रजनी कोठारी:- राजनीति के सिद्धांतकार
जावेद अनीस
“भारतीय समाज में जाति के विरोध की राजनीति तो हो सकती है, लेकिन जाति के बग़ैर नहीं। और राजनीति में जाति
के निशान इसलिए दिखाई नहीं देते हैं क्योंकि हमारे समाज में जाति का ठप्पा हर चीज़
पर है।” यह सब कुछ उन्होंने उस समय कहा था जब राजनीति
विज्ञान के विश्लेषणों में वर्ग की अवधारणा केंद्र में थी, बाद में उनकी यही
विश्लेषण पद्धति भारत में राजनीति के समझने/समझाने की सूत्र बनी और भारतीय राजनीति
के विश्लेषण में जाति केंद्र में आयी।
भारत में समाज विज्ञान को स्थापित करने वाले चंद प्रमुख उस्तादों में से एक रजनी कोठारी (1928-2015) का 84 साल की उम्र में निधन हो गया। वे पिछले कुछ सालों से लगातार बीमार चल रहे थे। उन्हें 20वीं सदी का एक प्रमुख राजनीतिक विचारक, शिक्षाविद लेखक और सिद्धांतकार माना जाता है। हालांकि उनका परिवार हीरों-जवाहरातों का व्यापार करता था लेकिन उन्होंने दूसरा रास्ता चुनते हुए पढ़ाई लंदन स्कूल ऑफ इकनॉमिक्स से पूरी की थी।
उन्होंने भारतीय राजनीति
के अध्ययन में पहले से स्थापित मानदंडों का खंडन किया और राजनीति पर मौलिक चिंतन करते हुए परंपरागत भारतीय समाज के
राजनीतिकरण के जरिए आधुनिकीकरण,‘कांग्रेस
प्रणाली’,‘जातियों का राजनीतिकरण’, ‘गैर-दलीय राजनीति’ जैसे सिद्धांतों को प्रस्तुत किया जिनके सहारे
हमारे लोकतंत्र के अनूठे चेहरे को परिभाषित किया जा सका।
‘जातियों का राजनीतिकरण’ और ‘भारत
की कांग्रेस प्रणाली’ जैसी रचनाओं को उनका विशेष योगदान माना
जाता है। इसके सूत्रीकरण दुनिया भर में
राजनीति के विद्यार्थियों के लिए एक जरूरी संदर्भ माने जाते हैं।
रजनी कोठारी ने कई किताबें लिखी, जिनमें पॉलिटिक्स इन इंडिया (1970), कास्ट इन इंडियन
पॉलिटिक्स (1973) और रीथिंकिंग डेमोक्रेसी (2005) मुख्य रूप से शामिल हैं, पर उन्हें उनकी महान रचना “पॉलिटिक्स इन इंडिया” के
लिए खास तौर से जाना जाता है। साठ के दशक में प्रकाशित
होने के बाद अभी तक इसके कई संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं और इसे अभी भी
राजनीतिशास्त्र के विद्यार्थियों के लिए अनिवार्य माना जाता है।
उनका आकादमिक योगदान जाति के सवाल तक ही सीमित
नहीं था, उन्होंने हिंदुत्व की राजनीति और सांप्रदायिकता का उभार, भूमंडलीकरण और
सामाजिक बदलाव जैसे विषयों पर भी अपना योगदान दिया है।
उन्होंने कई महत्वपूर्ण संस्थाओं
का भी निर्माण किया, जिनकी खासियत यह थी कि यह संस्थायें उनकी आदमकद शख्सियत की
छाया से बाहर निकल अपना वजूद कायम करने में पूरी तरह से कामयाब रहीं फिर चाहे बात “लोकायन”
की हो या “सीएसडीएस” । दिल्ली स्थित सीएसडीएस को हमारे समाज और राजनीति से जुड़े
तमाम मुद्दों पर अध्ययन और आकादमिक कार्यों के लिए बहुत ही प्रमाणिक संस्था माना
जाता, यह भारत में समाज विज्ञान की प्रमुख शोध संस्थान है। यही
नहीं सीएसडीएस देश के प्रमुख समाज वैज्ञानिकों को एक समूह के
रूप में जोड़ कर काम करने के मंच के तौर पर भी उभरा है।
भारत में चुनाव-अध्ययन और सर्वेक्षणों की शुरुआत का श्रेय भी
उन्हीं के खाते में आता है। वे पीपुल्स
यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज (पीयूसीएल) के राष्ट्रीय अध्यक्ष रहे और योजना आयोग के
सदस्य के रूप में भी अपनी सेवायें दी है। एक कार्यकर्ता
के तौर पर भी वे सरोकारों के साथ सक्रिय रहे और जब भी जरूरत पड़ी वे खुल कर
प्रगतिशील और लोकतान्त्रिक ताकतों के साथ खड़े हुए।
विचारों में वे कट्टर नहीं थे और ना ही उन्होंने अपने आप को
किसी बंधे-बंधाएं सांचे में सीमित किया। गांधीवादी और समाजवादी विचारों से करीब
होने के बावजूद वे जरूरत पड़ने पर इनकी सीमाओं को लेकर भी मुखर रहे।
वे एक ऐसे उस्ताद थे जिन्होंने पीढ़ियों को राजनीति विज्ञान सिखाया
है, सिद्धांत गढ़े हैं और ऐसे “टूल” विकसित किये हैं जिनकी मदद
से भारतीय राजनीति और समाज सवालों को समझा गया है।
रजनी कोठारी की विरासत लगातार बदल रहे समाज और राजनीति को समाज
विज्ञान की मदद से समझने और समझाने की है, एक ऐसे समय में जब देश की राजनीति इतनी
तेजी से बदली है और समाज तथा लोकनीति को बदलने की तैयारी जोरों पर है, रजनी कोठारी
जैसे विलक्षण प्रतिभा की कमी साफ तौर पर महसूस की जा सकती है। स्वास्थ्य कारणों की
वजह से पिछले कई वर्षों से वे अकादमिक रूप से सक्रिय नहीं थे। लेकिन अगर वे सक्रिय होते तो यह देखना और समझना दिलचस्प
होता कि वे अन्ना, केजरीवाल और नरेंद्र मोदी फेनोमेना का किस तरह से विश्लेषित
करते और उनके लिए किन टूल्स का इस्तेमाल करते।
वे भले ही आज हमारे बीच नहीं हैं लेकिन उनकी स्थापनायें, सिद्धांत,
समाज और सियासत के परतों को समझने में हमारी मदद करते रहेंगें। समाज और राजनीति की
प्रक्रियाओं, बदलाव समाज विज्ञान के मदद
से समझना और आने वाले खतरों के प्रति आगाह करना ही उनकी विरासत को आगे बढ़ाने का
काम होगा।
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