गोरखपुर ऑक्सीजन हत्याकांड: यह मौतें सुनियोजित थीं
स्वदेश कुमार सिन्हा
एक ऐसा मुल्क जो आज़ादी के
सत्तर साल बाद विश्व कि तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था के रूप में उभरा हो जिसके
राष्ट्रवादी प्रधानमन्त्री का कथन था कि अगर उनका ‘मेक इन इंडिया’ मिशन सफल हो गया
तो देश विकासशील से विकसित देशों की श्रेणी में पहुँच जाएगा. उसी मुल्क के सबसे
बड़ी आबादी वाले सूबे उत्तर प्रदेश के शहर गोरखपुर में आज़ादी की सत्तरवीं वर्षगाँठ के ठीक चार दिन
पहले ग्यारह अगस्त की रात को चौंतीस बच्चों तथा अट्ठारह व्यस्कों की सरकारी मेडिकल
कॉलेज में मौत हो जाती है क्योंकि लिक्विड ऑक्सीजन आपूर्ति करने वाली कंपनी उसकी
सप्लाई इसलिए रोक देती है क्योंकि उसका मेडिकल कॉलेज पर ६३ लाख रुपये बकाया था.
सूबे के राष्ट्रवादी मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ जो इसी शहर से उन्नीस साल से
सांसद हैं तथा जिन्होंने दो दिन पहले ही मेडिकल कॉलेज में विशेष रूप से उन वार्डों
का दौरा किया था, जहाँ पर इन्सेफेलाइटिस रोग से पीड़ित बच्चे दाखिल थे तथा सबसे
ज्यादा मौतें ११ अगस्त को इन्हीं वार्डों में हुई थीं.
मुख्यमंत्री तथा राज्य सरकारें आज भी इस बात को
मानने को तैयार नहीं हैं कि यह मौतें ऑक्सीजन कि कमी से हुईं. यद्यपि उन्होंने
फौरी तौर पर बाबा राघव दास मेडिकल कॉलेज के प्रधानाचार्य डॉ. आर. के. मिश्र को
निलंबित कर दिया. पुलिस प्रशासन भी ऑक्सीजन की आपूर्ति करने वाली कंपनी ‘पुष्प
सेल्स’ के मालिक को तलाशती रही परन्तु इस मामले में अब तक किसी की गिरफ्तारी न
होना भी यही सिद्ध करता है कि मौतों का असली कारण क्या था. जिलाधिकारी के नेतृत्व
में बनी जांच की रिपोर्ट भी सामने आ गई है. यह रिपोर्ट भी कॉलेज में व्याप्त घोर
प्रशासनिक लापरवाही, अक्षमता तथा संसाधनों की कमी की बातें ही सामने लाती है.
गोरखपुर के अनेक समाचारपत्रों ने इस घटना के एक
सप्ताह पहले ही यह खबरें छपने लगी थीं कि मेडिकल कॉलेज में ऑक्सीजन का स्टॉक
समाप्त हो रहा है, तथा कभी भी गंभीर हादसा हो सकता है. एक्टिविस्ट पत्रकार मनोज
सिंह ने अपनी वेबसाइट ‘गोरखपुर न्यूज़लाइन’ में १० अगस्त की शाम को ही यह खबर दे दी
थी कि मेडिकल कॉलेज में लिक्विड ऑक्सीजन समाप्त हो गई है तथा गैस सिलिंडरों के लिए
अफरा-तफरी मची हुई है. इस सब के बावजूद मेडिकल कॉलेज प्रशासन नहीं चेता तथा ११
अगस्त को भयंकर हादसा घटित हो गया. अब तो अनेक स्वतन्त्र वेबसाइट जिसमें मिडिया
विजिल प्रमुख है से लेकर टेलीग्राफ, इंडियन एक्सप्रेस तक सारे ही प्रमुख अखबारों
में यह खबरें प्रमुखता से तथा दस्तावेजों के साथ सामने आ गई हैं कि २२ मार्च से
लेकर ४ अगस्त तक मेडिकल कॉलेज के प्रिंसिपल ने योगी जी के मंत्रियों और अधिकारियों
को ‘पुष्प सेल्स’ के भुगतान हेतु ११ पत्र भेजे, जिसके साथ एजेंसी का रिमाइंडर भी
संलग्न किया गया, जिसमें भुगतान न होने पर सप्लाई बंद करने की बात थी. कॉलेज के
लोगों का यह भी कहना है कि जब ९ तारीख को जब मुख्यमंत्री अस्पताल के दौरे पर थे तब
भी भुगतान की बात उठाई गई थी लेकिन योगी जी का अब भी यह कहना है कि इस बाबत उन्हें
कुछ भी नहीं बताया गया.
उत्तर प्रदेश के स्वास्थ्य मंत्री ‘सिद्धार्थ
नाथ सिंह’ जब यह कह रहे थे कि अगस्त माह में बच्चे मरते ही हैं तो उनके कथन में
अमानवीयता के साथ-साथ एक तथ्यात्मक सच्चाई भी छिपी थी. अगस्त माह से ही उत्तर
प्रदेश के इस पूर्वी इलाके में इन्सेफेलाइटिस बीमारी का भारी प्रकोप शुरू हो जाता
है, जिसमें भारी पैमाने पर बच्चों की मौतें होती हैं. इसी साल गोरखपुर मेडिकल
कॉलेज में मरने वाले बच्चों की संख्या १४४ हो गई. २०१२ से लेकर अब तक करीब १०,०००
लोगों की मौतें हो चुकी है, जिसमें अधिकाँश बच्चे थे. १९७८ से जब से यह महाआरी इस
इलाके में फैली है, एक अनुमान के अनुसार करीब ५०,००० लोगों की मौत हो चुकी है. जो
बच भी गए, व उम्रभर के लिए विकलांग हो गए.
गोरखपुर की यह घटना हमारे समूचे तंत्र में
व्याप्त घोर अमानवीयता, असंवेदनशीलता के साथ-साथ यह भी दर्शाती है कि देश के
अत्यंत पिछड़े इलाको में आम नागरिकों के स्वास्थ्य सम्बन्धी कितनी गंभीर समस्याए
हैं तथा उसपर शासक वर्गों का क्या रुख है. गोरखपुर मेडिकल कॉलेज करीब-करीब सात
जिलों की स्वास्थ्य ज़रूरतों की पूर्ति करता है. साथ-साथ यहाँ पर नेपाल तथा बिहार
से भी भारी पैमाने पर मरीज़ आते हैं. इन जिलों की घनी आबादी का कुल योग तो यूरोप के
अनेक देशों की जनसँख्या से भी ज्यादा होगा. फलस्वरूप यह इलाका प्राइवेट मेडिकल
प्रैक्टिशनरस के लिए स्वर्ग से कम नहीं है. गोरखपुर के कैंट इलाके से लेकर
रुस्तमपुर और बेतियाहाता तक के करीब ५ किलोमीटर तक के दायरे में करीब ५०० से
ज्यादा प्राइवेट हॉस्पिटल हैं तथा इतने ही पैथोलॉजी सेंटर भी होंगे. इतना बड़ा
प्राइवेट मेडिकल हब एक ही जगह शायद ही अन्य किसी जिले में होगा. अगर आप कभी इस
इलाके में प्रवेश करें तो समूचे चिकित्सा तंत्र की अमानवीयता देखकर आपके रोंगटे
खड़े हो सकते हैं. हज़ारों ग्रामीण डॉक्टरों के विज़िटिंग कार्ड लेकर हॉस्पिटलों के
पते पूछते दिखेंगे. डॉक्टरों के एजेंट गाँव-गाँव में जाकर मरीज़ लाते हैं जिसके
बदले उन्हें धनराषि मिलती है. रिक्शे वाले और ऑटो वाले तक इनके एजेंट की भूमिका
निभाते हैं. इन्सेफेलाइटिस का इलाज इन प्राइवेट हॉस्पिटलों में नहीं होता क्योंकि
यह करीब-करीब ला-इलाज मर्ज़ है. एक प्रश्न यह भी उठता है कि अगर इस रोग का असर देश
के चौदह राज्यों में है तब इसने पूर्वी उत्तर प्रदेश में अपनी जडें क्यों जमा लीं
जिसके कारण यहाँ प्रतिवर्ष सैकड़ों बच्चों की मौत होती है. इसका जवाब बहुत आसान है,
यह इलाका देश ही नहीं दुनिया के सबसे पिछड़े तथा गरीब इलाकों में से एक है. यहाँ
जन्म दर बहुत ज्यादा है. ९०% बच्चे कुपोषित और कम वज़न के पैदा होते हैं. प्रतिरोधक
क्षमता के घोर अभाव के कारण बच्चे अनेक रोगों से प्रभावित हो जाते हैं. इस इलाके
में पैदा हुए बच्चों की मृत्युदर देश की औसत दर से भी ज्यादा १००० में ६२ तक है,
जबकि देश के अन्य राज्यों का आंकड़ा ४५ से ज्यादा नहीं है. इस मामले में दुनिया के
सबसे गरीब अफ़्रीकी देश जाम्बिया और दक्षिणी सुडान से की जा सकती है. गोरखपुर में
८५% बच्चे डायरिया से प्रभावित रहते हैं क्योंकि केवल ३५% घरों में ही शौचालय है.
१९७८ में जब इस इलाके में पहली बार यह रोग फैला
तब यह बताया गया कि यह जापानी इन्सेफेलाइटिस, धान के खेतों में पलने वाले एक मच्छर
की प्रजाति के काटने से होता है. इसके वायरस सूअर के शरीर में पलते हैं. जब मच्छर
इन्हें काटते हैं तथा बाद में इंसान को काटते हैं तब इसके वायरस शरीर में प्रवेश
कर जाते हैं. तेज बुखार, अकडन के साथ-साथ इसका असर मानव मस्तिष्क पर होता है,
जिससे मरीज़ की शीघ्र ही मौत हो जाती है, जो बच जाते हैं वे उम्रभर के लिए विकलांग
हो जाते हैं. इसके रोकथाम के लिए केवल इसकी वैक्सीन है जो इस इलाके में कई साल तक
बच्चों को लगाईं गई, परन्तु बाद में वह भी बेअसर सिद्ध हुई क्योंकि अब इस रोग की
एक नई प्रजाति उत्पन्न हो गयी है. एक एनट्रो वायरस इस रोग के लिए ज़िम्मेदार है जो
गंदे पानी पीने से शरीर में प्रवेश करता है. इस रोग के सारे लक्षण इन्सेफेलाइटिस
से मिलते-जुलते हैं. इसकी अभी कोई वैक्सीन विकसित नहीं हुई है क्योंकि इस वायरस की
संरचना के बारे में अभी कोई निश्चित जानकारी नहीं है. इस सम्बन्ध में एक विशेषज्ञ
डॉक्टर ने बतलाया कि वायरसों के अन्दर यह अद्भुत क्षमता होती है कि वह परिस्थिति
तथा पर्यावरण के अनुसार अपनी संरचना को बदल लेते हैं. इसलिए नई वैक्सीनों के
निर्माण के लिए निरंतर शोध की ज़रुरत पड़ती है. परन्तु अरबों का मुनाफा कमाने वाली
बहुराष्ट्रीय दवा कम्पनियां तथा सरकारें, वैक्सीनों पर शोध करने तथा उनका उत्पादन
करने में बहुत रूचि नहीं दिखातीं क्योंकि इसमें मुनाफा नहीं होता है. वैक्सीन लोग
सारी उम्र में केवल एक या दो बार लगवाते हैं, जबकि डायबिटीज, कैंसर, ब्लड प्रेशर
की दवाएं लोग उम्रभर खाते रहते हैं. इसके अलावा भारत जैसे पिछड़े तथा गर्म देश के
मच्छर जनित रोगों का इलाज ढूँढने में पश्चिमी दुनिया को भी कोई रूचि नहीं है.
स्थिति यह है आज सारी सरकारी दवा शोध कम्पनियां पूँजी की कमी से ग्रस्त हैं.
बहुराष्ट्रीय कम्पनियां चिकित्सा का सम्पूर्ण निजीकरण चाहती हैं. जिस दिन यह सारी
व्यवस्था निजी हाथों में चली जाएगी, उस दिन की भयावह स्थिति की मात्र कल्पना ही की
जा सकती है.
यह यथार्थ गोरखपुर त्रासदी के पीछे की सच्चाई
है. अगर यह घटना सामने नहीं आती तो शायद ही आप इस भयानक यथार्थ से रूबरू होते.
गोरखपुर के जिलाधिकारी ‘राजीव रतौला’ ने पत्रकारों को बताया था कि यहाँ पर औसत बीस
बच्चों की प्रतिदिन मौतें होती हैं, जो यहाँ पर सामान्य मानी जाती हैं और यह कई
दशकों से ज़ारी है. १४ फरवरी १९१६ को मेडिकल कॉलेज ने इस महामारी से लड़ने के लिए ३८
करोड़ रुपये की मांग की थी, जो उसे आज तक नहीं मिली. योगी आदित्यनाथ ने अपने
शपथग्रहण के समय कहा था कि उनका मुख्य मुद्दा हिंदुत्व और विकास का है. हिंदुत्व
के मुद्दे पर तो वह तेज़ी से आगे बढ़ रहे हैं, परन्तु उनके विकास का चेहरा सामने है.
गोरखपुर की घटना एक आईना है, जिसमें न केवल
उनका बल्कि सारे ही राजनीतिक दलों के चेहरे सामने हैं.
No comments: