भारतीय राज्य बनाम समाज के अंतर्विरोध


जावेद अनीस



जिस रोज भारत का सर्वोच्च न्यायालय फैसला दे रहा था कि धर्म, जाति, समुदाय, भाषा के नाम पर वोट मांगना गैरकानूनी है उसी दिन लखनऊ में बीजेपी की रैली थी और वहां उत्तर प्रदेश के बीजेपी अध्यक्ष केशव प्रसाद मौर्य "जय श्री राम" का नारा लगाते हुए नजर आ रहे थे. उसके अगले दिन बहुजन समाज पार्टी की प्रमुख अपने प्रेस कॉन्फ्रेंस में उत्तरप्रदेश के मुसलामानों को गणित समझा रही थीं कि उन्हें बसपा को क्यों वोट देना चाहिए.इस हफ्ते के अन्दर ही अपने जहरीले बयानों के लिए कुख्यात भाजपा सांसद साक्षी महाराज का बयान भी आ गया जिसमें उन्होंने कहा कि जनसंख्या में बढ़ोतरी हिंदुओं की वजह से नहीं हो रही है. यह उस समुदाय की वजह से हो रही है, जो चार पत्नियां और 40 बच्चे पैदा कर सकते हैं.दरअसल भारतीय राजनीति की यही हकीकत है, समस्या सिर्फ राजनीति में धर्म और जाति के उपयोग का नहीं है बल्कि हमारी पूरी चुनावी राजनीति ही जाति और धर्म के आधार पर परिभाषित होती है.

भारत विविधताओं से भरा एक पुरातन सभ्यता है. इस महादेश में कई भाषाएं, धर्म और क्षेत्र हैं. जातिगत व्यवस्था तो जैसे इस देश की आत्मा ने आत्मसात कर लिया है.लेकिन इन सबके साथ ही भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्रिक देश भी है. 26 जनवरी 1950 को जब भारत का संविधान लागू हुआ तो इसने नागरिक होने के आधार पर सभी भारतीयों को बराबरी का दर्जा दिया, असमानताओं से पटे इस पुरातन देश में शायद ऐसा पहली बार हुआ था. अब अलग-अलग धर्म,जाति,उपजाति,लिंग,वर्ग और क्षेत्र के होने के बावजूद सभी भारतीय एक नागरिक के तौर पर सामान थे जिसकी गारंटी कोई और नहीं बल्कि भारत का संविधान देता है. आजादी के बाद भारत के निर्माताओं द्वारा आधुनिक और बहुलतावादी लोकतान्त्रिक शासन व्यवस्था को अपनाया गया लेकिन जिस भारतीय समाज में इसे अपनाया गया वह सामंती,अलोकतांत्रिक और गैरबराबरी आधारित पुराने मूल्यों में रचा बसा समाज था. नतीजे के तौर पर हमें आधुनिक भारतीय राज्य और समाज के बीच अंतर्विरोध देखने को मिलते हैं. आजादी के जिस परम्परावादी भारतीय समाज में आधुनिक राजनीतिक संस्थाओं की स्थापना की गयी थी उसने कई मामलों में आधुनिक लोकतान्त्रिक संस्थाओं के सामने हथियार डालते हुए समझौता कर लिया है और कुछ मामलों में खुद को उनके अनुसार ढाल लिया है जैसे अब सत्ता के लिए चुनाव तो होते हैं लेकिन चुनावी राजनीति का तरीका और व्यवहार पुराना है.

जादी के सत्तर सालों के बाद भी हमारे देश में नागरिकता का दायरा बहुत सीमित है और इस पर जाति, धर्म, लिंग जैसी परम्परागत पहचानें हावी हैं. लोकतंत्र का यह खालिश भारतीय माडल है जहाँ एक तरफ लोकतान्त्रिक व्यवस्था में खुदमुख्तार संसदीय व्यवस्था, चुनाव आयोग,स्वतंत्र न्यायपालिका जैसी संस्थायें अपनी जड़ें जमा चुकी है और दूसरी तरफ समाज में जातीय-धार्मिक समूह और संगठनों का बोलबाला है जो जाहिर है राजनीति को भी प्रभावित करते हैं.


सलिए हम देखते हैं कि भारतीय राजनीति अपने स्वरूप में तो आधुनिक है लेकिन व्यवहार में पुरातन. ‘जब बड़ा पेड़ गिरता है तो धरती हिलती है’ और 'हर क्रिया की विपरीत प्रतिक्रिया होती है' जैसे बात कहने वाले लोग प्रधानमंत्री पद तक पहुँच जाते हैं. एक राजनीतिक पार्टी द्वारा समाज में धार्मिक आधार पर समाज के ध्रुवीयकरण के लिए पूरे देश में रथ यात्रानिकला जाता है जो आगे चलकर आजाद भारत का सबसे बड़ा आन्दोलन बनता है. यही पार्टी खुले आम अपने चुनावी घोषणा पत्र में मंदिर बनाने का वादा करती है. एक दूसरा राष्ट्रीय दल शाहबानों का फैसला पलटने और बाबरी मस्जिद का ताला खुलवाने का कारनामा एक साथ ही अंजाम दे डालता है. चुनाव में नागरिकों के जीवन से जुड़े हुए आम मुद्दे नहीं बल्कि मंदिर-मस्जिद, 'लव जेहाद', गौरक्षा, हिन्दू राष्ट्रवाद जैसे मुद्दे हावी रहते हैं, चुनावों के दौरान नफरती भाषणों की बाढ़ सी आ जाती है, बाकायदा जातीय हिंसा और दंगे कराए जाते हैं. शाही इमामों द्वारा वोटो का सौदा किया जाता है और सियासतदान सत्ता प्राप्त करने के लिए जातीय संगठनों का उपयोग करते हैं. इसकी कीमत नागरिक चुकाते हैं इसलिए जब किसी खाप पंचायत या मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड द्वारा नागिरकों के व्यक्तिगत अधिकारों का हनन होता है तो सत्ता में बैठे लोग इन्हें संरक्षण देते हैं.  

स सन्दर्भ में सुप्रीम कोर्ट का हालिया फैसला बहुत महत्वपूर्ण हो जाता है जिसमें कहा गया है कि ‘चुनाव एक धर्मनिरपेक्ष अभ्यास है और धर्म, जाति, भाषा के आधार पर वोट नहीं मांगा जा सकता है.’ दरअसल सुप्रीम कोर्ट में इस संबंध में एक याचिका द्वारा सवाल उठाया गया था कि धर्म और जाति के नाम पर वोट मांगना जन प्रतिनिधित्व कानून के तहत गलत चलन है या नहीं. वैसे जनप्रतिनिधित्व कानून की धारा 123 (3) पर बहस पुरानी है. साल 1995 में जस्टिस जे.एस. वर्मा की अध्यक्षता वाली 3 जजों की बेंच का एक फैसला आया था जिसमें हिंदुत्व को एक जीवनशैली बताते हुए कहा था कि हिंदुत्व के नाम पर वोट मांगने को हिन्दू धर्म से नहीं जोड़ा जा सकता.


हरहाल लोकतंत्र केवल राजनीतिक व्यवस्था नहीं है. मजबूत लोकतंत्र के लिए समाज का लोकतांत्रिकरण भी उतना ही जरूरी है. समाज में संविधान के इस मूलभूत विचार का स्थापित होना जरूरी है कि भले ही देश में जाति, धर्म, वर्ण, वंश, धन, लिंग आदि के आधार पर भिन्नता होने के बावजूद एक भारतीय नागरिक के तौर पर सभी को सामान अधिकार मिले हुए हैं. तमाम टकराहटों के बावजूद अगर भारत में लोकतंत्र की जडें मजबूत हो सकी हैं तो इसका प्रमुख कारण इसके बहुलवाद सवरूप का होना है. जो अपने आप में सभी भारतीयों को समेत लेता है. यही विचार हमें एक कामयाब लोकतंत्र बनाये हुए हैं.

पिछले सत्तर सालों में हम दुनिया के सामने यह साबित करने में कामयाब रहे हैं कि एक निरक्षरता,ग़रीबी के शिकार, विविधता भरे देश में लोकतंत्र चल सकता है. आज हमारी चुनौती लोकतंत्र के राह पर अपनी गति बनाये रखने और आगे बढ़ने की है. सुप्रीम कोर्ट की हालिया टिपण्णी को इसी नजर से देखना चाहिए. बाबा साहेब अम्बेडकर ने कहा था कि ‘सामाजिक स्‍वतंत्रता के बिना संविधान द्वारा नागिरकों को दिए गये कानूनी हक बेमानी रहेंगें.’ हमेशा की तरह वे सही थे हमें समाज के लोकतांत्रिकरण की दिशा में आगे बढ़ना होगा.   








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