निष्कासित रोहिंग्या जाएं तो कहां?
समस्या का
हल ढूंढना आवश्यक..
एल.एस. हरदेनिया
म्यांमार से
रोहिंग्या मुसलमानों
के
निष्कासन
ने
अनेक
महत्वपूर्ण
प्रश्नों
को
जन्म
दिया
है।
इस
संदर्भ
में सबसे
बड़ा
महत्वपूर्ण
प्रश्न
यह
है
कि
किसी
देश
की
सरकार
मनमाने
ढंग
से
यदि
वहां
बरसों से
बसे
नागरिकों
को
देश
निकाला
कर
दे
तो
वे
कहां
जाएं? कुछ
मामलों
में
इस
तरह
के
निष्कासित
लोगों
को
वह
देश
स्वीकार
कर
लेगा
जिसके बहुसंख्यक
नागरिकों
का
धर्म
वही
है
जो
निष्कासित
लोगों
का
है।
जैसे
आज
भी
पाकिस्तान से
भगाए
जाने
वाले
हिन्दुओं
को
हम
अपने
देश
में
बसा
लेते
हैं।
परंतु
यदि
किन्हीं
कारणों से
भारत
में
रहने
वाले
कुछ
हिन्दुओं
को
निष्कासित
किया
जाता
है
तो
उन्हें
कौन
स्वीकार करेगा।
इसी
तरह
यदि
पाकिस्तान
के
शासकों
से
परेशान
होकर
यदि
कोई
मुसलमान
हमारे
देश में
शरण
लेना
चाहे
तो
उसे
शरण
नहीं
देंगे।
कभी-कभी
राजनीतिक
कारणों
से
भी
अन्य
देशों से
निष्कासित
लोगों
को
शरण
देते
हैं।
जैसे
हमने
वर्षों
पहले
दलाई
लामा
को
शरण
दी
है। बर्मा
से
निष्कासित
वहां
के
पूर्व
प्रधानमंत्री
यू
थाकिन
नू
को
हमने
भारत
में
शरण
दी थी।
इस
दरम्यान
उन्हें
भोपाल
में
रखा
गया
था।
परंतु अभी हाल में यूरोप के कुछ देशों ने सीरिया
और अन्य मुस्लिम देशों से आए लोगों को शरण दी है। परंतु यह सब कुछ उन देशों की
सरकारों के उदार रवैये के कारण हुआ था।
इसी तरह की उदारता हमने बांग्लादेश के आजादी के
आंदोलन के दौरान दिखाई थी। पाकिस्तान के तानाशाह ने बांग्लादेश के निवासियों पर
तरह-तरह के जुल्म किए तो उस दरम्यान बांग्लादेश के अनेक मुसलमानों ने हमारे देश
में शरण ली थी। उनमें से कुछ अभी भी रह रहे हैं। उनको हमारे देश से भगाने की मांग
समय-समय पर उठती रहती है। असम में यदि भाजपा सत्ता में आई है तो उसका मुख्य कारण
उसके द्वारा दिया गया यह नारा है कि बांग्लादेशियों को भगाओ। इस नारे ने असम को
साम्प्रदायिक आधार पर बुरी तरह से विभाजित कर दिया है। इतिहास इस बात का गवाह है
कि अनेक देश की सरकारों ने अपने देश में बसे लोगों को निष्कासित करने का फैसला
किया है। यदि इस तरह के लोग अपनी मर्जी से नहीं जाते हैं तो फिर उन्हें भगाने के
लिए हिंसा का सहारा लिया जाता है। हिटलर की जर्मनी में बसे यहूदियों का तो नरसंहार
ही कर दिया गया था।
आखिर यदि एक देश से निष्कासित लोगों को कोई भी देश
शरण न दे तो वे कहां जाएं? इस प्रश्न का उत्तर ढूंढना आवश्यक है। क्या ऐसे लोगों के लिए एक नया देश
बनाया जाए? वैसे ही जैसे
यहूदियों के लिए इज़रायल बनाया गया था। परंतु दुःख की बात है कि यहूदियों ने अपना
घर बसाने की प्रक्रिया में दूसरों (फिलस्तीनियों) के घर जलाना प्रारंभ कर दिए।
शरणार्थियों की समस्या दिन प्रति दिन गंभीर होती जा रही है। दुनिया के राष्ट्रों
को विशेषकर संयुक्त राष्ट्र संघ को इस समस्या का हल ढूंढना पड़ेगा।
इसी संदर्भ में म्यांमार में जो कुछ हो रहा है
उसके बारे में चिंतन करना होगा। वहां की सरकार का यह दावा है कि रोहिंग्या मुसलमान
वहां के निवासी नहीं हैं, इसलिए उन्हें म्यांमार छोड़ना पड़ेगा। म्यांमार में उठी मांग ने इस समय
अत्यधिक हिंसक रूप ले लिया है। वहां की सरकार विशेषकर सेना, ऐसी गतिविधियां कर
रही है जिसके चलते रोहिंग्या मुसलमान म्यांमार से भाग रहे हैं। रोहिंग्या
मुसलमानों के घरों में आग लगाई जा रही है, अनेक स्थानों पर उनकी
हत्याएं की गई हैं, महिलाओं के साथ ज्यादती की जा रही है। इस सबके चलते ये लोग बांग्लादेश की
तरफ भाग रहे हैं। इस तरह के हज़ारों लोगों को बांग्लादेश ने शरण दी है। उनके लिए
अस्थायी कैंप बना दिए गए हैं। बांग्लादेश की आबादी पहले से घनी है। वह कितने दिन
तक इन्हें झेल सकेगी।
हां, यह विचारणीय प्रश्न है क्या रोहिंग्या मुसलमान
म्यांमार के नागरिक नहीं हैं? क्या वे चंद बरसों पहले वहां जाकर बसे हैं?
रोहिंग्या मुसलमानों का दावा है कि वे म्यांमार
में, जिसे पहले बर्मा
कहते थे, 15वीं शताब्दी से रहे
हैं। एक तथ्य यह है कि इनमें से बहुसंख्यकों को ईस्ट इंडिया कंपनी ने यहां बसाया
था। 1828 में अंग्रेज़ों ने
वहां के राजा को हराया और उनने बंगाल के मुसलमानों को यहां बसाया। इसके आधार पर
म्यांमार में नागरिकों संबंधी कानून 1948 और 1982 में बने। रोहिंग्या मुसलमानों के अतिरिक्त
म्यांमार में चीनी, मलाय और थाई मुसलमान भी यहां रह रहे हैं।
रोहिंग्यों की ओर से यह दावा किया जाता है कि उनके
पास ऐसे लिखित प्रमाण हैं कि 1948 के बाद उन्हें म्यांमार के नागरिक के रूप में स्वीकार किया गया था। यहां
तक कि म्यांमार के प्रथम राष्ट्रपति यू नू ने एक अवसर पर कहा था कि रोहिंग्या
बर्मा में सजातीय हैं। इसी तरह से कई वर्षों तक बर्मा ब्राडकास्टिंग द्वारा
रोहिंग्या की भाषा में सप्ताह में तीन बार प्रसारण किया जाता था। इसी तरह रंगून
विश्वविद्यालय में रोहिंग्या विद्यार्थियों की यूनियन लंबे समय तक अस्तित्व में
थी।
यहां तक कि म्यांमार में सैनिक शासन आने के बाद भी
इनके पृथक अस्तित्व को नहीं नकारा गया। अस्थायी स्क्रूटिनी कार्ड के आधार पर
रोहिंग्या मुसलमानों ने 1948 से लेकर 2010 तक चुनावों में मतदान किया था। 1989 मे नया स्क्रूटिनी
कार्ड लागू किया गया और यह कार्ड उन्हें नहीं दिया गया। यह कार्ड उन्हें इसलिए
नहीं दिया गया क्योंकि 1982 में बने नागरिकता कानून के अनुसार वे नागरिक नहीं रहे। इसके बावजूद
उन्हें अस्थायी कार्ड दिया गया और यह घोषणा की गई कि उन्हें शीघ्र ही स्थायी कार्ड
जारी किया जाएगा। अनेक बार दिए गए आश्वासनों के बावजूद उन्हें राष्ट्रीय कार्ड
जारी नहीं किया गया।
वर्ष 2010 में संपन्न चुनाव (जो सैनिक शासन के दौरान हुआ
आखिरी चुनाव था) रोहिंग्या राजनीतिक दलों ने भाग लिया। यद्यपि उनका एक भी
उम्मीदवार नहीं जीता परंतु एक अन्य पार्टी ने उम्मीदवार के रूप में तीन रोहिंग्या
संसद में चुन कर भेजे गए। परंतु 2015 में रोहिंग्याओं से वोट का अधिकार छीन लिया गया। यद्यपि 2015 में हुआ चुनाव
वास्तव में लोकतंत्रात्मक था।
वर्ष 2012 में एक बुद्धिस्ट महिला के साथ बलात्कार हुआ।
बलात्कार का आरोप दो रोहिंग्या पुरूषों पर लगाया गया। इसके बाद रोहिंग्या
मुसलमानों के ऊपर हिंसक हमले हुए। उनके अनेक गांव जला दिए गए। उसके बाद हज़ारों
रोहिंग्या मुसलमान बांग्लादेश की तरफ भागे। इस बीच संयुक्त राष्ट्र संघ की देखरेख
में मुसलमानों के लिए कैम्प बना दिए गए। अभी भी लगभग डेढ़ लाख रोहिंग्या मुसलमान इन
कैंपों में रह रहे हैं। इसी दौरान इन कैंपों में अराकान रोहिंग्या सालवेशन आर्मी
का गठन हुआ। इसी बीच अक्टूबर 2016 में म्यांमार पुलिस के 9 जवानों की हत्या हुई। उन हत्याओं का जिम्मा सालवेशन आर्मी ने लिया। इस
घटना के बाद रोहिंग्या मुसलमानों पर मुसीबतों और ज्यादतियों का कहर टूट पड़ा। इस
सबके पीछे म्यांमार की सेना का हाथ था। इस बीच संयुक्त राष्ट्र संघ ने वास्तविकता
जानने के लिए जांच आयोग भेजना चाहा, पर आयोग को म्यांमार की सरकार ने अनुमति नहीं दी। इस बीच रोहिंग्या
मुसलमानों पर ज्यादतियों का सिलसिला बढ़ता गया और म्यांमार की फौज ने ढाई लाख
मुसलमानों को बांग्लादेश की तरफ खदेड़ दिया। इस दरम्यान म्यांमार की सरकार ने
संयुक्त राष्ट्र संघ के महासचिव कोफी अन्नान के नेतृत्व में एक परामर्शदाता आयोग
का गठन किया। आयोग ने अपनी रिपोर्ट आंग सान सू की को सौंप दी। वे इस समय विदेश
मंत्री का डिफेक्टो चार्ज लिए हुए हैं। आयोग ने कहा कि 1982 में बने नागरिकता
संबंधी कानून का पुनर्मूल्यांकन किया जाए।
इस बीच सू की के रवैये की सारी दुनिया में आलोचना
हो रही है। यहां तक कि यह मांग उठ रही है कि उन्हें दिया गया नोबेल पुरस्कार वापस
लिया जाए।
म्यांमार के रोहिंग्या मुसलमानों के अतिरिक्त भारत
में बसे रोहिंग्या मुसलमानों की भी समस्या गंभीर है। ये समय-समय पर आकर भारत में
बसे हैं। एक अधिकृत अनुमान के अनुसार इनकी संख्या लगभग 40,000 है। भारत सरकार
चाहती है कि इन्हें भारत से बहिष्कृत कर दिया जाए। इस मुद्दे को लेकर हमारे देश में
भी विभिन्न मत हैं। एक मत के अनुसार यह सोच है कि यदि एक अरब पच्चीस करोड़ की आबादी
वाले देश में 40,000
शरणार्थी रह रहे
हैं तो उससे कौन सी मुसीबत हो सकती है? परंतु भारत सरकार का यही रवैया है कि इन्हें हर
हालत में हमारे देश से बाहर जाना पड़ेगा। ये अत्यधिक गरीब हैं, उन्हें मानव जीवन
की कोई भी सुविधाएं उपलब्ध नहीं हैं। इसके बावजूद उन्हें हमारी देश की सुरक्षा के
लिए खतरा समझा जा रहा है। वैसे भी इस समय हमारे देश में लगभग बीस करोड़ मुसलमान रह
रहे हैं। यदि उनमें 40,000 और जोड़ दिए जाएंगे तो मैं नहीं समझता की इससे देश की सुरक्षा खतरे में पड़
सकती है।
देश की सुरक्षा अनेक कारणों से खतरों में पड़ती है।
अभी हाल में मध्यप्रदेश में कुछ ऐसे हिन्दुओं को गिरफ्तार किया गया जो पाकिस्तान
को समय-समय पर गुप्त सूचनाएं भेजते थे। इस तरह के लोगों में भाजपा से भी जुड़े लोग
थे। यदि इन 40,000
मुसलमानों को भारत
से भगाया जाता है तो शायद उन्हें दुनिया का कोई देश स्वीकार नहीं करेगा। इस संदर्भ
में यह बात भी चिंता की है कि दुनिया में अनेक ऐसे राष्ट्र हैं जिनके बहुसंख्यक
नागरिक मुसलमान हैं। परंतु उनमें से एक-दो को छोड़ें तो किसी मुस्लिम राष्ट्र ने रोहिंग्या
मुसलमानों की स्थिति पर चिंता प्रकट नहीं की है। ज्ञात हुआ है कि तुर्की ने
रोहिंग्या मुसलमानों के लिए एक बड़ी सहायता भेजी है। एक सुखद समाचार यह भी है कि
भारत सरकार ने भी बर्मा से बहिष्कृत मुसलमानों के लिए सहायता भेजी है।
इस बीच संयुक्त
राष्ट्र संघ ने अंतिम बार सू की से कह दिया है कि वे रोहिंग्या मुसलमानों के संबंध
में अपना रवैया स्पष्ट करें। ज्ञात हुआ है कि वे कल अर्थात 19 सितंबर को म्यांमार
के नाम अपना संदेश प्रसारित करने वाली हैं। आशा है कि इस संदेश में वे इन
मुसलमानों के घावों पर मरहम लगाने की पहल करेंगी। सू की का स्वयं एक संघर्ष का
लंबा इतिहास है। वे लगभग दो दशकों तक गिरफ्तार रहीं। यहां तक कि जब उनके पति की
मृत्यु लंदन में हुई तो म्यांमार की सरकार ने उन्हें लंदन जाने की इजाजत दे दी थी।
परंतु उन्होंने जाने से इंकार कर दिया यह कहते हुए कि यदि मैं म्यांमार से वापस
जाउंगी तो वहां के सैनिक शासक उन्हें म्यांमार में प्रवेश नहीं करने देंगे। आशा ही
नहीं पूर्ण विश्वास है कि उनके हृदय में इन लोगों के प्रति एक मां का स्नेह जागृत
होगा।
No comments: