भारत की साझी विरासत: असहज करनेवाले कुछ प्रश्न
सुभाष गाताडे
साझी विरासत का सवाल हिन्दोस्तां ही नहीं बल्कि दक्षिण एशिया के इस हिस्से में जनमानस में व्याप्त अतीत की कुछ अच्छी स्मृतियों से जुड़ा सवाल रहा है। 1857 के महासमर को हम उस अहम मुकाम के तौर पर देख सकते हैं जब साझी विरासत का यह सिलसिला चरम परवान पर दिखा, जब दोनों समुदायों के लोगों ने/सैनिकों ने बहादुरशाह जफ र को – जिनका अपना राज बहुत सिमट चुका था – अपना बादशाह घोषित किया। उर्दू जैसी जुबान के विकास को इसके नायाब प्रतिफ लन के रूप में हम देख सकते हैं, जो यहीं की जमीं पर पैदा हुई, फ ली-फूली और आगे बढ़ी। आजादी के आंदोलन में रामप्रसाद बिस्मिल एवम अशफाकउल्ला खां की साझी शहादत या आजादी के वक्त अहमदाबाद के बसंत एवं रजब की शहादत ऐसी कई मिसालें हमें अपने भूले-बिसरते इतिहास में मिल सकती हैं।
पिछले दिनों मैं आंध्र प्रदेश की यात्रा पर गया था, वहां मेरे मित्रा इनायतुल्ला ने- जो तेलगू के मशहूर लेखक एवम सामाजिक कार्यकर्ता हैं – मुझे बताया कि सूबे के कई जिलों में आज भी अगर मुस्लिम परिवार में संतान जनमती है तो गांव के पंडित को बुलावा भेजा जाता है जो संतान का ‘नाम’ निकालता है। बिहार के सीवान जिले के ग्रामीण इलाकों की यात्रा में मैं यह देख कर चकित-सा था कि जब मोहरम का तजिया उठता था तो सबसे पहला मलीदे का प्रसाद गांव के एक कायस्थ परिवार की तरफ से चढ़ाया जाता था, तजिया बनाने में हिंदू महिलाएं भी अपने स्तर पर योगदान देती थीं। यहां तक कि मेरे एक मित्र रोहित, जिनका जन्म वहां सीवान के पास के गांव में हुआ था, उनके जनमने पर सामने रहनेवाली इस्माइल की मां ने मांगी मन्नत का राज खुला। और रोहित जब पांच साल का हुआ तो तजिये के सामने चलनेवाले ‘हजीरी हुजूरा’ में ‘तलवार भांज कर’ उस मन्नत को पूरा किया गया। मुझे याद है बचपन में मेरी अपनी मां जिस श्रद्धाभाव से सिद्धीविनायक मंदिर में जाती थी, उसी श्रद्धाभाव से मलंगबाबा के दरगे पर हम भाई-बहनों को लेकर जाती थी।
पिछले दिनों मैं आंध्र प्रदेश की यात्रा पर गया था, वहां मेरे मित्रा इनायतुल्ला ने- जो तेलगू के मशहूर लेखक एवम सामाजिक कार्यकर्ता हैं – मुझे बताया कि सूबे के कई जिलों में आज भी अगर मुस्लिम परिवार में संतान जनमती है तो गांव के पंडित को बुलावा भेजा जाता है जो संतान का ‘नाम’ निकालता है। बिहार के सीवान जिले के ग्रामीण इलाकों की यात्रा में मैं यह देख कर चकित-सा था कि जब मोहरम का तजिया उठता था तो सबसे पहला मलीदे का प्रसाद गांव के एक कायस्थ परिवार की तरफ से चढ़ाया जाता था, तजिया बनाने में हिंदू महिलाएं भी अपने स्तर पर योगदान देती थीं। यहां तक कि मेरे एक मित्र रोहित, जिनका जन्म वहां सीवान के पास के गांव में हुआ था, उनके जनमने पर सामने रहनेवाली इस्माइल की मां ने मांगी मन्नत का राज खुला। और रोहित जब पांच साल का हुआ तो तजिये के सामने चलनेवाले ‘हजीरी हुजूरा’ में ‘तलवार भांज कर’ उस मन्नत को पूरा किया गया। मुझे याद है बचपन में मेरी अपनी मां जिस श्रद्धाभाव से सिद्धीविनायक मंदिर में जाती थी, उसी श्रद्धाभाव से मलंगबाबा के दरगे पर हम भाई-बहनों को लेकर जाती थी।
कई सारे उदाहरण हम सभी अपने-अपने जीवन से या सामाजिक दायरे से पेश कर सकते हैं, जो हमारी इस साझी विरासत को बयां करते हों। सबसे पहला सवाल जो मन में उमड़ता है वह इस ‘साझी विरासत’ की विशिष्टता का जिसे कोई गंगा-जमनी तहजीब के नाम से पुकारता है तो कोई किसी अन्य नाम से !
आप पाएंगे कि यूं तो कोई भी समाज किसी खास मुकाम पर अपने अतीत के जनों/संस्कृतियों की मिली-जुली विरासत का वाहक समझा जा सकता है ! दुनिया में शायद ही ऐसा कोई टापू हमें मिले जहां पर रहनेवाले बाशिंदे/समुदाय अन्य लोगों/समुदायों के साथ किसी न किसी किस्म की अंतक्र्रिया में न मुब्तिला रहे हों, फि र वह चाहे आक्रमण के रूप में हो/ व्यापार के रूप में हो या घुमने-फि रने के लिए आए मुसाफि रों के रूप में हो।
आप पाएंगे कि यूं तो कोई भी समाज किसी खास मुकाम पर अपने अतीत के जनों/संस्कृतियों की मिली-जुली विरासत का वाहक समझा जा सकता है ! दुनिया में शायद ही ऐसा कोई टापू हमें मिले जहां पर रहनेवाले बाशिंदे/समुदाय अन्य लोगों/समुदायों के साथ किसी न किसी किस्म की अंतक्र्रिया में न मुब्तिला रहे हों, फि र वह चाहे आक्रमण के रूप में हो/ व्यापार के रूप में हो या घुमने-फि रने के लिए आए मुसाफि रों के रूप में हो।
यह अलग बात है कि हिंदोस्तां के संदर्भ में इस शब्द का खास अर्थ (कनोटेशन) आम तौर पर प्रचलित है, जिसका ताल्लुक मूलत: इस्लाम कबूल किए लोगों/समुदायों के साथ यहां बसे अन्य जनों/समुदायों की चली लंबी अंतक्र्रिया से लगाया जाता है। इसके उदाहरण के तौर पर खान-पान, संगीत, वास्तुकला, भाषा/जुबान रहन-सहन के तरीकों के स्तर पर निर्मित संश्लेषण (सिंथेसिस)से लगा सकते हैं।
कोई यह पूछ सकता है कि अगर यह हमारी साझी विरासत है जो सदियों की अंतक्र्रिया से विकसित हुई है – जिसके विकासक्रम को लेकर किसी को एतराज भी नहीं है – तो फि लवक्त हम उसे लेकर इस कदर परेशां क्यों हैं ?
आम तौर पर किसी भी मसले पर/परिघटना पर तभी बात मुमकिन हो पाती है जब वह गतिमान दिखती है ..बदलाव में ..संक्रमण में दिखती है और चूंकि हमारी इस साझी विरासत को विच्छिन्न करने की कोशिशें परवान चढ़ती दिख रही हंै, इस ताने-बाने में चूंकि दरारें पड़ती दिख रही हैं, इसकी वजह से ही बात करना जरूरी हो चला है।
आम तौर पर किसी भी मसले पर/परिघटना पर तभी बात मुमकिन हो पाती है जब वह गतिमान दिखती है ..बदलाव में ..संक्रमण में दिखती है और चूंकि हमारी इस साझी विरासत को विच्छिन्न करने की कोशिशें परवान चढ़ती दिख रही हंै, इस ताने-बाने में चूंकि दरारें पड़ती दिख रही हैं, इसकी वजह से ही बात करना जरूरी हो चला है।
अपनी चिंता को साझा करने के लिए हम अयोध्या की चर्चा कर सकते हैं। निश्चित तौर पर अगर यहां अयोध्या का नाम लिया जाए तो एक खास तरह की तस्वीर उभरती है। विगत लगभग पचीस सालों से अयोध्या-फैजाबाद का इलाका कुछ अन्य कारणों से ही चर्चित रहा है। यहां पांच सौ साल से कायम रही बाबरी मस्जिद के विध्वंस की जो लंबी-चौड़ी मुहिम चली, जिसकी परिणति उसकी तबाही में हुई और उसी स्थान पर राम के अस्थायी किस्म के मंदिर निर्माण किया गया, इससे हम सभी वाकीफ हैं। यह अकारण नहीं कि अयोध्या का नाम आते ही लोगों के मन की आंखों के सामने हिंसा एवम आगजनी से भरा वह अतीत नमूदार हो जाता है, जिसका खामियाजा तमाम निरपराधों ने पूरे मुल्क में भुगता। इस मुहिम के चलते हिंदुत्ववादी शक्तियों को सत्ता पर काबिज होने का मार्ग निश्चित ही सुगम हुआ था।
वैसे अगर हम इतिहास के पन्नों पलटें तो अलग तरह की तस्वीर दिखती है। यही वह इलाका है जो 1857 के महासमर के केंद्र में था जिसमें हिंदू एवम मुसलमानों ने कंधे से कंधे मिला कर संघर्ष किया था। अहमदुल्लाह और मौलवी अमीर अली के पराक्रम की उन दिनों की गाथाएं आज भी लोगों के बीच सुनी जा सकती हैं। बीसवीं सदी के पूर्वाद्र्ध बाबा रामचंद्र की अगुआई में किसानों की जो हलचलें इस इलाके में चली उनकी खासियत थी इन दोनों समुदायों के लोगों की सहभागिता, आप को मालूम होगा कि बाबा रामचंद्र को फांसी की सजा हुई थी। हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन के अगुआ और काकोरी कांड को अंजाम देनेवालों में अग्रणी – शहीद रामप्रसाद बिस्मिल के अनन्य साथी अशफाकुल्ला खान को यहीं फांसी पर चढ़ाया गया था।
वैसे अगर हम इतिहास के पन्नों पलटें तो अलग तरह की तस्वीर दिखती है। यही वह इलाका है जो 1857 के महासमर के केंद्र में था जिसमें हिंदू एवम मुसलमानों ने कंधे से कंधे मिला कर संघर्ष किया था। अहमदुल्लाह और मौलवी अमीर अली के पराक्रम की उन दिनों की गाथाएं आज भी लोगों के बीच सुनी जा सकती हैं। बीसवीं सदी के पूर्वाद्र्ध बाबा रामचंद्र की अगुआई में किसानों की जो हलचलें इस इलाके में चली उनकी खासियत थी इन दोनों समुदायों के लोगों की सहभागिता, आप को मालूम होगा कि बाबा रामचंद्र को फांसी की सजा हुई थी। हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन के अगुआ और काकोरी कांड को अंजाम देनेवालों में अग्रणी – शहीद रामप्रसाद बिस्मिल के अनन्य साथी अशफाकुल्ला खान को यहीं फांसी पर चढ़ाया गया था।
गौरतलब है कि अयोध्या गंगा-जमुनी तहजीब की एक नायाब मिसाल पेश करता रहा है। यह बात भी रेखांकित करनेवाली है कि अयोध्या में सिर्फ हिंदू एवम मुसलमानों के ही श्रद्धास्थान नहीं हैं वहां जैन, सिख यहां तक कि बौद्धों के विभिन्न श्रद्धास्थान मौजूद हैं। वी बी रावत नामक एक सामाजिक कार्यकर्ता ने अयोध्या के इस अतीत पर एक फिल्म का निर्माण भी किया है। उनके मुताबिक जैनों के धर्मग्रंथों में इसे विशाखा के तौर पर संबोधित किया जाता है। यह भी कहा जाता है कि महावीर के बाद आए पांच तीर्थंकरों ने यहीं जनम लिया। यहां बना ब्रह्यकुंडसाहिब गुरूद्धारा गुरू नानक की यात्रा की याद दिलाता है। हरिद्वार से पुरी जाते वक्त वह यहां रुके थे। गुरू नानक ही नहीं गुरू गोविंद सिंह तथा गुरू तेगबहादुर ने भी यहां प्रवचन दिए हैं।
विभिन्न मंदिरों के अलावा अयोध्या में छोटे बड़े अस्सी से अधिक दरगाह हैं जहां पर दोनों समुदायों के लोग जाते हैं। ताशकंद के युवराज रहे सैय्यद इब्राहिम शहा बाबा दरगाह, इरान के समनान सूबे का राजा सैयद अब्दुल जहांगीर समनानी का दरगाह या बड़ी बुआ जैसी महिला संत का दरगाह खास रूप में चर्चित है। अयोध्या को शहर ए औलिया अर्थात सूफि यों का शहर भी कहा जाता है। कुछ मुस्लिम विद्धानों के मुताबिक अयोध्या की अहमियत को देखते हुए उसे ‘खुर्द मक्का’ अर्थात छोटी मक्का के नाम से भी संबोधित किया जाता है।
इसमें कोई दोराय नहीं कि विगत ढाई दशक से अधिक समय से अयोध्या के बहाने देश के राजनीतिक-सामाजिक जीवन में जो कुछ घटित हुआ है, अयोध्या को खास रंग में ढालने के जो प्रयास चले हैं, उसमें अयोध्या के इस साझे अतीत पर बहुत गर्द जम गयी दिखती है।
लेकिन क्या सिर्फ अयोध्या ही बदला है ?
लेकिन क्या सिर्फ अयोध्या ही बदला है ?
हम यह भी देख सकते हैं कि दक्षिण एशियाई उपमहाद्वीप के इस हिस्से में बने हिंदोस्तां में ही नहीं बल्कि किसी वक्त उसका हिस्सा रहे अगल-बगल के मुल्कों में – जैसे पाकिस्तान हो या बांग्लादेश- भी इस साझी विरासत से मुंह फेरने की या उसे खास रंग-रूप में ढालने की समानांतर प्रक्रिया चलती दिख रही है।
पाकिस्तान या बांग्लादेश से आनेवाली ऐसी खबरें आप ने पढ़ी होंगी कि जिन इलाकों में कट्टरपंथियों का जोर है, वहां सूफी संप्रदाय की मजारों पर जाने की मनाही कर दी गयी है, कुछ मजारें वीरान हो चली हैं, तो कुछ पर संगीत गाने पर रोक लगा दी गयी है। कट्टरपंथियों का यह मानना है कि यह ‘गैरइस्लामिक’ बातें घुस आयी हैं। विगत कुछ समय में पाकिस्तान की कई मजारों पर आत्मघाती हमले भी हुए हैं ताकि वहां जाकर इबादत करनेवालों को डरा दिया जाए।
पाकिस्तान या बांग्लादेश से आनेवाली ऐसी खबरें आप ने पढ़ी होंगी कि जिन इलाकों में कट्टरपंथियों का जोर है, वहां सूफी संप्रदाय की मजारों पर जाने की मनाही कर दी गयी है, कुछ मजारें वीरान हो चली हैं, तो कुछ पर संगीत गाने पर रोक लगा दी गयी है। कट्टरपंथियों का यह मानना है कि यह ‘गैरइस्लामिक’ बातें घुस आयी हैं। विगत कुछ समय में पाकिस्तान की कई मजारों पर आत्मघाती हमले भी हुए हैं ताकि वहां जाकर इबादत करनेवालों को डरा दिया जाए।
पिछले दिनों मैंने पाकिस्तान के मशहूर भौतिकीविद् एवम मानवाधिकार कार्यकर्ता परवेज हुदभॉय का लेख पढ़ा था ‘द सऊदाइजेशन ऑफ पाकिस्तान’ अर्थात पाकिस्तान का सऊदीकरण जिसमें वह सऊदी अरब में प्रचलित वहाब मत के पाकिस्तान में बढ़ते प्रभाव की चर्चा करते हैं जिसके अंतर्गत लोकसंस्कृति में लंबे समय से जड़मूल तमाम प्रथाओं से किनारा करने की, ‘विशुद्ध इस्लाम’ की तरफ बढऩे की या महिलाओं को अधिकाधिक परदे में रखने की चर्चा करते हैं।
आज से चार साल पहले जब मोहतरमा खालिदा जिया बांग्लादेश की वजीरे आजम थीं, जिन दिनों ऐसे कट्टरपंथी तत्वों को शह मिली थी, उस वक्त एक संगीत कार्यक्रम पर हुए आतंकी हमले की ख़बर सूर्खियां बनी थीं, जिसे वहां के दोनों समुदायों के लोगों ने पेश किया था। आतंकी समूहों का गुस्सा इस बात पर था कि आखिर ऐसी चीजें क्यों की जा रही हैं जिन पर मनाही है।
आज से चार साल पहले जब मोहतरमा खालिदा जिया बांग्लादेश की वजीरे आजम थीं, जिन दिनों ऐसे कट्टरपंथी तत्वों को शह मिली थी, उस वक्त एक संगीत कार्यक्रम पर हुए आतंकी हमले की ख़बर सूर्खियां बनी थीं, जिसे वहां के दोनों समुदायों के लोगों ने पेश किया था। आतंकी समूहों का गुस्सा इस बात पर था कि आखिर ऐसी चीजें क्यों की जा रही हैं जिन पर मनाही है।
योगिंदर सिकं द नामक एक सेक्युलर विद्वान हैं जो साझी संस्कृति से जुड़े मसलों पर नियमित लिखते रहते हैं, उन्होंने देश के ऐसे विभिन्न स्थानों का दौरा कर एक किताब ही लिख डाली है कि किस तरह ऐसे स्थानों को विशिष्ट धर्म के रंग-रूप में ढाला जा रहा है। साईंबाबा को ही देखें -शिरडी के इस सूफी संत का जिस तरह हिंदूकरण किया गया है – वह हम सबके सामने है।
एक दूसरे विद्वान हैं बद्री नारायण – जो इलाहाबाद में एक शोध संस्थान में कार्यरत हैं जिंहोंने भी इस मसले पर लेखन किया है। वह बहराइच के गाजी मियां की मजार के रूपान्तरण का किस्सा बयां करते हैं कि किस तरह देखते ही देखते उसे विशिष्ट धर्म/संप्रदाय के प्रतीक के रूप में ढाल दिया गया।
साझेपन से तौबा करके इकहरे आगे बढऩे की इन कोशिशों की छाया जुबानों पर भी पड़ी है। अगर हम जुबानों के विकास को ही देखें तो पता चलता है कि जिस तरह आधुनिक हिंदी का विकास – फारसी एवम अरबी शब्दों को ढूंढ-ढूंढ कर निकाल कर संपन्न हुआ – उसी तरह उर्दू से भी तमाम तत्सम शब्द निकाले गए और उसका अधिक फारसीकरण किया गया। आजादी के वक्त जिस हिंदोस्तानी का प्रचलन था, जिसमें उर्दू के तमाम शब्द थे- जिसे राष्ट्रभाषा बनाने पर महात्मा गांधी का जोर था – वह पता नहीं कहां दफ न हो गयी।
साझेपन से तौबा करके इकहरे आगे बढऩे की इन कोशिशों की छाया जुबानों पर भी पड़ी है। अगर हम जुबानों के विकास को ही देखें तो पता चलता है कि जिस तरह आधुनिक हिंदी का विकास – फारसी एवम अरबी शब्दों को ढूंढ-ढूंढ कर निकाल कर संपन्न हुआ – उसी तरह उर्दू से भी तमाम तत्सम शब्द निकाले गए और उसका अधिक फारसीकरण किया गया। आजादी के वक्त जिस हिंदोस्तानी का प्रचलन था, जिसमें उर्दू के तमाम शब्द थे- जिसे राष्ट्रभाषा बनाने पर महात्मा गांधी का जोर था – वह पता नहीं कहां दफ न हो गयी।
आज कल जब पढ़े-लिखें लोग भी अपने दड़बों तक या अपने घेट्टो तक सिमटते दिख रहे हैं उस वक्त इस साझी विरासत की निर्माण प्रक्रिया पर सोचना विस्मयकारी लग सकता है।
मैंने खुद इस विषय का विस्तृत अध्ययन नहीं किया है, मगर हम अंदाजा लगा सकते हैं कि इसके लिए उस जमाने के शासक वर्गों ने कोई विशेष प्रयास नहीं किए होंगे, लोगों के मिलेजुले प्रयासों से, दैनंदिन जीवन में साथ रहने-जीने की जरूरतों में इनका निर्माण हुआ होगा। एक धर्म/संप्रदाय विशेष की कमियों/खामियों से परेशान लोगों ने दूसरे धर्म/संप्रदाय से उसकी अच्छी चीजें सीखने की कोशिश की होगी। कहीं अचेत कहीं सचेत ढंग से लेन-देन का यह सिलसिला आगे बढ़ा होगा।
एक तरह से कह सकते हैं कि साझी संस्कृति की ताकत यही थी कि वह जिंदगी के उन दायरों तक सीमित थी जिसमें सत्ता का सवाल शामिल नहीं था। यह साझापन या मेलजोल तबतक अक्षुण्ण बना रहा जब तक उसमें बाहर से या ऊपर से कोई हस्तक्षेप या दखल नहीं दिया गया। एक बार जब दखल शुरू हुआ – फिर चाहे अभिजात वर्गों की तरफ से हो या राज्य की तरफ से हो – तब इस साझेपन में दरारे पडऩे का सिलसिला शुरू हुआ।
एक तरह से कह सकते हैं कि साझी संस्कृति की ताकत यही थी कि वह जिंदगी के उन दायरों तक सीमित थी जिसमें सत्ता का सवाल शामिल नहीं था। यह साझापन या मेलजोल तबतक अक्षुण्ण बना रहा जब तक उसमें बाहर से या ऊपर से कोई हस्तक्षेप या दखल नहीं दिया गया। एक बार जब दखल शुरू हुआ – फिर चाहे अभिजात वर्गों की तरफ से हो या राज्य की तरफ से हो – तब इस साझेपन में दरारे पडऩे का सिलसिला शुरू हुआ।
औपनिवेशिक काल में जब धीरे-धीरे सत्ता का प्रश्न अलग अलग समूहों का केन्द्रीय सरोकार बनता गया, तब अगुआ स्थिति में खड़े लोगों/समूहों के लिए यह आवश्यक हुआ कि वे लोगों को अपने पीछे गोलबन्द करें। भारतीय समाज में राजनीतिक लामबन्दी का यह चरण था और जिसके अन्तर्गत जो दौड़ में थे वे एक अलग/नए मुक़ाम तक पहुंच सके।
यह विचारणीय मसला है कि क्या इस सांझी विरासत को नए सिरेसे हासिल किया जा सकता है या उसकी तरफ लौटा जा सकता है ?
मेरे एक मित्र अक्सर यही कहते हैं कि यह भारत की साझी संस्कृति ही है जिसने अभी तक हमें बचाया है। प्रश्न उठता है कि क्या इस साझी विरासत को हम नए सिरेसे पा सकते हैं या नहीं?
यह विचारणीय मसला है कि क्या इस सांझी विरासत को नए सिरेसे हासिल किया जा सकता है या उसकी तरफ लौटा जा सकता है ?
मेरे एक मित्र अक्सर यही कहते हैं कि यह भारत की साझी संस्कृति ही है जिसने अभी तक हमें बचाया है। प्रश्न उठता है कि क्या इस साझी विरासत को हम नए सिरेसे पा सकते हैं या नहीं?
मेरे खयाल से समूचे मुल्क में जिस तरह का वातावरण बना है उसमें पुराने दौर को लौटाने की बात सोचना आकाशकुसुम पाने की अभिलाषा जैसा लगता है, हां, जितना बचा है – उसकी हिफाजत अवश्य की जा सकती है।
दूसरे यह भी समझने की जरूरत है कि इस साझी विरासत के कुछ ऐसे पहलू होंगे जिन पर हम आज भी नाज कर सकते हैं या जिन्हें हम आज भी आगे ले जाना चाहेंगे, मगर कुछ ऐसी भी बातें/पहलू हो सकते हैं जिन पर अपने समय की गहरी छाप पड़ी हो, जो 21 वीं सदी के भारतीय समाज के लिए बेकार हो गए हों। मिसाल के तौर पर क्या इस साझी विरासत में तर्कबुद्धि/वैज्ञानिक चिन्तन/आत्मप्रश्नेयता की प्रधानता थी या अनुभव/स्वीकार/समर्पण/रहस्यवाद की प्रधानता थी।
क्या इस विरासत में स्त्रियों के/शूद्रों/अतिशूद्रों की वंचना की स्थिति पर कोई प्रश्नचिह्न था या उसे नियति मान उसका स्वीकार था ?
एक तरीका यह हो सकता है कि हम अपनी समूची मेधा इस साझी विरासत की हिफाजत में लगा दें और इसकी विसंगतियों/विषमताओं/विडम्बनाओं पर परदा डाले रहें। दूसरा तरीका यह हो सकता है कि एक समतामूलक समाज के निर्माण के लिए न्याय, प्रगति और शान्ति की त्रिसूत्री के साथ हम आगे बढ़ें और इस संकल्प को पूरा करने में अपनी समूची मेधा एवम क्षमता को लगा दें।
नया रचने की इस कोशिश में ही अतीत की अच्छी चीजों को बचाया जा सकता है।
किसी ने ठीक कहा है ‘रचोगे तो बचोगे।’
दूसरे यह भी समझने की जरूरत है कि इस साझी विरासत के कुछ ऐसे पहलू होंगे जिन पर हम आज भी नाज कर सकते हैं या जिन्हें हम आज भी आगे ले जाना चाहेंगे, मगर कुछ ऐसी भी बातें/पहलू हो सकते हैं जिन पर अपने समय की गहरी छाप पड़ी हो, जो 21 वीं सदी के भारतीय समाज के लिए बेकार हो गए हों। मिसाल के तौर पर क्या इस साझी विरासत में तर्कबुद्धि/वैज्ञानिक चिन्तन/आत्मप्रश्नेयता की प्रधानता थी या अनुभव/स्वीकार/समर्पण/रहस्यवाद की प्रधानता थी।
क्या इस विरासत में स्त्रियों के/शूद्रों/अतिशूद्रों की वंचना की स्थिति पर कोई प्रश्नचिह्न था या उसे नियति मान उसका स्वीकार था ?
एक तरीका यह हो सकता है कि हम अपनी समूची मेधा इस साझी विरासत की हिफाजत में लगा दें और इसकी विसंगतियों/विषमताओं/विडम्बनाओं पर परदा डाले रहें। दूसरा तरीका यह हो सकता है कि एक समतामूलक समाज के निर्माण के लिए न्याय, प्रगति और शान्ति की त्रिसूत्री के साथ हम आगे बढ़ें और इस संकल्प को पूरा करने में अपनी समूची मेधा एवम क्षमता को लगा दें।
नया रचने की इस कोशिश में ही अतीत की अच्छी चीजों को बचाया जा सकता है।
किसी ने ठीक कहा है ‘रचोगे तो बचोगे।’
अंतिम प्रश्न यह उठता है कि रचने की शुरूआत कहां से की जाए ?
निश्चित ही उसका आगाज़ हम अपने घर से, अपने मोहल्ले से अपने कस्बे से कर सकते हैं।
इतिहास इस बात का गवाह है कि बहुत बड़े बड़े कामों की शुरूआत ऐसे लोगों ने की, जो गुमनाम रहे, हम लाख कोशिश करें हम उनका नाम-पता कभी नहीं जान पाएंगे।
यह समझने की जरूरत है कि साझी विरासत का विलोम अगर इकहरी या साम्प्रदायिक विरासत है जो विशिष्ट रंग, रूप, समुदाय में जनमे व्यक्ति को सर्वोच्च मानती है तो इसे भेदने का सबसे आसान तरीका है घेट्टोकरण के इस सिलसिले को लगातार छोटी बड़ी चुनौती देना। रचनात्मक कामों से लेकर संघर्षात्मक कामों के लम्बे सिलसिले के जरिए जनजागृति को आगे बढ़ाते जाना।
आप पाएंगे कि कोई किसी भी संप्रदाय का हो, समुदाय का हो, खुदा या ईश्वर को माननेवाला आस्तिक हो या ईश्वर के अस्तित्व को चुनौती देनेवाला नास्तिक हो हम सबके दुख, हम सबकी परेशानियों, हम सबकी हसरतों में कितना कुछ साझा है, कितना कुछ एक जैसा है। इन विभिन्न रंग-रेखाओं को एक दूसरे के साथ जोडऩे की कोशिश करेंगे तो आप पाएंगे कि आप अकेले नहंी है।
सर्वेश्वरदयाल सक्सेना के लब्ज दोहराते हुए कह सकता हूं: विपत्ति में तुम अकेले नहीं हो/ असंख्य सोते कुलबुलाते हैं चट्टानों में/ इन्हें पहचानो/ राह निकलेगी/ निश्चय…।
अति उत्तम लेख
ReplyDelete