भ्रष्टाचार अर्थात गैरकानूनी लूट के खिलाफ संघर्ष तेज करो ! मगर कानूनी लूट पर खामोशी क्यों ?
मगर कानूनी लूट पर खामोशी क्यों ?
‘कौम के ग़म में डिनर खाते हैं हुक्काम के साथ,
रंज लीडर को भी बहुत हैं मगर आराम के बाद।’
-अकबर इलाहाबादी
सरकारें -फिर वह चाहे सूबे में काबिज हों या केन्द्र में हुकूमत सम्भाल रही हों - अक्सर संसाधनों की कमी कारोना रोती रहती हैं। सरकारी अस्पतालों से गायब होती दवाई, गरीब की थाली से विलुप्त होती दाल सभी के लिए उसके पास यही जवाब होता है कि उसका खजाना खाली है। दिलचस्प है कि संसाधनों की कमी को लेकर नियमित जारी इस रोने पीटने के बीच हम अक्सर इस या उस घोटाले के पर्दाफाश के बारे में पढ़ते रहते हैं, जो उन्हीें सरकारों की नाक के नीचे होते रहते हैं। नेताशाही-अफसरशाही-पूंजीशाहों
की मिलीभगत से चल रही खजाने की लूट बदस्तूर चलती रहती है। जनता की गाढ़ी कमाई का निजीकरण जारी रहता है।
बीते चन्द दिनों की घटनाएं इस बात की गवाह हैं कि जनता लूटखसोट के सिलसिले से मुक्ति चाहती है और भ्रष्टाचारमुक्त स्वच्छ शासन-प्रशासन चाहती है और इसलिए वह लाखों की तादाद में सड़क पर उतरने को भी तैयार है। बेईमानी के प्रतीक बने चन्द लीडरानों को सलाखों के पीछे भेजने की रस्मी कार्रवाई से कत्तई सन्तुष्ट नहीं है।
मुल्क के इतिहास में सबसे भ्रष्ट कही गयी कांग्रेस सरकार ने यह सोचा था कि विरोध-प्रतिवाद करने के जनतांत्रिक अधिकारों पर रोक लगा कर वह पारदर्शी एवं जवाबदेह शासन-प्रशासन देखने की जनता की ख्वाहिश पर रोक लगा सकती है। साफ है कि सरकार के कर्णधारों को यह बिल्कुल गुमान नहीं रहा होगा कि लोग उसके इरादों को विफल कर देंगे। सवाल यह उठता है कि भ्रष्टाचार का जडमूल से सफाया किस तरह मुमकिन है ? क्या लोगों को नैतिकता के उपदेश देकर हम इसको समाप्त कर सकते हैं ? क्या देश की प्रमुख विपक्षी पार्टी भाजपा इस मामले में कोई नज़ीर पेश करती है। निश्चित ही नहीं, उसके अपने
मुख्यमंत्राी खुद भ्रष्टाचार के काण्डों लप्त पाए जाते रहे हैं तथा कार्पोरेट समूहों को सस्ती जमीनें उपलब्ध कराते दिखे हैं !
क्या एक और कानून बना कर या संस्था खड़ी करके इससे निपटा जा सकता है ? जानकार बताते हैं कि आजादी के बाद 64 से अधिक कानून बने हैं या नियामक संस्थाएं बनी हैं, जांच एजेंसियां कायम की गयी हैं, ताकि भ्रष्टाचार को समाप्त किया जाए। इरादे भले ही नेक रहे हों, मगर पाते यही हैं कि जितनी भी दवा हो रही है, भ्रष्टाचार का मर्ज बढ़ता ही जा रहा है।
इन दिनों भ्रष्टाचार समाप्त करने की लड़ाई में टीम अण्णा द्वारा पेश जनलोकपाल के मसविदे की अधिक चर्चा है। अण्णा का कहना है कि अगर यह कानून बना तो इससे भ्रष्टाचार में 90 फीसदी कमी आएगी। इसमें कोई दोराय नहीं कि इस टीम के अगुआ अण्णा हजारे लम्बे समय से सार्वजनिक जीवन में पारदर्शिता के लिए संघर्ष करते रहे हैं, सूबा महाराष्ट्र के कई बेईमान मंत्रियों को उनके आन्दोलन के चलते कुर्सी छोड़नी पड़ी है। मालूम हो कि जनलोकपाल का जो खाका चर्चा के लिए पेश किया गया है, वह ऐसे दस लोगों की टीम के हाथों इस लड़ाई की कमान सौंपना चाहता है, जो एक साथ पुलिस, जांच एजेंसी तथा न्यायपालिका सभी भूमिका निभा सकता हो। हमारे मुल्क में, जहां नेताओं, नौकरशाहों के भ्रष्ट होने की जितने किस्से सुनाई देते रहते हैं, उसमें इस बात की क्या गारंटी कि ऐसी टीम के मेम्बरान बेईमान नहीं होंगे। फिर उन पर अंकुश कौन लगाएगा ?
आजादी के बाद यह पहला मौका नहीं है जब भ्रष्टाचार के खात्मे के लिए संघर्ष खड़ा हुआ है। 70 के दशक में जयप्रकाश नारायण की अगुआई में चले बिहार आन्दोलन या 80 के दशक के उत्तरार्द्ध में वी पी सिंह की पहल पर बोफोर्स घोटाले के खिलाफ जनता सरगर्म हुई थी। आखिर व्यापक जनसहभागिता के बावजूद ये आन्दोलन क्यों असफल हुए ?
यह समझने की जरूरत है कि सार्वजनिक जीवन में शिष्टाचार बनते भ्रष्टाचार के खिलाफ इसके पहले चले इन संघर्षों की सीमा यही कही जा सकती है कि ऐसे आन्दोलन मुख्यतः लीडरों या उनकी अगुआई में जारी
अनियमितताओं पर ही केन्द्रित रहते आए हैैं। उन्हांेने उन संरचनात्मक कारणों की लगातार अनदेखी की है कि भ्रष्टाचार -जिसे आम जनमानस में भी ‘अवैध या गैरकानूनी लूट’ का दर्जा हासिल है - का मुल्क की आर्थिक नीतियों से क्या रिश्ता हो सकता है। एक अहम सवाल हमेशा ही पीछे छूटता रहा है कि कि ‘गैरकानूनी लूट’ का उजागर होता हिमखण्ड का सिरा पूंजी के इस निजाम में सहजबोध बने ‘कानूनी लूट’ के विशाल हिमखण्ड से किस तरह जुड़ा है। रिपोर्ट के मुताबिक 2 जी स्पेक्ट्रम आवण्टन घोटाले में राष्ट्रीय सम्पदा को 1 लाख 70 हजार करोड़ रूपए का नुकसान हुआ। उसके सामने अस्सी के दशक में सामने आया बोफेार्स घोटाला ‘बच्चों का खेल’ मालूम हो सकता है, जिसमें 66 करोड रूपए के कमीशन खाया गया था। कहने का तात्पर्य यह कि विगत दो दशकों में भ्रष्टाचार में जबरदस्त उछाल आया है। आखिर क्या वजह रही होगी इस उछाल के पीछे।
एक बात जो आसानी से समझ में आती है कि इस दौरान मुल्क की आर्थिक नीतियों ने एक तरह से करवट ली है। विदित हो कि 90 के दशक की शुरूआत में राव-मनमोहन सिंह जोड़ी के सत्तासीन होने के बाद आजादी के बाद से चली आ रही आर्थिक नीतियों के साथ एक रैडिकल विच्छेद किया गया था और बाजारशक्तियों को खुली छूट देने का सिलसिला तेज हुआ था, उदारीकरण-निजीकरण की नीतियों के लिए रास्ता सुगम किया गया था। कहने का तात्पर्य यही कि भ्रष्टाचार महज पोलिटिकल क्लास की बेईमानी , जो अपने आप में एक विराट मामला है, का मसला नहीं है बल्कि उसका ताल्लुक हुकूमत सम्भालनेवालों की तरफ से अपनायी जाती आर्थिक नीतियों से भी अभिन्न रूप से जुड़ा मसला है। क्या यह माना जा सकता है कि श्रमशक्ति की लूट पर टिका वर्तमान समाज, जहां इस ‘वैध लूट’ का सिलसिला बिल्कुल विधिसम्मत है, वहां समाज के इस केन्द्रीय मसले को सम्बोधित किए बगैर हम ‘अवैध लूट’ के सिलसिले को जड़ से समाप्त कर सकेंगे ?
भ्रष्टाचार अर्थात गैरकानूनी लूट के खिलाफ संघर्ष को तेज करते हुए हमें काननी तौर पर पूंजीपतियों द्वारा की जा रही मेहनत व संसाधनों की लूट पर सोचने की और समाधान ढंूढने की आवश्यकता है।
आइए, हम साथ जुड़ें ताकि इस मुहिम को और व्यापक बनाया जा सके।
"We will have to face the risk of Expression
and have to demolish the monastery and fort".
YUVA SAMVAD
BHOPAL,MADHYA PRADESH
हमें भ्रष्टाचार को खतम करना हैं तो पहले जिस तरह के सामज को गडा जा रहा हैं उसे सुधारने की जरूरत हैं कितने ही कानून क्यों ना बन जाऐं पर जब तक समाज में बदलाव नहीं आता हम वहीं रहेगें । समाज कानूनों से नहीं बनता हैं। समाज अपने लिए कानून तय करता हैंा पता नहीं हर लाडई क्यों बाद में खत्म होकर कुंद हो जाती हैं। हम क्यों जंद लोगों को फिर से रहबर बनाने की बात करते हैंा आखिर वो भी तो हममें से एक हैं। और हम क्या गांरटी ले सकतें हैं की वो ओरो जैसे नहीं हैंा
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