मर्यादाओं की जकड़न

कौन हूँ   मैं ?


मुझसे पुछा किसी ने
कौन हूँ   मैं ?
चहक कर कहा कि,
मैं, फलॉं की बेटी, उनका ख्वाब, घर की लक्ष्मी हूँ ।
मैं बढ़ती रही 
और एक दिन मैं बड़ी हो गई।
बिना कुछ पुछे मैने,
अपनी पहली पहचान बदली
फिर किसी ने वही सवाल पूछा
घमंड से कहा मैने
उसके घर की इज्ज़त, उसके वंश  को बढ़ाने वाली बेल हूँ  मैं।
फिर चुपचाप मैं बढ़ती गई।।
किसी ने फिर से पूछा कि  कौन हूँ मैं ?
मैने इतराकर कहा - इन पंछियों की मॉं।।
मैं बढ़ती गई हमेशा की तरह 
आज फिर किसी ने  एक बार और पूछा
कौन हूँ  मैं ?
खामोश हूं और निरूत्तर हूँ 
आज भी प्रश्नचिन्ह है, पहचान पर मेरी !
ख्वाब कब किसी की इज्जत बनी, इज्ज़त इतराने लगी,
इतराते हुए कब घोंसला खाली हुआ
और आज फिर मैं अपनी पहचान ढूंढने चली ...............



सैयद शबनम, देवास




 मर्यादाओं की जकड़न 

ल अपने साथियों के साथ भोपाल के श्याम नगर की बस्ती में पुस्तकालय कार्यक्रम के लिए जाना हुआ। इस पुस्तकालय में कई दिनों के बाद गई। बच्चों और युवाओं के लिए संचालित पुस्तकालय में दीपिका भी आई। दीपिका 16-17 साल की 3री पास लड़की है। दीपिका से मैं पहली बार मिली थी और उससे कहानी की किताबों पर बातें कर रही थीं, कि अचानक उसके हाथ पर ब्लेड से कटने के निशान दिखे। मैंने जब पूछा कि ये क्या हुआ ? उसने बताया कि ‘‘मम्मी सहेलियों के पास बैठने को  मना करती है, तो गुस्से में आकर मैंने ब्लेड से अपने हाथ पर काट लिया। उसके हाथ पर करीब 10-12 कटने के हल्के निशान हैं। फिर मैंने उससे पूछा कि दर्द भी हुआ होगा ? दीपिका ने कहा कि ‘‘ दर्द तो हुआ, लेकिन दीदी,  गुस्सा जब आता है तो दर्द का पता नहीं चलता ’’। मम्मी को बुरा लगता होगा न, इस तरह तुम्हें तकलीफ में देखकर ? मैंने पूछा । इस सवाल पर दीपिका सोच में पड़ गई। फिर बोली ‘‘ होती होगी, पर जब गुस्सा आता है, तो ध्यान नहीं रहता।’’ 

इस संवाद के बाद मैंने दीपिका से कहा कि चलो तुम्हारी मम्मी से बात करते हैं, वो क्या कहती हैं इस बारे में ! दीपिका मुझे उसकी मम्मी से मिलाने के लिए राजी हो गई और हम दोनों उसके घर गए। मम्मी से बात करने के बाद समझ आया कि मोहल्ले के लड़के शराब पीकर लड़कियों को छेड़ते हैं और जाति-बिरादरी और समाज के लोग लड़की के हाथ से निकलने की बात का ताना मारते हैं। इन्हीं बातों से परेशान होने से वो दीपिका को ज्यादा देर तक सहेलियों से बात नहीं करने देतीं। मैंने बातों ही बातों में उनसे पूछा कि क्या वो स्वयं दीपिका से ज्यादा बातचीत करती हैं या फिर अधिकतर समय उसकी निगरानी में निकाल देती हैं ? इस बात का जबाव उनके पास नहीं था। मैंने फिर से संवाद शुरू किया कि क्या उन्होंने कभी अपनी बेटी की सहेली बनने की कोशिश की है ? कभी सोचा है कि आपके टोकने से उसका स्वभाव दिनोंदिन विद्रोही हो रहा है ? वह धीरे धीरे आपके खिलाफ जा रही है? क्यों नहीं आप दोनों एक दूसरे के साथ अपने अनुभवों को बांटते ? यह बातें मानो बम फूटने जैसी थी। उन्हें कुछ समझ ही नहीं आया। यही हालत दीपिका की थी। मानो मैंने कोई अबूझ पहेली पूछ ली। यह स्थिति देखकर मैंने स्वयं बात छेड़ी कि एक मां या बेटी होने से पहले हम सब में एक बात कॉमन है कि हम लड़की या औरत हैं और आज जो स्थिति हमारी बच्चियां फेस कर रही हैं, उस स्टेज को हम सब भी पार करके यहां खड़े हुए हैं। 
उस समय के हमारे अनुभव यदि याद करें तो, मुझे ध्यान है कि जब भी मां मुझे टोकती थीं, बहुत गुस्सा आता था। हमेशा मां से लड़ती कि भैया को क्यों छूट दी है, मैं क्यों नहीं घूम सकती, हंस सकती ? मेरी हर चीज क्यों किसी दायरे से शुरू होती है और दायरे में ही खत्म होती है ?मां के साथ दोस्ताना रिश्ता कभी नहीं बन पाया। वो हर वक्त हमें संस्कारों, चाल-चलन और अच्छे बुरे के बारे में ही बताती रहती। इस जीवन में हम बेटी, बहन और मां बनकर कई कर्तव्यों का आंख मूंदकर पालन करते रहते हैं। हद तो ये है कि कभी भी अपने आप से नहीं पूछते कि ये हम क्यों कर रहे हैं ? क्या हमें अपने संस्कारों पर भरोसा नहीं है, जो हम जल्दी ही दूसरे के बहकावे और बातों पर विश्वास कर लेते हैं। बात वहीं घूमकर आ गई कि संस्कार भी मां ही दे, ये जिम्मेदारी तो पिता की भी है। लेकिन जब भी भूमिकाओं की बात आती है तब प्रतिबिंब केवल औरत का ही उभरता है। बच्चे अच्छे निकले जो पिता के और बिगड़ गए तो सारा ठीकरा मां के सिर पर फूटता है। आज जब मैं खुद बेटी की मां हूं,  अपनी मां की मनोस्थिति के बारे में सही नजरिये से सोच सकती हूं। अपनी बेटी के साथ समय बिताने पर समझ आता है कि जोर जबरजस्ती से नहीं बल्कि प्रेम और बच्चों को बराबरी का हक देने के बाद ही हम उनके साथ एक रिश्ता कायम कर सकते हैं। जो दूर तक मजबूती के साथ चलता है। नहीं तो हमारे पालकों के साथ जो एक दूरी बनी हुई थी, जिसे समाज अनुशासन और सम्मान कहता था, वही दूरी हमारे अहं से हम अपने बच्चों के साथ बना लेंगे। इन खिचाव के परिणाम क्या होंगे ? यह हम जानते हैं। 

उम्र के हर पड़ाव को पार करने के बाद समझ में आता है कि समाज ने लड़कियों के लिए कुछ सीमाऐं तय कर दी हैं और औरते  उनका अनुसरण कर रहीं हैं। इसके पीछे के कारणों पर मनन करें तो, साफ दिखता है कि पितृसत्ता ने औरत को ही औरत का दुश्मन बना दिया। मां, बेटी को इज्जत का पाठ पढ़ाती है, अगर बेटी न सुने तो मां हिंसक रूप धरने से पीछे नहीं हटती और सास, बहू की दुश्मन बन जाती है। वाह री पितृसत्ता ! 

 मर्यादा और इज्जत की बात करते ही महिला की छवि दिमाग में आती है। लेकिन क्यों ? हम ही इस प्रथा का बोझ क्यों ढोएं ? आखिर इंसान हम भी हैं। हमारी भी इच्छाऐं हैं, पर हमारे भी हैं, हमें भी उड़ने की आजादी चाहिए ! अगर आजादी न मिले तो उसे छीन लेना चाहिए ! हम खुद क्यों इन बंधनों को मान रहे हैं ? हंसकर महिमा मंडित बन रहे हैं और हमें एहसास नहीं कि लोग अपने आप को बचाने के लिए हमें पिंजरे में रख रहे हैं। सड़कों पर लड़कियों को अपनी जागीर समझने वाले ही अपने घर में बंदिशों की बेड़ियों में हमें बांधते  है। बांधना भी ऐसा है कि सांस भी उसकी मर्जी से लेनी होती है। उफ! कितने विचार, द्वंद ! अब लगता है कि सोचते सोचते दिमाग फट जायेगा। सिमोन कहती हैं कि स्त्री पैदा नहीं होती बल्कि बनाई जाती है ! 

राखी रघुवंशी
ईमेल - rakhi.raghuwanshi@rediffmail.com
[  लेखिका सामाजिक कार्यकर्त्ता हैं तथा भोपाल में रहती हैं ]

3 comments:

  1. Shabnam, bahut khubsuurat. shukriya.

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  2. Bahut hi sundar prastuti.... bahut achha laga blog par aakar.... bahut prenaprad rachna aur utna hi sundar, sughad aalekh....
    Haardik shubhkaamnayne....

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  3. बहुत ही मर्मस्पर्शी आलेख ..अफ़सोस होता है जब हम इस तरह माहौल में जीने को मजबूर होते है..देखते हैं...
    राखी जी आप भोपाल से हैं जानकार अति प्रसंन्नता हुई.. .. कभी मेरे ब्लॉग पर भी आएगा

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