कृषि संकट की जड़ें
जावेद अनीस
मध्यप्रदेश
विडम्बनाओं और विरोधाभासों का गढ़ बनता जा रहा है, एक तरफ तो यह
सूबा भुखमरी, कुपोषण और किसानों की बदहाली के लिए
कुख्यात है तो ठीक उसी समय यह देश का ऐसा पहला सूबा भी बन जाता है जहाँ ‘हैप्पीनेस
डिपार्टमेंट’ की शुरुआत की जाती है. विडम्बनाओं की
इस कड़ी में संवेदनहीनता और मक्कारी भी अपने चरम पर होती है. तभी आंदोलनकारी
किसानों को अपराधी घोषित किया जाता है और
उनकी आवाज को कुचलने के हर संभव तरीके अपनाए जाते हैं. प्रशासन और सरकार में बैठे लोगों
का व्यवहार लोकतंत्र की मर्यादा के विपरीत है और वे हिप्पोक्रेट्स हो गये हैं. लगातार
पांचवीं बार कृषि कर्मण अवार्ड जीत चुकी मध्यप्रदेश सरकार किसानों पर गोलियां
चलवाने का खिताब भी अपने नाम दर्ज करवा चुकी है. अगर शांति का टापू कहा जाने वाले
मध्यप्रदेश सहित देशभर के किसान गुस्से से उबल रहे हैं तो इसके पीछे घाटे की खेती, कर्ज़ का बोझ और दशकों से उनकी सरकारों
द्वारा की गयी अनदेखी है. मध्यप्रदेश सरकार द्वारा लाख धमकाने, पुचकारने
और फरेब के बावजूद किसानों का गुस्सा शांति नहीं हुआ है.इस बार किसानों प्रतिरोध
इनता तेज था कि एक बार तो करीब 11
सालों से सूबे की गद्दी पर अंगद की तरह पसरे शिवराजसिंह चौहान की गद्दी हिलती नजर
आयी. आदोंलन शुरू होने के करीब पखवाड़े भर के भीतर ही सूबे के करीब दो दर्जन किसानों
ने आत्महत्या कर लिया लेकिन सरकार के
कानों में तो जैसे पत्थर जम गया था, इस मामले में अपने आप को किसान पुत्र कहने
वाले मुख्यमंत्री शिवराज सिंह की सरकार का
पूरा जोर किसी भी तरह से इस पूरे मसले से ध्यान हटा देने या उसे दबा देने का रहा. पहले आन्दोलनकारियों को ‘एंटी
सोशल एलिमेंट’ के तौर पर पेश करने की कोशिश की गयी और
जब मामला हाथ से बाहर जाता हुआ दिखाई दिया तो खुद मुख्यमंत्री ही धरने पर बैठ गये.
बाद में सरककर की तरफ से यह दावा भी किया गया कि किसान
आंदोलन को अफीम तस्करों ने भड़काया था
और उन्होंने ही इसे हिंसक बनाया.
किसानों का
आक्रोश केवल मध्यप्रदेश तक ही सीमित नहीं है बल्कि यह देशव्यापी है. देश के कई
हिस्सों में किसान लम्बे समय से आन्दोलन क्र रहे हैं लेकिन
किसानों कि हालत में कोई फर्क नहीं देखने को मिला और ना ही सरकारों द्वारा उनकी
मांगों पर कोई विशेष ध्यान दिया गया है. ऐसे में सवाल यह है कि क्या यह कोई तत्कालिक
समस्या है या इसका जुड़ाव पूरे कृषि क्षेत्र से है जिसकी जड़ें पूँजी के नियमों से
संचालित मौजूदा विकास की धारा में अन्तर्निहित है और जिनकी नियति जीडीपी के ग्रोथ
पर सवार भारत को "किसान मुक्त भारत" में तबदील कर डालने में है ?
साम, दाम, दंड ,भेद
का खेल
आंदोलन के शुरुआत
में मध्यप्रदेश के किसान लाखों लीटर दूध और सब्जी सड़कों पर फेंक कर अपना विरोध
दर्ज करा रहे थे जिसका शिवराज सरकार द्वारा कोई ध्यान नहीं दिया गया .
इससे किसानों का आक्रोश बढ़ता गया, बाद
में सरकार द्वारा आरएसएस से जुड़े भारतीय किसान संघ के नेताओं को बुलाकर समझौता
करने और आन्दोलनकारियों की मांगों को मान लेने का स्वांग रचा गया जबकि भारतीय
किसान संघ का इस आंदोलन से सम्बंध ही नही था और फिर जब पुलिस द्वारा आंदोलन कर
रहे 6 किसानों की
हत्या कर दी गयी तो थ्योरी पेश की गयी कि आंदोलनकारी किसान नहीं बल्कि असामाजिक तत्व थे जिन्हें कांग्रेस का संरक्षण
प्राप्त था, यह दावा भी किया गया कि गोली पुलिस की
तरफ से नहीं चलायी गयी थी. उसी दौरान देश भर के अखबारों में विज्ञापन छपवाए गये
जिसका टैग लाईन था “किसानों की खुशहाली के लिए सदैव तत्पर
मध्यप्रदेश सरकार”. इसके
बाद जब लगा कि हालात बेकाबू होते जा रहे हैं तो
मारे गये किसानों मुवावजा देने की घोषणा कर दी गयी. पहले प्रत्येक मृतक को 10
लाख के मुआवजे देने की बात कही गयी फिर उसे बढ़ा कर 1 करोड़ कर दिया
गया और आनन-फानन में इस घटना के न्यायिक जांच के आदेश दे दिए गये. विपक्ष की तरफ
से भी सरकार को पूरी तरह से घेरने की कोशिश की गयी. उसी समय राहुल गांधी ने बयान
दिया कि “सरकार किसानों
के साथ युद्ध कि स्थिति में है”.
सत्ता का उपहास
देखिये इसके बाद मुख्यमंत्री खुद उपवास पर बैठ गये. मृतक किसानों के परिवारवालों
को बुलाकर शिवराज ने ये जताने की कोशिश की कि किसान उनके साथ हैं. अगले दिन शिवराज
ने बहुत ही नाटकीय अंदाज में वहां मौजूद भीड़ से “क्या मैं अपना
उपवास खत्म कर दूं”? पूछ कर उपवास तोड़ दिया. इस दौरान
उन्होंने करीब एक दर्जन घोषणायें भी कर डालीं.
मध्यप्रदेश के वरिष्ठ पत्रकार एन के सिंह ने हिसाब लगाया है कि मुख्यमंत्री शिवराजसिंह
चौहान अपने कार्यकाल के पहले दस वर्षों में करीब 8000 घोषणाएं कर
चुके हैं यानी औसतन दो घोषणाएं हर रोज, जिनमें से लगभग 2000 को
पूरा नहीं किया जा सका है. पिछले तीन सालों में की गयी 1500
घोषणाओं में से तो केवल 10 प्रतिशत
ही पूरी हो सकी हैं. ऐसे में मुख्यमंत्री द्वारा उपवास के दौरान की गयी घोषणाओं की
गंभीरता पर सवाल उठना स्वाभाविक है .
इस दौरान एक
न्यूज़ चैनल द्वारा मुख्यमंत्री का उपवास को लेकर जिस तरह के खुलासे किये गये थे वो
उपवास के उस पूरे पाखंड को उजागर करते हैं
जिसके लिए 5-7 करोड़ रूपए खर्च किया गया. लेकिन तमाम
चालबाजियों और जादूगरी के बावजूद मध्यप्रदेश में आज भी किसानों का गुस्सा बना हुआ
है. पिछले बारह सालों के अपने कार्यकाल
में शिवराज सिंह चौहान ने कई उतार चढ़ाव देखे हैं, मुसीबत को मौके
में तब्दील कर देना उनकी सबसे बड़ी खासियत रही है, यहाँ तक व्यापमं
जैसे कुख्यात घोटाले के बाद भी वे अपनी कुर्सी बचा पाने में कामयाब रहे हैं. जिस
किसान हितैषी छवि को उन्होंने बहुत करीने से गढ़ा था इस बार उसी को सबसे बड़ा झटका
लगा है और यह झटका खुद किसानों ने ही लगाया है. गोलीकांड से ठीक पहले हालात बिलकुल ही अलग नजर आ रहे थे. उनकी बहुप्रचारित
नर्मदा यात्रा खत्म ही हुई थी और विपक्ष हमेशा की तरह कमजोर और असमंजस्य की स्थिति
में नजर आ रहा था लेकिन किसानों के गुस्से और गोलीकांड से फिजा बदली हुई नजर आ रही
है. इधर चित्रकूट और अटेर
विधानसभा उपचुनाव में भाजपा की हार भी बदले हुये माहौल की तस्दीक कर रहे हैं . दरअसल आंदोलन के शुरूआती दौर में जब
किसान सड़क पर उतरे तो इसे गम्भीत्ता से नहीं लिया गया था, अगले साल विधान सभा
चुनाव हैं और इस समय शिवराज सरकार अपने आप को विपरीत स्थिति में पा रही है, लम्बे
समय बाद विपक्षी कांग्रेस में हलचल और जोश दोनों नजर आ रही है.
खतरनाक पैटर्न
किसानों के
प्रति मध्यप्रदेश सरकार के मंत्रियों और भाजपा के नेताओं के जिस तरह से बयान आये थे
वे उस खास पैटर्न की ओर इशारा करते हैं जिसमें
सत्ताधारियों द्वारा जमीनी मुद्दों और संघर्षों को खाक बना देने के लिए हर संभव
हथखंडे अपनाये जाते हैं. अखबारों में छपी खबरों के अनुसार किसान आंदोलन के दौरान
गोली चलने से ठीक पहले मध्यप्रदेश के गृहमंत्री
भूपेंद्र सिंह कानून व्यवस्था कि समीक्षा के दौरान कहा था कि किसानों कि आड़ में असमाजिक
तत्व गड़बड़ी कर रहे हैं. ऐसे लोगों से सख्ती से निपटा जाए. इसके कुछ घंटों बाद ही मंदसौर से पुलिस द्वारा गोली
चलाये जाने की ख़बरें आती हैं, सत्ताधारी
पार्टी और सरकार से जुड़े कई नेताओं ने
भी आन्दोलनकारियों को नकली, मुट्ठी
भर किसान और विपक्ष की साजिश साबित करने पर पूरा जोर लगा रहे थे. प्रदेश में
किसानों की मौत को लेकर राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग को भेजे गये अपने जवाब में
मध्यप्रदेश सीआईडी ने कहा है कि ‘मध्यप्रदेश
में किसानों के आत्महत्या की बड़ी वजह खेती या कर्ज नहीं बल्कि वे पारिवारिक कलह, शराब पीने, शादी, सम्पत्ति
विवाद और बीमारी आदि वजहों से आत्महत्या कर रहे हैं.
मध्यप्रदेश के
किसान नेता सुनीलम कहते हैं कि मध्यप्रदेश में जिस तरह से प्रशासन द्वारा किसान
आंदोलन को अफीम तस्करों द्वारा प्रायोजित बताया गया था वो बहुत ही शर्मनाक है.
लेकिन शर्म की लकीर यहीं खत्म नहीं होती
है सूबे में भाजपा के मुखिया नंदकुमार सिंह चौहान का भी भी एक बयान था कि, “समस्याओं से लड़ने की 'विल पॉवर' (इच्छाशक्ति) कम होने के चलते किसान ही
नहीं विद्यार्थी भी आत्महत्या कर रहे हैं,कई बार ऐसा होता है कि लोगों के मन के
मुताबिक रिजल्ट नहीं आता और हताश होकर लोग आत्महत्या जैसा कदम उठा लेते हैं.” यह एक
पुराना पैटर्न है कि कैसे शासक वर्ग
द्वारा जनता की त्रासदी को बहुत ही सामन्य बना दिया जाए.
क्यों उबले राहे हैं
किसान ?
मौजूदा किसान आंदोलन खेती-किसानी की कई सालों से कि जा रही
अनदेखी का परिणाम है, इस आक्रोश के लिये सरकारों कि नीतियां जिम्मेदार है. आज भारत
के किसान खेती
में अपना कोई भविष्य नहीं देखते, उनके लिये
खेती-किसानी बोझ बन गया है और अगर उन्हें दूसरा कोई विकल्प मिले तो वे आसानी से खेती
छोड़ने के लिए तैयार हो जायेंगें. हालात यह हैं कि देश का हर दूसरा किसान कर्जदार है. 2013 में जारी किए गए राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण के आंकड़े बताते है कि यदि कुल कर्ज का औसत निकाला जाये देश
के प्रत्येक कृषक परिवार पर औसतम 47 हजार रुपए का कर्ज है. इधर मौजूदा केंद्र सरकार की तुगलगी
हिकमतें भी किसानों के लिए आफत साबित हो रही हैं, नोटबंदी ने किसानों की कमर तोड़
के रख दी है यह नोटबंदी ही है जिसकी वजह
से किसान अपनी फसलों को कौडि़यों के दाम बेचने को मजबूर हुए, मंडीयों में नकद पैसे की किल्लत हुई और कर्ज व घाटे
में डूबे किसानों को नगद में दाम नहीं मिले और मिले भी तो अपने वास्तविक मूल्य से
बहुत कम. आंकड़े बताते हैं कि नोटबंदी के
चलते किसानों को कृषि उपज का दाम 40 फीसदी तक कम
मिला. जानकार बताते हैं कि खेती-किसानी पर जीएसटी का भी विपरीत प्रभाव पड़ा है, इससे पहले
से ही घाटे में चल रहे किसानों की लागत बढ़ गयी है . मोदी सरकार ने 2022 तक
किसानों की आमदनी दुगनी कर देने जैसे जुमले उछालने के आलावा कुछ खास नहीं किया है.
आज भारत के किसान
अपने अस्तित्व को बनाये और बचाए रखने के लिए अपने दोनों अंतिम हथियारों का
इस्तेमाल कर रहे हैं जिसके दावं पर उनकी जिंदगियां लगी हुई हैं.एक हथियार
गोलियां-लाठियां खाकर आन्दोलन करने का है तो दूसरा आत्महत्या यानी खुद को ख़त्म कर
लेने का.
कृषि
संकट की जड़ें
“खेती में अब इतना मुनाफा नहीं, खेती बंट-बंट कर
घट गई है, खेती जनसंख्या का बोझ नहीं सह सकती है,खेती का काम जो कर रहे है वे करें
उनकी मैं हर संभव मदद करूंगा लेकिन मेरी इच्छा है कि आपमें से कुछ लोग उद्योगों की
तरफ आएं,सर्विस सेक्टर में जाएं, इसके लिए हम अकादमिक से लेकर मैदानी प्रशिक्षण
देंगे". यह मध्यप्रदेश के
मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के वाक्य हैं जिन्होंने जाने-अनजाने अपने इन चंद वाक्यों से भारत के
कृषि संकट की गहराई को छु लिया. दरअसल यह केवल किसानों का नहीं बल्कि पूरे `कृषि
क्षेत्र का संकट है’, यह एक “कृषि प्रधान” देश की “कृषक प्रधान” देश बन जाने की
कहानी है. 1950 के दशक में भारत के जीडीपी में कृषि क्षेत्र का हिस्सा 50
प्रतिशत था,1991 में जब नयीआर्थिक नीतियां को लागू की गयी थीं तो उस समय जीडीपी में कृषि क्षेत्र का योगदान 34.9 %
था
जो अब वर्तमान
में करीब 13%
के आस पास आ
गया है. जबकि
देश की करीब
आधी आबादी अभी भी खेती पर ही निर्भर है.
नयी आर्थिक नीतियों
के लागू होने
के बाद से
सेवा क्षेत्र में
काफी फैलाव हुआ है जिसकी वजह से आज भारतीय अर्थव्यवस्था विश्व की चुनिन्दा
अर्थव्यवस्थाओं में शुमार की जाने लगी है लेकिन सेवा क्षेत्र का यह बूम उस अनुपात
में रोजगार का अवसर मुहैया कराने में
नाकाम रहा है.
नतीजे के तौर
पर आजभी भारत की करीब दो-तिहाई आबादी की निर्भरता
कृषि क्षेत्र पर
बनी हुई है . इस दौरान परिवार बढ़ने
की वजह से छोटे किसानों की संख्या बढ़ी है
जिनके लिए खेती
करना बहुत मुश्किल एवं नुकसान भरा
काम हो गया है और कर्ज लेने की मजबूरी बहुत आम हो गयी है.
एनएसएसओ के 70वें दौर के सर्वेक्षण में पाया गया है
कि देश
के कुल 9.02
करोड़ काश्तकार परिवारों
में से 7.81
करोड़ (यानी 86.6 फीसदी) खेती से इतनी कमाई नहीं कर
पाते जिससे वे अपने परिवार के खर्चों को
पूरा कर सकें. खेती करने की लागत लगातार बढ़ती जा रही है जिससे किसानों के लिए खेती
करना लगातार मुश्किल होता जा रहा है. दरअसल खेती का सारा मुनाफा खेती संबंधी कारोबार से जुड़ी कंपनियां
कूट रही हैं, भारत
के कृषि क्षेत्र में पूँजी अभी भी सीधे तौर पर दाखिल नहीं हुयी
है, अगर इतनी बड़ी संख्या में आबादी लगभग जीरो
प्रॉफिट पर इस सेक्टर में खप
कर इतने सस्ते
में उत्पाद दे
रही है तो
फौरी तौर पर इसकी जरूरत ही क्या है, इसी
के साथ ही किसानी और खेती से जुड़े कारोबार तेजी से फल –फूल
रहे हैं. फर्टिलाइजर बीज, पेस्टीसाइड और
दूसरे कृषि कारोबार
से जुड़ी कंपनियां सरकारी
रियायतों का फायदा
भी लेती हैं.
यूरोप और अमरीका जैसे पुराने पूंजीवादी मुल्कों के अनुभव
बताते हैं कि इस रास्ते पर चलते हुए
अंत में
छोटे और मध्यम किसानों को उजड़ना पड़ा है क्योंकि पूँजी का मूलभूत तर्क
ही अपना फैलाव
करना है जिसके
लिए वो नये
क्षेत्रों की तलाश
में रहता है. भारत का
मौजूदा विकास मॉडल
इसी रास्ते पर फर्राटे भर रही है
जिसकी वजह देश के
प्रधानमंत्री और सूबाओं
के मुख्यमंत्री दुनिया
भर में घूम-घूम
कर पूँजी को
निवेश के लिये
आमंत्रित कर रहे हैं, इसके लिए
लुभावने आफर प्रस्तुत दिये जाते
हैं जिसमें सस्ती जमीन और मजदूर शामिल है.
आगे
का रास्ता और भी खतरनाक है
भविष्य
में अगर विकास का यही रास्ता रहा तो बड़ी पूँजी का रुख गावों और कृषि की तरफ मुड़ेगा
ही और जिसके बाद बड़ी संख्या
में लोग कृषि
क्षेत्र छोड़ कर
दूसरे सेक्टर में जाने को मजबूर किये जायेंगें, उनमें से ज्यादातर के पास मजदूर बनने का ही विकल्प बचा होगा. यह
सेक्टोरियल ट्रांसफॉर्मेशन बहुत ही दर्दनाक और अमानवीय साबित होगा. मोदी सरकार इस
दिशा में आगे बढ़ भी चुकी है, इस साल अप्रैल में नीति आयोग ने जो तीन वर्षीय एक्शन
प्लान जारी किया
है उसमें 2017-18 से 2019-20 तक के लिए कृषि में सुधार की
रूप-रेखा भी प्रस्तुत की गई है. इस एक्शन
प्लान में कृषि क्षेत्र में सुधार के लिए जिन नीतियों की वकालत की गई है उसमें न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) को सीमित करना, अनुबंध वाली खेती
(कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग) के साथ जीएम बीजों को बढ़ावा देना और इस क्षेत्र में निजी
कंपनियों के सामने मौजूद बाधाओं को खत्म करने जैसे उपाय शामिल हैं. कुल मिलाकर पूरा जोर कृषि क्षेत्र
में निजी क्षेत्र की भूमिका बढ़ाने पर है, यह दस्तावेज एक तरह से भारत में ‘कृषि के निजीकरण’ का रोडमैप है
हमारे
राजनीतिक दलों के लिये किसान एक ऐसा चुनावी मुद्दे की तरह है जिसे वे चाह कर इसलिए
भी नज़रंदाज़ नहीं कर सकते क्योंकि यह देश की करीब आधी आबादी की पीड़ा है जो अब नासूर
बन चूका है, विपक्ष में रहते हुए तो सभी पार्टियाँ किसानों के पक्ष में बोलती हैं और उनकी आवाज को
आगे बढ़ाती हैं लेकिन सत्ता में आते ही वे
उसी विकास के रास्ते पर चलने
को मजबूर होती हैं
जहाँ खेती और
किसानों की कोई हैसियत
नहीं है. सरकारें आती जाती रहेंगीं
लेकिन मौजूदा व्यवस्था में किसान अपने
वजूद की लड़ाई लड़ने के लिए अभिशप्त हैं. सतह पर आन्दोलन भले ही शांत हो गया लगता हो
लेकिन किसानों का दर्द, गुस्सा और आक्रोश अभी
भी कायम है, पूरे कृषि संकट संबोधित करने की बात तो दूर की
कौड़ी है सरकारें आन्दोलनकारी किसानों की दो प्रमुख मांगों,फसल के अच्छे दाम और लिए
गए कर्ज की पूरी माफी के सामने ही खुद को लाचार पा रही है.
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