोर्डमें  सुधार और राजनीतिक दखल खत्म करने के लिए कई सुझाव दिए हैं. कमेटी का कहना है कि बोर्ड एक सार्वजनिक इकाई है लेकिन इसके निर्णयों में पारदर्शिता और जबावदेही की कमी है कमेटी के अनुसार बोर्ड के सारे कामकाज बंद दरवाजे या गुप्त रास्तों से अंजाम दिये जाते हैं, यहाँ प्रभावी शिकायत तंत्र उपलब्ध नहीं है और गलत कार्यों के प्रति उदासीन रवैया अपनाया जाता है. यही नहीं सट्टेबाजी व मैच फिक्सिंग गंभीर  में खिलाड़ी और पदाधिकारी लिप्त पाए जाते हैं. इन सबकी वजह से इस खेल से प्यार करने वाले करोड़ों लोगों का विश्वास और जुनून दांव पर है.

क्रिकेट की प्रक्रियाओं को पारदर्शी बनाने समिति द्वारा जो सुझाव दिए गये थे उनमें एक राज्य एक वोट, एक व्यक्ति एक पोस्ट, मंत्रियों, नौकरशाहों और 70 साल से ज़्यादा के लोगों के पदाधिकारी बनने पर रोक, किसी भी पदाधिकारी को अधिकतम तीन कार्यकाल की अनुमति, आईपीएल और बीसीसीआई के लिए अलग-अलग गवर्निंग बॉडी बनाने जैसे महत्वपूर्ण सुझाव दिए गये थे. लेकिन बीसीसीआई को इनमें से ज्यादातर पर आपत्ति है क्यूंकि इससे बीसीसीआई से राजनीतिक हस्तक्षेप समाप्त हो जाएगा यह सियासतदानों जागीर बन कर नहीं रह पाएगी.

फिल्म और राजनीति के बाद क्रिकेट तीसरा सबसे महत्वपूर्ण क्षेत्र है जहाँ सबसे ज्यादा पैसा, पावर और लोकप्रियता है. भारत में क्रिकेट को लेकर जबरदस्त दीवानगी है और इसे लगभग “धर्म” का दर्जा प्राप्त है. हमारे देश में इस खेल के सबसे ज्यादा दर्शक हैं और यही बात  इस खेल को कण्ट्रोल करने वाली संस्था बीसीसीआई को दुनिया का सबसे अमीर बोर्ड बना देती है. यहाँ बहुत सारा पैसा है और इसके साथ राजनीति भी. देश के ज्यादातर राजनीतिक दलों के प्रमुख नेता बीसीसीआई और राज्यों के बोर्डों पर काबिज है. उनके बीच काफी सौहार्द है और वे एक दुसरे की मदद करते हुए नजर आते हैं. यह ऐसे लोग है जिनका सीधे तौर पर क्रिकेट से कोई वास्ता नहीं है. लेकिन भले ही वे क्रिकेट की बारीकियों को ना समझते हों पर इसे नियंत्रण करना बखूबी जानते हैं. अनुराग ठाकुर,शरद पवार,अमित शाह,राजीव शुक्ला,ज्योतिरादित्य सिंधिया फारुख़ अब्दुल्ला जैसे नेता इस देश की राजनीति के साथ-साथ यहाँ के सबसे लोकप्रिय खेल क्रिकेट को भी चलते हैं .

भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड 1928 में तमिलनाडु सोसायटी पंजीकरण अधिनियम के तहत पंजीकृत एक गैर-सरकारी संस्था है. लेकिन अपने राजनितिक संरक्षकों की वजह यह बेलगाम हुआ फिरता है और देश के सर्वोच्च न्यायालय के आदेशों की अवमानना करते हुए उससे अपनी पसंद का बेंच बनाने की मांग करते हुए नजर आता है. लेकिन सुप्रीम कोर्ट बहुत गुस्से में है और कोर्ट के मौजूदा रुख को देखते हुए बोर्ड कुछ दबाव में नजर आ रहा है. अगर सर्वोच्य न्यायालय  बीसीसीआई पर लगाम कसने में कामयाब रहा तो केवल क्रिकेट की तस्वीर नहीं बदलेगी   बल्कि यह हमारे खेलों की दशा बदलने में मील का पत्थर साबित होगा. जो भी हो सुधरे हुए बीसीसीआई के साथ इस खेल का सफ़र और अधिक सुहावना होगा. बीसीसीआई पर नकेल कसने के लिए सर्वोच्य न्यायालय  का आभार और शुभकामनायें.



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