कैफ़ी आज़मी की कविता - लेनिन
कैफ़ी आज़मी
आसमां और भी ऊपर
को उठा जाता है
तुमने सौ साल में
इंसां को किया कितना बलंद
पुश्त पर बाँध
दिया था जिन्हें जल्लादों ने
फेंकते हैं वही
हाथ आज सितारों पे कमंद
देखते हो कि नहीं
जगमगा उट्ठी है
मेहनत के पसीने से जबीं
अब कोई खेत
खते-तक़दीर नहीं हो सकता
तुमको हर मुल्क
की सरहद पे खड़े देखा है
अब कोई मुल्क हो
तसख़ीर नहीं हो सकता
ख़ैर हो बाज़ुए-क़ातिल
की, मगर खैर नहीं
आज मक़तल में बहुत
भीड़ नज़र आती है
कर दिया था कभी
हल्का-सा इशारा जिस सिम्त
सारी दुनिया उसी
जानिब को मुड़ी जाती है
हादिसा कितना बड़ा
है कि सरे-मंज़िले-शौक़
क़ाफ़िला चंद
गिरोहों में बंटा जाता है
एक पत्थर से
तराशी थी जो तुमने दीवार
इक ख़तरनाक शिगाफ़
उसमे नज़र आता है
देखते हो कि नहीं
देखते हो, तो कोई सुल्ह की
तदबीर करो
हो सकें ज़ख्म रफू
जिससे, वो तक़रीर करो
अह्द पेचीदा, मसाईल हैं सिवा
पेचीदा
उनको सुलझाओ, सहीफ़ा कोई तहरीर
करो
रूहें आवारा हैं, दे दो उन्हें
पैकर अपना
भर दो हर
पार-ए-फौलाद में जौहर अपना
रहनुमा फिरते हैं
या फिरती हैं बे-सर लाशें
रख दो हर अकड़ी
हुई लाश पर तुम सर अपना
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