फैज़ का सौ साला जश्न
@ डा रिज़वानुल हक़
आजकल जगह जगह पर फ़ैज अहमद फै़ज़ (जन्म 13 फ़रवरी 1911-1984) की जन्म सदी मनाई जा रही है। चूँकि जश्न फ़ैज़ सदी मनाने वालों में मैं भी शामिल हूँ, तो उनकी शायरी पर सोचते वक्त मुझे लाज़िमी तौर पर इस सवाल से गुज़रना चाहिए कि कोई रचनाकार अपनी पैदाइश के सौ साल बाद तक क्यों ज़िदा रह सकता है? हम उसे भुला क्यों नहीं देते? हर ज़माने में सैकड़ों, हज़ारों शायर पैदा होते रहे हैं, क्या हम सबको याद रखते हैं उन सबको नज़र अन्दाज़ कर के हम फै़ज़ ही को क्यों याद कर रहे हैं?
आज के इन सवालों की आहट कामरेड सज्जाद ज़हीर को अब से बहुत पहले मिल गई थी। उन्होंने फैज़ के कविता संग्रह ‘‘जिन्दाँनामा’’ की प्रस्तावना में लिखा था। ‘‘बहुत अरसा गुज़र जाने के बाद जब लोग रावलपिण्डी साज़िश के मुक़दमे को भूल जाएंगे और पाकिस्तान का मोअर्रिख़ 1952 के अहम वाक्यात पर नज़र डालेगा तो ग़ालिबन इस साल का सबसे अहम तारीख़ी वाक्या नज़्मों की इस छोटी सी किताब की इशाअत को ही क़रार दिया जाएगा।’’ (नुस्खाहाए वफ़ा, पेज 194)
आज सज्जाद ज़हीर की बात बिलकुल सही साबित हो चुकी है, आज हम 1952 की न जाने कितनी घटनाएं भूल चुकी हैं लेकिन ‘दस्ते सबा’ की बहुत सी नज्में और ग़ज़लें हमें आज भी न सिर्फ़ याद हैं बल्कि कागज़ किताब से निकल कर हमारे दिलों में बस गई हैं और अब जबकि हम इक्कीसवीं सदी की दूसरी दहाई में दाखि़ल हो चुके हैं दस्ते सबा की शायरी हमारा आज भी साथ दे रहीं है और हम आज भी यह कहने पर मजबूर हैं।
ये दाग़ दाग़ उजाला ये शब-गज़ीदा सहर
वह इन्तेज़ार था जिसका ये वो सहर तो नहीं
ये वो सहर तो नहीं जिसकी आरज़ू लेकर
चले थे यार कि मिल जाएगी कहीं न कहीं
फ़लक के दश्त में तारों की आखि़री मंज़िल
कहीं तो होगा शबे-सुस्त मौज का साहिल
कहीं तो जाके रुकेगा सफ़ीना -ए-ग़मे दिल
चले चलो कि वह मंज़िल अभी नहीं आई।
आज जब जब अभिव्यक्ति पर पाबन्दी लगती तो हमें फै़ज़ का ये क़तआ बरबसया याद आ जाता है।
मताए लौह -ओ-क़लम छिन गई तो क्या ग़म है
कि ख़ूने-दिल में डुबो ली हैं उंगलियाँ मैं ने
ज़ुबाँ पे मुहर लगी है तो क्या, कि रख दी है
हर एक हलक़ए -ज़न्जीर में ज़ुबां मैं ने
इसी तरह का फ़ैज़ का एक और शेर है। जिसे पढ़ कर हमें एक हिम्मत मिलती है और ज़िन्दगी के कई मुश्किल फै़सले करने में यह शेर मदद भी करता है।
हम परवरिश -लौह ओ क़लम करते रहेंगे
जो दिल पे गुज़रती है रक़म करते रहेंगे
इस शेर पर मुझे पाँच छः साल पहले की वह रात याद आ रही है, उस वक्त तक एम. एफ़ हुसैन पर कई हमले हो चुके थे और हिन्दुस्तान की मुख़्तलिफ़ अदालतों में उन पर कई फ़र्ज़ी मुक़दमे चल रहे थे ऐसे मे जश्ने -बहाराँ का दिल्ली में मुशाइरा हुआ, हुसैन साहब से मुशायेरे की सदारत की दरख़्वास्त की गई उन्होंने न सिर्फ मुशायेरे की सदारत क़ुबूल फ़रमाई बल्कि एक बहुत बड़ी पेंटिग भी बनाई जो मुशायेरे की पूरी स्टेज के ऊपर लगी हुई थी, और पेंटिंग के ज़रिए उस 90 साल के जवान फ़नकार ने बहुत सारे सवालों के जवाब दे दिए थे। पेंटिग पर लिखा था ‘‘हम परवरिशे -लौह ओ क़लम करते रहेंगे।’’
और जब हुकूमतें हमारी आज़ादी पर हमला करती हैं, तो फैज़ की इस नज़्म से हमें कुछ न कुछ सहारा ज़रूर मिलता है।
निसार मैं तेरी गलियों के ऐ वतन कि जहाँ
चली है रस्म कि कोई न सर उठा के चले
जो कोई चाहने वाला तवाफ को निकले
नज़र चुरा के चले, जिस्म ओ जां बचा के चले
पिछले एक महीने के अन्दर ट्यूनिशया और मिस्र के अवाम ने ज़ालिम हुकूमतों के ख़िलाफ़ जंगें लड़ीं और जीती भीं, जब वह जंग लड़ रहे थे ख़ास तौर से मिस्र के अवाम की तारीफ़ करनी पड़ेगी, जिन्होंने निहायत सब्र ओ तहम्मुल से काम लेते हुए अवाम की ताक़त पर पूरा यक़ीन बनाए रखा। इस जंग के दौरान मुझे बारबार फ़ैज का ये तराना याद आ रहा था। ऐसा लगता था कि उनके संघर्ष में फै़ज़ की इस नज़्म की रूह भी शामिल है।
दरबारे-वतन में जब इक दिन सब जाने वाले जाएंगे
कुछ अपनी सज़ा को पहँचेंगे, कुछ अपनी जज़ा ले जाएंगे
ऐ ख़ाक-नशीनो उठ बैठो, वह वक्त क़रीब आ पहुँचा है
जब तख़्त गिराए जाएंगे, जब ताज उछाले जाएंगे
अब टूट गिरेंगी ज़न्जीरं अब ज़िन्दानों की ख़ैर नहीं
जो दरिया झूम के उट्ठे हैं, तिनकों से न टाले जाएंगे
कटते भी चलो बढ़ते भी चलो बाज़ू भी बहुत हैं सर भी बहुत
चलते भी चलो कि अब डेरे मंज़िल ही पे डाले जाएंगे
इन मिसालों से यह बात तो किसी न किसी तरह साबित होती है कि फै़ज़ ने अपनी शायरी में कुछ ऐसी बातें ज़रूर कही हैं जो आज भी हमारे मसाइल, हमारे जज़्बात और हमारे तजुरबों को किसी न किसी तरह मुतास्सिर करती हैं और हमारी सियासी तहरीकों में किसी न किसी तरह मददगार हैं। किसी शायर के लिए ये बातें अच्छी तो हैं, लेकिन बड़ी और इस तरह की शायरी के लिए, जो सौ साल या उससे भी ज़्यादा ज़िन्दा रहे उसके लिए शायरी में कुछ और भी चाहिए। इसलिए ज़रूरी हो जाता है कि फै़ज़ की शायरी के कुछ और राज़ भी जानें।
फै़ज़ बुनियादी तौर पर एक इन्क्लाबी शायर हैं लेकिन उन्होंने इन्क्लाबी विचारों को बयान करने के लिए अक्सर उर्दू शायरी के क्लासिकी और रोमानवी शब्दों को नए इन्क्लाबी मानी में इस्तेमाल किया हैं। उर्दू शायरी में दो प्यार करने वालों की दास्तान को शुरू से ही गुल ओ बुलबुल के रूप में बयान किया जाता रहा है। जब दोनों गुलशन में होते हैं तो यह विसाल (मिलन) होता है। फिर एक सय्याद आता है जो बुलबुल को पकड़ कर क़फ़स में बंद कर देता है ओर इस तरह हिज्र (विरह) की लम्बी रात शुरू होती है। क़फ़स में आशिक के लिए सबा (हवा) गुलशन से पैग़ाम लाती है। फैज़ के यहाँ यह सारे शब्द एक नई इन्क्लाबी कहानी बयान करते हुए नज़र आते हैं। फ़ैज़ के यहाँ गुल आज़ादी और इन्क्लाब का मतवाला है, क़फ़स जेल है, सबा मीडिया है, गुल ओ बुलबुल के गीत इन्क्लाबी गतिविधियाँ बन जाती हैं। और इस तरह फ़ैज़ की शायरी नवक्लासिक का दर्जा हासिल कर लेती है। जो उर्दू की क्लासिकी षायरी की अच्छी मिसाल के साथ साथ इन्क्लाबी शायरी की भी नुमाइन्दगी करती है।
फै़ज़ एक ऐसे मुल्क पाकिस्तान में थे जिसकी बुनियाद ही धर्म पर पड़ी थी, इसलिए फै़ज जानते थे कि अगर मुझे बड़ी संख्या में लोगों तक पहुँचना है तो अपनी बात एक ऐसे मुहावरे में पेश करनी होगी, जिसे सुनकर उन्हें लगे कि ये शख़्स मुझसे ही कुछ कहना चाहता है, इसीलिए फै़ज ने बहुत से मज़हबी शब्दों को इन्क्लाबी ख़्याल पेश करने के लिए भी इस्तेमाल किया है। मिसाल के तौर पर ‘हम देखेंगे’ में फ़ैज़ ने लगभग उन्हीं शब्दों का इस्तेमाल उस वक्त के लिए किया है जब इन्क्लाब आएगा। जबकि मज़हब में उन्हीं लफ़्जों का इस्तेमाल क़यामत के लिए किया गया है। इसे एक और मिसाल के ज़रिए समझते हैं। शेर हैः
जो हम पे गुज़री सो गुज़री मगर शबे-हिजरां
हमारे अशक तेरी आक़िबत संवार चले।
मज़हब में आक़िबत लफ़्ज का इस्तेमाल आम तौर पर इन्सान की ज़िन्दगी में अच्छाइयों और बुराइयों के अन्जामकार जो जन्नत या जहन्नुम मिलता है उसके लिए किया गया है। लेकिन यहाँ फै़ज ने एक इन्क्लाबी ख़ुद मुसीबतें झेलकर जो अवाम की ज़िन्दगी सुधारता है उसे आक़िबत कहा गया है। फैज़ ने अपनी बात कहने का जो ये नया तरीक़ा निकाला, उसमें अवाम को अपनी ही जु़बान में अपने दुखों की आवाज महसूस हुई।
हमने जो तर्ज़े फु़गां की है क़फस में ईजाद
फ़ैज़ गुलशन में वही तर्जे-बयां ठहरी है
जब तक दुनिया के अवाम मसाइल में घिरे हुए हैं, फै़ज़ उनके दिलों को किसी न किसी तौर पर गरमाते रहेंगे। तो सवाल ये उठता है क्या जब दुनिया के अवाम के सारे मसाइल हल हो जाएंगे तो क्या फै़ज़ की शायरी ख़त्म हो जाएगी? वैसे तो अगर दुनिया के सारे मसाइल हल हो जाएं तो यह सौदा इतना मंहगा भी नहीं हैं। लेकिन फिर भी फै़ज की शायरी को हम तब भी नहीं भूल पाएंगे। क्योंकि सिर्फ़ इन्क़लाब के षायर नहीं हैं मुहब्बत के भी शायर हैं। वह ‘रक़ीब से’ भी कुछ इस तरह बातें करते हैं।
आकि वाबस्ता हैं उस हुस्न की यादें तुझ से
जिसने इस दिल को परी ख़ाना बना रखा था
जिस की उल्फ़त में भुला रखी थी दुनिया हमने
दहर को दहर का अफ़साना बना रखा था।
इस नज़्म के बारे में फ़िराक़ गोरखपुरी ने लिखा था।
उर्दू की इश्किया शायरी में अब तक इतनी पवित्र, इतनी चुटीली और इतनी दूरदर्शी और विचारात्मक नज़्म वजूद में नहीं आई। नज़्म नहीं है बल्कि जन्नत और दोज़ख़ के एकत्व का राग है। शेक्सपियर, गोएटे, कालीदास और सा‘दी भी इससे ज़्यादा रक़ीब (इशक़ में प्रदिद्वन्दी) से क्या कहते, इशक़ और इन्सानियत के ख़ूबसूरत सम्बन्ध को समझना हो तो ये नज़्म देखिए।’’
(उर्दू की इश्किया शायरी पेज 64-65)
फै़ज़ की इन्क्लाबी शायरी के एक बड़े हिस्से को इश्किया शायरी के तौर पर भी पढ़ा जा सकता है, उन्होंने इस अन्दाज़ से शब्द सजाए हैं कि एक ही नज़्म या शेर को इश्किया और इन्क्लाबी दोनों तरह से पढ़ा जा सकता है। इसीलिए फै़ज़ की शायरी को पसन्द करने वालों का हलक़ा बहुत बडा है इसे वह लोग भी पसन्द करते हैं जिनका प्रगतिशील परम्परा से कोई ख़ास रिश्ता नहीं है लेकिन वह अच्छी शायरी के शोक़ीन हैं। फै़ज़ की इन्हीं सब विशेषताओं की वजह से हम आज सौ साल बाद भी उनको याद करने पे मजबूर हैं।
आज दुनिया की तक़रीबन सभी बड़ी जु़बानों में फ़ैज़ की शायरी का अनुवाद हो चुका है और उनका नाम दूनिया के बड़े प्रगतिशील शाइरों बर्तोल ब्रेख़्त (जर्मन), नाज़िम हिकमत (तुर्की ), पाब्लो नरूदा (चिली), दरवेश (फिलिस्तीनी) की परंपरा में लिया जाता है।
{युवा संवाद द्वारा आयोजित, जश्ने फैज़ में डॉ. रिज़वानउल हक द्वारा पढ़ा गया परचा }
[लेखक उर्दू के चर्चित कथाकार हैं और रीजनल कॉलेज, भोपाल में पढ़ाते हैं ]
No comments: