मणिपुर में महिलाओं के निर्वस्त्र प्रदर्षन पर कवि अंशु मालवीय की कविता
देखो हमें
हम माँस के थरथराते झंडे हैं
देखो बीच चौराहे बरहना हैं हमारी वही छातियाँ
जिनके बीच
तिरंगा गाड़ देना चाहते थे तुम
देखो सरे राह उघड़ी हुई
ये वही जाँघें हैं
जिन पर संगीनों से
अपनी मर्दानगी का राष्ट्रगीत
लिखते आये हो तुम
हम निकल आये हैं
यूं ही सड़क पर
जैसे बूटों से कुचली हुई
मणिपुर की क्षुब्ध तलझती धरती
अपने राष्ट्र से कहो घूरे हमें
अपनी राजनीति से कहो हमारा बलात्कार करे
अपनी सभ्यता से कहो
हमारा सिर कुचलकर जंगल में फेंक दे हमें
अपनी फौज से कहो
हमारी छोटी उंगलियाँ काटकर
स्टार की जगह टाँक ले वर्दी पर
हम नंगे निकल आये हैं सड़क पर
अपने सवालों की तरह नंगे
हम नंगे निकल आये हैं सड़क पर
जैसे कड़कती है बिजली आसमान में
बिलकुल नंगी......
हम माँस के थरथराते झंडे हैं।
माँस के झण्डे
Reviewed by
Yuva Samvad
on
November 01, 2010
Rating:
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