धर्मनिरपेक्ष-प्रजातांत्रिक राजनीति और जमायत-ए-इस्लामी
"जमायत-ए-इस्लामी-ए-हिन्द के संस्थापक मौलाना मौदूदी, धर्मनिरपेक्ष-प्रजातांत्रिक राजनीति को दूर से ही सलाम करने में विश्वास रखते थे। वे उसे हराम मानते थे। भारत छोड़कर पाकिस्तान जाने से पहले उन्होंने अपने समर्थकों को पाबंद किया था कि वे भारत की (धर्मनिरपेक्ष-प्रजातांत्रिक) राजनीति में भाग न लें। पंरतु अपनी विचारधारा-चाहे वह धार्मिक हो या राजनैतिक-के अनुरूप आचरण करना किसी व्यक्ति के लिए हमेशा संभव नहीं होता क्योंकि ऐसा करने से उसके समक्ष कई समस्याएं खड़ी हो जाती हैं, जिनका हल उसे ढूंढे नहीं मिलता।
मौदूदी द्वारा प्रतिपादित जमायत-ए-इस्लामी की विचारधारा के अनुरूप आचरण में कौनसी व कैसी समस्याएं थीं इसका विस्तृत विवरण इरफान अहमद की हालिया प्रकाशित पुस्तक “इस्लामिज़्म एंड डेमोक्रेसी इन इंडिया“ (भारत में इस्लामियत व प्रजातंत्र) में है।"
यह पुस्तक, दरअसल, एक शोधपत्र है जो कि विभाजन के बाद के भारत में जमायत के मनववैज्ञानिक अध्ययन पर आधारित है। इसमें उन विचारधारात्मक व व्यावहारिक दिक्कतों व दुविधाओं का उत्कृष्ट विष्लेषण किया गया है, जिनका सामना जमायत और उसके पूर्व छात्र संगठन सिमी को करना पड़ा। सिमी अब जमायत से संबद्ध नहीं है और उसे कथित आतंकवादी संगठन होने के आरोप में प्रतिबंधित कर दिया गया है।
पुस्तक तीन खण्डों व सात अध्यायों में विभाजित है। पहले खण्ड में इरफान ने विषय की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि और उनके द्वारा किए गए शोधकार्य का वर्णन किया है। दूसरे खण्ड का शीर्षक है “जिगजेग्स टू अल्लाहज़ किंगडम“ (अल्लाह तक पहुंचने का टेढा-मेढा रास्ता) और तीसरे का अपोजीशन एण्ड निगोसिएशन“ (विरोध व वार्ता)।इस पुस्तक के लिए शोधकार्य मुख्यतः अलीगढ व आज़मगढ में किया गया और यह पुस्तक जमायत-ए-इस्लामी-ए-हिन्द की विचारधारा और कार्यशैली को समझने में खासी मददगार हो सकती है।
पुस्तक में जमायत की विचारधारा की अपेक्षाकृत कम और सिमी की सोच की अधिक चर्चा है। जमायत अपने विचारों पर उतनी दृढ़ नहीं रह सकी जितनी कि सिमी। ऐसा शायद इसलिए हुआ क्योंकि जमायत की तुलना में सिमी कहीं अधिक उग्र व अतिवादी थी। चूंकि सिमी केवल छात्रों का संगठन थी इसलिए व्यावहारिक समस्याओं का संतुलित व परिपक्व हल निकालने की जिम्मेदारी उसके कंधों पर नहीं थी। उसके लिए उग्रवाद व अतिवाद का रास्ता अपनाना आसान था।
धीरे-धीरे सिमी इतनी अतिवादी बन गई कि वह जमायत के लिए शर्मिन्दगी का सबब बनने लगी और अंततः जमायत को उससे अपने संबंध तोड़ने पड़े।
शुरूआती दौर में जमायत ने भी मौदूदी के बताए रास्ते पर चलने की कोशिश की परंतु जल्दी ही उसे यह एहसास हो गया कि यह रास्ता उसे कहीं नहीं ले जावेगा। ज्यादा से ज्यादा वह एक दूसरी सिमी बनकर रह जाएगी। परंतु जमायत के लिए भी अपनी नीतियों व कार्यक्रमों में तुरत-फुरत परिवर्तन करना आसान नहीं था और इसके लिए उसे एक लंबी व जटिल प्रक्रिया से गुजरना पड़ा।
हर मुसलमान बड़े गर्व के साथ कहता है कि इस्लाम की नजरों में सभी मुसलमान बराबर हैं। कुरान कहती है कि सभी मुसलमान आपस में भाई-भाई हैं। कुरान सभी मुसलमानों (बल्कि सभी मनुष्यों) की समानता पर जोर देती है। परंतु, जैसा कि इरफान लिखते हैं, जमीनी हकीकत इसके ठीक विपरीत है। सभी मुसलमानों को तो छोड़िए, अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के परिसर में रहने वाले जमायत के सदस्य, अपने ही संगठन के अलीगढ़ शहर में रहने वाले सदस्यों को अपने समकक्ष मानने के लिए तैयार नहीं हैं। वे कहते हैं कि चूंकि शहर में रहने वाले जमायत के सदस्य गरीब व अशिक्षित हैं अतः वे उनसे नीचे दर्जे के हैं। यह साफ है कि इस्लाम की शिक्षाओं को अपने रोजमर्रा के जीवन में उतारने की ईमानदार कोशिश बहुत कम मुसलमान करते हैं। किसी भी व्यक्ति की सामाजिक स्थिति व उसके कुल-खानदान को विचारधारा व धार्मिक शिक्षा की तुलना में कहीं अधिक महत्व दिया जाता है। अलीगढ़
शहर में रहने वाले मुसलमानों में साक्षरता का प्रतिशत मात्र 10 है और उनमें से 28 प्रतिशत गरीबी की रेखा से नीचे रहकर अपना जीवनयापन करते हैं। इसके विपरीत, अलीगढ़ विश्वविद्यालय परिसर में रहने वाले मुस्लिम, समृद्ध व उच्च शिक्षित हैं और अपने उन साथियों को नीची निगाह से देखते हैं जो
शहर के निवासी हैं।
जमायत को धर्मनिरपेक्षता से कितना परहेज़ था यह इरफान द्वारा वर्णित इकराम बेग नामक एक नवयुवक की आपबीती से स्पष्ट है। इकराम की शिक्षा एक धर्मनिरपेक्ष स्कूल में हुई थी। वह जमायत की अलीगढ़ शहर इकाई का अमीर बन गया था। उसके पिता वकालत करते थे। इकराम को जमायत का सदस्य बनाए रखने से इस आधार पर इंकार कर दिया गया कि उसके पिता धर्मनिरपेक्ष अदालतों में अपने मुवक्किलों की पैरवी करते हैं।
इकराम को अपने ही पिता से जेहाद करना पड़ा। इकराम का मानना था कि धर्मनिरपेक्ष अदालतों में वकालत कर उसके पिता गुनाह कर रहे हैं। वे अल्लाह के खिलाफ विद्रोह कर रहे हैं और बुतपरस्ती को मजबूती दे रहे हैं। इकराम का यह भी मानना था कि उसके पिता वकालत से जो पैसा कमा रहे हैं वह हराम है और उस पैसे से खरीदा गया खाना उसे नहीं खाना चाहिए। नतीजतन, इकराम ने इस्लाम की उसकी समझ की खातिर, अपने पूरे परिवार के खिलाफ विद्रोह कर दिया। इतनी संकीर्ण और कट्टर थी जमायत की विचारधारा।
जमायत को जल्दी ही यह समझ में आ गया कि इस विचारधारा के साथ उसके लिए एक ऐसे देश में अपना अस्तित्व बनाए रखना असंभव होगा जिस देश में न केवल बहुसंख्यक हिन्दुओं बल्कि बहुसंख्यक मुसलमानों ने भी संविधान, शासन व्यवस्था और नियम-कानूनों को स्वीकार कर लिया है।
मुसलमानों के एक दूसरे बड़े संगठन, जमायत-ए-उलेमा-ए-हिन्द ने बहुत पहले ही महात्मा गांधी के नेतृत्व में भारतीय राष्ट्रवाद को स्वीकार कर लिया था। जमायत-ए-उलेमा-ए-हिन्द ने देश के विभाजन का कड़ा विरोध किया था और वह चुनावों में भी हिस्सा लेती थी। अधिकांश मुसलमान, धर्मनिरपेक्ष प्रजातंत्र के पक्षधर थे और किसी न किसी राजनैतिक संगठन के जरिए राजनीति में हिस्सेदारी करना चाहते थे।
इस तरह, जमायत-ए-इस्लामी-ए-हिन्द शनैः-शनैः अकेली पड़ गई। सामाजिक व राजनैतिक-दोनों ही क्षेत्रों में उसका प्रभाव तेजी से घटने लगा। राजनीति की तरह, शुरू में जमायत ने आधुनिक धर्मनिरपेक्ष शिक्षा का भी बहिष्कार किया। परंतु जमायत को अपनी इस नीति पर पुनर्विचार करने पर मजबूर होना पड़ा क्योंकि उसके स्कूलों से निकले छात्र-छात्राओं को कहीं नौकरी नहीं मिलती थी। उसके स्कूलों के प्रमाणपत्रों की मान्यता ही नहीं थी और इन स्कूलों के छात्रों को एएमयू में भी प्रवेश नहीं मिलता था। अंततः मजबूर होकर जमायत ने अलीगढ़ शहर के अपने स्कूल को भी नियमित धर्मनिरपेक्ष स्कूल बना दिया।
जमायत के अंदर भी यह बहस शुरू हो गई कि उसे धर्मनिरपेक्ष प्रजातांत्रिक राजनीति को पूरी तरह खारिज करने की मौदूदी विचारधारा पर चलना चाहिए या राजनीति में हिस्सा लेना शुरू कर देना चाहिए। चूंकि जमायत, हुकूमत-ए-इलाही (इस्लामिक राज्य) की स्थापना की बात नहीं कह सकती थी इसलिए वह इकामात-ए-दीन (इस्लाम धर्म की स्थापना) का नारा देने लगी, जो कि भारतीय संविधान के खिलाफ नहीं था। उसके बाद सिमी ने जमायत के खिलाफ विद्रोह कर दिया। सिमी, जेहाद करने पर आमादा थी। जमायत ने सिमी से अपने संबंध तोड़ लिए और अपना एक नया छात्र संगठन बनाया जिसका नाम रखा गया “स्टूडेंटस इस्लामिक ऑर्गनाइजेशन“ (एसआईओ)। एसआईओ व सिमी की विचारधारा में जमीन-आसमान का अंतर था। जहां सिमी, जेहाद की बात करती थी वहीं एसआईओ का जोर शांति और सौहार्द पर था। एसआईओ आपसी संवाद और कानूनों का पालन करने में विश्वास रखती थी।
जमायत ने भी धीरे-धीरे मौदूदी के रास्ते को त्याग दिया। स्पष्ट शब्दों में कुछ कहे बगैर, जमायत ने मुख्यधारा की राजनीति में भाग लेना शुरू कर दिया। इस तरह, अंततः उसने धर्मनिरपेक्ष प्रजातांत्रिक राजनैतिक व्यवस्था को स्वीकार कर लिया और उसमें सक्रिय हिस्सेदारी करने लगी। यह निर्णय आसान नहीं था। इरफान अहमद लिखते हैं, “जमायत के सामने सबसे कठिन सवाल यह था कि वह भारतीय संविधान और राज्य में निहित धर्मनिरपेक्षता और प्रजातंत्र के मूल्यों को कैसे स्वीकार करे क्योंकि ये दोनों मूल्य, जमायत की विचारधारा व लक्ष्य, अर्थात इस्लामिक राज्य की स्थापना के विरूद्ध थे..........मौदूदी ने जमायत के सदस्यों पर धर्मनिरपेक्ष प्रजातांत्रिक चुनावों में वोट डालने तक पर प्रतिबंध लगाया था क्योंकि वे इसे हराम मानते थे। मौदूदी के अनुसार, धर्मनिरपेक्षता और प्रजातंत्र बुतपरस्त व्यवस्था के प्रतीक थे।“
इस सबके बावजूद, जमायत ने राजनीति में भाग लेना शुरू कर दिया है और मैं इसे एक अच्छा चिन्ह मानता हूं। विचारधारात्मक कट्टरता कभी अच्छी नहीं होती और बदलते समय के साथ विचारधारा में परिवर्तन वांछनीय और आवश्यक है। चूंकि बहुत कम मुसलमान जमायत के धर्मनिरपेक्ष प्रजातांत्रिक व्यवस्था को खारिज करने के आव्हान से सहमत थे इसलिए वह पूरी तरह अकेली पड़ गई थी। इसके विपरीत, जैसा कि पहले कहा जा चुका है, जमायत-ए-उलेमा-ए-हिन्द ने राष्ट्रीयता और धर्मनिरपेक्ष प्रजातंत्र को अंगीकार किया और अपने इस निर्णय का औचित्य उसी कुरान और उन्हीं हदीस का हवाला देकर सिद्ध किया, जिनके हवाले से मौदूदी धर्मनिरपेक्ष प्रजातंत्र को खारिज करते थे और उसे बुतपरस्त व्यवस्था बताते थे।
इससे यह भी पता चलता है कि किस तरह कुरान और हदीस जैसे मूल स्त्रोतों से भी परस्पर विरोधी निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं। जमायत-ए-उलेमा के मौलाना हुसैन अहमद मदनी ने एक पुस्तक लिखी थी जिसका शीर्षक था “मुत्ताहिदा कौमियत और इस्लाम“ (सांझी राष्ट्रीयता और इस्लाम) जिसमें उन्होंने कुरान और हदीस के अनेक उद्धरणों के आधार पर सांझा राष्ट्रीयता को औचित्यपूर्ण सिद्ध किया और द्विराष्ट्र सिंद्धात को खारिज किया था।
इरफान अहमद की पुस्तक भारत में इस्लामियत के अध्ययन में महत्वपूर्ण योगदान देगी। पुस्तक के प्रारंभ में इरफान अहमद ने मौदूदी की विचारधारा के विकास के विभिन्न चरणों की विस्तार से चर्चा की है। मौदूदी पहले भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के समर्थक थे और बाद में मुस्लिम लीग के। अंततः उन्होंने दोनों पार्टियों को खारिज कर अपनी अलग पार्टी, जमायत-ए-इस्लामी का गठन किया। उन्होंने विभाजन का विरोध किया परंतु पाकिस्तान बनने के बाद वे वहां बस गए। जमायत भारत में कभी कोई चुनाव नहीं जीत सकी। अपनी उग्र नीतियों के कारण वह हाशिये पर ही बनी रही। आमजनों को धार्मिक मसलों से कम ही लेना-देना होता है। उनकी रूचि अपनी रोजमर्रा की समस्याओं के हल में होती है।
जमायत ने अपने स्वरूप को परिवर्तित कर बुद्धिमत्तापूर्ण कदम उठाया है। अब वह मानवाधिकार, साम्प्रदायिक सदभावना व शांति सहित कई मोर्चों पर सक्रिय है। यही इस्लाम की असली आत्मा है। धार्मिक मुद्दों पर बाल की खाल निकालने से किसी को कोई लाभ नहीं होगा। कुरान धार्मिक बहुवाद, सहिष्णुता व दूसरों के लिए सम्मान में विश्वास करती है। कुरान, इस्लाम के पुरोहित वर्ग से कहीं ज्यादा उदार और सबको साथ लेकर चलने वाली है। मौदूदी की विचारधारा संकीर्ण और धार्मिक बहुवाद के खिलाफ थी। वे धर्म-आधारित राज्य में विश्वास रखते थे जिसमें गैर-मुसलमानों के लिए कोई जगह नहीं होती।
मैं इरफान अहमद को इस पुस्तक के लिए बधाई देता हूं। उनकी मेहनत और निष्पक्ष व वस्तुपरक विष्लेषण प्रशंसनीय हैं। किसी भी विद्वान से ऐसी ही अपेक्षा की जाती है।
- (लेखक मुंबई स्थित सेंटर फॉर स्टडी ऑफ सोसायटी एंड सेक्युलरिज्म के संयोजक हैं, जाने-माने इस्लामिक विद्वान हैं और कई दशकों से साम्प्रदायिकता व संकीर्णता के खिलाफ संघर्ष करते रहे हैं।)
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