शिवराज के ग्यारह साल


जावेद अनीस



पिछले दिनों जब मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान अपने पुराने स्कूल गये तो वहां उन्होंने बच्चों को महाभारत के धनुर्धारी अर्जुन की कहानी सुनाई जिसमें गुरु द्रोणाचार्य द्वारा कौरवों और पांडवों की निशानेबाजी की परीक्षा ली गयी थी इस कहानी में बताया गया है कि जहाँ गुरु द्रोणाचार्य के अन्य शिष्यों को पेड़ पर चिड़िया के साथ-साथ और चीजें दिखाई दे रही थीं वहीँ अर्जुन आखें केवल अपने लक्ष्य चिड़िया की ही टिकी हुई थीं. इस कहानी के माध्यम से उन्होंने अपने पुराने स्कूल के बच्चों को समझाया कि सफलता के लिये जरूरी है कि सिर्फ अपने लक्ष्य पर ही ध्यान दिया जाये. खुद शिवराज सिंह चौहान पिछले ग्यारह सालों से इसी कहानी को जी रहे हैं. एक चुनाव खत्म नहीं होता है कि आने वाला चुनाव उनका लक्ष्य बन जाता है.

2नवंबर को शिवराज सिंह चौहान ने बतौर मुख्यमंत्री 11 साल पूरे कर लिए हैं जिसे आने वाले समय में किसी दूसरे मुख्यमंत्री के लिए दोहरा पाना आसान नहीं होगा. भारतीय राजनीति के इतिहास में अभी तक केवल आठ राजनेता ही ऐसे हुए हैं जिन्होंने यह उपलब्धि हासिल है और भाजपा के केवल तीन नेता ही ऐसा कर सके हैं नरेंद्र मोदी और रमन सिंह शामिल हैं. मध्यप्रदेश की राजनीति में ऐसा करने वाले वे इकलौते राजनेता हैं और अभी गिनती जारी है. अक्टूबर महीने में इंदौर में आयोजित ग्लोबल इन्वेस्टर्स समिट  में वे एलान कर ही चुके हैं कि 2019 में आयोजित होने वाले इंवेस्टर्स समिट में वे एक बार फिर बतौर मुख्यमंत्री मौजूद रहेंगें. शिवराज सिंह चौहान का सियासी कद मध्यप्रदेश और बीजेपी में लगातार बढ़ता जा रहा है. अगर वे 2018 में होने वाला विधानसभा चुनाव जीत लेते हैं तो इसकी धमक राष्ट्रीय राजनीति में भी सुनाई पड़ेगी. व्यापम और झाबुआ के हार की परछाई पीछे छूट चुकी है और शिवराज सिंह अपना आत्मविश्वास दोबारा हासिल कर चुके हैं. शहडोल लोकसभा और नेपानगर विधानसभा उपचुनाव में मिली जीत ने दोहरे जश्न का मौका दिया है. भाजपा उनके इन ग्यारह सालों को विकास काल के रूप में प्रचारित कर रही है जबकि विपक्ष इसे घोटालों का काल बता रहा है.

राष्ट्रीय राजनीति में संगठन की जिम्मेदारी संभाल रहे शिवराजसिंह चौहान को 2005 में जब भाजपा नेतृत्व ने मुख्यमंत्री बनाकर मध्यप्रदेश भेजा था तब शायद ही किसी ने सोचा होगा कि चौहान इतनी लंबी पारी खेलेंगे, 11 साल बीत जाने के बाद भी वे अभी तक अपनी जगह पर जमे हुए हैं. मुख्यमंत्री बनने के बाद जब शिवराज बुदनी से उपचुनाव लड़ रहे थे तो उस वक्त दिग्विजय सिंह ने कहा था अगर शिवराज सिंह बुदनी से चुनाव जीत लें तो हम समझेंगें कि पप्पू पास हो गया. जिसे दिग्विजय सिंह ने पप्पू कहा था उसने ना केवल बुदनी का चुनाव जीता बल्कि अपनी पार्टी को दो बार विधान सभा चुनाव भी जीता चूका है और अब तीसरी जीत की तैयारी कर रहा है. इस दौरान उन्होंने सूबे में कांग्रेस पार्टी को लगभग अप्रासंगिक बना दिया है और पार्टी के अंदर से मिलने वाली चुनौती को पीछे छोड़ने में कामयाब रहे हैं.

शिवराज के राजनीति की शैली टकराव की नहीं बल्कि लोप्रोफाईल,समन्वयकारी और मिलनसार रही है. वे एक ऐसे नेता है जो अपना काम बहुत नरमी और शांतिभाव से करते हैं लेकिन नियंत्रण ढीला नहीं होने देते. आज मध्यप्रदेश की सरकार और संगठन दोनों में उन्हीं का दबदबा है. जो विरोधी थे उन्हें शांत कर दिया गया है या फिर उन्हें सूबे से बाहर निर्वासन पर भेज दिया गया है. संघ गुडबुक में भी उनका नाम काफी ऊपर है. शिवराज अच्छी तरह से समझते है कि सूबा मध्यप्रदेश हमेशा से ही आर.एस.एस. की प्राथमिकताओं में रहा है इसलिए वे बिना किसी शोर-शराबे के संघ की अपेक्षाओं पर खुद को खरा साबित करते रहे हैं. उन्होंने बहुत ही बारीकी से संघ के एजेंडे को आगे बढ़ाने का काम किया है. मुख्यमंत्री के तौर पर उनकी सबसे बड़ी ताकत संघ का साथ और विश्वास है शायद शिवराज की मदद से संघ भी बीजीपी की अंदरूनी राजनीति में संतुलन बनाये रखना चाहता है. लेकिन इन सब के बावजूद शिवराज सिंह चौहान  अपनी छवि एक नरमपंथी नेता के तौर पर पेश करने में बी कामयाब रहे है. एक ऐसा चेहरा जिस पर सभी समुदाय के लोग भरोसा कर सकें.
  
पिछले ग्यारह सालों में उन्हें केवल बाहर से ही नहीं बल्कि भाजपा के अंदर से भी घेरने की कोशिश की गयी है लेकिन वे हर चुनौती से पार पाने में कामयाब रहे हैं. उमा भारती, बाबूलाल गौर, प्रभात झा, अनूप मिश्रालक्ष्मीकांत शर्मा और कैलाश विजयवर्गीय से मिलने वाले चुनोंतियों का मुकाबला उन्होंने बहुत ही करीने से किया है. पिछले कुछ महीनों से राष्ट्रीय महासचिव कैलाश विजयवर्गीय उन्हें लगातर निशाना बनाने की कोशिश कर रहे हैं. सिंहस्थ के दौरान हुए हादसे को कैलाश विजयवर्गीय ने अकल्पनीय प्राकृतिक आपदा बताते हुए कहा कि ‘जो भी महाकाल में भ्रष्टाचार करेगाभस्म हो जाएगा.’ इसी तरह से बालाघाट जिले में आरएसएस प्रचारक से पुलिस मारपीट के मामले पर सवाल उठाते हुए वे  इसे अक्षम्य अपराध’ करार दे चुके हैं. लेकिन शिवराज सिंह चौहान इन सब पर कोई ध्यान नहीं दे रहे हैं और वे इसका अपनी तरह से जवाब भी दे रहे हैं .पिछले दिनों जब कैलाश विजयवर्गीय ने बयान दिया था कि ‘सूबे की सरकार पर अफसरशाही हावी है.’  लेकिन इसके बाद शिवराज सिंह का जवाब आता है जिसमें वे कानून व्यवस्था बनाये रखने के लिए अफसरों को खुले हाथ देने की बात कह रहे हैं.

मौजूदा दौर में मध्यप्रदेश में विपक्ष के पास कोई ऐसा चेहरा नहीं है जो शिवराज सिंह का विकल्प बनता हुआ दिखाई पड़े. दिग्विजय सिंह के बाद कांग्रेस के पास ऐसा कोई नेता नहीं है जो पूरे प्रदेश में प्रभाव रखता हो. खुद दिग्विजय सिंह भी अपने दस साल के वनवास के बाद अपना वह प्रभाव पीछे छोड़ चुके हैं. अगर मध्यप्रदेश में भाजपा और शिवराज लगातार मजबूत होते गये हैं तो इसमें कांग्रेस का भी कम योगदान नहीं है. कहा जाता है कि मध्यप्रदेश में कांग्रेसी अपने प्रमुख प्रतिद्वंदी भारतीय जनता पार्टी से कम और आपस में ज़्यादा लड़ते हैं. पार्टी में कई सारे नेता हैं, जिसमें से कई तो अपने आपको राष्ट्रीय स्तर का मानते हैं हालांकि जमीन पर वे अपने अपने इलाकों के क्षत्रप बन कर रह गये है और सूबे में उनकी राजनीति का सरोकार अपने इलाकों को बचाए रखने तक ही सीमित है. उनकी दिलचस्पी कांग्रेस को मजबूत बनाने से ज्यादा अपना हित साधने में है. इनकी वजह से पार्टी कई गुटों में बंटी हुई है. यह गुट भाजपा से मुकाबले एक दुसरे के खिलाफ ही संघर्ष करते हुए नजर आते हैं. कहा जा सकता है कि अगर ग्यारह साल बीत जाने के बाद भी कांग्रेस अभी तक लोनली फील कर रही है और  खुद को जनता के सामने भाजपा के विकल्प के रूप में पेश करने में नाकाम रही है तो इसके लिए जिम्मेदार शिवराज सिंह चौहान और भाजपा नहीं बल्कि खुद कांग्रेसी हैं. शिवराज सिंह ने तो बस इसका फायदा उठाया है. पिछले 11 सालों से मध्यप्रदेश की राजनीति में शिवराजसिंह को कांग्रेस के रूप में एक प्रभावविहीन विपक्ष मिली है. शिवराज काल में कांग्रेसी कभी भी एकजुट, आक्रामक मुद्रा में नजर नहीं आयी है. उसने अनेकों बार सामने आये मौके को यूं ही जाने दिया है फिर वो चाहे डम्पर घोटाला हो या अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त व्यापम.

क बार फिर 2018 विधानसभा चुनाव ज्यादा दूर नहीं है लेकिन कांग्रेस में भ्रम और असमंजस की स्थिति बनी हुई है, किसी को पता नहीं है कि मध्यप्रदेश में कांग्रेस किस चेहरे के नेतृत्व में चुनाव लड़ेगी. कांग्रेस हाईकमान की प्राथमिकताओं में मध्यप्रदेश नहीं आ रहा है जिसकी वजह से यहाँ ज्यादातर अनिर्णय की स्थिति ही बनी रहती है. हालत यह है कि सत्यदेव कटारे के निधन के बाद हाईकमान अभी तक नए नेता प्रतिपक्ष को लेकर कोई फैसला नहीं सका है जिसकी मुख्य वजह विभिन्न गुटों की इस पद को लेकर गुटबाजी है. विधानसभा के आगामी शीत सत्र में प्रभारी नेता प्रतिपक्ष बाला बच्चन ही इस भूमिका को निभाने वाले हैं.शहडोल और नेपानगर उपचुनाव हारने के बाद प्रदेश कांग्रेस के मुखिया अरुण यादव हताश नजर आ रहे हैं और दूसरी तरफ कमल नाथ और ज्योतिरादित्य सिंधिया रेस लगा रहे हैं. इस आपसी रेस के बीच अगर कांग्रेस 2018 विधानसभा चुनाव एक बार फिर हार जाती है तब तो उसके अस्तित्व पर ही सवाल खड़ा हो जाएगा और “आप” जैसे किसी तीसरे दल की संभावना प्रबल हो जायेगी. आम आदमी पार्टी आलोक अग्रवाल के नेतृत्व में अपना जनाधार बढ़ाने की पूरी कोशिश कर रही है. अरविंद केजरीवाल भी इस तरफ ध्यान देने लगे हैं.

2013 में भाजपा के तत्कालीन लौहपुरुष लालकृष्ण आडवाणी ने बयान दिया था कि मोदी ने तो विकसित गुजरात को आगे बढ़ाया लेकिन शिवराज सिंह चौहान ने बीमारू मध्यप्रदेश को जो विकास की राह दिखाई है वह काबिले तारीफ है. 2013 विधानसभा के चुनाव में तो नरेंद्र मोदी को तरजीह ही नहीं दी गयी थीइस दौरान चुनाव प्रचार के विज्ञापनों में मोदी का कहीं जिक्र ही नहीं था. हर जगह शिवराज सिंह चौहान ही छाए हुए थे. उस समय सियासी जानकारों का कहना था कि चूंकि चौहान की इमेज अटल बिहारी वाजपेयी की तरह उदार है इसलिये बहुमत ना मिलने की स्थिति में शिवराज सिंह का भाग्य खुल सकता है. मोदी और शिवराज के बीच सीधी टक्कर लोकसभा चुनावों के दौरान भी देखने को मिली थी जब उम्मीदवारों की चौथी सूची में अपना नाम ना पाने पर लाल कृष्ण आडवाणी ने ऐलान कर दिया था कि वे गांधी नगर छोड़ कर मध्यप्रदेश से चुनाव लड़ेंगे. इसके बाद भोपाल की सड़कों पर होर्डिंग्स लगाये गये थे जिस पर लिखा था “लालकृष्ण आडवाणी का भोपाल लोकसभा क्षेत्र में अभिनंदन.लेकिन इसके बाद की कहानी कुछ अलग है, 2014 में दिल्ली में मोदी की सरकार बन चुकी है और भाजपा पर मोदी के शाह का नियंत्रण हो चूका है. उन सभी पार्टी नेताओं को किनारे लगा दिया गया है जिन्होंने किसी न किसी तरह उनकी मुखालफत की थी. खुद लालकृष्ण आडवाणी मार्गदर्शन मंडल में भेजे जा चुके हैं. शिवराज सिहं चौहान की स्थिति भी पार्टी में पहले के मुकाबले कमजोर हुई है. मुख्यमंत्री बनने के महत्वाकांक्षा रखने वाले कैलाश विजयवर्गीय को पार्टी का राष्ट्रीय महासचिव बना दिया गया है. लेकिन शिवराजसिंह चौहान ने इस स्थिति को भी अपने खास अंदाज में संभाला और आत्मसमर्पण की मुद्रा में आ गये और कहने लगे कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ईश्वर की भारत को दी गई भेंट हैं. तभी व्यापम जैसे बवंडर के बाद भी वे अपनी जगह कायम हैं. कभी मोदी को चुनौती देने वाले शिवराज अब मोदीशाह की जोड़ी को खुश करने का कोई मौका नहीं छोड़ रहे हैं. अब वे नरेंद्र मोदी को राष्ट्रीय नहीं वैश्विक नेता करार देने लगे है और उन्हें खुश करने का कोई भी मौका नहीं जाने देते हैं. पिछले साल भोपाल में आयोजित विश्व हिंदी सम्मेलन में शिवराज ने मोदी की तुलना गाँधी जी से करते हुए कहा कि ‘यह सुखद संयोग है कि 80 साल पहले गुजरात के वैश्विक नेता महात्मा गाँधी हिंदी साहित्य सम्मलेन का उदघाटन करने इंदौर आये थे आज उसी गुजरात की धरती से पूरी दुनिया को अपने व्यक्तित्व और कृतित्व से सम्मोहित करने वाले श्रीमान मोदी इस सम्मलेन का उद्घाटन करने पधारे हैं. इन समर्पण का असर भी दिखाई पड़ रहा है. पिछले दो सालों में प्रधानमंत्री  मोदी मध्यप्रदेश का प्रदेश में लगभग दौरा कर चुके हैं.दरअसल शिवराज की यही सबसे बड़ी ताकत है कि वे बदलते वक्त के हिसाब से अपने आप को ढाल लेते हैं .

न ग्यारह सालों में कई ऐसे मौके आये जब शिवराजसिंह चौहान पर सवाल उठे, डंपर से लेकर व्यापम तक की मामलों की एक पूरी श्रंखला है जिसके घेरे में वे सीधे तौर पर रहे हैं. कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष अरुण यादव ने उनके 11 वर्ष के कार्यकाल को 132 घोटालों का काल बताया है. आम आदमी पार्टी (आप) की मध्य प्रदेश इकाई के संयोजक आलोक अग्रवाल ने भी शिवराज सिंह चौहान के कार्यकाल को कुशासन और भ्रष्टाचार का काल बताते हुए कहा है कि  “पूरा प्रदेश एक ऐसे दौर से गुजर रहा हैजहां हर तरफ भ्रष्टाचार हैएक छोटे से बाबू के यहां छापे में करोड़ो रुपयों की संपत्ति मिलती है. उन्होंने शिवराज के काल में 11 बड़ी उपलब्धियोंकी लिस्ट जारी की है जिसमें दुष्कर्म के मामलों में मध्यप्रदेश के अव्वल होने, भ्रष्टाचार में देश में दूसरे नंबर पर होने, युवाओं व विद्यार्थियों का सबसे बड़ा घोटाला व्यापमं घोटाला होने, राज्य के 45 प्रतिशत बच्चों का कुपोषित होना, राज्य पर एक लाख 70 हजार करोड़ रुपये का कर्ज होने जैसे आरोप लगाये गये हैं.  माकपा के राज्य सचिव बादल का आरोप है कि बीते 11 वर्ष में सरकार से जुड़े लोगों ने भ्रष्ट तरीके से दौलत कमाई हैऔर अगर उसे जब्त कर लिया जाए तो राज्य को 11 वर्ष तक बजट की जरूरत नहीं होगी.

शिवराजसिंह चौहान जनता को लुभाने वाली घोषणाओं के लिए भी मशहूर रहे हैं इसी वजह से उन्हें घोषणावीर मुख्यमंत्री भी कहा गया. बच्चों और महिलाओं को केंद्र में रखते हुए उन्होंने लाड़ली लक्ष्मी योजना, तीर्थदर्शन योजना, कन्यादान योजना, अन्नपूर्णा योजना, मजदूर सुरक्षा योजना जैसी कई चर्चित सामाजिक योजनाओं की शुरुआत की गयी है.उनकी लोकप्रियता में इन योजनाओं का भी काफी योग्यदान है, इन्हीं की वजह से वे खुद छवि प्रदेश की महिलाओं के भाई और बच्चों के मामाके रूप में पेश करने में कामयाब रहे हैं. लेकिन इन सबके बावजूद जमीनी हकीकत और आंकड़े कुछ और ही कहानी  बयान करते हैं. मध्य प्रदेश में गरीबी का अनुपात 31.65 फीसद है जबकि राष्ट्रीय स्तर पर यह दर 21.92 फीसदी है. राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण-4  के अनुसार मध्यप्रदेश कुपोषण के मामले में बिहार के बाद दूसरे स्थान पर है. यहाँ अभी भी 40 प्रतिशत बच्चे कुपोषित हैं, इसी तरह शिशु मृत्यु दर (आईएमआर) में मध्यप्रदेश पूरे देश में पहले स्थान पर है जहाँ 1000 नवजातों में से 52 अपना पहला जन्मदिन नहीं मना पाते हैं. जबकि राष्ट्रीय स्तर पर यह दर आधा यानी 26 ही है. प्रदेश के गामीण क्षेत्रों में स्थिति ओर चिंताजनक है जहाँ शिशु मृत्यु दर 57 है. मध्यप्रदेश में 5 साल से कम उम्र के 58 प्रतिशत लड़कों और 43 प्रतिशत लड़कियों की लम्बाई औसत से कम है. महिलाओं की बात करें तो  प्रदेश में केवल 16.2 प्रतिशत महिलाओं को प्रसव पूर्ण देखरेख मिल पाती है. जिसके वजह से यहां हर एक लाख गर्भवती महिलाओं में से 221 को प्रसव के वक्त जान से हाथ धोना पड़ता है. जबकि राष्ट्रीय स्तर पर यह आंकड़ा 167 है यहाँ .उपरोक्त स्थितियों का मुख्य कारण बड़ी संख्या में डाक्टरों की कमी और स्वास्थ्य सेवाओं का जर्जर होना है. जैसे म.प्र. में कुल 334 बाल रोग विशेषज्ञ होने चाहिए जबकि वर्तमान में केवल 85 ही हैं और 249 पद रिक्त हैं. शिक्षा की बात करें तो बिना शिक्षकों के स्कूल चलाने के मामले में मध्यप्रदेश देश में अव्वल है प्रदेश के 4 हजार 837 सरकारी स्कूलों में शिक्षक नहीं हैं. जाहिर है तमाम दावों के बावजूद सामाजिक सूचकांक में मध्यप्रदेश अभी भी काफी पीछे है.

प्रेल 2015 में भूकंप आने के बाद  शिवराज सिंह चौहान ने कहा था कि इतने सालों  सालों में यह पहली बार था जब उनकी कुर्सी हिल थी. यह सही भी है  पार्टी में नेतृत्व परिवर्तन और व्यापम जैसे तमाम झटकों के बावजूद वे अपनी कुर्सी बचाने में कामयाब रहे हैं. आज वे बीजेपी के मुख्यमंत्रियों की जमात में सबसे अनुभवी मुख्यमंत्री और स्वीकार्य नेता हैं. वे इकलौते मुख्यमंत्री हैं जिन्हें भाजपा के संसदीय बोर्ड में शामिल किया गया है, नीति आयोग में भी उन्हें  राज्यों की योजनाओं में तालमेल जैसी भूमिका दी गयी है. उनकी छवि सभी समुदायों को साथ लेकर चलने वाली और जरूरत पड़ने पर टोपी पहन लेने वाले नेता की रही है,वे इफ्तार पार्टी और ईद मिलन का भी आयोजन करते रहे हैं. लेकिन पिछले दिनों भोपाल भोपाल एनकाउंटर के बाद उनका अंदाज कुछ बदला हुआ नजर आया जब प्रदेश स्थापना दिवस के दौरान शिवराज नरेंद्र मोदी के अंदाज में जनता से हाथ उठवाकर भोपाल एनकाउंटर पर मुहर लगवा रहे थे. तथाकथित आतंकवादियों को मार गिराने को लेकर  हुंकार भरने  का उनका अंदाज भी नया था.


खोल बदलने की इस कवायद के पीछे जो भी हो लेकिन शिवराज का कद  प्रदेश  ही नहीं बल्कि भाजपाऔर प्रदेश और देश की राजनीति में भी लगातार बढ़ा है. कद के साथ मंजिल भी बड़ी हो जाती है लेकिन राजनीति में बढ़ता हुआ सियासी कद नई चुनौतियां भी सामने लाता है और कई बार तो यह अपनों को भी यह रास नहीं आता हैं. यह तो भविष्य ही तय करेगा कि आने वाले सालों में वे और कौन से नए मुकाम तय करेंगें. फिलहाल उनका लक्ष्य 2018 है जिसके लिए वे पूरी तरह से तैयार नजर आ रहे हैं. अगर जीत हुई तो निश्चित रूप से उनका अगला लक्ष्य बड़ा हो जाएगा.



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