फै़ज़ को क्यों और कैसे पढे़ ? [भाग 1]
@ प्रणय कृष्ण
साहित्य की दुनिया में हमारे उपमहाद्वीप के लिए फै़ज़ का वही महत्व है जो लैटिन अमरीका के लिए नेरुदा का। ये इस कारण नहीं कि ये दोनों एक साथ राजनीतिक और अदबी शख़्सियत थे, उनकी विचारधारा एक थी, बल्कि इसलिए कि दोनों ही अपने-अपने महाद्वीप/उपमहाद्वीप की सभ्यतागत भावसंरचना की विशिष्टता को सर्वाधिक संप्रेषित कर सके। आज़ादी के बाद के भारत में उर्दू भाषा को राजनैतिक-ऐतिहासिक कारणों से भारी नुकसान उठाना पड़ा जिसके चलते फारसी लिपि जानने वालों की संख्या कम होती गई। बावजूद इसके मुशायरों के प्रचलन से शायरी की मक़बूलियत बनी रही। धीरे-धीरे देवनागरी लिपि में सीमापार रहने वाले बड़े शायरों के लिप्यंतरण भी हिंदी पाठकों तक पहुंचने लगे। लेकिऩ फै़ज का कलाम सर्वाधिक मौसीक़ी के जरिए-बेगम अख्तर से लेकर इकबाल बानो, नैयारा नूर, मेंहदी हसन और ज़िया मोहिउद्दीन की आवाज़ों में हम तक पहुंचा। न जाने कितनी ज़बानों में तर्जुमा होकर फ़ैज़ का कलाम पूरी दुनिया में पहुंचा। शायद हमारे उपमहाद्वीप के किसी कवि-शायर की आवाज़ पूरी दुनिया में इतने बड़े पैमाने पर नहीं फैली, जितनी कि फै़ज़ की आवाज़- किसी सूचना और संचार क्रांति के ज़रिए नहीं, बल्कि एक दर्द के रिश्ते के ज़रिए जिसे दुनिया के कई उपमहाद्वीपों, कई कौमों, कई देशों और ज़्यादातर सताए हुए, वंचित लोग महसूस करते है। फै़ज़ की शायरी और उस शायरी के बारे में जो कुछ भी फारसी लिपि में मौजूद है, (लिपि न जानने के चलते) उससे महरूम रहते हुए बहुत से लोगों के लिए देवनागरी में फै़ज़ को जानने के सिवा कोई चारा नहीं है। कुछ लोग आज भी कहते हैं कि उर्दू अगर देवनागरी में लिखी जाए तो उम्रदराज़ होगी। ऐसे लोगों को सिर्फ इतना याद रखना चाहिए कि ज़बानें खत्म हो जाया करती हैं, लेकिन लिपि ज़िंदा रहती है। लिपि किसी ज़बान की पहचान है, उसका चेहरा-मोहरा है, उसका संचित इतिहास है। किसी भाषा से उसकी लिपि छीनी नहीं जा सकती।
फै़ज़ साहब की शायरी बयान नहीं है, वो अपने पाठकों और श्रोताओं में पहले से मौजूद कुछ जज़्बातों, सपनों, यादों और रिश्तों को जगा देती है। फ़ैज़ की काव्यभाषा मंत्रों की तरह जन समुदाय की भावनाओं और अनुभवों का आवाहन करती है, भूले हुए एहसासों को जगाती है, दिल में गहरे दफन संवेदनाओं को पुकारती है और उन्हें एक ऐसी काव्यात्मक संरचना प्रदान करती है कि लोगों को उसमें अपने जीवन का मायने-मतलब और मूल्य समझ में आता है। उनकी पूरी शायरी अवाम के साथ एक ऐसा संवाद है जो अवाम की चेतना के दबा दिए गए हिस्सों से रू-ब-रू है। कोई भी फै़ज़ का पैसिव श्रोता नहीं हो सकता। उन्हें सुनने वाली अवाम, उन्हें पढ़ने वाला पाठक उनकी शायरी में मानी , अर्थ भरता है। ये वो चीज़ है जो फै़ज़ की शायरी के अवामी और जम्हूरी चरित्र को समझने के लिहाज से महत्वपूर्ण है। उनकी शायरी एक चुम्बक है जिससे खिंचकर न जाने कितने अनुभव जुड़ जाते हैं। जो बात पैदा होती है, वह है एक ऐसी शायरी जो हमें आमंत्रित करती है कि हम सब उसमें अपने अनुभव मिला दें। फै़ज़ का पाठक या श्रोता यह एहसास किए बगैर नहीं रह सकता कि वो उनकी शायरी में शामिल है। फ़ैज़ इंकलाब के प्रचारक नहीं हैं। वे तो अवाम में उसके प्रति ललक, हासिल न हो पाने की मायूसी और अंतहीन उम्मीद के शायर हैं। वे इन भावनाओं का जनता की तरफ से बयान नहीं करते, बल्कि शब्दों के जरिए जनता के भावयंत्र को छेड़ देते हैं। भारतीय ढ़ंग की फारसी शायरी की सारी ही परंपरा को उन्होंने जज़्ब कर लिया और साथ ही साथ जनपदीय बोलियों का रंग लिए कई सुंदर गीत लिखे। माज़ी के महान शायरों को उन्हीं के रंग में याद किया। सौदा, ग़ालिब, अमीर खुसरो, इकबाल या फिर अपने हमअसरों को भी , चाहें वो मखदूम मोहिउद्दीन हो या सज्जाद जहीर। फ़ैज़ जिस देश में पैदा हुए वह एक ही था जो उनके जीवित रहते ही तीन हिस्सों में बंटा। एजाज अहमद ने एक जगह लिखा है कि हमारा राष्ट्रवाद शोकाकुल या गमज़दा राष्ट्रवाद है। एक से तीन हुए हमारे राष्ट्रों का यही प्रामाणिक राष्ट्रवाद है और उसके सबसे बड़े शायर निस्संदेह फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ हैं। फ़ैज़ की शायरी बहुत जगह राष्ट्रगान या प्रार्थना जैसी सामूहिक अभिव्यक्तियां हैं, उन्हें लिखा भले ही किसी एक आदमी ने हो। फ़ैज़ साहब की एक खास नज़्म तो प्रार्थना, राष्ट्रगान और प्रतिरोध की भी नज़्म एक साथ है। ये अलग बात है कि ये राष्ट्रगान शासकों के कथित इस्लामिक राष्ट्रवाद के अत्याचार के खिलाफ आम जनता से एक राष्ट्र के बतौर उठ खडे होने का आह्वान भी है। सन् 67 में पाकिस्तान के स्वाधीनता दिवस पर लिखी इस नज़्म की कुछ पंक्तियाँ इस प्रकार है-
आइए हाथ उठाएं हम भी
हम जिन्हें रस्मे-दुआ याद नहीं
हम जिन्हें सोज़े-मोहब्बत के सिवा
कोई बुत कोई खुदा याद नहीं
आइये, अर्ज़ गुज़ारें कि निगारे-हस्ती
ज़हरे-इमरोज़ में शीरीनी-ए-फर्दा भर दे
(निगारे-हस्ती- जीवन का सौंदर्य, ज़हरे-इमरोज़- वर्तमान का विष, शीरीनी-ए-फर्दा- भविष्य की मिठास)
कहते हैं कि हर बड़ा शायर समझे जाने के लिए एक अलग काव्यशास्त्र की मांग करता है। रुमानियत का काव्यशास्त्र फ़ैज़ को समझने के लिए नाकाफी है। यों रुमानियत के साथ भी आजादी, खुदमुख्तारी और इंसाफ का तसव्वुर जुड़ा हुआ है। डॉ0 रामविलास शर्मा ने तो शेली में मार्क्स से पहले ही मुकम्मल समाजवाद का अक्स देख लिया। लेकिन फ़ैज़ की शायरी रुमानियत के बतौर इंकलाब, एहतेजाज़, इंसाफ की तहरीर के रूप में नहीं पढ़ी जा सकती। वे रुमानी शायर नहीं थे। इस बात को समझने के लिए 18वीं सदी की उर्दू गजल के काव्यशास्त्र में जाना होगा। इस शायरी में आशिक ज़रूरी तौर पर शायर खुद नहीं होता था। इसी तरह माशूक़ ज़रूरी नहीं कि कोई हकीकत में ज़िंदा इंसान हो। यह आशिक और माशूक का रिवायती इश्क था जिसकी मार्फत ज़िंदगी की तमाम पेचीदगियां उजागर की जाती थीं। ग़ज़ल कोई लिरिक या प्रगीत नहीं था जिसमें शायर अपनी व्यक्तिगत भावनाओं और अनुभवों को एक रचनात्मक दबाव के तहत बयान करता था। रुमानी गीत में शायर की अपनी भावनाओं का दबाव ही ज्यादा होता है और इस तरह के कलाम को पाठक या श्रोता के साथ संवाद बनाने का कोई दबाव नहीं होता। यहां इस तरह की शायरी का काव्यशास्त्र बताने वाले इतना तो ठीक कहते हैं कि ग़ज़ल के आशिक और माशूक को ग़ज़ल कहने वाले की ज़ाती ज़िंदगी में खोजने की कोशिश बेकार है। लेकिन जब वे इस पूरे काव्यशास्त्र को यथार्थवाद के खिलाफ खड़ा कर देते है, तो वे गलत कह रहे होते हैं। दरअसल, आशिक और माशूक के संबंधों की मार्फत दर्द-वियोग-मिलन, कुछ मूल्यवान खो जाने का एहसास, असहायता, समर्पण, शौक और इश्क की जिन भावनाओं को व्यक्त किया जाता है, वे किन्ही सामाजिक सच्चाइयों के दबाव में पैदा होती हैं। ये एक पूरी भाव-संरचना है जो रवायत में ढ़ल जाती है और अलग-अलग परिस्थितियों में अपना अलग-अलग मानी पैदा करती है।
फ़ैज़ ने शायरी के इस ढांचे को, उसकी रवायत की पूरी ताकत को अपने देश-समय और समाज के गंभीर सवालों को संबोधित करने के लिए इस्तेमाल किया है। बात महज इतनी नहीं है कि उनके लिए माशूक कभी देश है या कभी क्रांति। महत्वपूर्ण ये है कि वे उदासी, बेबसी, तकलीफ, असफलता, इंतजार, उम्मीद और निराशा की बेहद गहरी जिन भावनाओं को व्यक्त करते हैं, वे सब इतिहास और समाज ने एक पूरे उपमहाद्वीप में पैदा कर दी थी। फ़ैज़ की शायरी एक खास देश-काल में पैदा हुई भाव-संरचनाओं को व्यक्त करती है। शायरी का उपरी भावनात्मक ढ़ांचा रिवायती लग सकता है लेकिन उसकी पूरी बुनावट उसे खास देश-काल में रख देती है।
फ़ैज़ की शायरी पाठ्यपुस्तकों में वर्णित काव्य के पारंपरिक वर्गीकरण- क्लासिकीय, रोमांटिक या आधुनिक में कहीं भी पूरी तरह अंट नहीं पाती। शायद इस कारण भी हिंदी-उर्दू के पुराने कलावादी स्कूल के उत्तर आधुनिक संस्करण ने एक आधी- अधूरी उत्तरसंरचनावादी पाठ पद्धति की आजमाइश फ़ैज़ की शायरी पर की है। उर्दू के एक प्रसिद्ध नक्काद गोपीचंद नारंग साहब का लेख ‘फै़ज़ को कैसे न पढ़ें’ इसी का उदाहरण है। यह लेख हिन्दी पत्रिका कसौटी के ५ वें अंक में छपा। फै़ज़ की शायरी के बाबत इस लेख में नारंग साहब ने लिखा है -
‘‘प्रसिद्धि में अनेकानेक प्रक्रियाओं का समावेश होता है, जैसे व्यक्तित्व की जादूगरी, जीवनगत परिस्थितियां (मुख्यतः यदि उनमें कारावास या ऐसी कोई प्रक्रिया शामिल हो,) सामाजिक स्थिति, किसी खेमे या धारणा से संबंध, संगीतज्ञों का गायन आदि। लेकिन जब इतिहास का ज़ालिम हाथ दूरी उत्पन्न करता है, तो कतिपय बरसातों के बाद सब दाग-धब्बे धुल जाते हैं और बाकी रहती है रचना के पाठ की बेदाग हरियाली की बहार और यही वह सरजमीन है, जिसकी यात्रा फै़ज़ के सच्चे चाहनेवालों ने कम की है।’’(पृष्ठ 49)
नारंग ने अल्थ्यूसर, मार्ले पोंटी और रोला बार्थ के कुछ पाठीय उपकरणों/सिद्धांतों को जोड़-जाड़ कर फ़ैज़ के पाठ की एक ऐसी वैकल्पिक पद्धति का प्रस्ताव किया है जिसमें पंक्तियों/ शब्दों के बीच की जगह/अंतराल और ख़ामोशियों के माध्यम से उनकी शायरी के गहरे, अचेतन, सौन्दर्यात्मक अर्थों की अनेक पर्तों को खंगालने की सलाह दी गई है, जो कि उनके अनुसार सामने की वैचारिक सतह के नीचे दब गई है। नारंग का अभिप्राय यह है कि इस पाठ पद्धति के जरिए अर्थ के दबे हुए संस्तर शायर के क्रांतिकारी उद्देश्यों की बाहरी सतह को तोड़कर उभर आते हैं। नारंग को दुःख है कि उर्दू आलोचना की मुख्यधारा फ़ैज़ की शायरी के सतही राजनैतिक-वैचारिक पाठ से आगे नहीं जाती। नारंग साहब की सुझाई पद्धति की मेरिट पर विचार करने का अवकाश इस लेख में नहीं है। उससे ज़्यादा महत्वपूर्ण है यह जानना कि क्यों वे इस पद्धति की वकालत फै़ज़ के पाठ के लिए कर रहे हैं. इससे वे हासिल क्या करना चाहते हैं? नारंग सौन्दर्यशास्त्र को मार्क्सवाद के, अर्थ को विचारधारा के मुखालिफ़ खड़ा करते हैं। बावजूद इसके उन्हें भी फ़ैज़ की शायरी की बहुस्तरीयता के बीच में एक स्तर उपनिवेश-विरोधी राजनीति का मानना ही पड़ता है। इसका कारण शायद यह है कि उत्तरसंरचनावादी ढब की उत्तरऔपनिवेशिकता भी पूरी तरह से ‘सौन्दर्यीकृत’ नहीं की जा सकती। उसमें राजनीति का दखल न चाहते हुए भी मानना ही पड़ता है। फ़ैज़ के पाठ की जिस पद्धति का सुझाव नारंग देते हैं वह फ़ैज़ की शायरी के अर्थ को नजरअंदाज करने का ही प्रस्ताव है। फ़ैज़ की शायरी वैचारिक-राजनीतिक सतह के नीचे दबे हुए सौन्दर्यात्मक और आनन्दपूर्ण आशयों को खोद कर निकालने की चीज नहीं है जिसका कि पाठ के स्तर पर ही आस्वाद संभव हो क्योंकि इस शायरी की रचना प्रक्रिया और काव्यशास्त्र ही अलग है। उनके पाठक या श्र्रोताओं को कोई मुगालता नहीं रहता जब वे उनकी तमामतर ग़ज़लों में देश विभाजन की राजनैतिक विभीषिका से उत्पन्न मानवीय त्रासदी के अक्स उत्कीर्ण पाते हैं, जबकि ग़ज़ल पारंपरिक प्रेम कविता की विधा समझी जाती है। जब बेगम अख्तर की सन्नाटे को चीरती हुई ग़मज़दा और तड़पती हुई आवाज़ में हम सुनते हैं- ‘‘आखीर-ए-शब के हमसफर फ़ैज़ न जाने क्या हुए/ किस जगह रुक गई सबा, सुबहो किधर निकल गई’’, तो यह हमें या इस उपमहाद्वीप के किसी व्यक्ति को महज़ ‘रोमांटिक एगोनी’ का स्वर नहीं लगेगा। हम इन पंक्तियों में उन दोस्तों, आत्मीयों के खो जाने की अनुगूंज सुनते हैं जबकि रात का अंत और सुबह होने को थी, लेकिन जो सुबह किसी अज्ञात दिशा की ओर मुड़ गई थी और सुबह की खुशनुमा हवा बहनी बंद हो गई थी। ये तमाम बिम्ब उस भीषण क्षति और उस जनता की अकथ वेदना के बिम्ब हैं जिसने अपने दुलारों को खोया था, जिसने बहुप्रतीक्षित आज़ादी की ठंडी हवा को महसूस ही नहीं किया, जिसे अपने हालात पर छोड़ भविष्य की भोर आगे बढ़ गई और जिसके लिए ‘नियति से साक्षात्कार’ शुद्ध यंत्रणा के अलावा कुछ नहीं था। यही वह ज़ख़्म था जो फ़ैज़ की शायरी के सभी रूपों और विषयों में सतत प्रवाहित है, उनके कवि जीवन के अंत तक। फ़ैज़ की शायरी महज़ दुःख की यादों और खो गई दुनिया को ही नहीं उभारती बल्कि वह चाक किए हुए दिलों और रूहों को दिलासा देने, उन्हें दुःख से ऊपर उठाने का दायित्व भी निभाती है-
शाम-ए-फिराक़ अब न पूछ आई और आ के टल गई
दिल था केः फिर बहल गया, जां थी केः फिर संभल गई
देश विभाजन की राजनैतिक विभीषिका को काव्य में दर्ज करने की शुरुआत ‘सुब्ह-ए-आज़ादी: अगस्त 1947’ शीर्षक नज़्म से हुई थी। मशहूर मार्क्सवादी विद्वान इक़बाल अहमद के शब्दों में ‘‘फ़ैज़ ने अद्भुत पूर्वानुमान के साथ स्वतंत्र हुए उपनिवेशों की उत्तरऔपनिवेशिक राजसत्ताओं के प्रति मोहभंग के मूड को पकड़ लिया था। ‘सुब्ह-ए-आज़ादी’ शीर्षक कविता उन्होंने भारत और पाकिस्तान के आज़ाद होने के लगभग 6 महीने बाद लिखी। उस ज़माने में जिस चीज को आज़ादी कहा करते थे, उसके गड़बड़ चरित्र को उन्होंने जबर्दस्त सफाई के साथ पहचान लिया था।’’ ‘सुब्ह-ए-आज़ादी’ की तुलना इक़बाल अहमद ने फ्रैंज़ फैनन की अमर कृति ‘द रेचेड ऑफ दि अर्थ’ से करते हुए कहा कि आज़ादी की लड़ाई की असफलता का फैनन को पर्याप्त अनुभव था। वे घाना में अल्जीरिया के राजदूत रहे थे। उन्होंने नासिर के मिस्र को भी देखा था और अल्जीरिया की आज़ादी को भी। वे अच्छी तरह जानते थे कि उत्तरऔपनिवेशिक सत्ता वास्तव में कितनी औपनिवेशिक और सड़ी हुई थी, लेकिन ‘सुब्ह-ए-आज़ादी’ के कवि को ऐसा कोई विपुल अनुभव नहीं था। उसके लिए तो यह पहला ही अनुभव था। लेकिन शायद ये कहना ठीक नहीं होगा कि फ़ैज़ का अपनी ज़िन्दगी में भोगा हुआ अनुभव ही इस कविता में व्यक्त हुआ है। दरअसल 1857 से लेकर नौसैनिक विद्रोह और तेलंगाना तक भारतीय मुक्ति संग्राम में यह बार-बार हुआ कि जब भी इतिहास में कोई नई चीज पैदा होने की संभावना उत्पन्न होती थी, तभी उस संभावना का गला घुट जाता था, उसकी भ्रूण हत्या हो जाती थी। ये अनुभव तानाशाही के खिलाफ लोकतंत्र के लिए आज़ाद पाकिस्तान में भी बार-बार दोहराए गए। क्रांति के लिए किए गए प्रयासों की असफलता, मेहनतकश अवाम के भीतर जिस संक्रामक उदासी को भर दिया करती है वह उपमहाद्वीप के दोनों राष्ट्रों की एक महत्वपूर्ण भावना है। फ़ैज़ वीरता से लड़कर हार गए लोगों के घावों पर मरहम लगाने वाले, दिलासा देने वाले और अवाम के महान क्रांतिकारी प्रयासों की याद दिलाकर उनमें फिर से उम्मीद भरने वाले शायर हैं। उनकी कोई खास नज़्म या ग़ज़ल चाहे उम्मीद पर ख़त्म हो या उदासी पर, उसमें अफ़सुर्दगी या उदासी बहुत ही गाढ़े रंगों में उभर आती है। फ़ैज़ साहब का यह उपमहाद्वीपीय अनुभव भी उन्हें फिलिस्तीन, बेरुत, इरान, अफ्रीका- हर जगह के मुक्ति संग्राम के योद्धाओं और अवाम के साथ गहरी हमदर्दी से भर देता है।
फ़ैज़ की शायरी में अपने बच्चों के लिए दुःख उठाती या उनकी शहादत का सोग मनाती मां का चित्र बहुत बार आता है। उनकी मशहूर कविता ‘इन्तिसाब’ की पंक्तियां हैं - ‘‘उन दुखी मांओं के नाम/ रात में जिनके बच्चे बिलखते हैं और/ नींद की मार खाए हुए बाजुओं से संभलते नहीं/ दुःख बताते नहीं/ मिन्नतों ज़ारियों से बहलते नहीं।’’ फिलिस्तीनी बच्चे के लिए लिखी गई लोरी में फ़ैज़ कहते हैं - ‘‘मत रो बच्चे/ रो रो के अभी/ तेरी अम्मी की आंख लगी है।’’ फ़ैज़ की शायरी में जहां कहीं भी मां का जिक्र आया है, वह गहरे दुःख के प्रसंगों में ही आया है। ग़ज़ल में पारम्परिक तौर पर स्त्री की एक ही छवि मिलती है और वह है माशूक़ की, जिस छवि में ढेरों प्रतीकार्थो का अभिनिवेश तमाम शायरों ने किया है। लेकिन फै़ज़ के यहाँ एक माँ का तडपता हुआ हृदय शायरी के अनेक रूपों में लगातार मिलता है़.। बच्चों के भी प्रसंग जहाँ कहीं आते हैं, चाहे अलंकार के बतौर ही सही, उनके दुख से बिलखने, ज़िद करने और साथ ही साथ उन्हें बातों से बहलाती-फुसलाती माँ की उदास छवि भी खुद-ब-खुद चली आती है। ‘पास रहो’’ शीर्षक नज़्म में उदासी का एक बिम्ब ऐसा ही है-‘‘और बच्चों के बिलखने की तरह क़ुलकुले-मय/बहरे- नासूदगी मचले तो मनाये न मने/जब कोई बात बनाये न बने/जब न कोई बात चले/जिस घड़ी रात चले/जिस घड़ी मातमी सुनसान, सियह रात चले/पास रहो/ मेरे क़ातिल, मेरे दिलदार, मेरे पास रहो.’’ फ़ैज़ ने शोकगीत कई लिखे। भाई की मौत पर ‘नौहा’ हो, ‘मर्सिया-ए-इमाम’ हो या फिर ‘सिपाही का मर्सिया’, लेकिन ‘सिपाही का मर्सिया’’ की मार्मिकता इस बात से पैदा होती है कि यह शोकगीत एक माँ के नुक्तः-ए-नज़र से लिखा गया है। पूरा शोकगीत उस माँ का हृदयविदारक आर्तनाद है जो अन्याय के खिलाफ लड़ते हुए शहीद हो गए अपने बेटे की मौत पर विश्वास नहीं कर पा रही है और उससे बार-बार उठ खड़े होने का आह्वान कर रही है- ‘‘बैरी बिराजे राज सिंहासन/तुम माटी में लाल/उट्ठो अब माटी से उट्ठो, जागो मेरे लाल/हठ न करो माटी से उट्ठो, जागो मेरे लाल/अब जागो मेरे लाल’’। शहादत के तमाम मार्मिक दृश्य और जज़्बात शुरू से आखीर तक उनकी शायरी में बार-बार प्रकट होते हैं - ‘‘मकाम फ़ैज़ कोई राह में जंचा ही नहीं, जो कू-ए-यार से निकले तो सू-ए-दार चले।’’ इस्लामिक इतिहास में कर्बला की शहादत, सूफी परंपरा में मंसूर जैसों की शहादत, काव्य परंपरा में आशिक/माशूक की शहादत या फिर समकालीन दुनिया और उसके युद्धों में क्रांतिकारियों और देशभक्तों की शहादत के प्रसंग एक ही ज्ञानात्मक संवेदन में फ़ैज़ के यहां ढ़ल जाते हैं।
(लेखक जन संस्कृति मंच के राष्ट्रीय महासचिव एवं समकालीन जनमत पत्रिका के संपादक मंडल सदस्य हैं।)
[ युवा संवाद की राज्य पत्रिका तरकश वार्षिकांक २०११- फैज़ अहमद फैज़ विशेषांक से ]
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