मध्यप्रदेश चुनाव - किसकी बाजी किसके सर


जावेद अनीस


Chauthi Duniya ( 26 November to 2 December 2018 )

अपने अंतिम चरण में पहुँच चुके मध्यप्रदेश की चुनावी तस्वीर साफ नहीं है, इस बार यहां का चुनावी माहौल काफी जटिल और उलझा हुआ दिखाई पड़ता है. हालाँकि हमेशा की तरह इस बार भी कांग्रेस और भाजपा के बीच ही सीधी लड़ाई है. लेकिन पिछले तीन चुनावों की तरह इस बार की तस्वीर बिलकुल ही  अलग नजर आ रही है. भाजपा के लिये चौथी बार वापसी मुश्किल है तो कांग्रेस के लिए भी राह आसान नहीं है, जहां एक तरफ भाजपा एंटी-इनकम्बेंसी से जूझ रही है तो वहीँ कांग्रेस को आपसी खींचतान का सामना करना पड़ रहा है. सियासत में किसी भी सरकार के खिलाफ नाराजगी ही काफी नहीं है बल्कि  इसके बरक्स जनता के सामने ठोस विकल्प प्रस्तुत करने की भी जरूरत पड़ती है. मप्र में जनता के बीच बदलाव के मूड साफतौर पर नजर आ रहा है लेकिन कांग्रेस इसे ठीक से भुना नहीं पा रही है.

सबसे ज्यादा हलचल आदिवासी और सवर्ण वोटरों के बीच है. भाजपा के परम्परागत वोट रहे सवर्ण नाराज नजर आ रहे हैं. स्वर्ण आन्दोलन से उभरा संगठन सपाक्स चुनावी मैदान में उतर चूका है. इधर तेजी से उभरे आदिवासी संगठन जयस के नेता हीरालाल अलावा को अपने पाले में शामिल करके कांग्रेस ने बढ़त हासिल कर ली है. चंद दिनों पहले तक “अबकी बार आदिवासी सरकार” का नारा बुलंद करने वाले हीरालाल अलावा अब कांग्रेस के उम्मीदवार के तौर पर “अबकी बार कांग्रेस सरकार” का नारा लगा रहे हैं. मध्यप्रदेश का यह चुनाव सिर्फ पार्टियों ही नहीं दो नेताओं के लिये भी बहुत अहम साबित होने वाला है. एक तरफ यह शिवराजसिंह चौहान के राजनीतिक जीवन की दिशा तय करने वाला चुनाव है तो वहीं ये राहुल गांधी के राजनीतिक कैरियर को नया पंख दे सकता है

कांग्रेस को वनवास खत्म होने का इंतजार
मध्यप्रदेश में इस बार कांग्रेस पन्द्रह सालों बाद पहली बार सत्ता में वापसी के जतन करते हुये दिखायी पड़ रही है. कमलनाथ की अगुवाई में मध्यप्रदेश कांग्रेस में कसावट देखने को मिल रही है और प्रदेश अध्यक्ष के तौर पर उनकी नियुक्ति कांग्रेस के लिये सुविधाजनक चुनाव था. अगर खुद शिवराज को भी कांग्रेस क्षत्रपों में से किसी एक को अपने मुख्य प्रतिद्वंद्वी के तौर पर चुनने का विकल्प मिलता तो शायद वे भी कमलनाथ को ही चुनते. तीन बार से लगातार मुख्यमंत्री रहने और भ्रष्टाचार के तमाम आरोपों के बावजूद प्रदेश की जनता में शिवराज को लेकर अपील कम जरूर हुई है लेकिन वे अभी भी प्रदेश के सबसे लोकप्रिय नेता बने हुये हैं. जनता के बीच ज्यादा गुस्सा उनके विधायकों, मंत्रियो और नौकरशाही को लेकर है, ऐसे में उन्हें चौथी बार सत्ता में वापस आने से रोकने के लिये एक ऐसे चेहरे कि जरूरत थी जो लोकप्रियता में उन्हें टक्कर दे सके. तमाम खूबियों के बावजूद कमलनाथ इस कसौटी पर खरे नहीं उतरते हैं. लोकप्रियता के पैमाने पर सिंधिया शिवराज को ज्यादा बेहतर तरीके से टक्कर दे सकते थे. लेकिन शायद कांग्रेस के लिये आर्थिक तंगी दूर करने और आपसी सिर-फुटव्वल से बचने के लिहाज से कमलनाथ पर दावं लगाना ज्यादा मुनासिब समझा गया. कमलनाथ अपनी वरिष्ठता, सांगठनिक क्षमता और सभी गुटों से तालमेल की वजह से कांग्रेस को पटरी पर जरूर ला सकते हैं लेकिन शिवराज जैसे जमीन से जुड़े सहज व लोकप्रिय चेहरे को मुकाबला देने के लिये वे नाकाफी हैं. इधर ज्यादातर ओपिनियन पोल्स के संकेत कांग्रेस के पक्ष में हैं लेकिन अपने दो सबसे लोकप्रिय नेताओं ज्योतिरादित्य सिंधिया और दिग्विजय सिंह के बीच का टकराव उसके लिये परेशानी का सबब बना हुआ है.

सरकार-विरोधी भावना होने के बावजूद कांग्रेस जनता के बीच ऐसा कोई मुद्दा नहीं पेश कर पायी है जो उसके पक्ष में माहौल बनाए और लहर पैदा कर सके. मुद्दे के तौर पर कांग्रेस की तरफ से कुछ नया है तो बस यही कि इस बार वो नरम हिन्दुतत्व का कार्ड खेल रही है. अपने चुनाव प्रचार के दौरान कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी जरूर कुछ हद तक माहौल बनाने में कामयाब हुये हैं लेकिन उनके निशाने पर मुख्य रूप से मोदी रहे हैं जबकि यहां मुद्दा मोदी नहीं शिवराज हैं.
संगठन, विशाल कार्यकर्ता नेटवर्क और मुख्यमंत्री के तौर पर किसी एक चेहरे के अभाव में कांग्रेस का सबसे बड़ा सहारा सरकार के खिलाफ असंतोष है. अगर इस बार कांग्रेस इस असंतोष को भुनाने में नाकाम साबित हुई तो मध्यप्रदेश में उसके अस्तित्व पर भी सवाल खड़ा हो जायेगा.

ताज मिला तो सिर किसका होगा
मुख्य रूप से कांग्रेस की तरफ से मुख्यमंत्री पद के दो दावेदार हैं पहले दावेदार प्रदेश अध्यक्ष कमलनाथ और दूसरे दावेदार प्रचार अभियान समिति के अध्यक्ष ज्योतिरादित्य सिंधिया. लेकिन अजय सिंह और अरुण यादव जैसे नेता भी उम्मीद लगाये बैठे हैं. इन सबके बीच समन्वय समिति के प्रमुख दिग्विजय सिंह भले ही खुद को मुख्यमंत्री के रेस से बाहर बता रहे हों लेकिन दावेदारों के पक्ष में उनके वीटो पावर से इनकार नहीं किया जा सकता है. लेकिन अपने सामंती खोल से बाहर न आ पाने के अलावा  सिंधिया की सबसे बड़ी समस्या दिग्विजय सिंह के साथ उनकी पुरानी अदावत है. दिग्विजय सिंह किसी भी कीमत पर नहीं चाहेंगें कि ज्योतिरादित्य सिंधिया मुख्यमंत्री बनें.
दूसरी तरफ मुख्यमंत्री के दावेदार के तौर पर कमलनाथ के लिये यह पहला और आखिरी मौका है. लेकिन उनके लिये मध्यप्रदेश का यह चुनाव बस इतना भर नहीं है अगर वे मध्यप्रदेश में कांग्रेस को सत्ता में वापस लाने में कामयाब हुये तो वे पार्टी में राहुल गाँधी के सबसे बड़े संकट मोचक के तौर पर उभर कर सामने आयेंगें और पार्टी में उनका कद और बड़ा हो जायेगा.
अजय सिंह को अपने भाग्य और दिग्विजय सिंह का सहारा है जबकि अरुण यादव इतिहास दोहराये जाने का इंतजार कर रहे होंगें. दरअसल कांग्रेस ने इस बार अरुण यादव को शिवराज के खिलाफ बुधनी विधानसभा क्षेत्र से मुकाबले में उतारा है. मुख्यमंत्री बनने से पहले कभी भाजपा ने शिवराज को भी तत्कालीन मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह के मुकाबले मैदान में उतारा था. हालाकिं इस मुकाबले में शिवराज हार गये थे लेकिन इसके चंद सालों बाद ही ऐसी परिस्थितयां बनीं कि शिवराज मुख्यमंत्री बना दिये गये. अरुण यादव के समर्थक भी कुछ ऐसी ही उम्मीद पाले हुये हैं.
भाजपा के लिये शिवराज ही मुद्दा हैं

2003 से सत्ता पर काबिज भाजपा के लिए लगातार चौथी बार सरकार बनाना आसान नहीं है. कांग्रेस की तरफ से इस बार उसे कड़ी चुनौती का सामना करना पड़ रहा है. एक तरफ जहां मंत्रियों और विधायकों के खिलाफ लोगों में गुस्सा देखने को मिल रहा है वहीँ किसानों और सवर्णों की सरकार के प्रति नाराजगी भी उसे परेशान किये हुये है. सवर्णों का गुस्सा तो “सपाक्स” के रूप में चुनावी मैदान में है लेकिन अंतिम समय तक किसानों ने अपने पत्ते नहीं खोले हैं, उनकी यह ख़ामोशी भाजपा के लिये डराने वाली है.

लगातार आ रहे सर्वे और ओपिनियन पोल भी भाजपा के खिलाफ जा रहे हैं यहां तक कि प्रदेश की स्टेट इंटेलिजेंस डिपार्टमेंट की रिपोर्ट में भी भाजपा के हार की संभावना जतायी गयी है. इस रिपोर्ट के अनुसार  कांग्रेस 128 सीटों पर जीत सकती है जबकि भाजपा को केवल 92 सीटें मिलने का अनुमान जताया गया है. इससे पहले संघ द्वारा कराए गये अंदरूनी सर्वे में भी भाजपा के लिये खराब रिपोर्ट आयी थी जिसके बाद संघ द्वारा भाजपा को सुझाव दिया गया गया था कि उसे बड़े पैमाने पर नए चेहरों को मैदान में उतारने की जरूरत है.

ऐसे में भाजपा की सारी उम्मीदें मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान पर ही टिकी हुई हैं इसमें उसे जमीनी स्तर पर संघ से भी मदद की उम्मीद है. भाजपा की तरफ से शिवराज अकेले ही पूरे प्रदेश में चुनावी कमान संभाले हुये हैं, पहले अपने जन आशीर्वाद यात्रा के माध्यम से उन्होंने लगभग पूरे प्रदेश को नाप दिया था फिर उसके बाद वे जिलों में पहुँच कर सभायें करते हुये नजर आये. वे पिछले 13 सालों से मुख्यमंत्री है और इस दौरान लोगों के बीच निरंतर पहुँच कर प्रदेश की जनता से मजबूत रिश्ता बनाने में कामयाब हुये हैं. आज प्रदेश की राजनीति में वही सबसे ज्यादा जाना-पहचाना चेहरे हैं, उनकी सहज और सरल छवि ही उनकी सबसे बड़ी पूंजी और ताकत है.

शायद इसी वजह से इस बार भी भाजपा ने शिवराज चौहान के सहारे ही चुनावी मैदान में उतरने का फैसला किया है, उन्हीं के नाम पर प्रमुखता से वोट मांगे जा रहे हैं. मध्यप्रदेश के चुनाव में भाजपा की तरफ से इस बार शिवराज सिंह चौहान ही सबसे बड़े मुद्दे हैं. ऐसे में वे अगर भाजपा को चौथी बार  चुनाव जिताने में कामयाब हो जाते हैं तो इसका श्रेय भी सिर्फ उन्हीं के खाते में दर्ज होगा और इसके साथ ही भाजपा में उनका कद भी बढ़ जाएगा और वे नरेंद्र मोदी के बाद भाजपा की तरफ से प्रधानमंत्री पद के दूसरे सबसे बड़े दावेदार बन जायेंगें और यहीं से उनकी मुश्किल शुरू हो जाती है.

शिवराज की सबसे मुश्किल लड़ाई
यह चुनाव शिवराज सिंह चौहान के राजनीतिक जीवन का सबसे मुश्किल चुनाव साबित होने जा रहा है. इसमें चाहे उनकी हार हो या जीत चुनाव के नतीजे उनके सियासी कैरियर के सबसे बड़े टर्निंग पॉइंट साबित होने वाले हैं. यह बात पक्के तौर पर नहीं कहा जा सकता है कि अगर शिवराज भाजपा को यह चुनाव जिताने में कामयाब हो गये तो ही मुख्यमंत्री बनेंगे और अगर मुख्यमंत्री बन भी गयी तो 2019 में होने लोकसभा चुनाव के बाद वे इस पद पर बने रहेंगें, इसको लेकर भी संदेह किया जा सकता है.

दरअसल मध्यप्रदेश का यह चुनाव भाजपा के अंदरूनी राजनीति को भी प्रभावित करने वाली है. अगर शिवराज अपने दम पर इस चुनाव को जीतने में कामयाब होते हैं तो पार्टी में उनका कद बढ़ जायेगा. ऐसे में पहले से ही शिवराज को लेकर असहज दिखाई पड़ रहे भाजपा के मौजूदा आलाकमान की असहजता शिवराज के इस बढ़े कद से और बढ़ सकती है. भाजपा की ताकतवर जोड़ी को मजबूत क्षत्रप पसंद नहीं है और वे किसी भी उस संभावना को एक हद से आगे बढ़ने नहीं देंगें जो आगे चलकर उनके लिये चुनौती पेश कर सकें. अगर लोकसभा चुनाव के बाद भाजपा को पूर्ण बहुमत नहीं मिलता है तो गठबंधन की स्थिति में शिवराज, नितिन गडकरी के साथ उन चुनिन्दा नेताओं में से होंगें जिनके नाम पर प्रधानमंत्री पद के लिये सहमती बन सकती है. वर्तमान में शिवराजसिंह चौहान भाजपा आलाकमान के लिये मजबूरी है क्योंकी यहां शिवराज ने अपने अलावा किसी और नेता को पनपने नहीं दिया है इसलिये फिलहाल पार्टी के पास मध्यप्रदेश में शिवराज के अलावा कोई दूसरा विकल्प नहीं है. 2019 के लोकसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी और अमित शाह को मध्यप्रदेश में शिवराज की जरूरत पड़ेगी लेकिन इसके बाद मध्यप्रदेश में भाजपा की तरफ से शिवराज का विकल्प पेश किया जा सकता है जिससे भाजपा के इस गढ़ पर मोदी-शाह का पूरा नियंत्रण स्थापित किया जा सके और अगर शिवराज यह चुनाव हारते हैं तो उन्हें हाशिये पर धकलने की पूरी कोशिश की जायेगी.  


मध्यप्रदेश के नतीजे का असर राष्ट्रीय राजनीति पर भी
शिवराज की तरह यह चुनाव कांग्रेस पार्टी और राहुल गांधी के लिये भी टर्निंग पॉइंट साबित हो सकता है. राहुल गाँधी की पूरी कोशिश खुद को पूरे विपक्ष की तरफ से नरेंद्र मोदी के विकल्प के तौर पर पेश करने की है. विपक्ष के दूसरे नेताओं के मुकाबले वे नरेंद्र मोदी के खिलाफ ज्यादा मुखर और आक्रामक राजनीति कर रहे है, राफेल को मुद्दा बनाकर वे इस दिशा में काफी आगे बढ़ चुके हैं. अगर मध्यप्रदेश में कांग्रेस चुनाव हारती है तो उनकी इस कोशिश को बड़ा झटका लग सकता है, लेकिन अगर राहुल राजस्थान और मध्यप्रदेश जैसे दो राज्यों में कांग्रेस की सत्ता में वापसी में कामयाब हो जाते हैं तो यह ना केवल उनकी पार्टी के लिये संजीवीनी साबित होगा बल्कि इससे राहुल गाँधी नरेंद्र मोदी के खिलाफ विपक्ष के स्वाभाविक विकल्प के रूप में भी उभर कर सामने आ सकते हैं, इससे जनता व विपक्ष के बीच उनको लेकर विश्वास बढ़ेगा और उनके नेतृत्व पर मोहर लगेगी. ऐसा करने के लिये शायद राहुल के पास यह आखिरी मौका है इसलिये मध्यप्रदेश के चुनावी परिणाम विपक्ष, कांग्रेस और राहुल गांधी की दिशा व स्थान तय कर सकते हैं.

कुल मिलकर मध्यप्रदेश में चुनावी परिदृश्य इतना उलझा और बिखरा हुआ नजर आ रहा है कि इसको लेकर कोई पेशगोई करना आसान नहीं है, सबको लग रहा है कि इस बार टक्कर कांटे का है लेकिन कोई भी विश्लेषक पूरे यकीन के साथ कह पाने की स्थिति में नहीं है कि इस बार बाजी कौन मारेगा. मामला  दोनों पार्टियों को सत्ता हासिल करने के लिये 116 सीटों पर जीत की जरूरत है और इस मामले में दोनों का चांस फिफ्टी-फिफ्टी का है.

गंभीर समाचार - अंक 01 से 15 दिसंबर 2018

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