आज के नाम और आज के गम के नाम



आइये हाथ उठायें हम भी
हम जिन्हें रस्मे-दुआ याद नहीं
हम जिन्हें सोजे-मोहब्बत के सिवा
कोई बुत कोई खुदा याद नहीं



फैज़ अहमद फैज़ :-इश्क का इंकलाब बनाम इंकलाब का इश्क

@ सुधीर सुमन

जब मैंने होश संभाला फैज इस दुनिया में नहीं थे। बहुतों की तरह मेरा भी उनसे परिचय उनकी गजलों के जरिए ही हुआ, वही गजलें जो इश्क की गहरी तड़प, उदासी और फरियाद के साथ-साथ उस बेचैनी से आजाद होने की कोशिश में मुब्तिला लगती थीं- तुम मेरे पास रहो मेरे कातिल मेरे दिलदार, मुझसे पहली सी मुहब्बत मेरे महबूब न मांग, दोनों जहान तेरी मुहब्बत में हार के आदि कई गजलें इसका उदाहरण हैं। प्रेम का ऐसा ईमानदार बयान कम ही मिलता है। एक ओर वे यह कहते हैं कि -


और क्या देखने को बाकी है
आपसे दिल लगा के देख लिया,
तो दूसरी ओर इस बात का अहसास भी है कि 
ये अहदे-तर्के-मुहब्बत है किसलिए आखिर
सुकूने-कल्ब इधर भी नहीं, उधर भी नहीं 

यानी यह प्रेम को त्याग देने का प्रण किसलिए, हृदय की शांति तो इधर भी नहीं है, उधर भी नहीं। त्याग दे तब भी शांति नहीं और जो स्थिति है उसे मंजूर कर लें तो भी शांति नहीं। लब्बोलुआब यह कि आस उस दर से टूटती ही नहीं/ जा के देखा, न जाके देख लिया। सच्चा इश्क एक ऐसी आस जगाता है, जो प्रतिकूलताओं में भी खत्म नहीं होती। 

हम अक्सर यह भी सोचते थे कि दुनिया के सारे दुखियारों को उनके दुखों से मुक्ति दिलाने की जो नई लगन शायर को लगी क्या वह इश्क में हासिल किसी विरह का प्रतिस्थापन है, क्या उसने नई मुहब्बत को पुरानी मुहब्बत में मिले दर्द को भुलाने का जरिया बना दिया-

हम पे मुश्तरिका हैं अहसान ग़म-ए-उल्फ़त के
इतने अहसान केः गिनवाऊँ तो गिनवा ना सकूँ
.......आजिज़ी सीखी ग़रीबों की हिमायत सीखी
यास-ओ-हिरमान के दुख दर्द के मानी सीखा
ज़ेरदस्तों के मसाइब को समझना सीखा
सर्द आहों के रुख़-ए-ज़र्द के मानी सीखे 

किया होगा एक इश्क जो मंजिल पे नहीं पहुंचा। उनकी शरीकेहयात एलिस के गहरे इश्क और चाहने वालों बड़ी जमात भी अपनी जगह। फिर भी गम है, तो आखिर वह गम है क्या, जिसकी सरदारी नहीं जाती और जिसके कारण दिल में रोज इंकलाब आते हैं- न गई तेरे गम की सरदारी/दिल में यूं रोज इंकलाब आए। कौन सी ऐसी महबूबा है, वह महाकाव्यों में वर्णित आध्यात्मिक संकेतों वाली महबूबा तो है नहीं, फिर कौन है जिसके आने का मतलब यह है कि बामे मीना से माहताब उतरे और दस्ते साकी में आफताब आए। यानी साकी यानी रात के हाथ में सूरज आए। वह कौन है महबूब जिसके लिए शायर ने लिखा है- हर रगे-खूं में चिरागां हो/ सामने वो बे-नकाब आए। 

फैज की गजलों को सुनते हुए या पढ़ते हुए हमें इश्क के अंदाजेबयां में ही व्यवस्था से एक जबर्दस्त जिरह और प्रतिरोध की अद्भुत कला से परिचय होता है।  

प्रणय कृष्ण के शब्दों में- वे रुमानी शायर नहीं थे। इस बात को समझने के लिए 18वीं सदी की उर्दू गजल के काव्यशास्त्र में जाना होगा। इस शायरी में आशिक जरूरी तौर पर शायद खुद नहीं होता था।.....आशिक और माशूक के संबंधों  की मार्फत दर्द-वियोग-मिलन, कुछ मूल्यवान खो जाने का एहसास, असहायता, समर्पण, शौक और इश्क की जिन भावनाओं को व्यक्त किया जाता है, वे किन्हीं सामाजिक सच्चाइयों के दबाव में पैदा होती हैं। फैज ने शायरी के इस ढाँचे को, उसकी रवायत की पूरी ताकत को अपने देश-समय और समाज के गम्भीर सवालों को सम्बोधित करने के लिए इस्तेमाल किया है बात महज इतनी नहीं है कि उनके लिए माशूक कभी देश है या कभी क्रान्ति। महत्वपूर्ण ये है कि वे उदासी, बेबसी, तकलीफ, असफलता, इन्तजार, उम्मीद और निराशा की बेहद गहरी जिन भावनाओं को व्यक्त करते हैं, वे सब इतिहास और समाज ने एक पूरे उपमहाद्वीप में पैदा कर दी थी। 

नवा-ए-मुर्ग को कहते हैं अब जियाने चमन/ खिले न फूल इसे इंतजाम कहते हैं यानी चिड़ियों के गाने को बाग की बर्बादी कहते हैं और फूल न खिले इसे इंतजाम कहते हैं।

आज हम ऐसे वक्त में हैं जहां हमारे दिल में कहीं गहरे मौजूद जज्बात, बुद्धि और ख्वाब पर भी बाजार की गहरी नजर लगी हुई है। आपने किसी से किसी से इश्क किया और उसके लिए जिए, आपने कोई ख्वाब देखा और अंजाम की फिक्र किए बगैर आपने उसे हकीकत में बदलने के लिए कुर्बान कर दिया, आपने कोई दर्द पाया और उसे दुनिया में अजीमतर समझा, बाजार के लिए यह कोई मूल्य नहीं है। बाजार आपके लिए हर चीज का विकल्प उपलब्ध कराता है। लगातार हर चीज को तुच्छ और हर बार कुछ नया श्रेष्ठ देने का भ्रम भी पैदा करता है। 

करो कज जबीं पे सरे-कफन, मेरे कातिलों को गुमां न हो
कि गुरूर-ए-इश्क का बांकपन, पस-ए-मर्ग हमने भुला दिया

गर बाज़ी इश्क़ की बाज़ी है, जो चाहो लगा दो, डर कैसा
गर जीत गये तो क्या कहना, हारे भी तो बाज़ी मात नहीं

चले भी आओ केः गुलशन का कारोबार चले
मुक़ाम, ‘फ़ैजकोई राह में जँचा ही नहीं
जो कू-ए-यार से निकले तो सू-ए-दार चले

शमशेर को देखें

हक़ीक़त को लाए तखैयुल से बाहर
मेरी मुश्किलों का जो हल कोई लाए
कहीं सर्द ख़ूँ में तड़पती है बिजली
ज़माने का रद्दो-बदल कोई लाए

रोने से कब रात कटेगी
हठ न करो, मन जाओ
मनवा कोई दीप जलाओ
काली रात से ज्योति लाओ
अपने दुख का दीप जलाओ
हठ न करो, मन जाओ
मनवा कोई दीप जलाओ

आज के हिंदुस्तान और पाकिस्तान को देखिए। कितना बदलाव है। पूरे एशिया, तीसरी दुनिया के देशों का ही हाल देख लीजिए। जिसका इतंजार था वह सहर तो आई ही नहीं, वही शबगजीदा सहर यानी रात द्वारा डंसी गई सुबह ही तो सबको मिली। बहार भले वापस आ गई, फूलों के रुखसार भले धुल गए, पर गम तो नहीं गया, इस कारण बहार आने का भी क्या मतलब यानी ऐसे में बहार उस कंट्रास्ट को और तीखा करती है। आगे है उसमें -

सहमे से अफसुर्दा चेहरे
उन पर गम की गर्द वही
जोरो-सितम वैसे के वैसे
सदियों के दुख-दर्द वही
और वही बरसों के बीमार
वापस लौट आई है बहार


हाँ येः जाँ है केः सुख जिसने देखा नहीं
या येः तन जिस पे कपड़े का टुकड़ा नहीं
अपनी दौलत यहीं, अपना धन है यही
अपना जो कुछ भी है, ऐ वतन, है यही
वार देंगे येः सब कुछ तेरे नाम पर
तेरी ललकार पर, तेरे पैग़ाम पर
तेरे पैगाम पर, ऐ वतन, ऐ वतन
हम लुटा देंगे जाने तेरे नाम पर

तेरे ग़द्दार ग़ैरत से मुँह मोड़कर
आज फिर ऐरों-गैरों से सर जोड़कर
तेरी इज़्ज़त का भाव लगाने चले 
तेरी अस्मत का सौदा चुकाने चले

हम में दम है तो येः करने देंगे नः हम
चाल उनकी कोई चलने देंगे नः हम
तुझको बिकने नः देंगे किसी दाम पर
हम लुटा देंगे जानें तेरे नाम पर 
सर कटा देंगे हम तेरे पैग़ाम पर
तेरे पैग़ाम पर, ऐ वतन, ऐ वतन
नज्रे-मौलाना हसरतमोहानी

ग़ज़ल

मर जायेंगे ज़ालिम की हिमायत न करेंगे।
....जो खुद नहीं करते वो हिदायत न करेंगे।

सिपाही का मर्सिया

बैरी बिराजे राज सिंहासन
तुम माटी में लाल
उट्ठो अब माटी से उट्ठो, जागो मेरे लाल
हठ न करो माटी से उट्ठो, जागो मेरे लाल
अब जागो मेरे लाल

वा मेरे वतन 
बार-बार जमीन से उखड़ने का दर्द 

बोल...

बोल के लब आज़ाद हैं तेरे
बोल ज़बाँ अब एक तेरी है

निस्सार मैं तेरी गलियों के
निस्सार मैं तेरी गलियों के ऐ वतन केः जहाँ
चली है रस्म केः कोई न सर उठा के चले

बने हैं अह्ल-ए-हवस, मुद्दई भी मुंसिफ़ भी
किसे वकील करें, किससे मुंसिफी चाहें

अब किसी को यह भी लगता है कि फैज ने पिछड़े वर्गों यानी जाति और लिंग के आधार पर भी लिखा होता तो अच्छा होता। कि फैज की कविता में औरत एक महबूब के रूप में नजर आती है, सहयोगी के रूप में नहीं आती।

इन्तिसाब

आज के नाम
और
आज के ग़म के नाम
आज का ग़म केः है ज़िंदगी के भरे गुलसिताँ से ख़पफा
ज़र्द पत्तों का बन
ज़र्द पत्तों का बन जो मेरा देस है
दर्द की अंजुमन जो मेरा देस है
किलर्कों की अपफ़सुर्दा जानों के नाम

किर्मखुर्दा दिलों और ज़बानों के नाम
पोस्टमैनों के नाम
ताँगेवालों के नाम / रेलबानों के नाम
कारखानों के भोले जियालों के नाम
बादशाह-ए-जहाँ, वाली-ए-मासिवा, नायबुल्लाह-ए-पिफ़ल-अर्ज़, दहक़ाँ के नाम
जिसके ढोरों को ज़ालिम हँका ले गये
जिसकी बेटी को डाकू उठा ले गये
हाथ भर खेत से एक अंगुश्त पटवार ने काट ली है
दूसरी मालिये के बहाने से सरकार ने काट ली है
जिसकी पग ज़ोर वालों के पाँवों तले
ध्ज्जियाँ हो गई है

उन दुखी माओं के नाम 
रात में जिनके बच्चे बिलखते हैं और
नींद की मार खाए हुए बाजुओं से सँभलते नहीं 
दुख बताते नहीं
मिन्नतों ज़ारियों से बहलते नहीं

उन हसीनाओं के नाम
जिनकी आँखों के गुल
चिलमनों और दरीचों की बेलों पे बेकार खिलखिल के
मुर्झा गये हैं

उन ब्याहताओं के नाम,
जिनके बदन
बे-मुहब्बत रियाकार सेजों पे सज-सज के उकता गये हैं
बेवाओं के नाम
कटड़ियों और गलियों, मुहल्लों के नाम
जिनकी नापाक ख़ाशाक से चाँद रातों
को आ-आ के करता है अक्सर वज़ू
जिनके सायों में करती है आह-ओ-बुका
आँचलों की हिना
चूड़ियों की खनक
काकुलों की महक
आरज़ूमंद सीनों की अपने पसीने में जलने की बू

तालिब इल्मों के नाम
वो जो असहाब-ए-तब्ल-ओ-अलम
के दरों पर किताब और कलम
का तक़ाज़ा लिये, हाथ पफैलाये
पहुँचे, मगर लौटकर घर न आये
वोः मासूम जो भोलपन में
वहाँ अपने नन्हें चिरागों में लौ की लगन
ले के पहुँचे, जहाँ
बँट रहे थे घटाटोप, बेअंत रातों के साये

उन असीरों के नाम
जिनके सीनों में फ़र्दा के शबताब गौहर

अपने एक गीत में फैज लिखते हैं-

अपने दर्दों का मुकुट पहनकर
बे-दर्दों के सामने जायें

दर्द का इजहार भी मानो प्रतिकार है, जाहिर किनका प्रतिकार, उनका जो कहते हैं कि कहीं दर्द की कोई वजह नहीं, जिनके लिए भारत चमकता है, जिनके लिए पाकिस्तान खुशहाल है। जो वंचना और दुख के हकीकत को अपने प्रचार के बल पर ढंकना देना चाहते हैं। उनके सामने हंसकर क्यों जाएं, जो बे-दर्द हैं उनके सामने दर्दों का मुकुट पहनकर जाएं।

ग़ज़ल

हम मेहनतकश जगवालों से
जब अपना हिस्सा मांगेंगे
इक खेत नहीं इक देश नहीं
हम सारी दुनिया मांगेंगे
ये सेठ व्यापारी रजवाड़े
दस लाख तो हम दस लाख करोड़
ये कितने दिन अमरीका से
लड़ने का सहारा मांगेंगे

इश्क़ अपने मुजरिमों को पा-ब-जौलां ले चला
दार की रस्सियों के गुलूबंद गरदन में पहने हुए
गानेवाले हरेक रोज गाते रहे
पायलें बेड़ियों की बजाते रहे
नाचनेवाले ध्ूामें मचाते रहे
हम न इस सफ़ में थे और न उस सफ़ में थे
रास्ते में खड़े उनको तकते रहे
रश्क करते रहे
और चुपचाप आंसू बहाते रहे।

लौटकर आके देखा तो फूलों का रंग
जो कभी सुर्ख था ज़र्दं ही ज़र्दं है
अपना पहलू टटोला तो ऐसा लगा
दिल जहां था वहां दर्दं ही दर्दं है
गुलू में कभी तौक़ का वाहमा
कभी पांव में रक़्से-जंजीर
और फिर एक दिन इश्क उन्हीं की तरह
रसन-दर-गुलूपा-ब-जौलां हमें
उसी काफ़िले में कशां ले चले?

फैज की भारतीय उपमहाद्वीप में जो हैसियत है नेरुदा और नाजिम हिकमत जैसे दुनिया के इंकलाबी कवियो जैसी है। आखिर उनकी गजलों और नज्मों में मौजूद गम और उदासी में ऐसा क्या है जो दुनिया के शोषित-उत्पीड़ित-वंचित जन की अंतरात्मा के तार जुड़ते हैं। फैज उस गहन उदासी और पीड़ा के भीतर से मानो इंकलाब की जरूरत पैदा करते हैं और गहन अंधेरे में भी सुबह का यकीन तलाश लाते हैं-

ये ग़म जो इस रात ने दिया है
ये ग़म सहर का यक़ीं बना है
यक़ीं जो ग़म से करीमतर है
सहर जो शब से अज़ीमतर है

फैज की शायरी पढ़ते वक्त कभी नहीं लगता कि वह सिर्फ पाकिस्तान के लिए लिखी गई है। ठीक है कि उस तरह की तानाशाही, भारत में नहीं रहीं, फौज का शासन नहीं रहा, लेकिन सत्ता किस तरह से जम्हूरियत के पर्दे में धीरे-धीरे लोगों को जम्हूरी हकों से वंचित करती गई है, शायद इसे अलग से विश्लेषित करने की जरूरत नहीं है। फैज अपने को मोहनजोदड़ो की सभ्यता और यहां मौजूद तमाम जन सांस्कृतिक परंपराओं से अपने को जोड़ते हैं, कई जगह कबीर भी आपको नजर आएंगे, वही बाजार भी दिखेगा और उसके खिलाफ घर जारकर निकलने का साहस भी यानी घर को दांव पे लगाकर नए समाज और नई दुनिया के लिए निकल पड़ने का साहस। फैज ने कभी इस बंटवारे को अंदरूनी तौर पर स्वीकार नहीं किया, वे इनके बीच बढ़ते अजनबियत को लेकर परेशान रहे- कब नजर में आएगी बेदाग सब्जे की बहार/ खून के धब्बे धुलेंगे कितनी बरसातों के बाद। भले यह ढाका से वापसी पर लिखी हो, लेकिन इसमें तो तीनों मुल्कों के बंटवारे को लेकर गमजदा लोगों का दुख और उम्मीद शामिल है।

फैज लोगों के दिलों में उसकी दबी हई इंकलाब की चाहत को उभारने वाले शायर हैं, इंकलाब के प्रदर्शन वाले शायर नहीं, यही कारण है कि धर्मप्राण जनता से भी वे बिदकते नहीं, बल्कि कई बार धार्मिक शब्दावलियों का बिल्कुल बदले हुए संदर्भों में इस्तेमाल करते हुए शोषण-उत्पीड़न और भेदभाव के प्रति जनता के दुख और मुक्ति की चाह को उन्होंने अपनी जबां दी है- यही तो है जंजीरों में भी जबां रख देना।

हजरत मुहम्मद साहब की तारीफ में लिखी गई उनकी एक फारसी रचना का हिंदी अनुवाद देखिए,-

हर उदास दिल तेरा ठिकाना है
मैं तेरे लिए एक दूसरा ठिकाना लाया हूं
बादशाह और अमीर मुल्क और माल की चिंता में घिरे हैं
और धूल में पड़े ज़माने के बादशाह तेरे फ़क़ीर हैं
चांदी सोने के गुण गाने वाले नये पुजारी उधर हैं
और इधर तेरी मुलाक़ात के आनंद की बात करने वाले लोग हैं
मुल्ला की ज़बान निंदा की ज्वालामुखी है
और तेरी चादर ग़रीबों के आंसुओं से भीगी है
चाहिए यह कि दुनिया भर के ज़ालिम चिल्लाएं
जब तेरे इंसाफ़ और न्याय की घड़ी आ पहुंचे।

या  फिर सन् 67 में पाकिस्तान के स्वाधीनता दिवस पर लिखी नज्म के ये पंक्तियां देखिए-

आइये हाथ उठायें हम भी/हम जिन्हें रस्मे-दुआ याद नहीं/हम जिन्हें सोजे-मोहब्बत के सिवा/कोई बुत कोई खुदा याद नहीं

फैज का स्पष्ट मानना है कि 

जज़ा सज़ा सब यहीं पेः होगी
यहीं आज़ाब-ओ-सवाब होगा
यहीं से उट्ठेगा शोर-ए-महशर
यहीं पेः रोज़-ए-हिसाब होगा


खैर, उनका तराना- लाजिम है कि हम भी देखेंगे तो इसका बेमिसाल उदाहरण है, जिसमें महकूमों के पांव तले धरती के धड़-धड़ धड़कने, सब ताज उछाले जाने और तख्त गिराये जाने तथा आम जन के मसनद पे बिठाए जाने का प्रसंग, उसका स्वप्न पूरी ताकत के साथ आता है- यानी इंकलाब का स्वप्ऩ। 

सिर्फ भारतीय उपमहाद्वीप ही नहीं, दुनिया किसी भी हिस्से में जारी जनता के मुक्ति संग्राम को लेकर फैज बेहद संवेदित दिखते हैं-फ़िलिस्तीनी बच्चे के लिए लोरी, एक नग़मा करबला-ए-बैरूत के लिए, अफ्रीका कम बैक आदि कई रचनाएं इसका उदाहरण हैं। 

नहीं निगाह में मंज़िल तो जुस्तजू ही सही
नहीं विसाल मयस्सर तो आरजू ही सही।

हमने जो तर्जे-फुगां की है कफस में ईजाद
फैजगुलशन में वही तर्जे-बयां ठहरी है

करे न जग में अलाव तो शे’’र किस मकसद
करे न शहर में जल थल तो चश्म-ए-नम क्या है

शायर लोग

हर इक दौर में हम, हर ज़माने में हम
ज़हर पीते रहे गीत गाते रहे
जान देते रहे ज़िंदगी के लिए

[युवा संवाद द्वारा आयोजित, जश्ने फैज़ में सुधीर सुमन जी  द्वारा दिए गये उदबोधन के लिए उनके  कुछ फुटकर नोट] 

[लेखक समकालीन जनमत पत्रिका के संपादक मंडल सदस्य एवं युवा आलोचक हैं] 

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