क्या उज्ज्वला योजना अपने मकसद में कामयाब हो पायी है ?
जावेद अनीस
मध्यप्रदेश
के शाजापुर जिले के कांजा गावं की निवासी मंजूबाई का प्रधानमंत्री उज्ज्वला योजना के
तहत मिला गैस कनेक्शन धूल खा रहा है.कनेक्शन लेने के बाद उन्होंने
दूसरी बार सिलेंडर नहीं भरवाई है. अब उनके घर के एक कोने पर पड़ा सिलेंडर सामान रखने
के काम आता है और घर का खाना पहले की तरह धुएं के चूल्हे पर बनने लगा है. यह अकेले
मंजूबाई की कहानी नहीं है.देश भर में उज्ज्वला योजना के ज्यादातर
लाभार्थी गरीब परिवारों को गैस सिलेंडर भरवाना मुश्किल साबित हो रहा है. केंद्र
सरकार भले ही निशुल्क गैस कनेक्शन के अपने आंकड़ों को दिखाकर पीठ थपथपा ले लेकिन
जमीनी हकीकत तो यही है कि इनमें से बड़ी संख्या में परिवार धुंए की चूल्हे की
तरफ वापस लौटने को मजबूर हुये है.
अखबारों में प्रकाशित समाचार के अनुसार मध्यप्रदेश के शाजापुर जिले में 36
हजार 15 महिलाओं को कनेक्शन मिले थे लेकिन इसमें से 75 प्रतिशत कनेक्शनधारियों ने दूसरी
बार भी सिलेंडर नहीं लिया. पड़ोसी राज्य छत्तीसगढ़ से तो हितग्राहियों द्वारा मोदी
सरकार के इस महत्वकांक्षी योजना के तहत दिये गये रसोई गैस कनेक्शन और कार्ड को
बेचने की खबरें आयीं हैं. बिलासपुर जिले के मरवाही
तहसील के कई गावों के गरीब आदिवासी परिवार सिलेंडर खत्म होने के बाद रीफिलिंग नहीं
करा पाते हैं और कई लोग तो गैस कनेक्शन को पांच-पांच सौ स्र्पए में बेच दे रहे
हैं. खुद छत्तीसगढ़ सरकार मान रही है कि वहां उज्ज्वला
योजना के 39 फीसदी हितग्राही ही दोबारा
अपने सिलेंडर को रिफिल कराते हैं. उपरोक्त स्थितयाँ मोदी सरकार द्वारा उज्ज्वला
योजना को लेकर किये जा रहे दावों पर सवालिया निशान हैं.
क्या उज्ज्वला योजना उतनी
कामयाब हुई है जितनी बताई जा रही है या फिर हमें गुमराह किया जा रहा है. पेट्रोलियम
मंत्री धर्मेंद्र प्रधान ने 8 फरवरी को किये गये अपने प्रेस कांफ्रेंस में इस
योजना का भरपूर बखान किया है, उनके अनुसार उज्ज्वला योजना के तहत अब तक तीन करोड़
36 लाख परिवारों को रसोई गैस के कनेक्शन दिए गए हैं, उन्होंने यह भी दावा किया है
कि योजना शुरू किए जाने के एक साल के भीतर कनेक्शन लेने वाले दो करोड़
लाभार्थिंयों में से 80 प्रतिशत ने इसे रिफिल भी कराया है और रिफिल कराने का औसत प्रति
परिवार 4.07 सिलेंडर सालाना है.
इसमें कोई शक नहीं है
कि उज्ज्वला योजना के शुरू होने के बाद बड़ी संख्या में गैस कनेक्शन बांटे गए
हैं लेकिन सवाल इसके दोबारा रिफिल कराने और व्यवहार
परिवर्तन का है. यह मान लेना सही नहीं है कि बीपीएल परिवार गैस भरवाने के लिए एक
मुश्त आठ सौ रुपए का इंतजाम कर लेंगें.
घरों में भोजन पकाने के लिए ठोस ईंधन इस्तेमाल से प्रदूषण
फैलाने वाले महीन कण (फाइन पार्टिकल) निकलते हैं जोकि हवा में पाए जाने वाले
सामान्य कणों की तुलना में काफी छोटे और स्वास्थ्य के लिए बहुत हानिकारक होते हैं.
इसका महिलाओं और बच्चों से स्वास्थ्य पर गंभीर प्रभाव पड़ता है. 2014 में जारी यूनाइटेड
नेशंस इंडस्ट्रियल डेवलपमेंट ऑर्गनाइजेशन की रिपोर्ट के अनुसार अपने लोगों को खाना पकाने
के लिए स्वच्छ ईंधन न उपलब्ध करा पाने वाले देशों की सूची में भारत शीर्ष पर है और
यहां की दो-तिहाई आबादी
खाना बनाने के लिए कार्बन उत्पन्न करने वाले ईंधन और गोबर से तैयार होने वाले ईंधन
का इस्तेमाल करती है जिसकी वजह से इन परिवारों की महिलाओं
और बच्चों के सेहत को गंभीर असर पड़ता है. सितंबर,
2015 को
केंद्रीय पेट्रोलियम मंत्री पीयूष गोयल द्वारा ‘स्वच्छ पाक ऊर्जा और
विद्युत तक पहुँच राज्यों का सर्वेक्षण’ रिपोर्ट जारी किया गया
था इस सर्वेक्षण में 6 राज्यों (बिहार, झारखंड, मध्य प्रदेश, ओडिशा, उत्तर प्रदेश और पश्चिम
बंगाल) के 51 जिलों के 714 गांवों के 8500
परिवार शामिल किये गये
थे. रिपोर्ट के अनुसार इन राज्यों में 78% ग्रामीण आबादी भोजन
पकाने के लिए पारंपरिक बायोमास ईंधन का उपयोग करती है और केवल 14% ग्रामीण परिवार ही भोजन
पकाने के लिए स्वच्छ ऊर्जा का उपयोग करते हैं.
ग्रामीण क्षेत्रों में खाना पकाने के लिए लकड़ी
और उपले जैसे प्रदूषण फैलाने वाले ईंधन के उपयोग में कमी लाने और एलपीजी के
उपयोग को बढ़ावा देने के उद्देश्य से मई 2016 में “प्रधानमंत्री उज्ज्वला योजना” की शुरुआत की गयी थी
जिसके तहत तीन सालों में गऱीबी रेखा से नीचे जीवन यापन करने वाले
परिवारों की पांच करोड़ महिलाओं को रसोई गैस उपलब्ध कराने का लक्ष्य रखा गया था
जिससे उन्हें जानलेवा धुंए से राहत दिलाया जा सके. इस साल केंद्र सरकार ने लक्ष्य को बढ़ाते हुये
3 करोड़ और लोगों को प्रधानमंत्री उज्ज्वला योजना के तहत एलपीजी कनेक्शन देने का
ऐलान किया है जिसके लिये 2020 का लक्ष्य रखा गया है, इसके लिए पहले आवंटित किए गए आठ हजार करोड़ रुपए के
अलावा 4,800 करोड़ रुपए का अतिरिक्त बजटीय प्रावधान भी किया
गया है साथ ही योजना का विस्तार करते हुए इसमें अनुसूचित जाति एवं जनजाति और अति पिछड़ा वर्ग, प्रधानमंत्री ग्रामीण आवास योजना और अंत्योदय अन्न
योजना के सभी लाभार्थियों, जंगलों और द्वीपों में रहने वालों तथा पूर्वोत्तर के चाय बगानों में काम
करने वाले सभी परिवारों को भी शामिल किया गया है.
यह महिला केन्द्रित योजना है जिसके तहत परिवार की महिला मुखिया के नाम से
गैस कनेक्शन दिया जाता है. इसके लिये 1600 रुपये की सब्सिडी दी जाती है, जबकि गैस चूल्हा, पाईप
खरीदने और पहला रीफिल कराने के लिये किस्तों में पैसा चुकाने की सुविधा दी जाती
है.
दरअसल इस योजना को
लेकर केंद्र सरकार हड़बड़ी में दिखाई पड़ती है. उसका पूरा जोर गैस कनेक्शन देने और प्रचार-प्रसार
पर है, इस बात पर ध्यान नहीं दिया जा रहा है कि बांटे गये गैस कनेक्शनों का जमीनी
स्तर पर उपयोग कितना हो रहा है. हालांकि केंद्रीय पेट्रोलियम मंत्री पीयूष गोयल यह दावा जरूर कर रहे हैं कि 80
प्रतिशत
परिवारों ने एलपीजी कनेक्शन लेने के बाद उसे दोबारा भरवाया है लेकिन उनके इस दावे
पर गंभीर सवालिया निशान है. आंकड़े बताते हैं नये गैस कनेक्शन 16.23 प्रतिशत की दर से बढ़ी है लेकिन
गैस सिलेंडर का उपयोग दर 9.83 प्रतिशत ही है जो योजना शुरू होने से पहले की दर से भी कम
है, इसका मतलब है कि योजना के लागू होने के बाद गैस कनेक्शन तो बढ़े हैं
लेकिन गैस सिलेंडर उपयोग करने वालों की संख्या उस तेज़ी से नहीं बढ़ रही है.
हड़बड़ी में योजना लागू करने का विपरीत असर दिखाई पड़ने लगा है. दरअसल उज्ज्वला योजना लागू
करने से पहले केंद्र सरकार ने गैस की जगह परम्परागत ईंधन का उपयोग के कारणों का
पता लगाने के लिये क्रिसिल से एक सर्वे कराया था जिसमें 86 प्रतिशत लोगों ने बताया था कि वे गैस कनेक्शन महंगा होने की वजह से इसका प्रयोग
नहीं करते हैं जबकि 83 प्रतिशत लोगों ने सिलेंडर
महंगा होना भी कारण बताया था, इस सर्वे में सिलेंडर मिलने के लिए लगने वाला लम्बा
समय और दूरी भी एक प्रमुख बाधा के रूप में सामने आई थी. लेकिन सरकार ने योजना लागू
करते समय कनेक्शन वाली समस्या को छोड़ अन्य किसी पर ध्यान नहीं दिया है, उलटे सिलेंडर
पहले के मुकाबले और ज़्यादा महंगा कर दिया गया है. इसी तरह से जल्दी सिलेंडर
डिलीवरी को लेकर होने वाली झंझटों पर भी ध्यान ही नहीं दिया गया. सरकार ने गैस
कनेक्शन महंगा होने की समस्या की तरफ ध्यान दिया था और इसका असर साफ़ दिखाई पड़ रहा
है. बड़ी संख्या में लोगों की एलपीजी कनेक्शन लेने की बाधा दूर हुयी है लेकिन क्रिसिल
द्वारा बताई गयी अन्य बाधायें ज्यों की त्यों बनी हुयी हैं. लोगों को कनेक्शन मिले
हैं लेकिन इनके उपयोग का सवाल बना हुआ है.
मौजूदा चुनौती उज्ज्वला स्कीम के तहत मिले गैस सिलेंडर रिफिल की है, गरीब परिवारों की
आर्थिक स्थिति इस दिशा में सबसे बड़ी बाधा है. रंगराजन कमेटी की रिपोर्ट के अनुसार
ग्रामीण क्षेत्रों में प्रतिदिन रोज 32 रुपये से कम (960 रुपये महीना) और शहरी क्षेत्रों
में रोजाना 47 रुपये (1410 रुपये महीना) से कम खर्च करने वाले परिवारों को गरीबी
रेखा के नीचे माना गया है. ऐसे में गरीबी रेखा के नीचे रहने वाले परिवार किस हिसाब
से सिलेंडर भरवाने में सक्षम होंगे. इसका अंदाजा बखूबी लगाया जा सकता है. कुछ नयी
बाधायें भी सामने आई हैं जैसे गैस चूल्हा, सिलेंडर
में भरी गैस और नली के लिये हितग्राहियों को करीब 1800 रुपए चुकाने
पड़ते हैं जिसे मध्यप्रदेश में कई स्थानों पर गैस सिलेंडर पर सब्सिडी से ही वसूला
जा रहा है जिससे उन्हें गैस सिलेंडर और महंगा पड़ रहा है.
जाहिर है सिर्फ मुफ्त में गैस सिलेंडर देने से काम नहीं चलने वाला है इससे
सरकार अपनी वाह वाही कर लेगी लेकिन इससे मूल मकसद हल नही होगा. अगर महिलाओं को
चूल्हे के धुंए से वाकई में निजात दिलाना है तो समस्या के अन्य पहलुओं पर भी ध्यान
देना होगा. सिलेंडर बांटने के साथ ही इसके इस्तेमाल में आने वाली बाधाओं को भी
प्राथमिकता से दूर करना होगा.
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