..यूं ही हमेशा खिलाएं हैं हमने आग में फूल
सामाजिक कार्यकर्ता सुभाष गताडे द्वारा नागरिक अधिकार मंच , मध्य प्रदेश के राज्य सम्मेलन मे 5 दिसम्बर , 2010, को जबलपुर मे दिए गया वक्तव्य .
..यूं ही हमेशा खिलाएं हैं हमने आग में फूल
न उनकी हार नयी है और न अपनी जीत नयी ..
नागरिक अधिकार मंच के स्थापना सम्मेलन में आप सभी लोगों को क्रान्तिकारी अभिवादन पेश करने के लिए आपके सामने खड़ा हूं। मैं नहीं जानता कि सूबा मध्यप्रदेश के कुछ जिलों में अपनी सक्रियताओं से पहचान बना चुके मंच के स्थापना सम्मेलन के लिए जबलपुर का चयन किन वजहों से किया गया, मगर अगर हम थोड़ा तवारीख को पलटें तो मैं समझता हूं कि यह बिल्कुल माकूल चयन है। जबलपुर संघर्षों की भूमि रहा है। 1857 के समर में यहीं के गदाधर तिवारी ने 16 जून 1857 मै अपने यूरोपीय अधिकारियों पर गोलियां चलायी थीं और महाकोशल के इस इलाके में विद्रोह की चिंगारी फेंकी थी। इस इलाके में अंग्रेजों के खिलाफ संघर्ष की अगुआई गोण्ड राजा शंकर शाही और उनके शहजादे युवराज रघुनाथ ने की थी। इतिहास बताता है कि इन रणबांकुरों को अंग्रेजों ने गिरफ्तार किया था और एक तोप में बांध कर उड़ा दिया था। (18 सितम्बर 1857)
हाल के समयों में जबलपुर बिल्कुल अलग कारणों से चर्चित रहा है, जब यहां के नागरिकों ने मिल कर, साम्प्रदायिक सदभाव की ऐसी मिसाल पेश की जिसकी चर्चा चारों तरफ हुई। अवैध प्रार्थनास्थलों का मसला भले ही हाल के समयों में सुप्रीम कोर्ट के एजेण्डा पर आया हो, मगर जबलपुर के लोगों ने यातायात में बाधा बननेवाले प्रार्थनास्थलों को - फिर वह किसी भी समुदाय से सम्बद्ध क्यों न हो - पुनर्स्थापित करने में साझी पहल की थी। जबलपुर का इतिहास एवम उसका वर्तमान ऐसा है कि इस पर निश्चित ही वारी होने का मन करता है।
बहरहाल, अक्सर ऐसे जलसों में जब बातें रखी जाती हैं तब एक तकियाकलाम दोहराया जाता है कि प्रस्तुत आयोजन बेहद नाजु़क वक्त़ में हो रहा है, गोया उसके पहले के या बाद के वक्त कम नाज़ुक माने जा सकते हों। मैं इस तकियाकलाम को नहीं दोहराउंगा, अलबत्ता यह जरूर कहना चाहूंगा कि यह सम्मेलन हिन्दोस्तां के 60 साला लोकतंत्रा के इतिहास में एक ऐसे अनोखे वक्त़ में हो रहा है जहां हम स्पष्ट देख रहे हैं कि कुछ चीजें बिल्कुल शीशे की तरह साफ हमारे सामने दिख रही हैं।
बहुत कम वक्त ऐसे आते हैं, जब नेताओं, देश के सम्मानित कहे गए पत्रकारों की कथनी एवं करनी के बीच की खाई इस कदर चौड़ी दिखाई देती है। और हम पाते हैं लोकतंत्र को चलानेवाली असली शक्तियां कौन हैं और कहा विराजमान हैं। सबकुछ ऐसे घटित हो रहा है गोया हम बॉलीवुड की कोई सस्ती सी फिल्म देख रहे हों, जिसमे पक्ष विपक्ष की सीमारेखाएं भी मिटती दिख रही हों, सम्मानित पत्रकार कार्पोरेट सम्राटों के दलालों के तौर पर नमूदार होते दिख रहे हों और जनता के हितों की हिफाजत के लिए कथित तौर पर बनी संसद अब तक के सबसे बड़े घोटाले कहे जा रहे किस्से पर बातचीत भी नहीं कर पा रही है।
बीसवीं सदी के शुरूआत में सत्तासीन रहे अमेरिकी राष्ट्रपति थियोडोर रूजवेल्ट ने एक दिलचस्प बात की थी। इन दिनों बेहद चर्चित विकीलिक्स ने अपने घोषणापत्र की शुरूआत में इस बात को उद्धृत किया है।
बहरहाल, अक्सर ऐसे जलसों में जब बातें रखी जाती हैं तब एक तकियाकलाम दोहराया जाता है कि प्रस्तुत आयोजन बेहद नाजु़क वक्त़ में हो रहा है, गोया उसके पहले के या बाद के वक्त कम नाज़ुक माने जा सकते हों। मैं इस तकियाकलाम को नहीं दोहराउंगा, अलबत्ता यह जरूर कहना चाहूंगा कि यह सम्मेलन हिन्दोस्तां के 60 साला लोकतंत्रा के इतिहास में एक ऐसे अनोखे वक्त़ में हो रहा है जहां हम स्पष्ट देख रहे हैं कि कुछ चीजें बिल्कुल शीशे की तरह साफ हमारे सामने दिख रही हैं।
बहुत कम वक्त ऐसे आते हैं, जब नेताओं, देश के सम्मानित कहे गए पत्रकारों की कथनी एवं करनी के बीच की खाई इस कदर चौड़ी दिखाई देती है। और हम पाते हैं लोकतंत्र को चलानेवाली असली शक्तियां कौन हैं और कहा विराजमान हैं। सबकुछ ऐसे घटित हो रहा है गोया हम बॉलीवुड की कोई सस्ती सी फिल्म देख रहे हों, जिसमे पक्ष विपक्ष की सीमारेखाएं भी मिटती दिख रही हों, सम्मानित पत्रकार कार्पोरेट सम्राटों के दलालों के तौर पर नमूदार होते दिख रहे हों और जनता के हितों की हिफाजत के लिए कथित तौर पर बनी संसद अब तक के सबसे बड़े घोटाले कहे जा रहे किस्से पर बातचीत भी नहीं कर पा रही है।
बीसवीं सदी के शुरूआत में सत्तासीन रहे अमेरिकी राष्ट्रपति थियोडोर रूजवेल्ट ने एक दिलचस्प बात की थी। इन दिनों बेहद चर्चित विकीलिक्स ने अपने घोषणापत्र की शुरूआत में इस बात को उद्धृत किया है।
अमेरिका के राष्ट्रपति ने कहा था कि हर औपचारिक सी दिखनेवाली सरकार के पीछे एक अदृश्य मगर असली सरकार होती है,जिसकी लोगों के प्रति कोई वफादारी होती है और न ही लोगों के प्रति अपनी जिम्मेदारी। स्टेटसमनशिप का यह तकाज़ा होता है कि वह इस अदृश्य सरकार को ध्वस्त करे और भ्रष्ट व्यापार एवम भ्रष्ट राजनीति के बीच के अपवित्र गठबन्धन को बेनकाब करें।
मुल्क के सीएजी ने ही हमें बताया है कि इसमें एक लाख 75 हजार करोड़ का भारत की सरकार को घाटा हुआ है। किसी ने लिखा कि यह आजाद हिन्दोस्तां के घोटालों में सबसे बड़ा है अर्थात ‘मदर आफ आल स्कैम्स’। मुल्क के सकल घरेलू उत्पाद के तीन फीसदी यह आंकड़ा है और उन सभी कापोरेट बुद्धिजीवियों के मुंह पर करारा तमाचा है जो मनरेगा जैसी योजनाओं के चलते बढ़ते घाटे की अक्सर चर्चा करते रहते हैं। मनरेगा में पिछले साल जितनी रकम खर्च हुई थी, उसके चौगुना यह राशि है।
सभी जानते हैं कि इस घोटाले का क्या हश्र होगा ? यही कि चन्द अफसर या छुटभैये नेताओं पर दिखावटी कार्रवाई होगी और कुछ दिनों के बाद लोग इस किस्से को भूल भी जाएंगे और लोग इस बात को भी भूल जाएंगे कि दुनिया में भारत और सउदी अरब उन मुल्कों मे शुमार किए जाते हैं जिन्होंने अभी भी भ्रष्टाचार को लेकर बने संयुक्त राष्ट्रसंघ के कन्वेन्शन पर अभी तक दस्तखत नहीं किए हैं।
दिलचस्प है कि जिन दिनों इस घोटाले की परतें खुल रही थीं, उन्हीं दिनों विपक्ष की कर्नाटक की सूबाई सरकार की अगुआई कर रहे येद्दी य्दीरुपा के भूमि घोटाले में फंसने का नाम आया। दिलचस्प था कि जब चीजें बेपर्द हुईं तो यदिरुप्पा ने कहा कि हां मैंने गलत किया है मगर मैं अपने पूर्ववर्तियों के पदचिन्हों पर ही चल रहा हूं। आज भी जनाब अपने पद पर टाईट बैठे हैं।
यह अगर राष्ट्रीय पसमंजर है तो सूबाई पसमंजर इससे गुणात्मक तौर पर अलग नहीं है। अभी ज्यादा दिन नहीं बीता जब मध्य प्रदेश सूबे के मुख्यमंत्राी के अपने पद पर पांच साल पूरा रहने के अवसर पर गौरव दिवस मनाया गया। मगर अपनी हुकूमत की उपलब्ब्धियों के बारे में बात करते हुए किसी को इस मसले पर बात करने की भी फुर्सत नहीं, जिसे डम्पर घोटाला कहा जाता हो। नागरिक सुविधाओं का आलम यह है कि पानी की कमी को लेकर झगडे़ आम हैं और हर साल ऐसे विवादों में मारे जानेवाले लोगों की तादाद बढ़ती ही जा रही है।
पता नहीं कितने लोग इस हक़ीकत से वाकीफ हैं कि सूबा मध्यप्रदेश आदिवासी अत्याचारों में हिन्दोस्तां में अव्वल नम्बर पर तो दलित अत्याचार के आंकड़ों में पूरे मुल्क में दूसरे नम्बर पर है। दहेज हत्याओं की सालाना संख्या भी हिन्दोस्तां के बाकी सूबों की तुलना में यहां ज्यादा है। आप इसे आजादी के पहले के जमाने में बनी रियासतों का नतीजा कहें या रूढिवादी ताकतों की समाज पर पकड़ कहें या प्रगतिशील आन्दोलनों की कमी कहें, सामाजिक तौर पर कम से कम यह सूबा अभी भी काफी पीछे दिखता है। इसीका परिणाम हैं कि इलाकाविशेषों में साम्प्रदायिक शक्तियों ने अपने दुर्ग कायम किए हैं, जहां खुल कर हिन्दुराष्ट्र की बात होती है।
पता नहीं कितने लोग इस हक़ीकत से वाकीफ हैं कि सूबा मध्यप्रदेश आदिवासी अत्याचारों में हिन्दोस्तां में अव्वल नम्बर पर तो दलित अत्याचार के आंकड़ों में पूरे मुल्क में दूसरे नम्बर पर है। दहेज हत्याओं की सालाना संख्या भी हिन्दोस्तां के बाकी सूबों की तुलना में यहां ज्यादा है। आप इसे आजादी के पहले के जमाने में बनी रियासतों का नतीजा कहें या रूढिवादी ताकतों की समाज पर पकड़ कहें या प्रगतिशील आन्दोलनों की कमी कहें, सामाजिक तौर पर कम से कम यह सूबा अभी भी काफी पीछे दिखता है। इसीका परिणाम हैं कि इलाकाविशेषों में साम्प्रदायिक शक्तियों ने अपने दुर्ग कायम किए हैं, जहां खुल कर हिन्दुराष्ट्र की बात होती है।
मैं जानता हूं कि आनेवाले सत्र में आप देश एवम सूबे के इस हालात पर अधिक गौर फरमाएंगे और वाचा एवम कर्मणा के बीच सामंजस्य कायम रखते हुए कुछ सार्थक नतीजों तक पहुंचेंगे।
मैं चन्द ऐसी बातें आप के साथ सांझा करना चाहता हू, जिनके बारे में मैं पिछले कुछ समय से सोचता रहा हूं। पहला सवाल नागरिक अधिकारों का है। आम तौर पर जब हम नागरिक अधिकारों की बात करते हैं तो उसे राज्य के बरअक्स रखा कर करते हैं, इसी सन्दर्भ में राज्य से प्राप्त/अप्राप्त एनटाइटलमेण्टस की बात होती है, राजकीय दमन, भ्रष्टाचार का विरोध होता है, सहभागिता, पारदर्शिता की हिमायत की जाती है। यह अकारण नहीं कि सूचना के अधिकार जैसे कानून यहां अहम हथियार बन जाते हैं, मनरेगा की तारीफ में भी कसीदे पढ़ाये जाते हैं।
निश्चित ही राज्य के हर निवासी को -चाहे वह औपचारिक स्तर पर नागरिक हो या नहीं हो -सशक्तिकृत करनेवाले राज्य के बरअक्स उसके हाथों को मजबूत बनानेवाले हर कदम का हमें तो समर्थन भी करना पड़ता/पड़ सकता है। मगर इस समूची आपाधापी में कुछ अहम सवाल पीछे छूट जाते हैं। क्या नागरिक के तौर पर महज राज्य से हमारा संघर्ष है, हम समुदाय को क्नीनचिट देना चाहते हैं। तीसरी दुनिया के हिन्दोस्तां जैसे मुल्कों के बारे में यह सोचने की जरूरत है कि नागरिक/अनागरिक के लिए अधिक खराब/खतरनाक राज्य है या समुदाय ! किससे खतरा ज्यादा है। आम तौर पर जवाब यही उछलेगा कि राज्य से।
मगर मुझे अक्सर ऐसा लगता है कि यह बयान भारत जैसे मुल्कों की जटिलता को नहीं पकड़ता, किनारे से स्पर्श करके चला जाता है। कई बार हम इस विचित्र स्थिति से रूबरू होते हैं कि समुदाय के कहर से अपने आप को बचाने के लिए हमें उसी राज्य का सहारा लेना पड़ता है। भविष्य का जो समाज बनेगा या जिसका मोटा खाका लेकर हम चल रहे हैं, वहां हम कैसा दृश्य देखते हैं। इन समाजों के केन्द्र में क्या पारम्पारिक समुदाय होंगे, जो चाहे तो किसी को अपनी मर्जी से शादी करने के नाम पर फांसी पर लटका दें या समुदायविशेष का अपमान करने के लिए दूसरे समुदाय के लोगों की बस्तियां फंूक दें या हम सोचते हैं कि इन समाजों का केन्द्र होगा जिसमें व्यक्ति के अधिकार एवम सम्मान को केन्द्रीय स्थान मिलेगा। लोगों के बीच आपसी बराबरी को तवज्जो मिलेगी। समाज के पुनर्गठन के यही सूत्रा होंगे। इसका मतलब क्या भविष्य का समाज एकाकी किस्म के लोगों का समाज होगा, जहां लोग अपने अपने दड़बों, घेट्टो में कैद होंगे ? ऐसे समाज में भी सालिडारिटीज/एकजुटताएं कायम होंगी मगर उनकी बुनियाद समान हित/समान रूचियां होगा। अपने जनम के साथ लोग जिन चिन्हों, श्रेणियों को साथ लेकर पैदा हुए बताए जाते हैं, वह उनका आधार नहीं होगा। ये ऐसी सॉलिडारिटीज होंगी जो स्वेच्छा के आधार पर बनेंगी। ये ऐसा समाज होगा जो आधुनिकता के मूल्यों के इर्दगिर्द बनेगा, जिसके केन्द्र में तर्कबुद्धि, वैज्ञानिक चिन्तन, आत्मप्रश्नेयता जैसी बातें होंगी।
हमारे वक्त़ में जबकि लोकतंत्र एवं कार्पोरेटतंत्र के बीच की खाई औपचारिक तौर पर भी मिटती दिखाई देती है तब हम उस परिघटना से भी रूबरू हैं जिसे सारांश में ‘ सेसेशन आफ सक्सेसफुल’ कहा जा सकता है। महानगरों में निजी मकानों के इर्दगिर्द खड़ी हो रही बाड़े, सरकारी जमीनों का अप्रत्यक्ष निजीकरण कर वहां खड़ी कर दी जाती महंगी महंगी कारें, सरकार से तमाम सुविधाएं छूट हासिल कर बनते उपभोक्ता सामान। कामयाब लोगों की एक अलग दुनिया बन रही है जिसमें ‘नाकामयाब’ लोगों को कोई स्थान नहीं है। पिछले साल की बात है जब बम्बई में किसी अमीरजादे की कार के नीचे -जो शराब पीकर गाड़ी चला रहा था - सड़क के किनारे सो रहे चन्द मजदूरों की मौत हुई। बाद में वह अमीरजादा पकड़ा गया। इस पर एडगुरू प्रल्हाद कक्कर का बयान ध्यान देने योग्य था जिसमें पूछा गया था कि-ये लोग कहां से पहुंचते हैं यहां मरने के लिए। सड़क दुर्घटना में मार दिए गए लोगों को लेकर खड़ी बहस में कुछ ‘समझदारों’ ने यह भी बयान दिया था कि ऐसे लोगों को वोट के अधिकार से वंचित करना चाहिए।
भारतीय समाज में रोज लगभग तीन सौ लोग सड़कों पर मरते हैं। इनमें आधे से अधिक मरनेवाले या घायल होनेवाले पैदल यात्री होते हैं, राहगीर होते हैं, जिनका कसूर यही होता है कि वह फूटपाथों के विलोप होते नगरों मे किसी तरह सड़कों के किनारे चल रहे होते हैं। लोग ऐसी घटनाओं को हादसा कह कर, दुर्घटना कह कर भूल जाते हैं। मगर क्या इन्हें महज दुर्घटना कहा जा सकता है। या इन्हें हम रोज रोज बेहद क्रूर ढंग से हमारे सामने नमूदार होते वर्गसंघर्ष के रूप में देख सकते हैं। लम्बे समय से जनान्दोलनों का नारा रहा है। ‘कमानेवाला खाएगा, लूटनेवाला जाएगा।’ आजादी के साठ साल बाद भी आलम यही है कि लूटनेवाला जा नहीं रहा है, अधिकाधिक चीजों पर नियंत्रण कायम करता दिखता है। तय बात है कि यह सिलसिला लम्बे समय तक नहीं चलनेवाला। जिस दिन लोगों में जागृति आएगी, जिस दिन लोग संगठित होंगे, चीजें बदलने की शुरूआत होंगी।
मैं पुरउम्मीद हूं कि नागरिक अधिकार मंच के जरिए आप लोगों ने जो शुरूआत की है, वह मध्यभारत के इस हिस्से की अवाम में, जो दुर्भाग्य से रूढिवादी ताकतों की जकड़ में रहा है, उनमें एक नयी अलख जगाने में अहम रोल अदा करेगा।
इन्कलाब जिन्दाबाद !
भाई आप लोगों ने जो लिखा है उसे दूसरे फोन्ट में लिखकर भेजें पढने में नहीं आ रहा है
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