अन्ना आंदोलन- साईड इफेक्ट्स हो सकते हैं खतरनाक
-राम पुनियानी
अन्ना हजारे ने लोकपाल विधेयक का मसौदा तैयार करने और उसे लागू करने की माँग को लेकर उपवास किया। इस उपवास ने पूरे देश में धूम मचा दी। समाज के एक मुखर व चतुर रणनीतिकार तबके ने अन्नाजी के आंदोलन को क्रांति का स्वरूप देने में कोई कसर नहीं छोड़ी। अन्नाजी के आमरण अनशन से उपजी भावनाओं की सुनामी इतनी शक्तिशाली थी कि मीडिया ने इस आंदोलन को “दूसरे स्वाधीनता संग्राम“ की संज्ञा देना शरू कर दिया।
यह साफ है कि आमजनों में वर्तमान व्यवस्था के प्रति आक्रोश है परंतु यह भी उतना ही साफ है कि इस आक्रोश , इस असंतोष की जड़ में पिछले कुछ वर्षों में उजागर हुए घोटाले हैं। सरकार ने इस आंदोलन के दबाव के आगे झुकना बेहतर समझा। परंतु जंतर-मंतर के इस मेले ने कुछ प्रष्नों, कुछ शंकाओं को जन्म दिया है और इन प्रष्नों व शंकाओं के समाधनकारक उत्तर खोजे जाना बाकी हैं।
जंतर-मंतर के पूरे घटनाक्रम की पृष्ठभूमि में थीं भारत माता, जो कि हिन्दुओं के एक वर्ग के लिए भारत की प्रतीक हैं। अगर भारत माता की जगह महात्मा गाँधी इस आंदोलन की पृष्ठभूमि में होते तो न केवल यह आंदोलन सभी धर्मों के नागरिकों को स्वीकार्य होता वरन् इससे पूरे देश को नैतिक बल भी मिलता। अगर यह आंदोलन, महात्मा गाँधी को पृष्ठभूमि में रखकर चलाया गया होता तो इससे यह संदेश पूरे देश में जाता कि भ्रष्टाचार के विरूद्ध युद्ध को उस राजनीति से विलग करके संचालित नहीं किया जा सकता जो राजनीति देश के गरीब और हाषिए पर पटक दिए गए वर्गों के प्रति हो रहे अन्याय की पोशक है।
यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि चुने हुए जनप्रतिनिधियों के मुँह पर इस हद तक कालिख पोती गई कि प्रजातांत्रिक व्यवस्था को ही कटघरे में खड़ा कर दिया गया। जिन लोगों ने अपने हाथों पर लिख रखा था कि “मेरा नेता चोर है“, वे जनप्रतिनिधियों का तो घोर अपमान कर ही रहे थे, वे पूरी चुनाव प्रक्रिया के प्रति तिरस्कार का भाव भी प्रदर्षित कर रहे थे।
यह स्वीकार करने में किसी को आपत्ति नहीं हो सकती कि हमारी चुनाव प्रक्रिया को औद्योगिक जगत के बेजा हस्तक्षेप और धनबल व शारीरिक बल के इस्तेमाल ने काफी हद तक दूशित कर दिया है पंरतु सभी जनप्रतिनिधियों को भ्रष्ट व सिद्धांतविहीन बताना भी उचित नहीं कहा जा सकता। सभी नेताओं के साथ-साथ सभी मतदाताओं को भी यह कहकर अपनमानित किया गया कि वे शराब या पैसे के बदले अपना वोट देते हैं। यह मान्यता गलत है कि केवल शराब या पैसे या टी.व्ही. सेट बांट कर चुनाव जीते जा सकते हैं। हमारी चुनाव पद्धति में व्यापक सुधारों की आवष्यकता से कोई इंकार नहीं कर सकता परंतु वह पूरी तरह से सड़ चुकी है या बिलकुल बेकार है, यह मानना भी अनुचित होगा।
फिर, इस आंदोलन के नेतृत्वकर्ताओं के बारे में कई शंकाएं-कुशंकाएं उठ रहीं हैं। अन्ना हजारे इस आंदोलन के सुप्रीम कमांडर थे परंतु उनकी बगल में थे बाबा रामदेव, जिनकी राजनैतिक प्रतिबद्धताएं अब उतनी गुप्त नहीं रह गईं हैं जितनी की उनकी जादुई दवाईयों के फार्मूले। बाबा रामदेव, राजनीति के एक विषिष्ट ब्रांड के प्रचारक हैं। योगी के भेश में वे ऐसी राजनीति का पोषण कर रहे हैं जो प्रजातांत्रिक मूल्यों के खिलाफ है। बाबा के साथ, आर.एस.एस. नेता राम माधव भी मंच पर चहलकदमी कर रहे थे। श्री श्री रविषंकर भी वहां थे। ये दोनों बाबा,अयोध्या में भव्य राम मंदिर के निर्माण के समर्थक हैं। इस तथ्य से ही उनकी राजनैतिक वफादारी स्पष्ट हो जाती है। “कोर कमेटी“ के अन्य सदस्य अवष्य स्वतंत्र सोच वाले हैं पंरतु अन्नाजी-रामदेव-रविशंकर एंड कंपनी द्वारा आंदोलन को जो दिशा दी जा रही है, उसे पलटने में वे कितने कामयाब होंगे, यह कहना मुष्किल है।
नरेन्द्र मोदी की तारीफ कर, अन्नाजी ने भी अपनी दक्षिणपंथी सोच को उजागर कर दिया। ऐसा बताया जाता है कि अपने पैतृक गाँव, महाराष्ट्र के रालेगाँव सिद्धी में अन्नाजी ने अपने समाजसुधार आंदोलन का संचालन भी काफी तानाशाहीपूर्ण अंदाज में किया था। उन्होंने यह सुनिष्चित किया कि उनके गांव मे जातिगत व लैंगिक ऊँचनीच के पिरामिड को जरा सी भी क्षति न पहुंचे। और अब, नरेन्द्र मोदी की तारीफ करने से उनकी कलई पूरी तरह से खुल गई है। नरेन्द्र मोदी भले ही अपनी छवि एक “ईमानदार“ प्रशासक की बनाने में सफल हो गए हों पंरतु गुजरात की असलियत को मल्लिका साराभाई, चुन्नीभाई वैद्य, रोहित प्रजापति व तृप्ति शाह जैसी शख्सियतों से बेहतर कौन जान सकता है। ये सभी एकमत हैं कि गुजरात के गाँवों की हालत बहुत खराब है, रोजगार की तलाश में गाँववाले बड़ी संख्या में शहरों की ओर पलायन कर रहे हैं और उनकी कृषि भूमि, नरेन्द्र मोदी अपने प्रिय उद्योगपतियों को मुफ्त के भाव बाँट रहे हैं। गुजरात का ग्रामीण क्षेत्र भयावह गरीबी के पंजे में है। लाखों किसान, जिनकी जमीनें उद्योगपतियों को सौंप दी गईं हैं, आज तक मुआवजे का इंतजार ही कर रहे हैं। दरअसल, गुजरात की सही स्थिति को समझने के लिए भ्रष्टाचार षब्द की पुनःर्व्याख्या आवष्यक है। गुजरात को उद्योगपति दोनों हाथों से लूट रहे हैं। मोदी की नीतियों से सरकारी खजाना तेजी से खाली हो रहा है। कुबेरपतियों को तरह तरह की छूटें व अनुदान दिए जा रहे हैं। टाटा के नैनो कारखाने के लिए दिया गया भारी अनुदान इस लूट का मात्र एक उदाहरण है।
नरेन्द्र मोदी के प्रशंसकों को शायद यह तो पता होगा ही कि मोदी ने आज तक अपने राज्य में लोकायुक्त की नियुक्ति नहीं की है। राज्य में कई घोटाले हो चुके हैं पंरतु वे अखबारों की सुर्खियाँ नहीं बने। मोदी के खिलाफ कई गंभीर अपराध करने के आरोप हैं और उच्चतम न्यायालय उन्हें नीरो की संज्ञा दे चुका है- वही नीरो जो बांसुरी बजाते हुए आग में जल रहे रोम को निहारता रहा था। मोदी निहायत व्यक्तिवादी और अपनी मनमानी करने वाले नेता हैं। अगर कोई व्यक्ति मोदी-जिनके हाथ निर्दोषों के खून से रंगे हुए हैं-के काम की तारीफ करता है तो वह उसका भोलापन नहीं बल्कि उसके राजनैतिक एजेंडे का भाग है। अन्ना हजारे तो राज ठाकरे के भी प्रशंसक हैं। उनके अनुसार, राज ठाकरे के विचार तो ठीक हैं परंतु ठाकरे को हिंसा का सहारा नहीं लेना चाहिए। अन्ना शा यद यह भूल गए कि हिंसा, उस राजनैतिक सोच का अपरिहार्य नतीजा है, जिस सोच को ठाकरे व मोदी हवा देते रहे हैं।
शहरी मध्यम वर्ग ने जिस जोशो -खरोश से अन्नाजी के आंदोलन में भागीदारी की, वह इस वर्ग में व्याप्त कुंठा और गुस्से को प्रतिबिंबित करती है। यह जनसमर्थन कुछ हद तक स्वस्फूर्त परंतु मुख्यतः जुटाया गया था। जनसमर्थन जुटाने का यह काम उन राजनैतिक ताकतों ने अंजाम दिया था जो पहले भी मध्यम वर्ग के समर्थन को वोटों में बदल कर अपना उल्लू सीधा कर चुकी हैं।
जयप्रकाश नारायण के आंदोलन को अन्नाजी के आंदोलन से कहीं अधिक जनसमर्थन मिला था-और इस आंदोलन के समर्थक, समाज के चंद वर्गों तक सीमित नहीं थे। फिर भी, आर.एस.एस. ने जेपी आंदोलन को अपने नियंत्रण में ले लिया था। नानाजी देशमुख इस आंदोलन के प्रथम पंक्ति के नेताओं में शुमार हो गए थे। अपने पवित्र लक्ष्यों के बावजूद, जेपी आंदोलन ने उन ताकतों को स्वीकार्यता दी जो राष्ट्रपिता की हत्या के लिए जिम्मेदार थीं और जिन्हें तब तक हेय दृष्टि से देखा जाता था। इसी तरह, वी .पी. सिंह के भ्रष्टाचार-विरोधी अभियान की कमान जल्दी ही उन शक्तियों के हाथों में चली गई, जिन्होंने आगे चलकर बाबरी मस्जिद को ढ़हाया। इन दोनों भ्रष्टाचार-विरोधी आंदोलनों ने आर.एस.एस. व उसकी राजनैतिक शाखा को इतना पुष्ट किया कि लोकसभा में मात्र दो सीटें हासिल करने वाली पार्टी, दिल्ली में सत्ता के सोपान तक पहँुच गई।
विडंबना यह है कि अन्नाजी के आंदोलन में जहां शा सक दल व राजनेताओं पर असंख्य बाणों की बौछार की गई वहीं भ्रष्ट व्यवस्था की एक महत्वपूर्ण कड़ी-उद्योग समूहों-के बारे में एक शब्द भी नहीं कहा गया। सच तो यह है कि जिस तरीके से यह आंदोलन संचालित किया गया उससे यह संदेश गया कि रिष्वत देकर अपने काम करवाने वाला उद्योग जगत, फरिष्तों से भरा है।
कुछ दशकों पहले तक, जब अर्थव्यवस्था राज्य-नियंत्रित थी और तथाकथित लाईसेन्स-परमिट राज का बोलबाला था तब यह कहा जाता था कि भ्रष्टाचार की जड़ में अर्थव्यवस्था पर राज्य का अति व अनावष्यक नियंत्रण है। वैष्वीकरण व उदारीकरण के बाद, भ्रष्टाचार में कमी आना तो दूर, वह नई ऊँचाईयों को छूने लगा। अब घोटाले कुछ करोड़ रूपयों के नहीं हजारों करोड़ रूपयों के होते हैं। और इन घोटालों के लिए उद्योग जगत भी उतना ही जिम्मेदार है जितने कि राजनेता, मंत्री व नौकरशाह।
इसमें कोई संदेह नहीं कि भ्रष्टाचार हमारी व्यवस्था पर एक बदनुमा दाग है। केवल राजनीतिज्ञों व राजनैतिक पार्टियों को खलनायक निरूपित करने से इस समस्या का हल होने वाला नहीं है। सरकारी तंत्र में पारदर्षिता का अभाव, चुने हुए जनप्रतिनिधियों की जवाबदेही निष्चित न किया जाना, हमारे अर्थतंत्र की प्रकृति व अन्यायपूर्ण सामाजिक व्यवस्था, भ्रष्टाचार के फलने-फूलने के लिए जिम्मेदार कारकों में से कुछ हैं। अन्नाजी के आंदोलन को मिले जनसमर्थन का स्वागत है परंतु इस आंदोलन को धार्मिक प्रतीकों व सांप्रदायिक मानसिकता से मुक्त किया जाना आवष्यक है। हमें आशा है कि लोकपाल विधेयक का मसौदा तैयार करने वाली समिति और इस आंदोलन का सामूहिक नेतृत्व, इन मुद्दों को तव्वजो देगा और इस आंदोलन का वही हश्र नहीं होगा जो कि पिछले दो भ्रष्टाचार-विरोधी आंदोलनों का हुआ। इस आंदोलन का नेतृत्व, दक्षिणपंथी ताकतों से सुरक्षित दूरी बनाए रखेगा, ऐसी हमारी कामना, विष्वास व आशा है।
(लेखक आई.आई.टी. मुंबई में पढ़ाते थे, और सन् 2007 के नेशनल कम्यूनल हार्मोनी एवार्ड से सम्मानित हैं।)
Haan bhai.....ek naye budhjeevi sabit karo apnee aap ko.
ReplyDeletekoi na koi award jarur mil jayeega....bhale hi kisi ka bhalla na hoo.
gulshan ji app khana kya chate hain .. saaf saaf batiyea na ...
ReplyDeleteJo Bhai Anna k is Anshan ka virodh kr rahe h unke liye bahut jyada khush hone ki khabar h....................ye Anshan-kari sarkari sad-yanter m fanste ja rahe h.............. ek baat aur : hum leftist log rightist logon m thhori-si bhi nek-niyti ko shak ki nazaron se dekhte h........ye kya km uplabdhi h ki jis safed Topi se Log nafrat karne lage thhe usko fir se Izzat-bhari(Asha-bhari)nazron se dekh rahe h....be-shak kuchh pl k liye hi sahi........Virodh kiziye kyonki hum leftist to paida hi virodh karne k liye huve h.......hum logo ka kuchh ho nahi sakta ! Lal-Slaam!
ReplyDelete//"अन्ना हजारे इस आंदोलन के सुप्रीम कमांडर थे परंतु उनकी बगल में थे बाबा रामदेव, जिनकी राजनैतिक प्रतिबद्धताएं अब उतनी गुप्त नहीं रह गईं हैं"//
ReplyDeleteयहाँ पर आपका ध्यान मैं बाबा रामदेव की ओर खींचना चाहता हूँ| आपके यह शब्द मुझे बहुत अजीब लगे| इस आन्दोलन के सुप्रीम कमांडर अन्ना हजारे नहीं बल्कि बाबा रामदेव थे| यह सारा आन्दोलन बाबा रामदेव द्वारा चलाया गया था जिसके कि आखिर में अन्ना हजारे सुप्रीम कमांडर के रूप में उभर कर आये|
इसी आन्दोलन को जब बाबा रामदेव चला रहे थे तो मीडिया नें सारी बैटन को दबा कर रखा था| दिल्ली के रामलीला मैदान में १०,००० लोग बाबा के साथ खड़े थे जिसका मीडिया में कोई नमो निशान नहीं था|
मैं बाबा रामदेव का समर्थक नहीं हूँ, पर मेरा सवाल यह है कि जिस अन्दंदोलन को बाबा रामदेव के नेतृत्व में मीडिया का समर्थन हासिल नहीं था वह अचानक से अन्ना के नेतृत्व में कैसे बदल गया और मीडिया एकाएक उसे बढ़ावा कैसे देने लगा?