-सुभाष गाताडे
छपते छपते
खबर आयी है कि संयुक्त प्रगतिशील गठबन्धन की सरकार अण्णा हजारे के कुछ मांगों को स्वीकारने के लिए तैयार हुई है। स्त्रोतों के मुताबिक शुक्रवार 26 अगस्त को संसद उसके सामने प्रस्तुत चारों बिलों परचर्चा शुरू करेगी। संसद हजारे एवं उनके सहयोगियों द्वारा तैयार जन लोकपाल बिल, सरकार द्वारा तैयार लोकपाल बिल तथा अरूणा रॉय एवं लोकसत्ता के अध्यक्ष डा जयप्रकाश नारायण द्वारा तैयार बिलों पर बातचीत शुरू करेगी। प्रस्तुत चर्चा धारा 184 के तहत होगी, जिसके लिए वोटिंग अनिवार्य होगा। स्त्रोतों के मुताबिक अण्णा हजारे अपनी भूख हड़ताल शुक्रवार सुबह समाप्त करेंगे जब जन लोकपाल बिल परसंसद में चर्चा शुरू होगी। (CNN IBN, Aug 25, 2011 at 07:08pm IST)
प्रस्तावना
कभी कभी वास्तविक जिन्दगी/रियल लाईफ रील लाईफ अर्थात फिल्मी जिन्दगी का अनुकरण करती दिखती है। पिछले दिनों वही नज़ारा हम सबके सामने नमूदार रहा है। ऐसे दृश्य बॉलीवुड की फिल्मों का ही हिस्सा हुआ करते थे जब कोई नामालूम सा नायक अचानक ऐसा कोई कदम उठाता कि लाखों लोग सड़कों पर उतर आते और शैतान/जनता के दुश्मन का खातमा हो जाता है।
अभी उस मुहिम पर पटाक्षेप हो चुका दिखता है, मगर विगत कुछ दिनों से (बकौल 24 Í7 मीडिया) ‘अण्णा की अगस्त क्रान्ति’से या ‘आजादी की दूसरी लड़ाई’ से हम रूबरू रहे हैं जिसमें 74 साल का एक रिटायर्ड फौजी - जिसका नाम चन्द माह पहले तक सूबा महाराष्ट्र तक सीमित था - तमाम लोगों का आयकन/नायक बन कर उभरा है। राजनीति से दूर रहनेवाली युवा पीढ़ी से लेकर गृहिणियों , किशोरों, बुजुर्गों तक, समाज के विभिन्न तबकों को उसकी मराठी मिश्रित हिन्दी में व्यक्तविचारों में उम्मीद की नयी किरण नज़र आ रही है। देश के विभिन्न शहरों, नगरों, कस्बों में उसके समर्थन में जुलूस निकले हैं। और अगर स्वतंत्र स्त्रोतों से आने वाली ख़बरों पर यकीन करें तो यही सुनाई दे रहा है कि हुकूमत की बागडोर सम्भालने वाले लोग इस अलग ढंग की ‘सुनामी’ से निपटने के लिए नये नये फार्मूलों पर सोचते रहे हैं। ताज़ा ख़बर यह भी है कि संसद की बैठक में लोकपाल बिल के विभिन्न मसविदों को लेकर चर्चा शुरू करने का आश्वासन दिया गया है।
अगर हम फिलवक्त इस ‘उभार’ से जुड़े कई विवादास्पद/कम चर्चित पहलुओं पर गौर न करें तबभी यह माननाही पड़ेगा कि भ्रष्टाचार के मसले पर ली गयी इस पहल ने तमाम लोगों को अपनी ओर आकर्षित किया है। भले ही जनलोकपाल के प्रावधानों से लोग परिचित न हों, मगर उन्हें लगता है कि इस नये नुस्खे से उन्हें उन तमाम दिक्कतों, परेशानियों से निज़ात मिलेगी, जिसका सामना उन्हें आए दिन सरकारी दफ्तरों में करना पड़ता है।
स्पष्ट है कि इस अप्रत्याशित ‘आंधी’ ने तमाम सियासी पार्टियों के समीकरण फिलवक्त ध्वस्त किए हैं। अपने युवराज की छवि से आल्हादित कांग्रेस पार्टी बचावात्मक पैंतरा अख्तियार करने के लिए मजबूर हुई है; भाजपा जो इस पूरे आलोडन के खतम हो जाने के बाद सबसे अधिक सियासी लाभ ले पाने की स्थिति में दिखती है, वह भी फिलवक्त उस सेनापति की तरह नज़र आ रही है जिसकी तमाम दूरंदेशी का फायदा दूसरे लोग अभी उठाते दिख रहे हैं। यह अकारण नहीं कि संघ की अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा की हालिया बैठक में जिसमें आडवाणी, गडकरी एण्ड कम्पनी के लोगों को भी बुलाया गया था, वहां भाजपा के इन कर्णधारों को संघ सुप्रीमो की यह डांट सुननी पड़ी कि आखिर वे क्यों नहीं ऐसी सरगर्मी खड़ा कर सके !
इतना ही नहीं भाजपा संसदीय दल की बैठक में भी कुछ वरिष्ठ सांसदों ने पार्टी के इस मसले पर रूख को ढुलमूल करार दिया है और नेतृत्व को यह कह कर कटघरे में खड़ा करने की कोशिश की कि वह जनता के अन्दर उफनते गुस्से को भांप नहीं सकी। मगर समाजी-सियासी बढ़ते पारे में सबसे अधिक दिग्भ्रम की स्थिति में सामाजिक आन्दोलनों के लोग या वाम के धड़े दिखे हैं, जिनके सामने यह यक्षप्रश्न बना रहा है कि किया क्या जाए ? आधिकारिक तौर पर वामपंथी पार्टियों ने ‘जन लोकपाल बिल’ के बारे में कोई पोजिशन नहीं ली है, मगर स्थानीय स्तर पर हम पा रहे हैं कि उनके संगठनों के कार्यकर्ता इस ‘ऐतिहासिक क्षण’ में जनता के साथ खड़े रहे दिखना चाहते रहे हैं। शायद इस कनफयूजन की स्थिति का ही नतीजा था कि जनान्दोलनों के राष्ट्रीय समन्वय के अन्दर भी लम्बे समय तक उहापोह की स्थिति बनी रही। औपचारिक तौर पर अण्णा हजारे की मुहिम को समर्थन देने के बावजूद मेधा पाटेकर जैसे उसके अग्रणी नेता पहले उससे दूर रहे, और आज भी कई लोग अन्दर ही अन्दर दूरी बनाये हुए हैं।
दिग्भ्रम की स्थिति का आलम यह है कि मैं खुद यह पा रहा हूं कि विगत लगभग दो दशक से तमाम ऐसे साथी, दोस्त जो साम्प्रदायिकता, मजदूरों के जनवादी अधिकार, जातीय उत्पीड़न, अमेरिकी दादागिरी या ऐसे ही तमाम जनपक्षीय मसलों पर हमेशा साथ खड़े रहते आए हैं, वह स्पष्टतः अलग खेमे में बंटे हुए हैं। प्रस्तुत आलेख एक कोशिश है इस मसले पर मित्रों द्वारा या आन्दोलन से जुड़े विचारकों द्वारा या स्वतंत्रा विश्लेषकों द्वारा जो कुछ लिखा गया है/ लिखा जा रहा है, उसकी चुनिन्दा बातों को आप के साथ सांझा करना, और यह उम्मीद करना कि विभ्रम की यह स्थिति जल्द ही दूर होगी।
(पाठकसमुदाय से इस बात के लिए मुआफी चाहूंगा कि यह आलेख उनके पास तब पहुंच रहा है जब आन्दोलन का यह चरण समेटेजाने के करीब है।)
वैसे कोई सत्तर के दशक का एक उद्धरण देकर यह भी कह सकता है ‘यह जमाना ही ऐसा है कि अगर आप कनफ्यूज्ड नहींहों तो आप सही ढंग से सोच नहीं रहे हों।’( In this age if you are not confused you are not thinking properly)
1.
भारत के स्वतंत्रा वाम की यह खासियत है कि वह हमेशा अपने आप को लोकप्रिय उभारों के खिलाफ खड़ा पाता है। लोकपाल आन्दोलन इसका अपवाद नहीं है।
(मेल टुडे में प्रकाशित आलेख से)
निवेदिता मेनन, जो इन दिनों जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में राजनीति विज्ञान पढ़ाती है, ने अपने एक आलेख में आन्दोलन के बारे में अपनी चिन्ताओं को सांझा किया है। (मेलटुडे, 24 अगस्त 2011 ; www.kafila.org ) लोकपाल आन्दोलन के प्रति वाम के रूख पर इस लेख में उनका फोकस है। वाम के अपने मायने स्पष्ट करते हुए वह लिखती हैं कि वह कुछ सौ लोग ‘जो उनकी अपने समूह/कम्युनिटी का हिस्सा हैं - ऐसे लोग जिनके साथ मैंने विरोध प्रदर्शनों का आयोजन किया है, अभियानों का संचालन किया है, धरने पर बैठी हूं और विभिन्न मसलों पर याचिकाएं भी दायर की हैं’।
उनका कहना है कि ‘वाम’ हमेशा ‘अपने आप को ऐसी स्थिति में कयूं पाता है जहां ‘पीपुल/अवाम’ नहीं होते हैं।’उनका कहना है कि ‘अण्णा हजारे जैसी शख्सियत के इर्दगिर्द खड़े इस जनउभार के दौरान मैंने अपने आप को अपने समुदाय/कम्युनिटी से अधिकाधिक अलग थलग पाया है’। ‘मैं अपने इर्दगिर्द जनतंत्रा के विशुद्ध आदर्शों का आनन्दोत्सव देखर ही हूं - यह विचार कि ‘हम लोग’ सम्प्रभु हैं और सियासतदां जनता के सेवक हैं, कि कानूनों को लोगों की जरूरतों औरमांगों के इर्दगिर्द उभरना चाहिए ; जबकि मेरा समुदाय देख रहा है जातिवादी एवं साम्प्रदायिक मध्यवर्गीयों का विचारहीन जमावड़ा।’ आगे वह लिखती हैं कि ‘हमारी समस्या यही है कि शुद्धता की हमारी खोज अक्सर गहरी असुरक्षा की अभिव्यक्ति होती है।’
अपने समुदाय एवं अपने विचारों के बीच इस अन्तराल की चर्चा के सिलसिले में वह तहरीर स्केवर की चर्चा करती हैं, जहां अवाम को मिली कामयाबी को सभी ने सेलिब्रेट किया था। उनका कहना है कि वहां पर भी सभी किस्म के लोग उपस्थित थे, जिसमें इस्लामिस्ट भी थे, खालिस पूंजीवादी थे, ऐसे लोग भी थे जो अपनी पत्नियों को पीटते हैं और हर किस्म के प्रतिक्रियावादी भी उपस्थित थे। हर जनान्दोलन में ऐसे तमाम लोगों की - जो कहीं कहीं आपस में अन्तर्विरोधी भी जान पड़ती है - उपस्थिति को रेखांकित करते हुए वह कहती हैं कि सम्पूर्ण शुद्धता और हमारे समग्र सियासी एजेण्डे के साथबिन्दु दर बिन्दु मेल को अगर अनिवार्य मान लिया जाए तो नारीवादियों के लिए हमेशा ही इतिहास की वेटिंगे रूम में जगह मिल पाती।
राजधानी में ‘प्रतिवाद एवं प्रतिरोध का दायरा किस तरह इंच दर इंच सिमटता जा रहा है और हम लोग किस तरह पीछे हटने के लिए मजबूर हो रहे हैं’ इसकी चर्चा करते हुए वह आगे लिखती हैं कि ऐसी पृष्ठभूमि में ‘इन्सानियत का प्रचण्ड सैलाब हमारे सामने नमूदार होता है, जो शान्तिपूर्ण भी है और अहिंसक भी है, जो शहर को अपने आगोश में लेता है। क्याहमें इसका जश्न नहीं मनाना चाहिए ?’सरकारों को जनता के प्रति जवाबदेह बनना चाहिए, यह बड़ा लक्ष्य आन्दोलन द्वारा किस तरह अभिव्यक्त हो रहा है, इसे रेखांकित करते हुए वह आन्दोलन की आत्मप्रश्नेयता और आलोचना के प्रति प्रतिक्रिया/रिस्पॉन्स की तारीफ भी करती है।
जनलोकपाल के लिए चली पहली भूख हड़ताल में भारत माता के चित्रा की हुई आलोचना के बाद इस बार बैकड्रॉप के तौरपर महात्मा गांधी के चित्र या जनलोकपाल की देखरेख करने के लिए पहले दौर में प्रस्तावित ‘गणमान्य नागरिकों’ की टीम-जिसमें मैगसेसे पुरस्कार विजेता शामिल होंगे - के विवादास्पद होने पर उसका खारिज किया जाना, बाबा रामदेव को हाशिये पर डाल देना, जैसी घटनाओं को वह निरन्तर आत्मसुधार के उदाहरण के तौर पर देखती हैं।
निवेदिता ‘भ्रष्टाचार’ के इस ताजे उठे मसले की तुलना आजादी के आन्दोलन में ‘नमक’ के लिए हुए दाण्डी मार्च से करती हैं, जो मसला हर व्यक्ति को छूता है और राज्य की उत्पीड़नकारी व्यवस्था को रेखांकित करता है। वह यह भी मानती हैं कि भ्रष्टाचार के लिए सरकार एवं नौकरशाही को जवाबदेह बनाना एक तरह से कार्पोरेट भ्रष्टाचार पर भी अंकुश लगाएगा क्योंकि आखिर हर कानून एवं नियम तोड़ने के लिए कार्पोरेट सम्राटों को आखिर सरकारी मुलाजिमों को ही रिश्वत देनी पड़ती है।
अण्णा हजारे के इर्दगिर्द खड़े इस आन्दोलन पर ‘गैरराजनीतिक’ या ‘राजनीतिक वर्गों का विरोधी’ होने के जो आरोप लगते रहते हैं उसे खारिज करते हुए वह कहती है कि ‘हम लोग सम्प्रभु है, और हम जिन्हें संसद भेजते हैं उनसे पूरी जवाबदेही चाहते हैं’ यह मांग करनेवाले प्रस्तुत आन्दोलन पर ऐसा दोषारोपण उचित नहीं है।
अन्त में वह सरकारी लोकपाल बिल को खारिज करते हुए जनलोकपाल बिल की मांग को लेकर अण्णा हजारे द्वारा दिए गए अल्टीमेटम का इस आधार पर समर्थन करती हैं क्योंकि ‘चालीस साल से यह मामला लटका हुआ है और छह बार ऐसा बिल संसद के सामने पेश किया जा चुका है।’
उनका कहना है कि ‘यह ऐसा अवसर है जो सम्भावनाओं से भरा है। जिस तरह राष्ट्रीय आजादी को हासिल किए जाने के बाद विवादों की नयी रेखाएं उभरीं और पुराने विवाद भी खड़े हुए, इस अभियान की किसी भी रूप में कामयाबी अधिक विवादों को जन्म दे सकती हैं। जिस तरह ‘‘इंडिया’’ के आगमन ने सम्भावनाओं एवं खतरों के दरवाजें खोले, वही सिलसिला यहां पर भी दोहराया जाएगा। बदलाव की किसी भी परियोजना/प्रोजेक्ट के साथ यह बात अनिवार्य रूप से जुड़ी है।’
2.
‘‘अगर समाज में एक साथ रहनेवाले लोगों के समूह में, लूट जीवन के तरीके में शुमार हो जाती है, तब वे समय के साथ उसी के अनुरूप कानूनी व्यवस्था का निर्माण करते हैं, जो इस पर मुहर लगाती है और एक नैतिक संहिता बनाते हैं जो उसे महिमामण्डित करती है।
- फ्रेडरिक बस्तियात (1801-1850), फ्रेंच अर्थशाष्त्री
मेरे एक अन्य मित्रा किशोर झा, जो अपने छात्र जीवन में दिल्ली की क्रान्तिकारी छात्रा राजनीति में एक समय अपनी अलग पहचान बनाने में कामयाब ‘प्रोग्रेसिव स्टुडेंटस यूनियन’ से उसकी स्थापना के समय से जुड़े थे, और जो इन दिनों एक सामाजिक संस्था में कार्यरत है, निवेदिता मेनन द्वारा उठाए गए सवालों के सन्दर्भ में चन्द बातें पेश करते हुए लिखते हैं: ‘मुझे लगता है कि निवेदिता का पहला सवाल (कि हम लोग वहां क्यों नहीं होते जहां लोग होते हैं) निश्चित ही एक वाजिब सवाल है और वाम के तमाम लोग लम्बे समय से इस पर सोच रहे हैं। वह इस बात से सहमत होगी कि यह नया प्रश्न नहीं है और यह प्रश्न हमेशा उठता है जब हम किसी मुद्दे पर लोगों की लामबन्दी देखते हैं और सोचते हैं कि हम लोग ऐसे मुद्दे को क्यों नहीं उठा पाते हैं ? मण्डलविरोधी आन्दोलन के शुरूआती दिनों में भी हम लोग अक्सर इस सवाल पर बात करते थे और कभी कभी इस बात से परेशान होते थे कि तमाम कोशिशों के बाद हम लोग अधिक से अधिक सौ लोग जुटा पाते हैं और अब हजारों छात्रा सड़कों पर हैं। निश्चित ही मण्डलविरोधी या मन्दिर के हक में खड़े आन्दोलन के बारे में पोजिशन लेना कठिन नहीं होता मगर मामला उतना आसान नहीं रहता जब हम मुद्दे से (उदा. भ्रष्टाचार) सहमत हों। मेरे लिए सवाल यही है कि वाम ऐसे मुद्दे क्यों नहीं उठा पाता जो लोगों के लिए महत्वपूर्ण हों और न कि यह कि वह ऐसे आन्दोलनों में शामिल क्यों नहीं होता जो क, ख या ग द्वारा शुरू किए गए हों। मामला उतना सीधा भी नहीं होता। वाम ने अक्सर लोगों को बढ़ती अनाज की कीमतें या महंगाई पर लामबन्द करने की कोशिश की है मगर उसे कभी लोगों या मीडिया द्वारा इतना जबरदस्त रिस्पान्स नहीं मिला।
इसके कई कारण हो सकते हैं। मैं यह नहीं कहूंगा कि अण्णा एवं उसकी टीम के पास वाम की तुलना में बेहतर सांगठनिक क्षमता है। वे अपने आप को बेहतर प्रोजेक्ट कर पाने की स्थिति में हैं और मुद्दे ने लोगों को कहीं छुआ है (एक हद तक इसका श्रेय मीडिया को जाता है) यह कहना भी पूरी तरह सही नहीं होगा कि वाम हमेशा ही असफल रहा है जहां लोग आन्दोलित हुए हों। भारत के कई हिस्सों में - जमीन अधिकार जैसे अधिक बड़े मसलों पर वाम लोगों को संगठित कर रहा है।( उम्मीद है कि वह उन्हें जनान्दोलन मानेंगी भले ही 24 Í7 चैनलों द्वारा संख्या बढ़ा कर उनके बारे में समाचार नहीं दिए जा रहे हों)’’ जनलोकपाल आन्दोलन के प्रति अपने आलोचनात्मक रवैये को स्पष्ट करते हुए वह आगे लिखते हैं ‘‘किसी आन्दोलन को वास्तविकता से अधिक प्रोजेक्ट किए जाने की स्थिति, जब समाज का एक हिस्सा भी उसे ‘आजादी की दूसरी लड़ाई मानता हो’ ऐसी स्थिति में यह अधिक महत्वपूर्ण और सार्थक हो जाता है कि हम उसके प्रति अपनी आलोचनात्मक राय को उजागर करें। कुछ लोग यह तर्क देंगे कि अगर मुद्दा सही है तो क्यों न उसमें शामिल हुआ जाए ?
लेकिन मुझे नहीं लगता ऐसा सम्भव है। सबसे बेहतर विकल्प यही है कि हम कहें कि हम भ्रष्टाचार के खिलाफ हैं, हम लोग एक सख्त लोकपाल बिल चाहते हैं, हम जवाबदेह सरकार चाहते हैं लेकिन यह कोई जरूरी नहीं कि हम उसमें सक्रिय ढंग से शामिल हों।’’
अण्णा के समर्थन में एवं सरकार के अहंकार के खिलाफ लोगों के सड़कों पर उतरने का विश्लेषण करते हुए वह लिखते हैं कि ‘‘लोग भ्रष्टाचार के तमाम काण्डों से क्षुब्ध हैं और अब जब उन्हें मौका मिल रहा है, उसे अभिव्यक्त कर रहे हैं।’’ मगर साथ में वह इस बात को भी स्पष्ट करते हैं कि यह कोई जरूरी नहीं कि सड़कों पर उतरे इन लोगों के सहारे ‘‘राजधानी में घटते जनतांत्रिक दायरे के संघर्ष को लड़ा जा सकता है।’’
उनके मुताबिक ‘‘ मैं ऐसी किसी स्थिति की कल्पना नहीं कर सकता जब वाम इससे जुड़े और इस आन्दोलन को जनतांत्रिक दायरों के संकुचन के खिलाफ मोड़ दे। ...इसलिए तहरीर स्क्वेयर के साथ इसकी तुलना करना उचित नहीं होगा।’’ प्रस्तुत आन्दोलन में वाम की असहभागिता की तुलना आज़ादी के आन्दोलन में वाम द्वारा की गयी ऐतिहासिक भूलों से करने से बचते हुए वह लिखते हैं कि ‘‘मुझे इसकी जरूरत नहीं दिखती कि ऐसी तुलना की जाए।...दरअसल टीम अण्णा द्वारा इस आन्दोलन को आजादी की दूसरी लड़ाई कहना या इसे क्रान्ति कहना तथा मीडिया द्वारा इसी बात को प्रोजेक्ट करने से मैं अपने आप को सहमत नहीं पाता। अण्णा आन्दोलन के समावेशी होने के बारे में निवेदिता के लेख के उदाहरणो की चर्चा करते हुए -जिसमें एक दलित युवती को उद्धृत किया गया है - वह जोर देते हैं कि ‘‘इस आन्दोलन में ऐसा कोई समावेशीपन मैं नहीं देख पाता और मैं इस बात पर सहमत भी नहीं हूं।’’ अन्त मे वह निवेदिता की इस चिन्ता को सांझा करते हुए कि ‘‘मैं इस बात पर सहमत हूं कि अक्सर वाम का लोगों की नब्ज से हाथ ढीला पड़ा है और उसे चाहिए कि वह मनरेगा, सूचना अधिकार, विस्थापन आदि मसलों पर अधिक सक्रिय हो जिसकी अगुआई एनजीओ टाइप आन्दोलन कर रहे हैं।’’
निवेदिता अपने आलेख की शुरूआत में स्वतंत्रा वाम के जिन ‘‘कुछ सौ लोग ‘जो उनकी अपने समूह/कम्युनिटी का हिस्सा हैं’’ की बात करती हैं, उनका उल्लेख करते हुए किशोर कहते हैं कि ‘‘मुझे ऐसे लोगों की अधिक उपयोगिता आन्दोलन को आलोचनात्मक ढंग से देखने में तथा बहस मुबाहिसा खड़ा करने में प्रतीत होती है भले ही वह रामलीला मैदान में उपस्थित न हों।’’
3.
‘एक महान अवसर, एक गम्भीर ख़तरा’ वाम आन्दोलन से जुड़े विभिन्न लोगों - जिनमें पुणे के अभय शुक्ला, नागपुर के अरविन्द घोष, पोस्को प्रतिरोध समिति के असित दास, माईनिंग जोन पीपुल्स सालिडारिटी ग्रुप के बिजू मैथ्यू, किरण शाहीन, कैम्पेन फार वायवल एण्ड डिग्निटी के शंकर गोपालकृष्णन, कष्टकरी संगठन की शिराज बलसारा आदि के नाम हैं - ने पिछले दिनों हस्ताक्षर अभियान के मकसद से एक अपील ‘एक महान अवसर, एक गम्भीर खतरा’ ; । ( A Great Opportunity, A Serious Danger) शीर्षक से जारी की है जो ‘अण्णा हजारे आन्दोलन के सन्दर्भ में उभरनेवाली दो आम प्रतिक्रियाओं की बात करते हुए एक तीसरे रूख पर जोर देती है।’ अपील को लगभग पूरी तौर पर यहां पेश किया जा रहा है: ‘‘कुछ लोग इस परिस्थिति को मध्यवर्ग द्वारा चालित ‘‘शहरी पिकनिक’’ कह कर खारिज करते हैं जबकि अन्य, जिनमें मुख्यधारा की मीडिया शामिल है कह रहे हैं कि ‘‘जनता की सत्ता’’ कायम करनेवाला यह इन्कलाबी आन्दोलन है।
इसी किस्म का विभाजन हम प्रगतिशीलों एवम सामाजिक बदलाव के प्रति सरोकार रखनेवालों में भी देख रहे हैं। इस विभाजन में कौन कहां खड़ा है, इसी के आधारपर रणनीतियां तय हो सकती है। समस्या यह है कि कोईभी प्रतिक्रिया जो कुछ घटित हो रहा है उस यथार्थ को प्रतिबिम्बित करती नहीं दिखती । हम इस बात को नोट करना चाहते हैं कि हमारी पोजिशन प्रस्तुत परिस्थिति में क्या किया जा सकता है इस पर केन्द्रित है और वह सरकार को बचाने के लिए नहीं है। संयुक्त प्रगतिशील गठबन्धन सरकार के बर्बर, भ्रष्ट एवं जनतंत्रा विरोधी कदमों की हम भर्त्सना करते हैं ; हम भाजपा एवं उसके सरकारों की उन कार्रवाइयों को भी खारिज करते हैं जिसमें वे अपने आप को भ्रष्टाचार के विरूद्ध योद्धा के तौर पर पेश कर रहे हैं। सरकार द्वारा पेश खतरनाक लोकपाल बिल को वापिस लिया जाए और एक ऐसी प्रक्रिया शुरू की जाए ताकि भ्रष्टाचार को शिकस्त देने के लिए जनता के नियंत्रण को प्रभावी संस्थानांे को कायम किया जा सके। प्रस्तुत बयान जारी करने का हमारा मकसद उन ग़लत रणनीतियों के प्रति आगाह करना है जो उसी राज्य को मजबूत करती दिखती हैं जिसके खिलाफ हम संघर्ष करते रहे हैं।
अवसर: यह सही है कि अब तक जारी विरोध प्रदर्शनों पर मध्यम वर्गों का वर्चस्व रहा है, जिन्हें मध्यमवर्ग ने बढ़ा चढ़ा कर पेश किया है। लेकिन इसका मतलब यह कत्तई नहीं है कि यह प्रक्रिया अर्थहीन हो चुकी है। चूंकि राष्ट्रीय स्तर पर मजदूर वर्ग के बीच कोई संगठित आन्दोलन नहीं है, न वैकल्पिक मीडिया है और न ही अस्तित्वमान व्यवस्था के विकल्प के तौर पर सचेत ढंग से प्रस्तुत नक्शा है, जिसकी वजह से मध्यम वर्ग का आन्दोलन अधिक व्यापक हो सकने की सम्भावना अवश्य है।
..यही वह वजह है कि हमें चाहिए कि हम इस परिस्थिति को खारिज न करें। जितना अधिक लोग इस व्यवस्था की असलियत उजागर होते देख रहे हैं, और अपने गुस्से का इजहार करते दिख रहे हैं, उतना ही यह अवसर है कि उसे बेपर्द करने का और किसी नयी चीज के लिए संघर्ष करने का। जो लोग बदलाव के लिए लड़ते हैं उनके लिए संकट ही नए अवसर उपलब्ध कराता है।
लाजिम है कि हम उन लोगों से सहमत नहीं हैं जो इन विरोध प्रदर्शनों और भूख हड़ताल को संसद के भयादोहन (ब्लैकमेलिंग) के तौर पर देखते हैं। इस मुल्क में संसदीय जनतंत्रा कभी अत्यधिक सीमित दायरे से आगे नहीं बढ़ सका है। हाल के वर्षों में इस दायरे को भी उन ताकतों ने अर्थहीन बना दिया है जो फिलवक्त उसकी दुहाई दे रहे हैं। मिसाल के तौर पर विशेष आर्थिक क्षेत्रों वाला अधिनियम संसद में महज एक दिन की चर्चा के बाद पारित किया गया था। आर्थिक सुधारों को भी चोरी छिपे लागू किया गया है। रिटेल अर्थात फुटकर व्यापार में विदेशी पूंजी निवेश पर मुहर लगनेवाली है और यूआईडी अर्थात आधार कार्ड देने की योजना आगे बढ़ी है, बिना संसदीय संस्तुति के। आज जब नवउदारवादी कार्पोरेटहिमायती नेता अचानक संसद की पवित्राता की बात करने लगे हैं तो इस पर सन्देह होना स्वाभाविक है। जब लोग खुद मानते हों कि यह व्यवस्था अन्दर तक सड़ी है, तब हमें इस हक़ीकत को यह कह कर हल्का करने की कोशिश नहीं करनी चाहिए कि संसद इस समस्या पर विचार करेगी। खतरा संसद में नहीं है, वह कहीं और है।
खतरा: यह हक़ीकत कि लोग गुस्से में है यह निश्चित ही एक अवसर है, लेकिन यहां भी एक जोखिम है क्योंकि इस गुस्से को ऐसी दिशा भी दी जा सकती है जो अस्तित्वमान सत्ता संरचना को मजबूत करे। उदाहरण के लिए, देखें:
- इन विरोध प्रदर्शनों से यही सन्देश सम्प्रेषित किया जा रहा है - भले ही नेतृत्व की रणनीति अलग हो - कि अण्णा हजारे और ‘‘टीम अण्णा’’ को समर्थन दें। ‘‘पारदर्शिता’’ के सिद्धान्त के परे, इस जन अभियान में लोगों के जनतांत्रिक संगठन के विचार पर कोई जोर नहीं है ( इसके बरअक्स एक ऐसे संगठन पर जोर है जिसे लोगों का ‘‘समर्थन’’ हो)। यह सवाल लाजिमी हो उठता है कि जो लोग इसमें भाग ले रहे हैं उन्हें जनता की सत्ता कायम करने के लिए कहा जा रहा है या वे ‘‘अच्छे नेता’’ की ताकत बढ़ाने के लिए लड़ रहे हैं।
- आन्दोलन की मांग भी, न्यूनतम अर्थों में भारतीय राज्य या समाज के जनतांत्रिकीकरण की बात नहीं करती। जिस जनलोकपाल की बात की जा रही है, वह कुछ किस्म के भ्रष्टाचार को सम्बोधित कर सकता है ; लेकिन उसका मकसद राज्य पर लोगों को अधिक नियंत्रण से लैस नहीं करना है।
उसे प्रभावी कदम के तौर पर पेश किया जा रहा है, इस वजह से नहीं कि वह जनतांत्रिक है, बल्कि इस वजह से कि वह जनतंत्रा एवम राजनीति/सियासत के ‘‘ऊपर’’ स्थित होगा।
जिस तरह अण्णा एक अच्छे व्यक्ति है जिन्हें समर्थन की जरूरत है, इसी तरह न लोकपाल बिल भी अच्छे लोगों से बनेगा, जो सत्ता सम्भालने लायक होगा और जो उसे राज्य की ‘सफाई’ में लगा देगा।
- इस विरोध प्रदर्शन में शामिल होने वाले लोग मीडिया के चलते इसमें शामिल हो रहे है। एकाध-दो अपवादों को छोड़ कर लामबन्दी में किसी केन्द्रीय संगठन की कमी दिखती है। नतीजतन जहां नेतृत्व के लोग लोकप्रिय संघर्ष एवं जनतांत्रिक सिद्धान्तों की बात करते हैं, उन पर हावी होता है यह विचार कि मौजूदा सत्ताधारियों को निशाना बनाया जाए और उसके स्थान पर अधिक ‘‘स्वच्छ’’ संस्था कायम की जाए। इन सबका नतीजा यही होता दिखता है कि ‘‘भ्रष्टाचार’’ को बहुत सीमित तरीके से परिभाषित किया जाता है, जिसके मायने होता है, कानून के उल्लंघन से फायदा उठाना। इस आन्दोलन का भी अहम सन्देश है: नियमों पर यकीन करो, राज्य पर यकीन करो, लोकपाल पर यकीन करो; असली मसला यही है कि अच्छे नेताओं को तलाशा जाए और उन पर विश्वास किया जाए।
निश्चित ही यह कोई जनतांत्रिक सन्देश नहीं है, यह एक जनतंत्र विरोधी सन्देश है। भारत में इस वक्त़, वह खतरनाक भी है। इस देश में बर्बरता, नाइन्साफी और उत्पीड़न महज कानून के उल्लंघन का नतीजा नहीं है। दरअसल, उसका अधिकतर भाग इसी वजह से घटित होता है क्योकि कानून बना हुआ है। हमारी राज्य मशीनरी ने इस बात को स्पष्ट प्रदर्शित किया है कि वह नरभक्षी निजी पूंजी की चाकर है। भ्रष्टाचार में हाल में आयी तेजी का यही सबसे बड़ा कारण हैः सुपरमुनाफे के जरिए पैसे का संग्रहण जिसे बाद में राज्य को खरीदने और अधिक सुपरमुनाफे के लिए किया जा सकता है। कभी कभी इसे किसी कानून का उल्लंघन कहा जाता है,जिसे ‘‘घोटाला’’ कहा जाता है, लेकिन ऐसे भी मौके आते हैं, जैसे कि अधिकतर आर्थिक सुधारों के दौरान, जहां कानून ही बदल दिया जाता है। विशेष आर्थिक क्षेत्रा(स्पेशल इकोनोमिक जोन - सेज) अधिनियम एक अच्छा उदाहरण है। इसने पूरे मुल्क में जगह जगह जमीनों को छीनने के सिलसिले को तेज किया था जो वैश्विक आर्थिक संकट के चलते ही धीमा हो सका था ; लेकिन आप गौर करेंगे कि ‘सेज’ सम्बधित अधिकतर कार्रवाइयों में लोकपाल की निगाह से देखें तो कोई चीज ‘‘भ्रष्ट’’ नहीं थी। हमारे लोग घनीभूत होते पूंजीवादी शोषण और दमन का शिकार हैं। क्या सही ताकतों के साथ खड़े अच्छे नेता इसे रोक सकते हैं ?
कई लोग यह कहेंगे कि ‘‘निश्चित ही नहीं, एक जन लोकपाल सभी मसलों को सम्बोधित नहीं कर सकता।’’ यह सही हो सकता है, मगर आप गौर करेंगे कि यही सन्देश सम्प्रेषित नहीं हो रहा है। इसके बजाय यही सम्प्रेषित किया जा रहा है कि लोकपाल टाइप समाधान और अण्णा हजारे किस्म के ‘‘अच्छे नेता’’ अन्याय के खिलाफ लोगों के गुस्से का जवाब हैं। जब नेतृत्व, रामदेव स्टाइल, अपनी मांगों की फेहरिस्त में नये मुद्दे जोड़ने लगता है - जैसे कि भूमि अधिग्रहण को हाल में जोड़ा गया - तब यही खतरनाक सन्देश सम्प्रेषित होता है। ऐसा आन्दोलन न केवल, ऐसे सन्देश के जरिए, राज्य को कमजोर करता है, वह राज्य एवम उसके नेतृत्व को अधिक ताकतवर बनाने के लिए लोगों के समर्थन को प्रदान करता है।
यही वजह है कि उसे जिन्दल एल्युमिनियम से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ तक सभी का समर्थन मिलता है। क्या किया जा सकता है ? यह हक़ीकत कि लोग सरकार के खिलाफ संघर्ष कर रहे हैं इसके मायने यह कत्तई नहीं है कि वह राज्य से मुकाबला कर रहे हैं। भारतीय राज्य को - एक राज्य के तौर पर - एक ऐसी लामबन्दी से जिसका प्रमुख सन्देश है कि बदलाव अच्छे नेताओं के जरिए मुमकिन होता है, चिन्तित होने की क्या जरूरत है ? मौजूदा सत्ताधारी भले ही अपनी कुर्सी पर मंडराते खतरे से चिन्तित हों, मगर व्यवस्था खुद कहीं भी खतरे में नहीं है। दरअसल, खतरा राज्य या उसकी संस्थाओं को नहीं है, बल्कि उन कोशिशों को है जिनका मकसद समाज में गहरे सामाजिक बदलाव लाना है।
मौजूदा हालात में हमारे सामने जो द्वंद है उसका जवाब यह नहीं है कि हम खुले दिल से आन्दोलन से जुड़ें या बिल्कुल चुप हो जाएं। कुछ ने आन्दोलन के इस दौर के प्रति अपने समर्थन का इजहार किया है, और वह इस कोशिश में भी है कि आन्दोलन अन्य मुद्दों को भी उठाए। नेतृत्व के एक हिस्से की वाम एवं प्रगतिशील मसलों के प्रति सहानुभूति को अक्सर उद्धृत किया जाता है। लेकिन इन विरोध प्रदर्शनों के असली चालक - मीडिया और शहरी अभिजात तबके - ऐसे किसी भी पोजिशन का विरोध करते हैं। हम सिर्फ इस बात की कल्पना ही कर सकते हैं कि क्या होगा अगर यह लामबन्दी अधिक रैडिकल दिशा में मुड़ेगी ‘ वही मीडिया जो आज ‘‘अण्णा ही इंडिया’’ बोल रहा है तत्काल अपनी भाषा बदल देगा और आन्दोलन बिखर जाएगा।
इस हकीकत को देखते हुए इस अवस्था में आन्दोलन से जुड़ना अनुत्पादक होगा। लोग इस बात में फरक नहीं कर पाएंगे कि सामाजिक बदलाव के लिए कौन शक्तियां सक्रिय हैं और कौन मौजूदा व्यवस्था को बचाए रखना चाहती हैं, और अगर व्यवस्थाधर्मी ताकते फेल होती हैं, तो वे सामाजिक बदलाव की शक्तियों को भी नुकसान पहुंचाएंगी। लेकिन इस घड़ी में खामोश रहना मतलब एक अहम वक्त़ पर अप्रासंगिक होना है। यह बहुत महत्वपूर्ण है कि हम, इस आन्दोलन की जनतंत्राविरोधी प्रवृत्तियों की आलोचना करते हुए, मौजूदा राज्य की हिमायत न करने लग जाएं। हमारा साफ मानना है कि वे लोग जो सामाजिक बदलाव चाहते हैं उनका नारा संसदीय सर्वोच्चता का नहीं हो सकता।
हमें चाहिए कि हम दो किस्म की हक़ीकत पर अपने रूख को तय करें। पहला है कि घोटालों का मौजूदा विस्फोट नवउदारवादी नीतियों का प्रत्यक्ष परिणाम है जिन्होंने राज्य को बड़ी पूंजी के नरभक्षी एवं आपराधिक किस्म के उपकरण में तब्दील किया है। आज राज्य के समक्ष खड़ी चुनौती अधिक स्पष्ट है और भ्रष्टाचार उसका एक उदाहरण है। इसलिए, भ्रष्टाचार के खिलाफ संघर्ष को अर्थव्यवस्था एवं समाज पर लोगों के नियंत्राण के संघर्ष से हट कर लड़ना नामुमकिन है।
इसलिए हमारी मांगों का जोर राज्य की संस्थाओं पर लोगों की सत्ता के ऐसे गठन पर होना चाहिए। दूसरी हक़ीकत यही है कि गुस्से एवं राज्य के प्रति सन्देह का वर्तमान माहौल हमें यह मौका प्रदान करता है कि हम इन मुद्दों को उठाएं और भ्रष्टाचार तथा जिस व्यवस्था के अन्दर हम रह रहे हैं उसके अन्तर्सम्बन्ध को स्पष्ट करें। जितनी अधिक संख्या में राजनीतिक ताकतें, जनसंगठन और जनता के संघर्ष, अपनी पहचान को ‘इंडिया अगेन्स्ट करप्शन’ से अलग रखते हुए ऐसा कर सकते हैं, उतना ही अधिक यह मुमकिन होगा कि हम इस मौके का इस्तेमाल रैडिकल संघर्षों के निर्माण एवं विस्तार के लिए करें। अगर लोग इस बात को देख पा रहे हैं कि वह सड़ी हुई है तो इस समझदारी को इस जागरूकता में रूपान्तरित किया जा सकता है कि यह सडांध भ्रष्टाचार और बेईमान नेताओं से अधिक गहरी है। इस अवसर की यही चुनौती है।
4.
कौ़म के ग़म में डिनर खाते हैं हुक्काम के साथ
रंज लीडर को भी बहुत हैं, मगर आराम के बाद
- अकबर इलाहाबादी
‘गॉड आफ स्माल थिंग्जस’ की लेखिका अरून्धती रॉय अपने एक आलेख ‘आई वुड रादर नॉट बी अन्ना’ के जन लोकपाल बिल के इर्दगिर्द खड़े कई बिन्दुओं पर विचार करती हैं (द हिन्दू 22 जून 2011)।
उनका मानना है कि ‘अण्णा द्वारा अपनाया गया रास्ता भले गांधीवादी हो, मगर जिन मांगों को वह रख रहे हैं वह किसी भी तरह से गांधीवादी नहीं हैं। सत्ता के विकेन्द्रीकरण को लेकर गांधीजी के विचारों के बरअक्स, जनलोकपाल बिल, एक दमनकारी, भ्रष्टाचार विरोधी कानून है, जिसके अन्तर्गत बेहद सावधानी से चुने हुए लोग एक विशाल नौकरशाही का संचालन करेंगे, जिसके अन्तर्गत हजारों कर्मचारी होंगे, जिन्हें प्रधानमंत्राी, नयपालिका, संसद सदस्य और ऊपर से नीचे तक सभी नौकरशाही तंत्र, जिसमें नीचले स्तर पर तैनात सरकारी अधिकारी भी शामिल होगे, की निगरानी करने का अधिकार होगा। लोकपाल के पास यह अधिकार होगा कि वह जांच करें, निगरानी करे और मुकदमा भी चलाए। अगर इस बात को छोड़ दें कि उसके पास अपने अलग जेल नहीं होंगे, वह एक स्वतंत्रा प्रशासन की तरह काम करेगा, जिसका मकसद होगा पहले से चले आ रहे विशालकाय, गैरजवाबदेह और भ्रष्ट प्रशासन पर अंकुश रखना। इस तरह हमारे सामने एक के बजाय जो कुलीनतंत्रा/अल्पतंत्रा होंगे।’
‘क्या वह काम करेगा या नहीं इस बात पर निर्भर करेगा कि भ्रष्टाचार को हम कैसे देखते हैं। क्या भ्रष्टाचार सिर्फ क़ानूनियत (legality) का मामला है, वित्तीय अनियमितता का मामला है और घुसखोरी का मामला है, या एक कुख्यात गैरबराबर समाज में सामाजिक कार्यसम्पादन का दूसरा नाम है, जिसमें सत्ता अधिकाधिक छोटे अल्पमत के हाथों में केन्द्रित रहती है।
आन्दोलन में इस्तेमाल प्रतीकों की चर्चा करते वह आगे लिखती हैं ‘‘अण्णा की क्रान्ति में नज़र आनेवाली कोरियोग्राफी, आक्रामक राष्ट्रवाद और तिरंगे का इस्तेमाल सभी आरक्षण विरोधी आन्दोलन, विश्व कप जीतने पर निकली झांकी और नाभिकीय परीक्षण के बाद हुए आयोजनों से आयातित दिखता है। वह हमें संकेत देता है कि अगर हम इस अनशन का साथ नहीं देते हैं, तब हम ‘सच्चे भारतीय’ नहीं हैं। 24 Í7 घण्टे चल रहे चैनलों ने भी तय किया है कि इस मुल्क में अन्य कोई ख़बर नहीं है जिसको प्रसारित किया जाना जरूरी है।’
मीडिया के लिए पीपल/अवाम कौन है इसे स्पष्ट करते हुए वह आगे लिखती हैं ‘यहां पर ‘पीपल/लोग’ का अर्थ वही श्रोतावृन्द है जो 74 साल के एक शख्स द्वारा आमरण अनशन करने की घोषणा से उपजे तमाशे में नमूदार हुआ है। यहां ‘‘पीपुल’’ वह दसियों हजार लोग हैं जिन्हें हमारे टीवी चैनलों ने लाखों में तब्दील कर दिया है,.. ‘सौ करोड़ आवाज़ें एक साथ गूंजी हैं’’, हमें बताया जा रहा है। ‘‘अण्णा ही इंडिया है।’’
रालेगांव सिद्धी में अण्णा के नेतृत्व में चल रहे ‘ग्रामीण विकास’ की सीमाओं को उजागर करते हुए वह बताती हैं कि किस तरह अण्णा ने राज ठाकरे के मराठी वर्चस्ववाद का समर्थन किया था और किस तरह 2002 के मुसलमानों के जनसंहार में सूबे की अगुआई करनेवाले गुजरात के मुख्यमंत्राी के विकास मॉडल की तारीफ की थी।
जनलोकपाल के इर्दगिर्द चल रही यह मुहिम के कर्ताधर्ता ‘टीम अण्णा’ के सदस्यों की पृष्ठभूमि पर रौशनी डालते हुए वह बताती हैं कि उनमें से कुछ ‘यूथ फार इक्वालिटी’ - जो आरक्षण विरोधी आन्दोलन रहा है - से सम्बद्ध रहे हैं तो कई ऐसे एनजीओ से जुड़े हैं जिन्हें कोका कोला, लेहमान ब्रदर्स जैसी अन्तरराष्ट्रीय कम्पनियों से उदारहृदय से फण्ड मिलते रहे हैं।
टीम अण्णा के अहम सदस्य अरविन्द केजरीवाल और मनीष सिसोदिया को विगत तीन सालों में फोर्ड फाउण्डेशन से 4 लाख डॉलर मिलने का भी वह जिक्र करती हैं। इण्डिया अगेन्स्ट करप्शन के दानदाताओं में कार्पोरेट समूहों से मिले चन्दे का उल्लेख करते हुए वह आगे बताती हैं कि ऐसे लोग उनमें शामिल हैं जो खुद एल्युमिनियम प्लान्ट के मालिक हैं, बन्दरगाहों का निर्माण करते हैं, विशेष आर्थिक क्षेत्र चलाते है, रीयल इस्टेट बिजनेस का संचालन करते हैं और जो वित्तीय साम्राज्य चलानेवाले राजनेताओं से नजदीकी से जुड़े हैं, जिनमें से कुछ के खिलाफ भ्रष्टाचार और अन्य अपराधों को लेकर जांच भी चल रही हैं। वह पूछती हैं कि यह कार्पोरेट सम्राट आखिर इतने उत्साही क्यों हैं ? वह स्पष्ट करती हैं कि जन लोकपाल बिल की मुहिम तभी आगे बढ़ी जब विकीलिक्स या 2 जी घोटाले का रहस्योद्घाटन हुआ था और कई कार्पोरेट सम्राटों के जेल में जाने की सम्भावना दिख रही थी।
उनके मुताबिक ‘‘एक ऐसे वक्त में जब राज्य अपने पारम्पारिक कर्तव्यों से विमुख हो रहा है और कार्पोरेशन्स एवं एनजीओ सरकारी कामकाज का संचालन करने लगे है (पानी की आपूर्ति, बिजली, परिवहन, दूरसंचार, खदानें, स्वास्थ्य, शिक्षा) ; एक ऐसे वक्त़ में जब कार्पोरेट मिल्कियतवाली मीडिया जो लोगों के कल्पनाजगत/तसव्वुर को भी नियंत्रित करने की स्थिति में दिखती है कोई यह सोच सकता है कि ऐसी संस्थाएं - कार्पोरेशन्स, मीडिया और एनजीओ को - लोकपाल बिल के दायरे में लिया जाएगा। इसके बजाय, प्रस्तावित बिल उन्हें पूरी तरह बख्श देता है।
‘‘अब किसी अन्य की तुलना में अधिक जोर से नारे लगाते हुए, एक ऐसी मुहिम को प्रोत्साहित करते हुए जिसके निशाने पर बेईमान राजनेता और सरकारी भ्रष्टाचार है, उन्होंने बेहद होशियारी के साथ अपने आप को बचा लिया है। सबसे ख़राब बात तो यह है कि सिर्फ सरकार को ही राक्षस के तौर पर पेश करते हुए उन्होंने अपने लिए एक ऐसे मंच का गठन किया है जहां से वह यह आवाज़ बुलन्द कर सकते हैं कि सार्वजनिक दायरे से राज्य को हटना चाहिए और सुधारों का दूसरा दौर - अधिक निजीकरण, सार्वजनिक अवरचना तथा प्राकृतिक संसाधनों तक अधिक सुगमता - भी शुरू होना चाहिए। अब वह वक्त़ दूर नहीं जब कार्पोरेट भ्रष्टाचार को कानूनी बनाया जाए और उसे लॉबिंग शुल्क के तौर पर सम्बोधित किया जाए।’’
5.
संविधान को देश के नाम सौंपते हुए डा अम्बेडकर की तीसरी चेतावनी ‘‘नायक पूजा’’ को लेकर थी। वह इस राजनीतिक संस्कृति को लेकर बेहद चिन्तित थे जहां लोग ‘‘महान लोगों के कदमों पर अपनी आज़ादियों न्यौछावर करते थे या उन पर इस तरह यकीन करते थे कि वह उनकी संस्थाओं को अन्दर से खोखला कर सकें।’’...यह चेतावनी अन्य किसी मुल्क की तुलना में भारत की जनता के सन्दर्भ में सबसे अधिक जरूरी थी क्योंकि यहां भक्ति, या जिसे भक्ति का मार्ग कहा जा सकता है, वह अन्य मुल्कों की तुलना में यहां की राजनीति में काफी काम करता है, ऐसा अम्बेडकर का कहना था। उन्होंने आगे कहा कि भक्ति या धर्म में नायक पूजा से आत्मा को मुक्ति मिल सकती है, मगर राजनीति में, भक्ति या नायक पूजा, पतन और अन्ततः अधिनायकवाद में ही परिणत हो सकता है।
(अम्बेडकर्स वे एण्ड अन्ना हजारेज् मेथडस्, प्रो. सुखदेव थोरात, द हिन्दू 23 अगस्त 2011)
चर्चित अर्थशास्त्राी प्रभात पटनायक अपने आलेख ‘मेसियानिजम वर्सस डेमोक्रेसी’ (‘मसीहाई बनाम जनतंत्रा’ द हिन्दू 24 अगस्त 2011) में अण्णा हजारे को सर्वोच्च नेता पद स्थापित करनेवाले इस आन्दोलन की जनतंत्र विरोधी प्रवृत्तियों की विवेचना करते हैं। उनका कहना है कि ‘विशिष्ट किस्म की यह राजनीति, जिसे हम ‘मेसियानिजम’ (मसीहाई) कह सकते हैं, सारतः जनतंत्रा विरोधी है। यह हकीकत कि इसने लोगों के एक हिस्से को आन्दोलित किया है ...यह हमारे लिए गम्भीर चिन्ता का विषय होना चाहिए, क्योंकि यह हमारे समाज की पूर्वआधुनिकता और हमारे जनतंत्रा की जड़ों के खोखलेपन को ही रेखांकित करता है।’’
वह आगे कहते हैं कि ‘‘जनतंत्र का मतलब समाज के मामलों को आकार देने के लिए लोगों को कर्ता (subject सब्जेक्ट) की भूमिका प्राप्त होना। वे न केवल समय समय पर विधायिकाओं के लिए अपने प्रतिनिधि चुनते हैं, बल्कि प्रदर्शनों, हड़तालों, सभाओं एवं रैलियों के जरिए सक्रिय ढंग से हस्तक्षेप कर अपने चुने हुए प्रतिनिधियों को अपने मूड से अवगत कराते हैं।
यह तभी सम्भव हो सकता है, लोगों का पर्याप्त जानकार होना आवश्यक है। आम सभाएं जहां नेतागण मुद्दों पर रौशनी डालते हैं, मीडिया रिपोर्टों, लेखों, चर्चाओं के जरिए यह सुनिश्चित भी किया जाता है। समूची कवायद का मकसद होता है अवाम की कर्ता भूमिका को बढ़ावा देना, जहां नेता महज उत्प्रेरक (फेसिलिटेटर) की भूमिका में होते हैं। करिश्माई नेता भी अपने आप को लोगों से प्रतिस्थापित नहीं करते हैं, वह करिश्माई इसीलिए समझे जाते हैं कि कर्ता भूमिका निभाने के लिए सूचना हासिल करते लोग, नेताओं पर यकीन करते हैं।’’
उनके हिसाब से ‘मसीहाई एक तरह से सामूहिक कर्ता, पीपुल/अवाम, को व्यक्तिगत कर्ता से अर्थात मसीहा से प्रतिस्थापित करता है। लोग भले ही अच्छी खासी तादाद में शामिल हों और बड़े उत्साह एवं उमंग से मसीहा द्वारा ली गयी गतिविधियों का जयजयकार करें, जैसा कि रामलीला मैदान से आ रही ख़बरें बताती हैं, लेकिन यह सब वे दर्शक के तौर पर करते हैं।
कार्रवाई/एक्शन मसीहा का होता है ; लोग महज उत्साही एवं पक्षधर समर्थक और चीयरलीडर्स होते हैं।...जब वे रामलीला मैदान पर इकट्ठा होते हैं तो इस अवसर का इस्तेमाल उनके प्रबोधन के लिए नहीं किया जाता, न उन्हें बताया जाता है कि सरकारी लोकपाल बिल एवं जनलोकपाल बिल में बारीकी में क्या फर्क है ताकि वह विवेकपूर्ण ढंग से फैसला ले सकें। उल्टे कोशिश यही रहती है कि उनका प्रबोधन किए बगैर उनमें जोश भर देने की.. ‘अण्णा इज इंडिया या इंडिया इज अण्णा’ इसी का प्रतिबिम्बन करता है।’’
मसीहाई राजनीतिक गतिविधि किस तरह लोगों को सुन्न बना देती है इसकी चर्चा करते हुए वह आगे लिखते हैं कि ‘जिस तरह बालीवुड की फिल्म में हिरो अकेले ही विलेन का खातमा कर देता है, उसी तर्ज पर मसीहाई गतिविधि में ‘फाइटिंग’ का समूचा काम अर्थात कर्ता की भूमिका मसीहा को सौंपी जाती है, लोगों की उपस्थिति महज ताली पीटने के लिए होती है।....
जब टीम अण्णा अपने आप को ‘‘पीपुल/अवाम’’ के तौर पर सम्बोधित करती है (अपने बिल को ‘‘पीपुल्स बिल’’ कहना या अपने नज़रिये को ‘‘पीपुल्स’’ का नज़रिया कहना) वह एक तरह से यही बात सम्प्रेषित करती है कि मसीहाई ही जनतंत्र है।’’
उनके मुताबिक ‘‘अगर अण्णा ही पीपुल/अवाम है, तो जनतंत्रा, जहां लोग ही सर्वोच्च होते हैं, उसका तकाज़ा है कि किसी अन्य संस्करण की तुलना में अण्णा के बिल को ही पारित किया जाए.. संसद पर लोगों की सर्वोच्चता का अर्थ फिर यही निकलता है कि अण्णा की आवाज़ संसद पर हावी है।’’मसीहाई का अर्थ यही निकलता है कि ‘अण्णा के बिल को ही संसद को पारित करना पड़ेगा।’ अपने आलेख के अन्त में वह पूछते हैं: ‘‘अगर लोग ‘‘मसीहाई’’ को ‘‘जनतंत्र’’ के बरअक्स चुनते हैं, तब इसमें गलत क्या है ? दरअसल यह कोई जरूरी नहीं कि रामलीला मैदान में पहुंचनेवाले या महानगरों में अण्णा के समर्थन में जुलूस में जानेवाले लोगों को मुल्क की ‘‘अवाम’’ में शुमार किया जाए और यह खतरनाक होगा अगर हम दोनों को समकक्ष रखें। इसके अलावा, अगर किसी मुकाम पर लोगों का बहुमत किसी मसीहा को संसद से ऊपर स्थापित करने की कोशिश करता है, तो यह कोई कारण नहीं बनता कि हम संवैधानिक व्यवस्था को बदल दें, जिस तरह किसी खास वक्त़ पर अगर बहुमत धर्मनिरपेक्षता का परित्याग करना चाहे, तो इसका मतलब यह नहीं होगा कि हम उसे स्वीकारें। अगर सरकार कार्यसाधकता के नाम पर मसीहाई कबूल करती है, तो इसका मतलब होगा संविधान की मूल भावना का उल्लंघन और लोकतंत्रा को कमजोर करना।
इसके अलावा, ऐसी अनुमति से बहुरंगी (अर्द्धधार्मिक ) किस्म के मसीहा उग आएंगे, जो लोगों को अपने वश में रखने के लिए आपस में होड़ मचाएंगे या एक दूसरे से गठजोड़ कायम करेंगे।’’
6.
जनलोकपाल बिल को लेकर ‘टीम अण्णा’ की अगुआई में चल रही इन सरगर्मियों पर और भी बहुत कुछ लिखा गया है या लोगों की छोटी बड़ी सक्रियताओं से भी सामने आया है।
मुख्यधारा का मीडिया भले ही मौन बरते मगर रामलीला मैदान के अनदेखे एवं अनसुने हाशियों पर हम अल्पसंख्यक एवं हाशिये के समूहों के बीच बढ़ते बेचैनी के स्वरों को आसानी से सुन सकते हैं। भले ही रामलीला मैदान पर कायम साम्प्रदायिक सद्भाव की भावना को प्रोजेक्ट करने हेतु मुस्लिम बच्चों के रमजान का रोजा अण्णा हजारे के हाथों सार्वजनिक तौर पर खोलने की तस्वीरें प्रकाशित हुई हैं, मगर दलित, मुस्लिम एवं ईसाई नेताओं से बात करने पर यह स्पष्ट होता है कि आन्दोलन का चेहरा बने लोगों या भीड़ से उठनेवाली आवाज़ों से उनमें किस किस्म की बेचैनी घर कर रही है।
इण्डियन एक्स्प्रेस की अपनी रिपोर्ट ‘व्हाय द रामलीला सर्ज वरीज् माइनॉरिटीज एण्ड दोज आन मार्जिन्स’ सीमा चिश्ती इसके बारे में उनके साथ चली अन्तर्क्रिया को साझा करती हैं (25 अगस्त 2011)। अण्णा की मुहिम को वाजिब ठहराते हुए, या उन्हें गिरफ्तार करने के निर्णय की भर्त्सना करते हुए वह इस बात को स्पष्ट करते हैं कि इन क्रियताओं में ‘जनतांत्रिक आजादी और अधिकार को सुरक्षित रखनेवाली संस्थाओं के प्रति ही तिरस्कार दिखाई देता है। टीम अण्णा द्वारा संसद को खारिज किए जाने को वह प्रातिनिधिक राजनीति को ही खारिज करने के तौर पर देखते हैं.. वरूण गांधी का रामलीला मैदान पर पदार्पण भी उनकी इन शंकाओं को मजबूती देता है जिसने 2009 के अपने ‘मुस्लिमविरोधी भाषण में ‘‘हिन्दुओं पर उंगली उठानेवाले हाथों को ही काट देने की’’ धमकी दी थी।
मुस्लिम बुद्धिजीवियों एवं सामाजिक-राजनीतिक कार्यकर्ताओं में बढ़ती बेचैनी की छाया उर्दू अख़बारों पर भी दिखती है। वे बताती हैं कि 17 अगस्त को मुम्बई, कानपुर, बरेली, लखनउ और दिल्ली से निकलने वाले ‘इन्कलाब’ अख़बार ने समुदाय के तमाम नेताओं से बात की, जिनका सम्मिलित स्वर यही था:ः हम एक सख्त लोकपाल की जरूरत से सहमत हैं मगर जिन तरीकों से उसे आगे बढ़ाया जा रहा है, उससे हमारी सहमति नहीं है।’
दरअसल आन्दोलन पर बारीकी से निगाह रखनेवाले लोग अण्णा के साथ जुड़नेवाली शख्सियतों से भी चिन्तित हैं। ‘रामदेव फिलवक्त भले ही पीछे हटें हो, मगर श्री श्री रविशंकर एवं उनके आर्ट आफ लीविंग के बारे में सवाल हैं और आरक्षण विरोधी ‘यूथ फार इक्वालिटी’ को दिए जा रहे मंच पर भी लोगों के सवाल हैं। आर्ट आफ लीविंग से जुड़े युवाओं ने टेक्सास में पिछले दिनों हिन्दु एकता दिवस में सहभागिता की थी। इसके अलावा मंच पर सुब्रह्यण्यम स्वामी भी स्थान पाए जिन्होंने पिछले दिनों एक अख़बारी लेख में यह लिखा था कि मुसलमान अगर अपनी ‘‘हिन्दु विरासत’’ से इन्कार कर दें तो उन्हें मताधिकार से वंचित किया जाना चाहिए।’’
उनके मुताबिक टीम अण्णा के सदस्यों - अरविन्द केजरीवाल, किरण बेदी - पर भी कई सवाल हैं। वे लिखती हैं कि ‘‘केजरीवाल एवं बेदी ने यूथ फार इक्वालिटी और आर्ट आफ लीविंग के मंचों से भाषण दिए हैं। मिसाल के तौर पर, 1 मार्च 2009 को इन दोनों ने यूथ फार इक्वालिटी के सम्मेलन को सम्बोधित कर आतंकवाद और भ्रष्टाचार पर बात की थी। यूथ फार इक्वालिटी घटते अवसरों के लिए आरक्षण को जिम्मेदार मानता है।’’
मालूम हो कि जब अप्रैल के अण्णा के अनशन के बाद टीम अण्णा एवं सरकार की तरफ से दस सदस्यीय कमेटी का गठन किया गया था, तभी से लोकपाल का मसविदा बनाने वाली कमेटी में दलितों, आदिवासियों या अल्पसंख्यकों के प्रतिनिधि की गैरमौजूदगी की बात उठी थी। जब अण्णा हजारे के नेतृत्ववाली ‘सिविल सोसायटी’ के टीम से यह पूछा गया था कि उन्होंने इस पहलू पर गौर क्यों नहीं किया तब इन लोगों ने सारा मामला सरकारी टीम पर डाल दिया था। यह अकारण नहीं कि जनलोकपाल को लेकर एक प्रतिक्रिया यहभी आयी है कि राजनीति में दलित पिछड़ों की जबसे दखल बढ़ी है तबसे ‘लोकपाल’ नामक डण्डे से इसे दबाने की यह एक किस्म की ‘द्विज प्रतिक्रिया’ है।
अभी ज्यादा दिन नहीं बीता है (24 अगस्त 2011) जब दिल्ली के इण्डिया गेट से जन्तर मन्तर तक दलितों, अल्पसंख्यकों एवं हाशिये पर पड़े अन्य लोगों की तरफ से ‘आल इण्डिया कान्फेडरेशन आफ एससी/एसटी आर्गनायजेशन्स’ की पहल पर ‘संविधान बचाओ रैली’ का आयोजन किया गया था। डा अम्बेडकर की तस्वीर के साथ चल रहे रैली में शामिल लोगों ने अण्णा हजारे के तौरतरीकों की मुखालिफत करते हुए यह ऐलान भी किया कि वह प्रधानमंत्राी को एक ज्ञापन भी सौंपेंगे ताकि संसद की स्थायी समिति के सामने बहुजन लोकपाल बिल प्रस्तुत करने के लिए समान अवसर मिले।
रैली को सम्बोधित करते हुए परिसंघ के नेता उदित राज ने कहा कि यह सही है कि भ्रष्टाचार एवं महंगाई सभी को प्रभावित करती है, लेकिन इसके खिलाफ संघर्ष के नाम पर डा अम्बेडकर द्वारा बनाए संविधान को कमजोर नहीं किया जा सकता।
अनुसचित जाति/जनजाति, अल्पसंख्यकों के सरोकारों पर जनलोकपाल बिल के मौन की भी आलोचना की गयी। मालूम हो कि प्रस्तावित बहुजन लोकपाल बिल में ‘‘निजी कार्पोरेशन्स, गैर सरकारी संगठनों को भी लोकपाल के दायरे में लाने की मांग रखी जाने वाली है तथा लोकपाल के गठन में हाशिये के तबकों को आनुपातिक प्रतिनिधित्व एवं लोकपाल की संस्था के ऊपर संसद की वरीयता जैसे प्रावधानों पर भी जोर दिया जानेवाला है।’’
7.
स्पष्ट है कि यह मौजूदा संकट भारत के प्रातिनिधिक जनतंत्र की प्रचण्ड नाकामयाबी से उपजा है, जिसमें जहां अपराधी संसद/विधायक बनते हैंे और अरबपति सियासतदां, जिन्होंने जनता की नुमाइन्दगी करना छोड़ दिया है। एकभी ऐसी जनतांत्रिक संस्था नहीं दिखती है जो आम लोगों के लिए सुगम हो। यह सोचने का सवाल है कि मुल्क की 85 करोड़ जनता जो बमुश्किल 20 रूपए प्रतिदिन कमाती है, वह क्या उन्हीं नीतियों से लाभान्वित होगी, जिन्होंने उसके दरिद्रीकरण को त्वरान्वित किया है ?
बीते चन्द दिनों की घटनाएं इस बात की गवाह हैं कि जनता लूटखसोट के सिलसिले से मुक्ति चाहती है और भ्रष्टाचारमुक्त स्वच्छ शासन-प्रशासन चाहती है और इसलिए वह सड़क पर उतरने को भी तैयार है। बेईमानी के प्रतीक बने चन्द लीडरानों को सलाखों के पीछे भेजने की रस्मी कार्रवाई से कत्तई सन्तुष्ट नहीं है। प्रश्न उठता है कि नेताशाही- फसरशाही-पूंजीशाहों की मिलीभगत से चल रही खजाने की इस लूट पर, जनता की गाढ़ी कमाई के जारी निजीकरण पर क्या कोई मुकम्मल रोक लगायी जा सकती है ?
क्या एक और कानून बना कर या संस्था खड़ी करके इससे निपटा जा सकता है ? जाननकार बताते हैं कि आजादी के बाद 64 से अधिक कानून बने हैं या नियामक संस्थाएं बनी हैं, जांच एजेंसियां कायम की गयी हैं, ताकि भ्रष्टाचार को समाप्त किया जाए। इरादे भले ही नेक रहे हों, मगर पाते यही हैं कि जितनी भी दवा हो रही है, भ्रष्टाचार का मर्ज बढ़ता ही जा रहा है।
अगर हम बहुजन लोकपाल बिल को छोड़ भी दें लें तो अभी तक लोकपाल को लेकर चार किस्म के बिल हमारे सामने हैं। एक सरकारी लोकपाल बिल, दूसरा टीम अण्णा द्वारा तैयार किया गया जन लोकपाल बिल, ‘नेशनल कम्पेन फार पीपुल्स राइट टू इनर्फेशन एनसीपीआरआई) की तरफ से अरूणा रॉय, निखिल डे द्वारा पेश एक बिल, जनसत्ता के डा जयप्रकाश द्वारा तैयार एक मसविदा बिल।
सरकारी लोकपाल बिल तो अत्यधिक कमजोर है, जो भ्रष्टाचार करनेवाले को छह माह की सज़ा की बात करता है, मगर उस पर आरोप लगानेवाले को (अगर वे गलत साबित हुए तो) दो साल की सज़ा सुनाता है। निश्चित ही ऐसे कमजोर उपकरण से काम नहीं चलेगा। उसे बदलना ही होगा। वैसे इन दिनों भ्रष्टाचार समाप्त करने की लड़ाई में टीम अण्णा द्वारा पेश जनलोकपाल के मसविदे की अधिक चर्चा है। अण्णा का कहना है कि अगर यह कानून बना तो इससे भ्रष्टाचार में 65 फीसदी कमी आएगी। मालूम हो कि जनलोकपाल का जो खाका चर्चा के लिए पेश किया गया है, वह ऐसे दस लोगों की टीम के हाथों इस लड़ाई की कमान सौंपना चाहता है, जो एक साथ पुलिस, जांच एजेंसी तथा न्यायपालिका सभी भूमिका निभा सकता हो। हमारे मुल्क में, जहां नेताओं, नौकरशाहों के भ्रष्ट होने के जितने किस्से सुनाई देते रहते हैं, उसमें इस बात की क्या गारंटी कि ऐसी टीम के मेंम्बरान बेईमान नहीं होंगे। फिर उन पर अंकुश कौन लगाएगा ? दूसरी अहम बात यह है कि संविधान में कार्यपालिका, न्यायपालिका एवम विधायिका में कार्यविभाजन किया गया है, जनलोकपाल का ढांचा न केवल इस विभाजन को खारिज करता है बल्कि वह संसद से अधिक ऊपर मालूम पड़ता है।
आजादी के बाद यह पहला मौका नहीं है जब भ्रष्टाचार के खात्मे के लिए संघर्ष खड़ा हुआ है। 70 के दशक में जयप्रकाश नारायण की अगुआई में चले बिहार आन्दोलन या 80 के दशक के उत्तरार्द्ध में वी पी सिंह की पहल पर बोफोर्स घोटाले के खिलाफ जनता सरगर्म हुई थी। आखिर व्यापक जनसहभागिता के बावजूद ये आन्दोलन क्यों असफल हुए ? सार्वजनिक जीवन में शिष्टाचार बनते भ्रष्टाचार के खिलाफ जनता की बढ़ती बेचैनी की खासियत यही कही जा सकती है कि ऐसी तमाम तंजीमें मुख्यतः लीडरों या उनकी अगुआई में जारी अनियमितताओं पर ही केन्द्रित रहती आयी है। लाजिम है सरगर्मियों का जोर बढ़ने पर किसी कलमाडी को या किसी कानिमोझी को जेल भले हो जाए, भ्रष्टाचार के नासूर पर इससे कोई आंच नहीं आती। उन्हांेने उन संरचनात्मक कारणों की लगातार अनदेखी की है कि भ्रष्टाचार -जिसे आम जनमानस में भी ‘अवैध लूट’ का दर्जा हासिल है - का मुल्क की आर्थिक नीतियों से क्या रिश्ता हो सकता है। एक अहम सवाल हमेशा ही पीछे छूटता रहा है कि कि ‘अवैध लूट’ का उजागर होता हिमखण्ड का सिरा पूंजी के इस निजाम में सहजबोध बने ‘वैध लूट’ के विशाल हिमखण्ड से किस तरह जुड़ा है।
अगर हम 2 जी स्पेक्ट्रम आवण्टन घोटाले को लेकर कन्ट्रोलर एण्ड आडिटर जनरल की रिपोर्ट को पलटें, जिसके मुताबिक इसमें राष्ट्रीय सम्पदा को 1 लाख 70 हजार करोड़ रूपए का नुकसान हुआ, तो अस्सी के दशक में सामने आया बोफेार्स घोटाला ‘बच्चों का खेल’ मालूम हो सकता है। ( याद रहे कि बोफोर्स की दलाली ही वह मुद्दा बनी थी जब वी पी सिंह की अगुआई में पूरे मुल्क में भ्रष्टाचार के खिलाफ सरगर्मी बनाने की कोशिश हुई थी, जिसकी परिणति केन्द्र की हुकूमत से कांग्रेस की बेदखली में हुई थी। ) कहने का तात्पर्य यह कि विगत दो दशकों में भ्रष्टाचार में जबरदस्त उछाल आया है।
आखिर क्या वजह रही होगी इस उछाल के पीछे। भ्रष्टाचार बनाम सदाचार जैसे द्विविध अर्थात बाइनरी में यकीं रखनेवाले लोग कह सकते हैं कि इसका ताल्लुक लोगों के अधिक बेईमान होते जाने से जुड़ा है। निश्चित ही यह स्पष्टीकरण नाकाफी है।
एक बात जो आसानी से समझ में आती है कि इस दौरान मुल्क की आर्थिक नीतियों ने एक तरह से करवट ली है। विदित हो कि 90 के दशक में राव-मनमोहन सिंह जोड़ी के सत्तासीन होने के बाद आजादी के बाद से चली आ रही आर्थिक नीतियों के साथ एक रैडिकल विच्छेद किया गया था और बाजारशक्तियों को खुली छूट देने का सिलसिला तेज हुआ था, उदारीकरण-निजीकरण की नीतियों के लिए रास्ता सुगम किया गया था।
नवउदारवादी आर्थिक फलसफे के तहत राज्य द्वारा आर्थिक गतिविधियों में प्रत्यक्ष हस्तक्षेप को न केवल निरूत्साहित किया गया था बल्कि साथ ही साथ पूंजीपतियों की आर्थिक गतिविधियों पर राज्य द्वारा पहले से चले आ रहे नियमनों को लगातार ढीला किया जाता रहा। यही वह दौर था जब तमाम नए पूंजीपति सामने आए जो जल्द ही पहले से स्थापित पूंजीपति घरानों को टक्कर दे सकते थे।
निचोड के तौर पर 1991 के पहले के दौर और 91 के बाद के दौर की तुलना करें तो कई फरकों को आसानी से देख सकते हैं। 91 के पहले के दौर की खासियत के तौर पर चन्द बातें चिन्हित की जा सकती हैं: राज्य का नियमन, पूंजी पर नियंत्राण, उदा मोनोपाली एण्ड रिस्ट्रिक्टिव प्रेकिटसेस एक्ट, आयात प्रतिस्थापन, आर्थिक विकास दर धीमी, वहीं 91 के बाद साफ तौर पर राज्य के नियमन में कमी, पूंजी को खुली छूट, उदारीकरण-निजीकरण-भूमण्डलीकरण की नीतियां, बाजारशक्तियों को खुली छूट, विकास दर तेज आदि बातें नज़र आती हैं।
अर्थशास्त्राी देव कार द्वारा ‘ग्लोबल फाइनान्शियल इन्टिग्रिटी’ की तरफ से सम्पन्न अध्ययन ‘ड्रायवर्स एण्ड डायनामिक्स आफ इलिसिट फाइनान्शियल फ्लोज फ्रॉम इण्डिया 1948-2008’ का अनुमान है कि विगत 61 सालों में भारत से गैरकानूनी वित्तीय प्रवाह की मात्रा 462 बिलियन डॉलर रही है, जबकि इस राशि का 68 फीसदी आर्थिक सुधारों के बाद के 18 वर्षों में हुआ है। (आनन्द तेलतुम्बडे का साक्षात्कार, हार्डन्यूज }
लोकपाल बिल पर तेज हुई चर्चा को भी हम अन्तरराष्ट्रीय मुद्रा कोष/विश्व बैंक के ‘नियामक’ ढांचे में देख सकते हैं जिनकी आवश्यकता बाजार चूकों को नियंत्रित करने के लिए आवश्यक समझी जा सकती है। निश्चित ही वह भ्रष्टाचार के ढांचागत या व्यवस्थागत पहलुओं से दूर से भी ताल्लुक नहीं रखती।
कहने का तात्पर्य यही कि भ्रष्टाचार महज पोलिटिकल क्लास की बेईमानी (जो अपने आप में एक विराट परिघटना है) का मसला नहीं है बल्कि उसका ताल्लुक हुकूमत म्भालनेवालों की तरफ से अपनायी जाती आर्थिक नीतियों से भी अभिन्न रूप से जुड़ा मसला है।
मिसाल के तौर पर हम कार्पोरेट क्षेत्रा को मिलनेवाली छूट को देखें, क्या उन्हें हम नीति का हिस्सा मान सकते हैं या भ्रष्टाचार का ? उदाहरण के लिए विडिओकान नामक चर्चित कम्पनी के बारे में ख़बर आयी थी कि उसने टैक्स बचाने तथा अन्य वजहों से तीन सौ सबसिडीअरी कम्पनियों का निर्माण किया है और यह सब ‘कानूनन’ किया है। उसी तरह से पिछले दिनों किंगफिशर एयरलाइन्स के बारे में समाचार छपा कि उसे कर्जे से उबारने के लिए सरकारी बैंकों से कहा गया है जो उन्हें बेहद सस्ते दर पर ऋण मुहैया कराएंगी। सरकारी बैंकों के नानपरफार्मिंग एसेटस अर्थात ऐसे ऋण जो लम्बे समय से लौटाए नहीं गए हैं, उनका भी वही किस्सा है। कुछ समय पहले सीपीआई से सम्बद्ध टेªड यूनियन के नेता ने अख़बार को बताया था कि किस तरह बैंकों के एनपीए का नब्बे फीसदी से अधिक हिस्सा बड़े छोटे पूंजीपति घरानों के नाम होता है, जो कभी उसे लौटाने की बात भी नहीं करते और कुछ समय बाद ‘खराब कर्जे’ कह कर उसे लेखाजोखा विवरण से भी हटा दिया जाता है। आम किसान या मजदूर द्वारा लिए गए छोटे मोटे कर्जे की वापसी न होने पर उसे गिरफ्तार करने के लिए पहुंचती सरकारी मशीनरी ऐसे कर्जो पर नोटिस भेजना भी मुनासिब नहीं समझती। स्पेशल इकोनोमिक जोन्स अर्थात विशेष आर्थिक क्षेत्रा की बहुचर्चित नीति को भी देखें जहां अरबों रूपए के भूखण्ड मामूली दामों पर पूंजीपति घरानों को सौंपे जाते हैं जहां अपने मनमाफीक नियम बना कर काम कर सकते हैं, उसे क्या कहेंगे।
कहने का तात्पर्य यह कि किसी अलसुबह सारे नेतागण/नौकरशाह अपनी सामाजिक जिम्मेदारी को पूरी तरह निभाते हुए काम करने लग जाएं तो भले सरकारी संसाधनों की ‘अवैध कही जा सकनेवाली लूट’ भले बन्द होगी मगर वह सिलसिला पूरी ‘वैधता’ के साथ चलता रहेगा, जो सरकारी नीतियों की छत्राछाया में ही उमड़ता दिखता है। सार्वजनिक जीवन में भ्रष्टाचार को लेकर चलनेवाली ऐसी तमाम मुहिमें कभी लीडरों की अपारदर्शिता या कभी नेताओं की भविष्यदृष्टि की कमी के चलते अधबीच में ही समाप्त हुई हैं। क्या यह माना जा सकता है कि श्रमशक्ति की लूट पर टिका वर्तमान समाज, जहां इस ‘वैध लूट’ का सिलसिला बिल्कुल विधिसम्मत है, वहां समाज के इस केन्द्रीय मसले को सम्बोधित किए बगैर हम ‘अवैध लूट’ के सिलसिले को रोक सकेंगे ? ‘मै अण्णा हूं’ लिखी गांधी टोपी को फक्र के साथ पहने लोगों को इस मसले पर गम्भीरता से सोचना चाहिए।
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