तीन तलाक,समान नागरिक संहिता और मोदी सरकार
जावेद अनीस
तीन तलाक, हलाला और बहुविवाह से शुरू हुई बहस समान
नागरिक संहिता तक पहुँचा दी गयी है. समान नागरिक संहिता (यूनिफार्म सिविल कोड)
स्वतंत्र भारत के कुछ सबसे विवादित मुद्दों में से एक रहा है और वर्तमान में केंद्र
की सत्ता पर काबिज पार्टी और उसके पितृ संगठन द्वारा इस मुद्दे को लम्बे समय से उठाया
जाता रहा है. यूनिफार्म सिविल कोड लागू कराना उनके हिन्दुतत्व के एजेंडे का
हिस्सा है. सत्तारूढ़ भाजपा के चुनावी एजेंडे में हिन्दुतत्व
के तीन मुद्दे शामिल हैं -अनुच्छेद 370 की समाप्ति, राम जन्मभूमि
मंदिर का निर्माण और समान नागरिक संहिता
लागू करना. इन तीनों मुद्दों का सम्बन्ध किसी
ना किसी तरह से अल्पसंख्यक समुदायों से है और इन्हें उठाने का मकसद बहुसंख्यक
हिन्दू समुदाय को एकजुट करना और अल्पसंख्यक समुदायों पर निशाना साधना रहा है. इसीलिए
वर्तमान सरकार जब समान नागरिक संहिता की बात कर रही है तो उसकी नियत पर सवाल उठाये
जा रहे हैं.
मुस्लिम महिलाओं की तरफ से समान
नागरिक संहिता नहीं बल्कि एकतरफा तीन तलाक़, हलाला व बहुविवाह के खिलाफ आवाज
उठायी जा रही है और महिला संगठनों ने इन्हीं मुद्दों को लेकर न्यायालय में कई
आवेदन दाख़िल किए थे जिसमें उनकी मांग थी कि तीन
तलाक,
हलाला जैसी प्रथाओं पर रोक लगाया जाए और उन्हें भी खुला का
हक मिले.
बहरहाल आने वाले महीनों में कई राज्यों
में चुनाव होने वाले हैं शायद इसीलिए समान नागरिक संहिता के मुद्दे पर माहौल गर्म
किया जा रहा है. भाजपा और संघ के नेता अचानक मुस्लिम महिलाओं की स्थिति पर खासी चिंतित
दिखाई पड़ने लगे हैं वही दूसरी तरह ऑल इंडिया
मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड सहित कई मुस्लिम संगठन
इसके खिलाफ आवाज बुलंद कर रहे हैं और किसी भी बदलाव को इस्लाम के खिलाफ बता रहे
हैं.
असल मुद्दा
क्या है ?
इस
पूरे विवाद की शुरुआत विधि आयोग की ओर से तीन तलाक और समान नागरिक संहिता पर लोगों
की राय मांगे जाने से हुई थी जिसके बाद ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड इसके विरोध
में खड़े हो गये. जबकि ये दोनों अलग मुद्दे हैं तथा इनको आपस में जोड़ने का मकसद ‘असल
मुद्दों से ध्यान हटाना है. पूर्व मुख्य सूचना आयुक्त वजाहत हबीबुल्लाह कहते हैं
कि “तीन तलाक के मुद्दे को अनावश्यक रूप से समान नागरिक संहिता के साथ नत्थी करने
से गफलत बढ़ रही है नतीजतन भारत के अल्पसंख्यक मुस्लिम समाज को तार्किक तौर पर
बचाव की मुद्रा में आने को मजबूर होना पड़ रहा है”. दरअसल असली मुद्दा तीन
बार तलाक बोल कर शादी तोड़ने और भरण-पोषण का है. सुप्रीम कोर्ट भी इस समय मुस्लिम
पर्सनल लॉ के कुछ विवादित प्रावधानों की ही समीक्षा कर रहा है जिसमें तीन तलाक, मर्दों को चार शादी की इजाज़त और हलाला
शामिल हैं.
केंद्रीय मंत्री वेंकैया नायडू कह रहे है कि “तीन तलाक को समान नागरिक संहिता से जोड़कर भ्रम
फैलाया जा रहा है.” लेकिन ऐसा कर कौन रहा है ? तीन तलाक पर केंद्र
सरकार को समर्थन देने वाली आल इंडिया मुस्लिम महिला पर्सनल लॉ बोर्ड इसके लिए
केंद्र सरकार को ही जिम्मेदार ठहरा रही है. बोर्ड का कहना है कि केंद्र सरकार तीन
तलाक का प्रोपगंडा फैला रही है. बोर्ड की अध्यक्ष शाइस्ता अंबर ने बयान दिया है कि
“तीन तलाक की आड़ में केंद्र सरकार मुसलमानों की शर्रियत में दखलअंदाजी करके कॉमन
सिविल कोड लागू करना चाहती है जिसकी बोर्ड मज़म्मत करता है.” दूसरी तरफ भारतीय मुस्लिम महिला आंदोलन की सह-संस्थापक
जकिया सोमान का आरोप है कि “मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड तीन तलाक के मामले को लेकर ‘बैकफुट
पर आने’ के बाद इसे समान नागरिक संहिता से जोड़ने की कोशिश कर रहा है”.
जो भी हो तीन तलाक और समान नागरिक संहिता का आपस में घालमेल नहीं किया जाना
चाहिए क्योंकि यह दोनों अलग-अलग चीजें हैं उन्हें उसी हिसाब से समझना चाहिए.
यूनिफॉर्म सिविल कोड एक व्यापक विषय है, इसमें पारिवारिक कानूनों में एकरूपता लाने
की बात है. यूनिफॉर्म सिविल कोड में व्यापक रूप से विवाह, तलाक, बच्चा गोद लेना और संपत्ति के बंटवारे जैसे विषय शामिल हैं.
यूनिफॉर्म सिविल कोड लागू होने का मतलब होगा किसी समुदाय विशेष के लिए शादी, तलाक, उत्तराधिकार जैसे मसलों में अलग नियम नहीं होंगें लेकिन
इसका ये मतलब यह भी नहीं है कि इसकी वजह से विवाह मौलवी या पंडित नहीं करवाएंगे. ये
परंपराएं बदस्तूर बनी रहेंगी, नागरिकों के खान-पान, पूजा-इबादत,
वेश-भूषा पर इसका कोई असर नहीं होगा. हाँ इसके बाद परिवार के सदस्यों के आपसी
संबंध और अधिकारों को लेकर जाति-धर्म-परंपरा के आधार पर कोई रियायत नहीं मिलेगी.
लेकिन यह भी ध्यान रखना चाहिए कि यूनिफॉर्म सिविल कोड का मसला अकेले मुसलमानों
तक सीमित नहीं है. इससे ईसाई, पारसी और
आदिवासी समुदाय भी प्रभावित होगें. जामिया मिलिया
इस्लामिया में इस्लामी अध्ययन विभाग के प्रोफेसर जुनैद हारिस का कहना है कि ‘‘समान
नागरिक संहिता के मुद्दे को मुसलमानों से जोड़कर देखना पूरी तरह गलत है यह
मुसलमानों का नहीं, बल्कि देश की संस्कृति से जुड़ा मुद्दा है हमारा देश
अलग धर्मों, आस्थाओं,
परंपराओं और रीति-रिवाजों का एक संग्रहालय है. अलग अलग
समुदायों के अपने पर्सनल लॉ हैं. ऐसे में इस मामले को सिर्फ मुस्लिम समुदाय के साथ
जोड़कर देखना पूरी तरह गलत है।.’’
तो क्या समान नागरिक संहिता की इस बहस से
भाजपा धुर्वीकरण की कोशिश कर रही है इसकी वजह से मुस्लिम
समाज के भीतर से उठी प्रगतिशीलता और बदलाव की आवाजें कमजोर पड़ जायेगीं? कांग्रेस नेता और पूर्व कानून मंत्री वीरप्पा मोईली इसे मुद्दों से लोगों का ध्यान
भटकाने की चाल बताते हुए कहते हैं “जब राम मंदिर और दूसरे
मुद्दे धराशायी हो गए तो उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में जीत हासिल करने के लिए
यह समाज के ध्रुवीकरण की ख़तरनाक कोशिश है, भारत जैसे बहुसांस्कृतिक, बहुजातीय और बहु-आयामी देश में इसे लागू करना आसान नहीं है”.
महिला संगठनों का भी कहना है कि समान नागरिक
संहिता को लेकर हो रही राजनीति के चलते तीन तलाक का मुद्दा पीछे छूट सकता है.
मुस्लिम
महिलाओं की वाजिब समस्यायें और उनकी पहल
मुस्लिम औरतों की सबसे बड़ी समस्या तीन तलाक है. मर्दों के लिए यह बहुत आसन है
कि तीन बार तलाक, तलाक, तलाक कह दिया और सब-कुछ खत्म, इसके बाद मर्द
तो दूसरी शादी कर लेते हैं लेकिन आत्मनिर्भर ना होने की वजह से महिलाओं का जीवन
बहुत चुनौतीपूर्ण हो जाता है. तलाक के बाद उन्हें भरण-पोषण के लिए गुजारा भत्ता
नहीं मिलता और अनेकों मामलों में तो
उन्हें मेहर भी वापस नहीं दी जाती है. कई मामलों में तो ईमेल,वाट्सएप,फोन, एसएमएस के
माध्यम से या रिश्तेदारों,काजी से कहलवा कर तलाक दे दिया जाता है. इसी तरह से
हलाला का चलन भी एक अमानवीय है. दुर्भाग्यपूर्ण कई मुस्लिम तंजीमों और मौलवीयों
द्वारा तीन तलाक, हलाला और बहुविवाह का समर्थन किया जाता है.
2011 की जनगणना के मुताबिक भारत में एक तलाकशुदा मुस्लिम पुरुष पर चार तलाकशुदा
मुस्लिम महिलाओं का अनुपात है. हालाँकि सिखों को छोड़कर सभी धार्मिक समुदायों में
तलाकशुदा पुरुषों की तुलना में तलाकशुदा महिलाओं की संख्या अधिक है लेकिन
मुसलमानों में यह आंकड़ा सबसे ज्यादा 79:21 हैं. इसी तरह से पतियों
से अलग रह रही महिलाओं के मामले में भी मुस्लिम समुदाय आगे है. इस समुदाय में अलग
रह रही कुल आबादी में 75 फीसदी महिलाएं हैं.
भारतीय
मुस्लिम महिला आंदोलन की सह-संस्थापक, नूरजहां
सफिया नियाज कहती है कि “भारत में तीन तलाक से काफी संख्या में मुस्लिम महिलाएं
पीडि़त हैं. आन्दोलन द्वारा 2015 में देश के दस राज्यों में 4,710 मुस्लिम महिलाओं के बीच किये गये सर्वे के
अनुसार सर्वे में शामिल 525 तलाकशुदा महिलाओं में से 65.9 फीसदी का जुबानी तलाक हुआ था, जबकि 78 फीसदी का एकतरफा तरीके
से तलाक हुआ था. मेहर की बात करें तो 40 फीसदी
औरतों को निकाह के वक्त 1000 रुपये से भी कम मेहर मिली थी, जबकि
44 फीसदी महिलायें ऐसी पायी गयीं जिन्हें मेहर की रकम कभी मिली ही नहीं. इसी तरह
से ज्यादातर महिलाओं के पास निकाहनामा भी नही था.
सर्वे में दावा किया गया है कि करीब 92.1 फीसदी
मुस्लिम महिलाओं ने एकतरफा तलाक और तीन तलाक की पद्धति को बिल्कुल गलत मानते हुए
इसे खत्म करने की वकालत की है. 91.2 फीसदी महिलायें बहुविवाह के खिलाफ हैं और
मर्दों की चार शादियां करने की छूट पर पाबन्दी चाहती हैं. इसी तरह से 83.3 प्रतिशत महिलाओं ने माना है कि मुस्लिम महिलाओं को न्याय दिलाने के लिए
मुस्लिम फैमिली लॉ में सुधार करने की जरूरत है.
शाह बानो से शायरा बानो तक
इंदौर की शाह बानो को जब उनके पति ने तलाक दे
दिया तो उस समय उनके साथ पांच बच्चे थे लेकिन कमाई का कोई जरिया नहीं था. लिहाजा
उन्होंने दंड प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) की धारा 125 के अंतर्गत अपने पति से भरण पोषण भत्ता दिए
जाने की मांग की. न्यायालय ने शाह बानो के पक्ष में फैसला दिया. न्यायालय के इस फैसले
का भारी विरोध हुआ. आखिरकार राजीव गांधी सरकार ने दबाव में आकर मुस्लिम महिला
अधिनियम, 1986 पारित कर
दिया. इस अधिनियम के जरिये शाह बानो के पक्ष में आया न्यायालय
का फैसला भी पलट दिया
गया जिसके विरोध में राजीव मंत्रिमंडल के गृह राज्य मंत्री आरिफ मोहम्मद खान ने इस्तीफ़ा
दे दिया था.
आज लगभग तीस साल बाद शायरा बानो नाम की एक मुस्लिम महिला ने
सर्वोच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया है. उत्तराखंड की शायरा बानो की साल 2002 में
इलाहाबाद में रहने वाले रिजवान अहमद से शादी हुई थी. शायरा के अनुसार अप्रैल 2015 में
उनके पति ने उन्हें जबरदस्ती मायके भेज दिया और कुछ समय बाद 'तीन
तलाक' देते हुए उनसे रिश्ता ही समाप्त कर दिया. इसी तलाक की वैध्यता को चुनौती देते
हुए शायरा सर्वोच्च न्यायालय पहुँची हैं. शायरा की याचिका का मुख्य पहलू यह भी है
कि याचिका में 'मुस्लिम पर्सनल लॉ (शरियत) एप्लीकेशन एक्ट, 1937' की धारा 2 की
संवैधानिकता को भी चुनौती दी गई है. यही वह धारा है जिसके जरिये मुस्लिम समुदाय
में बहुविवाह, 'तीन तलाक' (तलाक-ए-बिद्दत) और 'निकाह-हलाला' जैसी प्रथाओं को वैध्यता मिलती है. इनके साथ
ही शायरा ने 'मुस्लिम विवाह विघटन अधिनियम, 1939' को भी इस तर्क के साथ चुनौती दी है कि यह
कानून मुस्लिम महिलाओं को बहुविवाह जैसी कुरीतियों से संरक्षित करने में सक्षम नहीं
है.
कोई भी बदलाव अन्दर से ही होता है और जिस
तरह से तीन तलाक जैसे मुद्दे पर इंसाफ के लिए मुस्लिम महिलाएं सामने आईं हैं उसका
स्वागत किया जाना चाहिए. इसे मुस्लिम समुदाय में एक
सकारात्मक हलचल के तौर पर देखा जाना चाहिए. महिलाओं में आई इस जागरूकता से अब
पुरुष भी इस तरफ सोचने पर मजबूर हुए हैं. हमारे देश में तीन तलाक पर पाबंदी
की कोशिशें चल रही हैं. इन कोशिशों में देश की मुस्लिम महिलाएं सबसे आगे हैं.
वर्तमान में सर्वोच्च न्यायालय में अलग-अलग महिलाओं की करीब आधा दर्जन याचिकाएं
लंबित हैं. कई राज्यों के सत्र अदालतों तथा कई उच्च न्यायालयों में भी मुस्लिम
महिलाओं की याचिकाएं दर्ज हैं.
आल इंडिया मुस्लिम वीमन पर्सनल लॉ बोर्ड की अध्यक्ष शाइस्ता
कहती है कि “तीन तलाक की इस प्रक्रिया के खिलाफ सबसे पहले हमने आवाज उठाई थी, हम
मांग करते रहे हैं कि मुस्लिम समुदाय में निकाह, तलाक, दूसरा
निकाह तथा विरासत आदि के बारे में प्रावधान कर मुस्लिम मैरिज एक्ट बनाया जाए”.
भारतीय मुस्लिम महिला आंदोलन से जुड़ीं
मारिया सलीम कहती हैं कि “बीएमएम की लड़ाई कुरआन तथा शरियत पर आधारित है, हमारी
मांग है कि मुस्लिम पर्सनल लॉ का संहिताकरण किया जाए. तीन तलाक इस्लाम विरोधी और
महिलाओं के संवैधानिक अधिकारों के खिलाफ है लिहाजा इसको खत्म किया जाए”.
इसी दिशा में भारतीय
मुस्लिम महिला आंदोलन (बीएमएमए) ने “मुस्लिम मैरिज और डाइवोर्स एक्ट” नाम से एक
ड्राफ्ट तैयार किया है. इस ड्राफ्ट के तहत मुस्लिम समाज में तीन तलाक, बहुविवाह और मेहर
की रकम पर नए कानून बनाए जाने की बात कही गई है. ड्राफ्ट में बोलकर दिए जाने वाले
तलाक को खत्म करने की वकालत करते हुए तलाक-ए-अहसान के तरीके को अपनाने की बात कही
गई है. इसके तहत तलाक के बाद जोड़ों को आपसी मतभेद सुलझाने के लिए 3 महीने का वक्त दिया जा सकेगा और अगर दोनों सहमत हों तो तलाक की अर्जी वापस भी
ली जा सकेगी.
बीएमएमए द्वारा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी
को भी खत लिखा है. अपने खत में बीएमएमए ने कहा है कि मुस्लिम महिलाओं को न्याय
दिलाने के लिए या तो शरीयत एप्लीकेशन लॉ, 1937 और मुस्लिम मैरिज ऐक्ट, 1939 में संशोधन किए जाए या फिर मुस्लिम पर्सनल कानूनों का एक नया स्वरूप लाया जाए.
भारतीय मुस्लिम महिला
आन्दोलन द्वारा जारी मुस्लिम फैमिली एक्ट का मसौदा
भारतीय मुस्लिम महिला आंदोलन का पिछले कुछ
सालों में कई मुस्लिम महिलाओं, वकीलों, धार्मिक विद्वानों की सलाह व सुझाव से मुस्लिम
फैमिली लॉ का एक ड्राफ्ट बनाया है, जिसमें विवाह की उम्र, मेहर, तलाक, बहु-विवाह
, निर्वाह-भत्ता
(मेंटेनेंस) और बच्चों पर अधिकार जैसे विषय शामिल हैं।
ड्राफ्ट के मुख्य: बिंदु
- शादी की
न्यूनतम उम्र , लडकी के
लिए 18 और लड़के के
लिए 21.
- बिना
बलप्रयोग के और बिना किसी धोखे के दोनो पार्टी की सहमति
- निकाह के
समय दुल्हे के एक साल की आय के बराबर का न्यूनतम मेहर
- मौखिक तलाक
अवैध घोषित हो. तलाक –ए-अहसन 90 दिन के
भीतर अनिवार्य आर्बिट्रेशन की प्रक्रिया से हो
- शादी के
भीतर निर्वाह की जिम्मेदारी पति पर हो , यद्यपि पत्नी का स्वतंत्र आर्थिक
आधार हो, तो भी.
- मुस्लिम
वीमेंस प्रोटेक्शन ऑन डाइवोर्स एक्ट , 1986 के अनुसार मेंटेंनेस
- बहु –विवाह अवैध
घोषित हो
- माँ और पिता, दोनो बच्चे
के प्राकृतिक संरक्षक हों
- बच्चे का
संरक्षण ( कस्टडी ) उसके हितों के अनुसार और उसकी इच्छा के अनुरूप हो
- . हलाला अपराध की श्रेणी में हो
- सम्पत्ति
के मामले में कुरआन के
नियम लागू हों,
- लड़कियों को
लड़कों की तरह वसीयत/ उपहार या हिबा के जरिये संपत्ति में बराबर भाग हो
- निकाहों का
अनिवार्य रजिस्ट्रेशन हो
मुसलामानों
को लेकर गलतफहमी और दुष्प्रचार
मुस्लिम समुदाय भारत का दूसरा सबसे बड़ा धार्मिक समुदाय है लेकिन देश के दूसरे धार्मिक
समुदायों में इनको लेकर जबरदस्त गलतफहमी व्याप्त है. इस गलतफहमी को बनाने और बढ़ाने में हिन्दुतात्वादी संगठनों की बड़ी
भूमिका रही है.
ऐसा स्वभाविक रूप से मान लिया जाता है कि एक से अधिक पत्नी रखने के मामले में मुस्लिम समुदाय सबसे
आगे है. हिंदुत्ववादी
संगठनों द्वारा बहुसंख्यक समुदाय में संख्या का भय पैदा करने के मकसद से यह जोरशोर से दुष्प्रचार भी किया जाता है कि मुसलमान ज्यादा
शादी करके ज्यादा बच्चे पैदा कर रहे हैं और एक दिन ऐसा आएगा कि उनकी आबादी हिंदुओं
से ज्यादा हो जाएगी.लेकिन वास्तविकता यह है कि बहुविवाह की घटनाएं मुसलमानों की
तुलना में हिंदुओं में अधिक होती हैं। आंकड़े इस बात की तस्दीक करते हैं. धर्म और समुदाय आधारित शादियों को लेकर भारत सरकार द्वारा
आखिरी सर्वे 1961 में हुआ था. जिसके अनुसार एक से अधिक पत्नी रखने के मामले
में मुस्लिम मर्द पांचवे नंबर पर आते हैं। पहले पर आदिवासी, दूसरे पर जैन, तीसरे पायदान पर बौद्ध, चौथे पर हिंदू हैं.
भारत में बहुपत्नी प्रथा की स्थिति ( प्रतिशत में )
|
|
आदिवासी
|
15.25 %
|
बौद्ध
|
7.9
|
जैन
|
6.7
|
हिंदू
|
5.8
|
मुस्लिम
|
5.7
|
इसी तरह से तलाक को लेकर भी गलत भ्रम फैलाया जाता है यह बात
सही है कि भारतीय मुसलामानों में एकतरफा तलाक का चलन है और तलाक के बाद महिलाओं को
पर्याप्त भरणपोषण भी नहीं मिलता है लेकिन यहाँ तलाक की दर कम है. 2011 की जनगणना के अनुसार तलाकशुदा भारतीय महिलाओं में 23.3 फीसदी मुस्लिम है जबकि 68 फीसदी हिंदू हैं.
अदालत का रुख
सुप्रीमकोर्ट पहले भी कह
चूका है कि अगर सती प्रथा बंद हो सकती है तो बहुविवाह एवं तीन तलाक जैसी प्रथाओं
को बंद क्यों नही किया जा सकता. वर्तमान में सुप्रीम कोर्ट तलाक या मुस्लिम बहुविवाह के मामलों में
महिलाओं के साथ होने वाले भेदभाव के मुद्दे की समीक्षा कर रहा है. दरअसल उत्तराखंड की रहने वाली शायरा
बानो सहित कई महिलाओं ने ‘तीन बार तलाक’ को चुनौती देते हुए सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया
था जिसके बाद सुप्रीम कोर्ट यह
समीक्षा करने पर राजी हो गया है कि कहीं तीन तलाक, बहुविवाह, निकाह और हलाला जैसे प्रावधानों से कहीं मुस्लिम महिलाओं
के मौलिक अधिकारों का हनन तो नहीं हो रहा है.
इसी क्रम में सुप्रीम कोर्ट ने भारत सरकार से कहा है कि वह 23
नवम्बर 2016 तक जवाब दे कि मुस्लिम महिलाओं के साथ हो रहे जेंडर–विभेद को संविधान की धारा 14,15 और 21
के तहत मूल अधिकारों का एवं अंतरराष्ट्रीय समझौतों का
उल्लंघन क्यों नहीं माना जाए?
मोदी
सरकार की पहल
सुप्रीम कोर्ट के पूछने पर केंद्र सरकार ने जवाब दिया
है कि ‘वह तीन तलाक का विरोध करती है और इसे जारी रखने देने के पक्ष में नहीं है’. सुप्रीमकोर्ट
में दाखिल अपने जवाब में सरकार ने ‘तीन तलाक’
और मर्दों को एक से ज्यादा शादी की इजाजत को संविधान के खिलाफ बताते हुए कहा
है कि “समानता और सम्मान से
जीने का अधिकार हर नागरिक को मिलना चाहिए. इसमें धार्मिक आधार पर भेदभाव नहीं किया
जा सकता.”
केंद्र सरकार ने
तीन तलाक के मुद्दे पर सुप्रीम कोर्ट में प्रमुख रूप से तीन बातें कही हैं.
- ‘तीन तलाक’ संविधान के
खिलाफ है.
- संविधान मर्दों को एक से ज्यादा
शादी की इजाजत नहीं देता है.
- ‘तीन तलाक’ और बहुविवाह’ इस्लाम का
अनिवार्य हिस्सा नहीं है.
मुस्लिम महिलाओं के
एक समूह ने ‘तीन तलाक’ पर सरकार के रुख का समर्थन किया है. 16 महिला कार्यकर्ताओं
ने एक संयुक्त बयान जारी करते हुए कहा है कि “हम सुप्रीम
कोर्ट में सरकारी
हलफनामें के स्पष्ट बयान का स्वागत करते हैं कि तीन तलाक, निकाह, हलाला और बहुविवाह जैसी प्रथाएं महिलाओं की समानता और गरिमा
का उल्लंघन करती हैं और इसलिए इन्हें समाप्त किया जाना जरूरी है.”
इसके बाद विधि आयोग ने 16 सवालों की लिस्ट जारी कर ट्रिपल तलाक़ और
कॉमन सिविल कोड पर जनता से राय मांगी थी जिसपर विवाद हो गया. मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड
ने इसे समाज को बांटने वाला और मुसलमानों के संवैधानिक अधिकार पर हमला बताते हुए इसके बायकॉट करने का
ऐलान कर दिया.
मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड की
सदस्य अस्मा जेहरा का कहना है कि “दरअसल,यह भाजपा का मुसलमानों के पर्सनल लॉ पर सोचा-विचारा आक्रमण है, जिसका
मकसद उनके बुनियादी हकों को छीनना है. उनके अनुसार लॉ
कमीशन ने जो 16 सवाल तय किये हैं उसके जवाब
में ‘‘मैं सहमत नहीं’ का कॉलम रखा ही नहीं गया है. इस
प्रश्नावली को उन लोगों ने अपने एजेंडे के मुताबिक ऐसे तैयार किया है कि आपको कॉमन
सिविल कोड पर रजामंद ही होना है.
शक जताया जा रहा है कि उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनाव नजदीक है इसीलिए विधि
आयोग के माध्यम से समान नागरिक संहिता का मुद्दा सामने लाया गया है. पिछले दिनों
उत्तर प्रदेश की एक चुनावी रैली में नरेंद्र
मोदी ने जिस तरह से मुस्लिम महिलाओं का मुद्दा छेड़ा है उससे इस आशंका को और बल
मिलता है.
समाज और
संगठनों का रुख
मुस्लिम महिलाओं की मांगों को लेकर सबसे
कड़ा रुख पर्सनल लॉ बोर्ड का रहा है. इस बार भी बोर्ड का यही रुख कायम है. पिछले दिनों सुप्रीम कोर्ट में दायर अपने जवाबी
हलफनामा में बोर्ड ने कहा कि एक साथ तीन तलाक, बहुविवाह या ऐसे ही अन्य मुद्दों पर किसी तरह का विचार करना शरीयत के खिलाफ
है. इनकी वजह से मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों
के हनन की बात बेमानी है. इसके उलट, इन सबकी वजह से मुस्लिम महिलाओं के अधिकार और
इज्जत की हिफाजत हो रही है. अपने हलफनामे
में बोर्ड ने तर्क दिया है कि “पति छुटकारा
पाने के लिए पत्नी का कत्ल कर दे, इससे
बेहतर है उसे तलाक बोलने का हक दिया जाए.” मर्दों को चार शादी की इजाज़त के बचाव पर बोर्ड का तर्क है
कि,
“पत्नी के बीमार होने पर या किसी और वजह से
पति उसे तलाक दे सकता है. अगर मर्द को दूसरी शादी की इजाज़त हो तो पहली पत्नी तलाक
से बच जाती है.”
पर्सनल लॉ बोर्ड ने तीन तलाक के मुद्दे पर सरकार से पर जनमत
संग्रह करवाने की भी मांग की है. ऑल इंडिया
मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के सदस्य जफरयाब जिलानी का कहना है कि ‘‘90 फीसदी
मुस्लिम महिलाएं शरीया कानून का समर्थन करती हैं.’’ केंद्र सरकार तीन तलाक के मुद्दे पर जनमत
संग्रह करा सकती है. जाहिर है बोर्ड किसी भी बदलाव के खिलाफ है.
इस मुद्दे पर मुस्लिम समाज भी बंटता हुआ नजर
आ रहा है. ज्यादातर मौलाना, उलेमा और धार्मिक संगठन तीन बार बोल कर
तलाक देने की प्रथा को जारी रखने के पक्ष में हैं तो दूसरी तरफ महिलाएं और उनके
हितों के लिए काम करने वाले संगठन इस प्रथा को पक्षपातपूर्ण करार देते हुए इसके
खात्मे के पक्ष में हैं.
पूर्व मुख्य सूचना आयुक्त वजाहत
हबीबुल्लाह कहते हैं कि “मुस्लिम पर्सनल लॉ का आधार स्रेत मुस्लिम पर्सनल लॉ
(शरीयत) एप्लिकेशन एक्ट, 1937 है यानी एक उपनिवेशवादी कानून है जो 1857 के
युद्ध के बाद मौलवियों को खुश करने और उन्हें ब्रिटिश सत्ता के खिलाफ जाने से
रोकने और मनाने के लिए बनाया गया था”.
इस्लाम क्या कहता है ?
इस्लाम में जायज़ कामों में तलाक को सबसे
बुरा काम कहा गया है. कुरआन में कहा गया है कि जहां तक मुमकिन हो तलाक से बचो और
यदि तलाक करना ही हो तो हर सूरत में न्यायपूर्ण ढंग से हो और तलाक में पत्नी के
हित और उसके जीवनयापन के इंतजाम को ध्यान में रखा जाए.
जामिया मिलिया इस्लामिया में इस्लामी
अध्ययन विभाग के प्रोफेसर जुनैद हारिस के अनुसार “हमारे देश में एक साथ तीन तलाक
की जो व्यवस्था है और पर्सनल लॉ बोर्ड ने जिसे मान्यता दी है वो पूरी तरह कुरान और
इस्लाम के मुताबिक नहीं है. तलाक की पूरी व्यवस्था को लोगों ने अपनी सहूलियत के
मुताबिक बना दिया है. इसमें कुरान के मुताबिक संशोधन की सख्त जरूरत है”.
भारतीय मुस्लिम महिला आंदोलन की ज़किया
सोमन कहती हैं कि “कुरआन के मुताबिक, शादी एक सामाजिक करार है. एक आदर्श करार
में दोनों पक्षों की शर्तें दर्ज होनी चाहिए. निकाहनामा का यही महत्त्व है. अच्छे
निकाहनामा में मैहर की रकम, शादी की शर्तें, बहुपत्नीत्व
पर रोक की बात, तलाक का तरीका और शर्त इत्यादि दर्ज होनी चाहिए. लेकिन असल
ज़िन्दगी में यह होता नहीं है”.
दुनिया में
चलन
दरअसल एक झटके में तीन बार 'तलाक, तलाक, तलाक' बोल कर
बीवी से छुटकारा हासिल करने का चलन दक्षिण एशिया और मध्य पूर्व एशिया में ही है और
यहाँ भी ज्यादातर सुन्नी मुसलमानों के बीच ही इसकी वैधता है. मिस्र पहला देश था जिसने 1929 में तीन तलाक पर रोक लगा दिया था. आज ज्यादातर मुस्लिम देशों जिनमें पाकिस्तान और बांग्लादेश
भी शामिल हैं ने अपने
यहां सीधे-सीधे या अप्रत्यक्ष रूप से तीन बार तलाक की प्रथा खत्म कर दी है. जानकार
श्रीलंका में तीन तलाक के मुद्दे पर बने कानून को आदर्श बताते हैं. तकरीबन 10
फीसदी मुस्लिम आबादी वाले श्रीलंका में शौहर को तलाक देने
के लिए काजी को इसकी सूचना देनी होती है. इसके बाद अगले 30 दिन के भीतर काजी मियां-बीवी के बीच सुलह करवाने की कोशिश
करता है. इस समयावधि के बाद अगर सुलह नहीं हो सके तो काजी और दो चश्मदीदों के
सामने तलाक हो सकता है.
संघ
परिवार के घड़ियाली आंसू
हमारे देश में तीन
तलाक के मुद्दे पर सभी राजनीतिक दल सुविधा की राजनीति कर रहे हैं और इस मामले में उनका रुख अपना सियासी नफा-नुकसान
देखकर ही तय होता है. वर्तमान
में केंद्र में दक्षिणपंथी सरकार है जिसको लेकर
अल्पसंख्यकों में आशंका की भावना व्यापत है और इसके किसी भी कदम को लेकर उनमें भरोसा नहीं है.
केन्द्रीय
वित्त मंत्री अरुण जेटली ने अपने लेख में लिखा है कि "पर्सनल लॉ को
संविधान के दायरे में होना चाहिए और ऐसे में 'एक साथ तीन बार तलाक बोलने' को समानता तथा सम्मान के साथ जीने के अधिकार के मानदंडों पर
कसा जाना चाहिए”. वहीँ
मुस्लिम पर्सनल बोर्ड के कार्यकारिणी सदस्य जफरयाब जिलानी के अनुसार इसके बहाने
बीजेपी समान नागरिक संहिता लागू करना चाहती है जो कि उसके चुनावी घोषणापत्र में
पहले से मौजूद है. वह कहते हैं कि "हमारा स्टैंड साफ है. इससे सरकार की
असलियत खुल गई है कि वह पर्सनल लॉ में धीरे-धीरे घुसपैठ करना चाहती है."
प्रश्न यह भी है कि जिस समय मुस्लिम महिला पर्सनल लॉ
बोर्ड और भारतीय मुस्लिम महिला आंदोलन जैसे संगठनों का तीन तलाक की रिवायत को खत्म
करने का अभियान जोर पकड़ रहा था और इसका असर भी दिखाई पड़ने लगा था ऐसे में सरकार
द्वारा विधि आयोग के माध्यम से सुनियोजित तरीके से समान नागरिक संहिता का शगूफा
क्यों छोड़ा गया? इससे तीन तलाक का अभियान कमजोर हुआ है. सरकार के इस कदम पर मुस्लिम महिला संगठनों ने भी सवाल
उठाये हैं.
सवाल यह भी है कि भाजपा और संघ परिवार अचानक मुस्लिम महिलाओं
को उनका अधिकार दिलाने के लिए इतने आतुर क्यों दिखाई पड़ रहे हैं? जिनके दामन पर बाबरी मस्जिद ढहाने
और गुजरात के दंगों का दाग हो उनमें अचानक मुस्लिम समाज में सुधार की इतनी
सहानुभूति क्यों पैदा हो गयी है? कहीं यह महज घड़ियाली आंसू तो नहीं हैं जिसके निशाने
पर मुस्लिम औरतों के अधिकार दिलाने के
बहाने कुछ और हो.
इसका जवाब सितम्बर माह में केरल के कोझिकोड में आयोजित
बीजेपी की राष्ट्रीय परिषद में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के भाषण में है जिसमें
उन्होंने भारतीय जनता पार्टी के संस्थापक पंडित दीनदयाल उपाध्याय को याद करते हुआ
कहा था कि “दीनदयाल जी का कहना था कि मुसलमानों को न पुरस्कृत करो न ही तिरस्कृत करो
बल्कि उनका परिष्कार किया जाए”. यहाँ “परिष्कार” शब्द पर ध्यान देने की
जरूरत है जिसका मतलब होता है “ प्यूरीफाई ” यानी
शुद्ध करना. हिंदुत्ववादी खेमे में “परिष्कार” शब्द का विशेष
अर्थ है जिसे समझना जरूरी है दरअसल हिंदुत्व के सिद्धांतकार विनायक
दामोदर सावरकर मानते थे कि ‘चूकिं इस्लाम और ईसाईयत का जन्म भारत की धरती पर नहीं हुआ था
इसलिए मुसलमान और ईसाइयों की भारत पितृभूमि नहीं हैं, उनके धर्म, संस्कृति और
पुराणशास्त्र भी विदेशी हैं इसलिए इनका राष्ट्रीयकरण (शुद्धिकरण) करना जरुरी है.पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने “परिष्कार” शब्द का विचार सावरकर से लिया था जिसका
नरेंद्र मोदी उल्लेख कर रहे थे. पिछले दिनों संघ परिवार द्वारा चलाया “घर वापसी
अभियान” खासा चर्चित हुआ था. संघ परिवार और भाजपा का मुस्लिम महिलाओं की स्थिति को
लेकर चिंता, समान नागरिक संहिता का राग इसी सन्दर्भ में समझा जाना चाहिए.
क्या किया
जाना चाहिए
हर
बार जब मुस्लिम समाज के अन्दर से सुधार की मांग उठती है तो शरिया का हवाला देकर
इसे दबाने की कोशिश की जाती है. इस मामले में मुस्लिम पर्सनल लॉ
बोर्ड जैसे संगठन किसी संवाद और बहस के लिए भी तैयार नहीं होते हैं. इसलिए सबसे
पहले तो जरूरी है कि तीन तलाक और अन्य कुरीतियों को लेकर समाज में स्वस्थ्य और
खुली बहस चले और अन्दर से उठाये गये सवालों को दबाया ना जाए .
इसी तरह से अगर समाज की महिलायें पूछ रही हैं कि चार शादी शादी
के तरीकों, बेटियों को जायदाद में उनका
वाजिब हिस्सा देने जैसे मामलों में कुरआन और शरियत का पालन क्यों नहीं किया जा रहा
है, तो इन सवालों को सुना जाना चाहिए और अपने अंदर से ही इसका हल निकालने की कोशिश
की जानी चाहिय.
मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड जैसे संघटनों को
संघ परिवार की राजनीति भी समझनी चाहिए जो चाहते ही है कि आप इसी तरह प्रतिक्रिया
दें ताकी माहौल बनाया जा सके .इसलिए बोर्ड को चाहिए की वे आक्रोश दिखाने के बजाये
सुधारों के बारे में गंभीरता से सोचे और ऐसा कोई मौका ना दे जिससे संघ परिवार अपनी
राजनीति में कामयाब हो सके. मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड को दूसरे मुस्लिम
देशों में हुए सुधारों का अध्ययन करने की भी जरूरत है .
सुधार की एक छोटी से शुरुआत भोपाल से देखने को मिली है जहाँ
साल 2010 से ही दारुल क़ज़ा (शरियत कोर्ट) ने तीन तलाक पर अर्जी लेना बंद कर दिया
है. (हालांकि तीन तलाक पर आधिकारिक रूप से प्रतिबंध नहीं लगाया गया है) पिछले
दिनों इस बारे में भोपाल शहर काजी सैयद मुस्ताक अली नदवी ने एक आखबार तो बताया था
कि “शरिया कानून कुछ दुर्लभ मामलों को छोड़ कर एकतरफा तलाक की इजाजत नहीं देता है
इसलिए यह बेहतर है कि इस प्रथा के चलन को हतोत्साहित किया जाये”. इसी तरह से सितम्बर माह में ऑल इंडिया शिया पर्सनल लॉ
बोर्ड ने भी अपना मार्डन निकाहनामा पेश किया है. उम्मीद है सुधार का यह
सिलसिला आगे बढ़ेगा.
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ऑल इंडिया शिया पर्सनल लॉ बोर्ड का “सनद-ए-निकाह” (मॉडर्न निकाहनामा)
सितम्बर 2016 में ऑल इंडिया शिया पर्सनल लॉ बोर्ड ने अपना ‘सनद-ए-निकाह’(मॉडर्न निकाहनामा) पेश किया है. इस निकाहनामे में पति द्वारा तीन बार तलाक
कहकर रिश्ता तोड़ने को गैर इस्लामिक बताया गया है और दो विशेष परिस्थितियों में महिलाओं
को भी तलाक का अधिकार दिया गया है।
निकाहनामे की प्रमुख बातें
- तीन बार बोलकर तलाक
की प्रथा खत्म हो.
- पुरुष के अकेले के
चाहने से तलाक नहीं दिया जा सकेगा.
- एक बैठक में भी तलाक
नहीं होगा.
- पति-पत्नी आपस में
बात करें,बात न बने तो दोनों के परिवार साथ बैठकर बात करेंगे.
- यह कुछ दिनों के
अंतराल पर होगा ताकि किसी पक्ष में गुस्सा है तो उसे शांत करने का समय मिलेगा.
- पति-पत्नी फिर से
बातचीत करेंगे,
जिसमें
अंतिम निर्णय लिया जाएगा.
दो
स्थितियों में पत्नी को तलाक का हक दिया गया है .
- अगर पति बार-बार गायब
होता है और जीने के लिए जरूरी सुविधाएं नहीं देता है ऐसा चार साल तक चले तो
पत्नी तलाक दे सकती है.
- अगर पति ताकत का
उपयोग कर पत्नी को शारीरिक नुकसान पहुंचाता है, उसे अपाहिज करने का खतरा पैदा करता है, अपने दोस्तों के साथ
संबंध बनाने के लिए कहता है,
तो
दोनों स्थितियों में पत्नी अपने पति को तलाक दे सकती है.
(मुस्लिम टुडे हिंदी, उर्दू और अंग्रेजी के नवम्बर 2016 में कवर स्टोरी के रूप में प्रकाशित )
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