मोमबत्तियों की रौशनी का दायरा
-निसार अहमद
अण्णा जी ने 9 अप्रैल को अपना अनशन कोक या पेप्सी कंपनी के नींबू पानी से समाप्त कर दिया (टीवी पर नींबूज़, या फिर वो मिनिट मेड्स था !, के कई कार्टन दिखे, जिसे पीकर गांधीवादी अनशनकरियों ने अपना अपना अनशन तोड़ा) I उन्होंने देश भर में युवाओं में जो उत्साह जगाया वो हम सब को प्रभावित करता है I पीछे मंच पर, देश के आग के लपटों वाले मानचित्र में भारत माता की तस्वीर लगा कर तथा गांधी जी के सत्याग्रह को अपना कर उन्होंने संप्रंग सरकार को उनकी माँगें मानने को मजबूर कर दिया I
इस पूरे आंदोलन में उनके साथ अपने टीवी वाले भी ज़ोरदार ढंग से आगाए Iमीडिया, जो पैसे लेकर खबरें छापता है और नेताओं को चुनाव के दिनों में सकारात्मक खबरें देने के लिए पैकेज बेचता है, भ्रष्टाचार के विरुद्ध अण्णा जी के साथ आ गया I नीरा राडीया से निर्देश लेकर लेख लिखने वाला हमारा मीडिया अण्णा जी के इस आंदोलन से काफी उत्साहित है और इसकी तुलना तहरीर चौक से कर रहा है I जो टीवी वाले नीरा राडीया से निर्देश लेते हैं कि उन्हें किसे क्या संदेश देना है और किस दल से क्या वक्तव्य लेना है, उनका भरपूर समर्थन मिला अण्णा जी को I
देश के उद्योगपती, जो भ्रष्टाचार का लाभ सब से पहले लेते हैं और सब से अधिक उसे बढ़ावा देते हैं - चुनाओं में राजनेताओं को करोड़ों चंदा दे कर और बाद में उसे भुना कर - वो भी अण्णा जी के समर्थन में उतर गए I अपने फिल्मी हीरो ओर हीरोइन भी काफी उत्साह से भाग लिए इस आंदोलन में I
देश के लगभग सभी शहरों में अण्णा जी के समर्थन में मध्य वर्ग खड़ा हो गया,अपनी मोमबत्तियों के साथ I ये मोमबत्तीयां आप और हम पहले भी देख चुके हैं,इंडिया गेट और गेटवे ऑफ इंडिया पे I जब ताज होटल पे हमला हुआ, जब आरुषि को न्याय नहीं मिला, जब रुचिका का गुनहगार छुट गया, जब जेसिका के हत्यारे बच गए I और इनमें से अधिकांश बार मध्य वर्ग की मोमबत्तियाँ जीत गयीं Iलेकिन हाँ, यह ज़रूर कहना होगा कि इस बार मध्य वर्ग सबसे अधिक संख्या और उत्साह से अण्णा जी के आंदोलन में शामिल हुआ I
सरकार ने भी ना - ना करते करते अनशनकारियों की लगभग सभी माँगे मान लीI तो अब एक समिति बन गयी है जो लोकपाल विधेयक का मसौदा बनाएगी, जिसे सरकार मॉनसून सत्र में ही सदन में रखेगी I ध्यान दीजिये की पिछली सरकारों ने पिछले 40 वर्षों से एक लोकपाल विधेयक, जिसमें एक कमज़ोर लोकपाल का प्रावधान है, को पारित नहीं किया है I अब आशा बनी है कि एक मज़बूत लोकपाल विधेयक पारित हो सकेगा I कुछ लोगों को चिंता है कि कहीं यह ज़्यादा ही मज़बूत ना हो जाए, जो अंततः लोकतंत्र के लिए ठीक नहीं होता I आशा है कि विधेयक का मसौदा बनाते समय समिति इन सभी बातों पर ग़ौर करेगी I
मध्य वर्ग कैसे और क्यों इस आंदोलन में इस बड़े स्तर पर शामिल हो पाया इस पर अभी समाजशास्त्रियों और राजनीति के विद्वानों के विश्लेषण आने बाक़ी हैं, लेकिन कुछ जिज्ञासा है मन में (फिलहाल तो जो स्थिति है, उसमें आशंका करने की इजाज़त नहीं है) I
दस वर्षों से इरोम शर्मिला नाम की एक महिला आमरण अनशन पर बैठी हैं, जो देश के कई हिस्सों में थोपे गए AFSPA नाम के कानून को भंग करने की माँग कर रही हैं I ये कानून उत्तर-पूर्व तथा कश्मीर में सुरक्षा बलों को असीमित अधिकार देता है I सुरक्षा बलों द्वारा इस अपने अधिकारों और हथियारों का दुरुपयोग के मामले नए नहीं हैं I ऐसे में सुरक्षा बलों को अत्यंत ही ग़ैर लोकतान्त्रिक ढंग से केवल शक के आधार पर गोली मार देने का अधिकार देने वाला यह कानून उत्तर पूर्व के कई क्षेत्रों में लगभग 5 दशकों से लागू है I ऐसे कानून का विरोध उसी अनशन से करने वाली इरोम शर्मिला का नाम भी फेसबूक और ट्विटर के मध्य वर्गीय क्रांतिवीरों में से अधिकांश को शायद ही मालूम हो I
AFSPA एक अकेला आलोकतांत्रिक कानून नहीं है I ULAPA नमक एक अन्य केंद्रीय कानून है जो सरकार को TADA तथा POTA जैसे कानूनों की तरह असीमित अधिकार देता है I छत्तीसगढ़ तथा महाराष्ट्र समेत कई राज्यों में राज्य स्तर पर ऐसे कानून लागू हैं I राजद्रोह के विरुद्ध एक कानून है जो सरकार की आलोचना के लिए किसी को भी जेल भेज सकता है I राजद्रोह के विरुद्ध कानून तथा छत्तीसगढ़ के संविधान विरोधी कानून के सहारे सरकार ने बिनायक सेन को जेल में डाल रखा हैI बिनायक सेन देश की संविधान में विश्वास रखने वाले एक ऐसे डॉक्टर हैं जिन्होंने वर्षों छत्तीसगढ़ के ग़रीब तथा शोषित आदिवासियों के बीच काम किया है I लेकिन उन्हें जेल भेजने वाली सरकार से हमारे वैबसाइट वाले मध्य वर्गीय क्रांतिकारियों को कोई शिकायत नहीं है I
छत्तीसगढ़, झारखंड, उड़ीसा समेत देश के सभी हिस्सों में बहुराष्ट्रीय और देशी कंपनियों द्वारा हमारे संसाधनों की लूट जारी है I और यह लूट भ्रष्टाचार से नहीं,सरकार से बाक़ायदा MOU करके की जा रही है I बात केवल मधु कोड़ा जैसे मुख्यमंत्रियों या राजा जैसे मंत्रियों की नहीं है I बल्कि ये समझना ज़रूरी है की देश के संसाधनों की लूट की छुट, नीति बनाकर देश की प्रगति के नाम पे, दी जा रही है I यह कहा जाता है कि हमारे जंगलों, खनिज संसाधनों, नदियों, ज़मीनों, जल संसाधन पे देशी – विदेशी कंपनियों का कब्ज़ा होने देना देश के प्रगति के लिए – जो कम से कम 9% वार्षिक की दर से ही होनी चाहिए – आवश्यक है I संसाधनों को कौड़ियों के भाव उद्योगों को देने कि नीति तो है ही, उद्योग जगत हमारे भ्रष्ट तंत्र का फायदा उठाने में कहीं से पीछे नहीं है I राजा और कोड़ा इन्हीं उदारवादी नीतियों के संरक्षण में भ्रष्ट होते जाने के प्रतीक हैं I
संसाधनों के दोहन करने तथा उद्योग लगाने के लिए लाखों आदिवासी, दलित, ग़रीब,किसान, मज़दूर अपने खेतों, गाँवों, जंगलों, ज़मीनों तालाबों, नदियों से बेदखल किए जा रहे हैं I अपने आजीविका तथा अपने जड़ों से विस्थापित इन विकास पीड़ितों के पुनर्वास के लिए कोई क़ानून नहीं है I विस्थापन का विरोध करने वाले ग़रीब आदिवासी सरकारी कोप के शिकार हो रहे हैं I देश भर में विस्थापन विरोधी आंदोलनों को दबाने में सरकार अधिकाधिक निर्मम तरीक़े अपना रही है I ग़रीबों के विस्थापन या संसाधनों के अंधाधुंध दोहन का विरोध करने वाले न सिर्फ विकास विरोधी कहे जाते हैं, बल्कि उन्हें मावोवादी या उनका समर्थक घोषित किया जा रहा है और जेलों में बंद किया जा रहा है I लेकिन मध्यवर्ग कि मोमबत्तियों को यह प्रत्यक्ष अन्याय दिखाई नहीं पड़ता या वो इससे निरपेक्ष रहती हैं I क्यों? क्या इसलिये कि इन उदारवादी नीतियों का लाभार्थी मध्य वर्ग भी है I क्या कारण है कि मीडिया को विस्थापन विरोधी आंदोलनों से कोई सहानुभूती नहीं है I
पिछले दो दशकों में जब से उदारवादी भूमंडकीकरण का दौर चला है, देश में लाखोंकिसानों ने आत्महत्या कर लिया है I आंध्र और विदर्भ ही नहीं, पंजाब और गुजरात जैसे संपन्न राज्यों में भी किसानों को भूमंडलीकरण के नीति की क़ीमत अपनी जान दे कर चुकानी पड़ी है I परंतु मध्य वर्ग के लिए यह सब कभी मुद्दा नहीं बना I देश के ग़रीब आदिवासी, दलित, किसान – मज़दूर ज़रूर अपनी आवाज़ उठाते रहे हैं – कभी विस्थापन के विरोध में तो कभी सरकार की किसान विरोधी नीतियों के विरोध में I लेकिन न तो देश का मध्य वर्ग उनके साथ आता है न ही मीडिया का समर्थन उन्हें मिलता है I क्यों ग़रीबों, आदिवासियों, किसानों, मज़दूरों के आंदोलन अलग थलग पड़ जाते हैं और उन्हें मध्यवर्ग का समर्थन नहीं मिलता Iक्या ये स्पष्ट हो गया है अब कि शहरी मध्य वर्ग, अपने मॉल, मल्टीप्लेक्स, और पिज़्ज़ा हट से बाहर केवल अपने भ्रष्टाचार के मुद्दे पर ही आयेगा I और ग़रीबों,किसानों, आदिवासियों और दलितों के जीवन से जुड़े प्रश्न उसके लिए अर्थहीन हैं I
पिछले कई वर्षों से केंद्र सरकार उद्योग जगत को लाखों करोड़ की टैक्स छुट देती रही है I देश में आर्थिक विकास (कम से कम 9% की दर से) को बढ़ावा देने के लिए दिया गया यह छूट पिछले वित्तीय वर्ष में लगभग 4.6 लाख करोड़ का था, जबकि उस वर्ष में केंद्र सरकार का कुल बजट लगभग 10 लाख करोड़ का था I क्या एक ग़रीब देश में जहाँ ग़रीब आबादी के शिक्षा, स्वास्थ्य, पानी, भोजन आदि के लिए कार्यक्रमों के लिए पैसे की का बहाना कियाजाता है, यह किसी भ्रष्टाचार से कम है I परंतु मीडिया या मध्यवर्ग को यह नीतिगत भ्रष्टाचार दिखायी नहीं देता Iक्या मध्य वर्ग की मोमबत्तियों की रौशनी का दायरा इतना सीमित है ?
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