भोपाल एनकाउंटर का भूत
जावेद अनीस
Duniya In Dinon May 2018 (First Issue) |
राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने अपनी जांच रिपोर्ट
में भोपाल की सेंट्रल जेल में कथित रूप से
सिमी से जुड़े विचाराधीन कैदियों से साथ उत्पीड़न की शिकायतों को सही पाया है और इसके लिये जेल स्टाफ
के खिलाफ कानूनी कार्यवाही की अनुशंसा की है. दरअसल पिछले साल 2017 में भोपाल
सेंट्रल जेल में सिमी से सम्बंधित मामलों में आरोपी 21 विचारधीन कैदियों के परिवार
वालों ने राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग से शिकायत की थी कि जेल स्टाफ द्वारा कैदियों
का शारीरिक और मानसिक रूप से उत्पीड़न किया जा रहा है और उनके साथ अमानवीय व्यवहार किया जा रहा है जिसके बाद आयोग द्वारा इस मामले की
जांच करके रिपोर्ट तैयार की गयी है.
भोपाल एनकाउंटर के अनुतरित सवाल
दरअसल यह पूरा मामला 31 अक्टूबर 2016 की रात को भोपाल सेंट्रल जेल में बंद सिमी के आठ संदिग्धों के कथित रूप से जेल से भागने और फिर उनके एनकाउंटर होने से जुड़ा हुआ है.
यह एनकाउंटर अपने पीछे कई ऐसे गंभीर सवाल खड़ा कर गया है जो लीपापोती की तमाम प्रयासों के बावजूद बीच- बीच में सामने
आ ही जाते हैं. इस
एनकाउंटर को लेकर मारे गये कैदियों के परिवारजनों, मानव अधिकार संगठनों, विपक्ष और
कुछ पत्रकारों द्वारा सवाल खड़े किये जाते रहे हैं और जिसके पीछे ठोस कारण भी हैं.
मुठभेड़ को लेकर ऐसी-ऐसी कहानियां सुनायी गयीं थीं जिनमें से कई बचकानी हैं और उन पर
मुतमइन हो जाना आसान नहीं है.एनकाउंटर
के बाद पुलिस द्वारा जो थ्योरी पेश की गयी थी उसके अनुसार आरोपियों ने जेल से फरार
होने के लिए रोटियों का सहारा लिया. वे भोजन में 40 दिनों तक
अतिरिक्त रोटी मांगते रहे. इन रोटियों को वे खाने के बजाय सूखा कर रख लेते थे,
इन्हीं रोटियों को जलाकर उन्होंने प्लास्टिक की टूथब्रश से ऐसी चाभी बना डाली
जिससे ताला खोला जा सके. उस रात ताला खोलने के बाद उन्होंने वहां तैनात सिपाही
रमाशंकर यादव की गला रेतकर हत्या की और दूसरे सिपाही चंदन सिंह के हाथ-पैर बांध
दिए, फिर चादरों को रस्सी की तरह इस्तेमाल कर 25 फीट ऊंची दीवार फांद कर भाग गए.
इसी तरह से एनकाउंटर
को लेकर मंत्रियों, अधिकारियों
के दिये बयान भी आपस में मेल नहीं खाते हैं जैसे कि मध्यप्रदेश के गृहमंत्री
भूपेन्द्र सिंह ने दावा किया था कि एनकाउंटर के दौरान आरोपी हथियारों से लैस थे जबकि
सूबे के एटीस चीफ का बयान ठीक इसके उल्टा था जिनका कहना था कि उनके पास कोई हथियार
नहीं थे. इस दौरान सोशल मीडिया पर वायरल एक वीडियो में दिख रहा है कि फरार आतंकी
सरेंडर करना चाहते थे लेकिन पुलिस ने उन्हें इसका मौका ही नहीं दिया. एक दूसरे वीडियो के मुताबिक एनकाउंटर में पुलिसवाला एक घायल कैदी को
निशाना बनाकर फायरिंग कर रहा है.
एनकाउंटर के बाद जिस तरह से पोस्टमार्टम किया गया है उस पर भी सवाल उठे थे. उस दौरान
अंग्रेजी अखबार डी.बी.पोस्ट में प्रकाशित ख़बरों के अनुसार आठों आरोपियों का
पोस्टमार्टम मेडिको लीगल इंस्टीट्यूट के निदेशक डॉ. अशोक शर्मा द्वारा चार घंटे
में अकेले ही पूरा कर लिया गया जबकि विशेषज्ञ बताते हैं कि एक सामान्य पोस्टमार्टम
करने में भी 45 मिनिट से 1 घंटे लग जाते हैं. इसी तरह से पोस्टमार्टम के दौरान ना
तो वहा कोई फोरंसिक विशेषज्ञ मौजूदा था और ना ही अदालत को इसकी सूचना दी गयी. जबकि
कैदी न्यायिक अभिरक्षा में
थे और प्रावधानों के अनुसार शव
परीक्षण से पहले अधिकृत न्यायिक मजिस्टे्ट को सूचना दिया जाना चाहिए था.
पोस्टमार्टम करने वाले डॉ शर्मा द्वारा बार-बार
बयान बदलने की वजह से भी पोस्टमार्टम रिपोर्ट पर सवाल उठ रहे थे जैसे कि पहले
उन्होंने बताया था कि “आरोपियों ने अपना आखरी भोजन 10 बजे रात (घटना के 4 घंटे
पहले) के करीब लिया था.” लेकिन बाद में डॉ शर्मा ने अपना बयान बदलते हुए कहा कि
“आरोपियों द्वारा अपना आखरी भोजन शाम 7 लेने की सम्भावना है.” मालूम हो कि भोपाल सेन्ट्रल
जेल में कैदियों को शाम 6.30 बजे भोजन दे दिया जाता है. इसी तरह से पहले डॉ. शर्मा
द्वारा बताया गया था कि “चार आरोपियों के शरीर से गोली पायी गयी है जबकि चार अन्य
के शरीर से गोली आर पार निकल गयी है.” जिसका मतलब ये है कि इन चारों को बहुत करीब
से गोली मारी गयी है. जब इस पर सवाल उठने लगे तो डॉ. शर्मा ने पलटते हुए कहा कि “वे
पक्के तौर पर नहीं कह सकते कि उन्हें करीब से गोली मारी गयी थी या दूर से.”
सरकार की तरफ इस मुठभेड़ में तीन पुलिसकर्मियों
के घायल होने की बात भी कही गई थी और बताया गया था कि मुठभेड़ के दौरान इन तीनों
पुलिसकर्मियों को धारदार हथियार से हुए हमले में हाथों और पैरों पर चोटें आई हैं.
लेकिन 11 नवम्बर 2016 को अंग्रेजी अखबार हिंदुस्तान टाइम्स में प्रकाशित एक खबर के
अनुसार उन तीनों में कोई भी पुलिसकर्मी गंभीर रूप से घायल नहीं हुआ था.
भोपाल मुठभेड़ को लेकर भोपाल कोर्ट द्वारा भी सवाल उठाये गये थे, कोर्ट का कहना था कि ‘एनकाउंटर
होने के नौ दिन बाद उसे आधिकारिक तौर पर इस की जानकारी दी गयी, जबकि इसमें मारे गए लोग न्यायिक हिरासत में थे और क़ानूनन इसके बारे में
कोर्ट को तुरन्त बताया जाना चाहिए था.’ कोर्ट का यह भी कहना था कि ‘आरोपियों का पोस्टमार्टम भी न्यायिक मजिस्ट्रेट के समक्ष नहीं कराया जो कानूनी प्रावधानों को उल्लंघन है.’ इसी तरह से कोर्ट ने एनकाउंटर के स्थान को सील नहीं करने पर भी सवाल उठाये थे .
एनकाउंटर को लेकर इतने सारे सवाल होने के बावजूद
भी मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने ना केवल इन सवालों को नजरअंदाज किया बल्कि वे
बहुत ही आक्रमकता के साथ एनकाउंटर को सही ठहराया था. एनकाउंटर के अगले दिन एक
नवंबर को प्रदेश के स्थापना दिवस समारोह के दौरान मुख्यमंत्री एनकाउंटर को वैधता
दिलाने के लिये भीड़ से कहा कि “पुलिस
ने आतंकियों को मारकर सही किया या गलत?” जवाब में वहां मौजूद
भीड़ हाथ उठाकर कहती है “सही किया.” इस
दौरान वे एनकाउंटर में शामिल पुलिसकर्मियों को इनाम देने की घोषणा भी करते हैं.
इसी तरह से उनका एक और बयान है कि "कई साल तक वे( सिमी
आरोपी) जेल में बैठकर चिकन बिरयानी खाते हैं फिर फरार हो जाते हैं." हालांकि मुख्यमंत्री से किसी ने यह सवाल नहीं पुछा कि भयानक कुपोषण का मार
झेल रहे जिस सूबे की सरकार आंगनवाडी केन्द्रों में कुपोषित बच्चों को अंडे नहीं
खिला सकती तो वो जेलों में बंद कैदियों को चिकन बिरयानी
कैसे खिला सकती है? मध्य प्रदेश की जेल मंत्री कुसुम
मेहदेले ने भी एनकाउंटर पर उठ रहे सवालों को खारिज करते हुए कहा था कि “जेल से
फरार सिमी के सदस्यों को मार गिराने के लिए उनकी आलोचना के बजाए तारीफ होनी चाहिए”.
लेकिन मामला एनकाउंटर को वैधता दिलाने तक ही सीमित
नहीं रहा बल्कि इस पर सवाल उठाने वालों को सबक भी सिखाया गया. लखनऊ में मुठभेड़ के
खिलाफ रिहाई मंच के धरने के दौरान मंच के महासचिव और अन्य कार्यकर्ताओं की पुलिस
द्वारा जमकर पिटाई की गयी थी. इंदौर में भी एनकाउंटर के खिलाफ विरोध जताने और अपनी
मांग रखने वाले नागरिक समूह को कार्यक्रम करने नहीं दिया गया और कार्यक्रम से पहले
नजरबन्द कर दिया गया था.
चट जांच पट क्लीनचिट
हर एनकाउंटर एक सवाल छोड़ जाता है और भोपाल एनकाउंटर
का पूरा मामला ही सवालों का ढ़ेर है. अगर नागिरकों को सुरक्षा देने के लिए जवाबदेह
सरकार और पुलिस-प्रशासन ही सवालों के घेरे में आ जायें तो फिर स्थिति की गंभीरता
को समझा जा सकता है और फिर जिस तरह से सरकार और मीडिया के एक बड़े हिस्से द्वारा इस
एनकाउंटर का उत्सव मनाया गया था उससे एनकाउंटर को लेकर उठे सवालों के जवाब मिलने
की उम्मीद कैसे की जाती क्योंकि जिन्हें जवाब देना था वे अपना फैसला पहले ही सुना
चुके थे और जांच भी उन्होंने ही किया. इस पूरे प्रकरण में मूल सवाल यह था कि जिस सरकार का मुखिया मुठभेड़ को पहले से ही सही मान कर इसमें शामिल लोगों को इनाम देने की घोषणायें कीं हों वह इसकी जांच किस तरह से कराएगी ?
बहरहाल लगातार सवाल उठने पर मध्यप्रदेश सरकार द्वारा
पहले इस मामले की जांच एनआईए द्वारा कराये जाने की बात की गयी थी लेकिन बाद में वो
इससे पीछे हट गई. फिर उच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त न्यायाधीश श्री एस.के. पाण्डे की अध्यक्षता में
न्यायिक जांच के लिये एक-सदस्यीय जाँच आयोग गठित कर दी गयी. आयोग की जांच
के तीन प्रमुख बिंदु थे
·
विचाराधीन बंदी किन परिस्थितियों एवं घटनाक्रम में जेल से
फरार हुए?
उक्त घटना के लिये कौन अधिकारी एवं कर्मचारी उत्तरदायी हैं?
·
पुलिस मुठभेड़ और विचाराधीन कैदियों की मृत्यु किन
परिस्थितियों एवं घटनाक्रम में हुई?
·
क्या मुठभेड़ में पुलिस द्वारा की गयी कार्यवाही उन
परिस्थितियों में सही थी ?
हालांकि मारे गये आरोपियों के वकील ने इस एनकाउंटर की न्यायिक जाँच रिटायर जज
से कराए जाने के सरकार के फैसले पर सवाल उठाते हुये मध्यप्रदेश हाईकोर्ट में एक
जनहित याचिका दायर की गयी थी जिसमें मांग की गई थी कि राज्य सरकार द्वारा हाईकोर्ट
के रिटायर्ड जज की अध्यक्षता में बनाई गई एक सदस्यीय जांच से कराने के बजाए
एनकाउंटर की जांच हाईकोर्ट की सिंटिंग जज द्वारा कराई जाए. लेकिन हाईकोर्ट द्वारा
इस याचिका ख़ारिज कर दिया गया.
20 सितम्बर 2017 को भोपाल से अंग्रेजी दैनिक डीबी पोस्ट में
एक एक्सक्लूसिव स्टोरी प्रकाशित हुयी थी जिसके अनुसार जस्टिस एस.के. पाण्डे
ने अपनी न्यायिक जांच रिपोर्ट मध्यप्रदेश के गृह मंत्रालय को सौंप दी है जिसमें आयोग
ने अपनी रिपोर्ट में एनकाउंटर पर सवाल नहीं उठाया है और एनकाउंटर के बाद ऑपरेशन
में शामिल रही टीम की ओर से दर्ज एफ़आईआर में जो कहानी बताई गई थी, उस पर मुहर लगा दी है. रिपोर्ट में भोपाल सेंट्रल जेल से विचाराधीन कैदियों के भागने और फिर
एनकाउंटर में उनके मारे जाने के मामले में पुलिस को क्लीनचिट दे दी गयी है. जाँच
आयोग ने यह भी माना है कि विचाराधीन क़ैदियों के पास हथियार थे और सरेंडर करने की
मांग पर उन्होंने पुलिस टीमों पर हमला किया इसके जवाब में हुई कार्रवाई में सभी
विचाराधीन क़ैदी मारे गए. इस रिपोर्ट को अभी तक सावर्जनिक नहीं किया गया है.
परिजनों की शिकायत और आयोग का दखल
31 अक्टूबर 2016 की रात
एनकाउंटर में आठ विचाराधीन कैदियों के मारे जाने के बाद वर्तमान में भोपाल सेंट्रल
जेल में 21 कैदी बचे हैं जिन पर
प्रतिबंधित संगठन सिमी के सदस्य होने का आरोप है. एनकाउंटर होने के बाद से इन कैदियों
के परिवार वाले लगातार यह शिकायत कर रहे हैं कि इन्हें जेल में शारीरिक और मानसिक
तौर पर प्रताड़ित किया जा रहा है. परिजनों ने आरोप लगाया था कि इस सम्बन्ध में न्यायलय
के समक्ष शिकायत करने के बाद भी कोई कार्रवाई नहीं की गई और न ही उत्पीड़न की
स्थिति में कोई सुधार हुआ.
बाद में
परिजनों द्वारा इसकी शिकायत राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग से की गयी जिसमें कहा गया कि मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री,मंत्रियों
समेत कई वरिष्ठ पदाधिकारियों द्वारा सार्वजनिक मंचों से पुलिस के हाथों मारे गए आठ
बंदियों की मौत को उचित ठहराया गया और जेल में बंद इन विचाराधीन कैदियों को
आतंकवादी बताया गया (जबकि वे
सजायाफ्ता नहीं बल्कि विचाराधीन कैदी हैं) जिसके कारण परिजनों
को उनके एनकाउंटर का डर सताता रहता है. परिजनों का आरोप था कि जेल ब्रेक की घटना के बाद कैदियों को जेल प्रशासन द्वारा प्रताड़ित किया जा रहा है, उनके साथ
गंभीर रूप से मारपीट की जाती है, उन्हें
पेट भर भोजन नहीं दिया जाता और नहाने-धोने व पीने के पर्याप्त पानी नहीं दी जाती
है. उन्हें एकांत परिधि (solitary confinement) में रखा जा रहा है और परिजनों को और उनसे ठीक से मिलने
नहीं दिया जा रहा है और उन्हें अपने धर्म के खिलाफ नारे लगाने को मजबूर किया जा रहा
है.
परिजनों के शिकायत के बाद इस मामले में संज्ञान
लेते हुए राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग द्वारा टीम भेजकर इन आरोपों की जांच कराई गयी,
इस सम्बन्ध में आयोग की टीम ने दो बार जून और दिसंबर 2017 में भोपाल सेंट्रल जेल का दौरा करके विचाराधीन कैदियों के बयान दर्ज किया था
और कैदियों के परिजनों, उनके अधिवक्ताओं,
जेल के अधिकारियों और सामाजिक कार्यकर्ताओं से भी बातचीत की थी.
राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग ने अपनी जांच रिपोर्ट और अनुशंसाओं को मध्यप्रदेश
सरकार को पहले ही सौप दी थी और अब यह सावर्जनिक रूप से भी उपलब्ध है. जांच रिपोर्ट
में आयोग ने परिजनों ज्यादातर शिकायतों को सही पाया है और इसमें शामिल अधिकारीयों
के खिलाफ कानूनी कार्यवाही की शिफारिश की है .
रिपोर्ट के कुछ प्रमुख बिंदु इस प्रकार हैं .
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नियमों का उलंघन करते हुये कैदियों को 5’X8’ के सेल में
एकांत कारावास में रखा गया जहाँ पंखे नहीं है और वहां गर्मी और उमस है. कैदियों को दिन में कुछ मिनटों के लिये ही सेल से बाहर निकाला जाता है इसकी
वजह से ये कैदी कई तरह के मानसिक विकारों के शिकार हो चुके है. जबकि इसको लेकर
सुप्रीम कोर्ट के स्पष्ट आदेश है कि विचाराधीन कैदियों को किसी भी परिस्थिति में
भी एकांत कारावास में नहीं रखा जा सकता है.
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कैदियों को जेल के स्टाफ
द्वारा बुरी तरह पीटा जाता है. कैदियों ने आयोग के जांच दल को बताया कि उन्हें रबर
की पट्टियों, आटा चक्की के बेल्ट और लाठियों से मारा जाता है. कई कैदियों के शरीर
पर चोट के निशान पाये गये हैं. इस संबंध में जेल स्टाफ जांच दल को कोई स्पष्टीकरण नहीं दे पाया.
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जेल स्टाफ कैदियों के प्रति धार्मिक द्वेष की मानसिकता रखते
हैं, कैदियों को अपने धर्म के खिलाफ नारे लगाने को मजबूर किया जाता है और इनकार
करने पर पिटाई की जाती है.
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नियमों के अनुसार विचाराधीन कैदियों को हफ्ते में दो बार 20
मिनट के मुलाकात की इजाजत है लेकिन यहाँ यह पाया गया कि कैदियों के परिवारजनों को
15 दिनों में सिर्फ एक बार पांच मिनट के लिये मिलने दिया जा रहा है और इसमें भी
खुलकर बात नहीं करने दी जाती है.
आयोग ने अपने जांच रिपोर्ट में कैदियों के उत्पीड़न में प्रत्यक्ष
या अप्रत्यक्ष रूप से शामिल जेल कर्मचारियों, अधिकारियों के खिलाफ कानूनी कार्यवाही की अनुशंसा भी की है
साथ ही रिपोर्ट में कैदियों
द्वारा लगाए आरोपों
की जांच उच्च
स्तर पर कराने
की सिफारिश भी की
गई है।
हालांकि भोपाल जेल महानिदेशक संजय चौधरी ने आयोग के रिपोर्ट को
नकारते हुये इसे एकतरफा रिपोर्ट बताया है. उन्होंने कहा कि आयोग की रिपोर्ट अंतिम
नहीं है और इसका बिन्दुवार जवाब जनवरी में ही आयोग को भेज दिया गया है.
पुराना है सिमी का
भूत
1977 में गठित 'स्टूडेंट्स इस्लामिक मूवमेंट आफ इंडिया' (सिमी) पर वर्ष 2001 में प्रतिबंध लगा
दिया गया था जिसके बाद से मध्यप्रदेश में बड़ी संख्या में मुस्लिम नौजवानों को सिमी
से जुड़े होने के आरोप में गिरफ्तार किया जा चूका है. जामिया
टीचर्स सॉलिडेरिटी एसोसिएशन द्वारा 2013 में “गिल्ट बाय
एसोसिएशन” नाम से एक रिपोर्ट जारी की गयी थी जिसमें बताया गया था कि मध्यप्रदेश में साल 2001 और 2012 के बीच “अनधिकृत गतिविधि अधिनियम” (UAPA) के तहत कायम
किये गए करीब 75 मुक़दमों की पड़ताल की गयी है जिसके तहत 200 से ज्यादा मुस्लिम नौजवान
आतंकवाद के इल्जाम में मध्यप्रदेश के विभिन्न जेलों में बंद हैं. इनमें से 85 के
खिलाफ “अनधिकृत गतिविधि अधिनियम”
(UAPA) के तहत मामले दर्ज किये गये
हैं. इन पर आरोप है कि ये सिमी के कार्यकता हैं. रिपोर्ट के अनुसार इन आरोपियों पर
किसी भी तरह के आतंकवादी हमले का इल्जाम नहीं है और ज्यादातर एफ.आई.आर. में जो आरोप लगाये गये हैं उसमें काफी समानता है जैसे पुलिस की
छापे मारी के दौरान आरोपियों के पास से सिमी का साहित्य,
पोस्टर, पम्पलेट बरामद हुए हैं (लेकिन जिस लिटरेचर की बात की
गयी है वो सिमी के पाबन्दी से पहले की है) या मुल्ज़िम
चौक-चौराहे और दूसरे सार्वजनिक स्थानों पर खड़े होकर प्रतिबंधित संगठन सिमी के पक्ष
में नारे लगा रहे थे और बयानबाज़ी करते हुए यह प्रण ले रहे थे कि वो संगठन के
उद्देश्य को आगे बढ़ायेंगे. यहाँ तक कि कई मामलों में तो अखबारों में प्रकाशित सिमी
से जुड़ी ख़बरों को भी आधार बनाया गया है जैसे अगर सिमी
से सम्बंधित अखबारों में प्रकाशित खबरें किसी आरोपी के यहाँ मिली है तो उसे भी
सबूत के तौर पर रखा गया है. जाहिर हैं रिपोर्ट तथ्यों
के साथ बताती है कि कैसे इन मामलों में हल्के सबूतों और कानूनी प्रक्रियाओं के घोर
उलंघन किया गया है.
सुप्रीम कोर्ट ने 3 फरवरी 2011 को दिए गए अपने लैंडमार्क आदेश
में कहा था कि “केवल प्रतिबंधित संगठन की सदस्यता किसी व्यक्ति को अपराधी नहीं साबित
करती.” मध्यप्रदेश में सिमी से जुड़े होने के करीब दो दर्जन
आरोपी इसी आधार पर बरी किये जा चुके हैं. भोपाल मुठभेड़
में मारे गए आरोपियों में से कई के मामलों में भी अदालत ने सबूतों को अविश्वसनीय बताया था और इनके
जल्द ही बरी होने की सम्भावना थी.
फैसला सुनाने की
जल्दी
हमारे देश में किसी अंडरट्रायल कैदी को आतंकवादी
बता देना बहुत आम है अगर मामला अल्पसंख्यक समुदाय के लोगों से जुड़ा हो तो आरोपों के सिद्ध होने का इंतजार
भी बिलकुल नहीं किया जाता और हर कोई जज बन कर फैसला सुनाने
लगता है. इस मामले में मीडिया सबसे आगे हैं. ऐसे कई
मामले सामने आये हैं जहाँ मुस्लिम नौजवान कई सालों तक जेल की “सजा” काटने के बाद निर्दोष साबित हुए है लेकिन इस
दौरान उन्हें आतंकी ही बताया जाता रहा. मारे गये आठ और भोपाल जेल में कैद 21 लोगों
पर भी सिमी से जुड़े होने का आरोप था जिसे साबित किया
जाना बाकी है लेकिन हमारा मीडिया इन्हें आतंकवादी लिखता और दिखाता है. भोपाल लाल परेड ग्राउंड पर मुख्यमंत्री ने भी इन्हें आतंकवादी बताया था. जाहिर है भला जेल प्रशासन
कैसे इस मानसिकता से बचा रह सकता है ?
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